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Magazine - Year 1965 - Version 2

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सत्यं-शिवं-सुन्दरम् और उनकी विवेचना

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महामनीषियों, ऋषियों और तत्ववेत्ताओं ने मानव-जीवन का जो सार खोज निकाला है, वह सत्यं, शिवं, सुन्दरम् की त्रिपुटी में सन्निहित है। जिस मनुष्य के जीवन में सत्य, शिव और सुन्दर की अवतारणा हो गई वह हर प्रकार से धन्य ही माना जायेगा। क्या लोक, क्या परलोक उसके लिए हर प्रकार से सार्थक तथा सुखदायक बन जाते हैं।

सत्यं, शिवं, सुन्दरम् की अनुभूति प्राप्त कर लेने पर फिर कुछ पाना शेष नहीं रह जाता। जीवात्मा जिस अनन्त एवं अक्षय आनन्द के लिए छटपटाता रहता है वह इन्हीं त्रितत्वों के अधीन रहता है। इनको पा लेने का अर्थ है आनन्द पा लेना।

धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के क्रम में जिस प्रकार धर्म प्रथम है उसी प्रकार सत्यं, शिवं, सुन्दरम् क्रम में सत्य का प्रथम स्थान है। इन क्रमों में प्राथमिकता का अर्थ है प्रधानता। बिना धर्म के अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति असंभव है और बिना सत्य के शिवं एवं सुन्दरम् का कोई अस्तित्व नहीं है। जो सत्य है वही शिव और सुन्दर है और जो शिव तथा सुन्दर है उसको सत्य होना ही चाहिए। शिव एवं सुन्दरम् को सत्य का ही परिणाम मानना चाहिए। जो सत्य का उपासक है उसे शिवं तथा सुन्दरम् की प्राप्ति स्वयं ही हो जाती है। अस्तु जीवन की सफलता तथा सार्थकता के लिए मनुष्य को सत्य की खोज और उसकी उपासना में ही संलग्न होना चाहिये।

सत्य क्या है उसका निवास कहाँ है और उसे किस प्रकार पाया जा सकता है ? इन प्रश्नों का उत्तर है कि सत्य किसी भी वस्तु-विषय का वह अंतिम स्वरूप हैं जिसमें किसी विकार अथवा परिवर्तन का अवसर न हो। सत्य का निवास संसार के प्रत्येक अणु में है और वह विश्वासपूर्ण जिज्ञासा के बल पर पाया जा सकता है।

इस संपूर्ण सृष्टि में जो कुछ प्रत्यक्ष रूप में दिखाई दे रहा है वह चिरन्तन सत्य नहीं है। क्यों कि वह किसी विषय का विकृत स्वरूप है और प्रत्येक क्षण परिवर्तनशील है। सत्य की खोज करने के लिये किसी विषय के बाह्य स्वरूप से हटकर उसके अन्तःरूप की ओर दृष्टि डालनी होगी। उसके आदिम तथा अन्तिम रूप को खोज निकालना होगा। हम जो कुछ भी चर-अचर एवं जड़ चेतन प्रत्यक्ष रूप में देख रहे हैं वह सृजन है, निर्माण है, जो किसी तत्व विशेष द्वारा निर्मित हुआ है। किसी भी वस्तु का वह आदि तत्व ही चिरन्तन सत्य है जो आज में पुनः अपने आदि स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो क्या मनुष्य, क्या वनस्पति, क्या पशु, क्या पक्षी अपने वर्तमान रूप में सत्य नहीं है। इनका सत्य स्वरूप उस तत्व में निहित है जिसकी सहायता से इन सबका सृजन हुआ है और वह तत्व एक मात्र परमात्मा ही है। परमात्मा की उपासना सत्य की उपासना और सत्य की उपासना परमात्मा की उपासना है।

उपयुक्त सत्य की जो विवेचना की गई है वह तात्विक दृष्टि से चरम सत्य की विवेचना है। किन्तु यही चरम सत्य संसार में जब व्यावहारिकता का रूप धारण करता है तब इसका स्वरूप उसी प्रकार से कुछ बदल जाता है जिस प्रकार ईश्वर रूप होते हुए भी मनुष्य-विग्रह में उसकी उपाधि मनुष्य ही है। मनुष्य ईश्वर का व्यावहारिक रूप है जो सृष्टि की सहायता से आत्म-स्वरूप की अभिव्यक्ति के लिये ही सारे व्यवहार करता है। मनुष्य का सारा क्रिया कलाप अपने सत्य स्वरूप को ही प्राप्त करने का उपक्रम मात्र है।

इस विविधता पूर्ण संसार में सत्य के भी विविध रूप हैं, जिनका व्यवहार करते हुए मनुष्य एक दूसरे को आत्म रूप की ओर अग्रसर होने में सहयोग करते हैं।

संसार में जो भी व्यवहार व्यापार अथवा आचार किया जाय वह सत्य ही होना चाहिए। क्योंकि सत्य से शून्य कोई भी आचार व्यवहार मनुष्य को प्रतिकूल दिशा की ओर ले जाता है जिससे वह आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के स्थान पर आत्म-विस्मृत के अन्धकार में फँस जाता है। यही कारण है कि तत्ववेत्ताओं ने मिथ्याचार को हर स्थिति में सर्वथा वर्जित ही बताया है।

मनुष्य का वह प्रत्येक कार्य मिथ्याचार ही है जो किसी भी काल में उसको अथवा किसी दूसरे को दुःखदायी होता है। व्यवहार जगत में ऐसे अनेक अवसर आ जाया करते हैं जब सत्य, असत्य के और असत्य सत्य के रूप अर्थ में लिया जा सकता है। मानिये कोई आततायी किसी को मारने के लिये उसका पीछा करता हुआ आता है और वह आदमी आपके देखते एक स्थान पर छिप जाता है। आततायी आकर आपसे पूछता है कि क्या आपने देखा है कि वह आदमी कहाँ छिप गया है। आप ठीक-ठीक जानते हुए कि वह कहाँ छिपा हुआ है-आततायी को क्या उत्तर देंगे? यदि आप उस आदमी का ठीक-ठीक पता बतला देते हैं तो वह आदमी मारा जायेगा और आप हत्या के भागीदार बनेंगे और यदि आप ठीक ठीक पता नहीं बतलाते तो झूठ बोलते हैं। ऐसे अवसर पर कोई भी करणीय अथवा अकरणीय के असमंजस में पड़ जायेगा।

इस प्रकार के असमंजस के समय आपको निर्णय करने से पहले यह विचार करना होगा कि आप उस समय व्यवहार जगत में वर्त रहे हैं अथवा अध्यात्म जगत में। यदि अध्यात्म जगत में वर्त रहे हैं तो निर्लिप्त भाव होने से ‘हाँ’ और ‘न’ दोनों स्थितियों में आप पाप के भागी न बनेंगे। उस समय आपका वही उत्तर सत्य होगा जो सहसा प्रथम बार ही आपके अन्तःकरण में प्रतिध्वनित होगा। ‘हाँ’ अथवा ‘न’ कोई भी उत्तर देने के बाद यदि आपके अन्तःकरण में कोई द्वन्द्व नहीं उठता और तत्काल उस घटना को भूलकर आत्मस्थ हो जाते हैं तो आपका कोई भी उत्तर निष्फल होगा जिसका परिणाम न पाप होगा और न पुण्य!

यदि आप उस समय व्यवहार जगत में चेष्टावान हैं तो आपको अपने कथन की उपयोगिता एवं परिणाम देख कर उत्तर देना होगा जिसमें अधिक से अधिक मानवीय हित का समावेश हो आपका वही उत्तर उचित होगा।

उपरोक्त स्थिति विशेष में आपका निषेधात्मक उत्तर ही ठीक है क्योंकि उस प्रकार किसी एक निरपराध की जीवन रक्षा होगी और आततायी तात्कालिक हत्या के पाप से बच जायेगा और इस प्रकार आप एक सामयिक सत्य की रक्षा करेंगे।

इसके अतिरिक्त यदि आप आततायी से भयभीत होकर प्रच्छन्न व्यक्ति का पता बतला देते हैं और यह सोच लेते हैं कि वह व्यक्ति मारा जायेगा, तो मारा जाये, मैंने तो सत्य ही बोला है तो आपका वह सत्य घोर असत्य है, जिसके लिये आप पाप के भागी होंगे।

इसी प्रकार की एक अन्य स्थिति में यदि कोई अपराधी आपकी जान में छिपा हुआ है और उसकी तलाश में पुलिस आप से पूछती है तो आपका यह सोचकर न बतलाना कि बेचारा पुलिस के फंदे में फँसकर दण्ड पायेगा-तो आप की वह दया एक घोर असत्य ही है ! निरपराधी तथा अपराधी की रक्षा में समानता नहीं हो सकती। फिर चाहे एक में आपको असत्य और दूसरे में सत्य कथन का सहारा ही क्यों न लेना पड़ा हो।

जिस व्यवहार जगत में हम बर्तते हैं उसमें कथन की हितकारिता ही सत्य का स्वरूप है और यही ‘सत्यं’ के साथ ‘शिवं’ का समावेश है। किन्तु कथन की हितकारिता में किसी स्वार्थ, भय, क्रोध अथवा मोह का पुट नहीं होना चाहिये।

जिस प्रकार सत्यं के साथ हितकारिता के रूप में ‘शिवं’ आवश्यक है उसी प्रकार ‘सुन्दरम्’ अर्थात् मृदुता एवं मधुरता भी सत्य का एक अभिन्न अंग है। सत्य के इस अंश ‘सुन्दरम्’ का संबंध भाषा तथा अभिव्यक्ति से है। किसी सत्य को विकृति, अतिरेकता आवेश, कटुता अथवा उपहासात्मक व्यंग के साथ सामने रखना अथवा स्वयं समझना भी एक प्रकार से असत्य की ही सेवा है। किसी नग्न सत्य को भी शिष्टता का जामा पहना कर ही सामने लाना ठीक है अन्यथा कटुता के कारण किसी को अनावश्यक कष्ट देने वाला सत्य भी असत्य का ही रूप है। इस प्रकार सत्य का स्वरूप तभी पूर्ण होता है जब वह-शिवं एवं ‘सुन्दरम्’ के साथ ही हो।

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