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Magazine - Year 1965 - Version 2

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जीवन महान कैसे बने?

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जो भी जीवित है, सजग है, सचेत तथा स्वस्थ मस्तिष्क वाला है उसमें निरन्तर बढ़ने, महान बनने की इच्छा रहती है। जो व्यक्ति जिस स्थिति में है उससे ऊपर उठने का प्रयत्न करना ही वास्तविक कर्मशीलता है। उन्नति की अभिलाषा ही अधिकाँश में मनुष्य की क्रियाशीलता को उत्तेजित करती है। सामान्य से सामान्य व्यक्ति को ही क्यों न देख लिया जाय, चाहे वह रोटी दाल तक ही क्यों न सीमित हो, तब भी वह आज की अपेक्षा कल अच्छी रोटी पाने की कामना रखता है। जिसमें अपनी वर्तमान स्थिति से आगे बढ़ने की इच्छा नहीं है उसे इस प्रकार से मृत ही मानना चाहिये। अगति जड़ता का लक्षण है जीवन का नहीं। जो जीवन है, वह एक स्थान पर खड़ा ही नहीं रह सकता।

जीवन में आगे बढ़ना, प्रगति करना कोई आकस्मिक घटना नहीं है और न यह कोई स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसके प्रवाह में कोई आगे बढ़ ही जायेगा। आगे बढ़ना, उन्नति करना एक सुनियोजित कर्तव्य है। मनुष्य अपने बल पर संघर्ष करता हुआ एक-एक कदम ही आगे बढ़ पाता है। इस भीड़ से भरी दुनिया में जहाँ लोग एक दूसरे को ढकेल कर अपना स्थान बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं वहाँ किसी लक्षित स्थान पर पहुँच सकना कोई ऐसा काम नहीं है जो यों ही बैठे बैठाये हो जायेगा! इसके लिये मनुष्य को परिश्रम, पुरुषार्थ तथा त्याग और तपस्या करनी पड़ती है। जो संघर्ष-भीरु है, स्वार्थी है, सुख-लोलुप और पलायनवादी है वह कभी भी उन्नति पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता! उन्नति और प्रगति कर्मवीरों का ही लक्ष्य है।

संसार में, उन्नतियाँ, प्रगतियाँ तथा सफलताएँ असंख्यों प्रकार की हो सकती है! नित्य हो लोग उन्नति करते देखे जाते हैं। छोटी-सी दुकान बड़ी फर्म में बदल जाती है, मशीन मिस्त्री मिल मालिक बन जाता है। झोपड़ी में रहने वाला कोठी पा लेता है और निर्धन धनवान बन जाता है, संसार में नित्य ही यह परिवर्तन होते रहते हैं। किंतु इनको वास्तविक उन्नति नहीं कहा जा सकता। वास्तविक उन्नति वह है, जिसमें अवनति अथवा ह्रास का कोई अवसर न हो ! जिस प्रकार मनुष्य निर्धन से धनवान बनता है उसी प्रकार धनवान से निर्धन बन सकता है। कोठी बिक सकती है, मिल मिट सकती है और फर्म बन्द हो सकती है।

इस प्रकार की उन्नतियाँ साँसारिक व्यवहार तथा गतिविधियों का फल है। पुरुषार्थ तथा परिश्रम का समन्वय होने पर भी ये उन्नति को उस कोटि में नहीं आती जिनके आधार पर कोई व्यक्ति महान कहा जाता है। मनुष्य की महानता कोई सामयिक वस्तु नहीं है- कि आज वह है, कल रहेगी! पतन तथा परिवर्तन से मुक्त उच्चता ही वास्तविक उन्नति है महानता है!

इस प्रकार की महानतायें केवल वे ही व्यक्ति प्राप्त कर सकते हैं, जिनके जीवन का प्रत्येक अखण्ड क्षण परहित के लिये ही होता है। जो मनुष्य मात्र की उन्नति के लिये अपने जीवन का दाँव लगा देते हैं अपना सर्वस्व समष्टि को समर्पित कर देते हैं, वे ही उस उच्च शिखर पर पहुँचते हैं जहाँ से पतन की कोई आशंका नहीं रहती।

उच्चता के अविनत-शिखर पर पहुँचने के लिये मनुष्य को अपने जीवन को एक सुगढ़ साँचे में ढालना होता है। जो अपने जीवन को सुघड़ सुन्दर और सन्नद्ध नहीं बना सकता वह कितना ही प्रतिभावान धनवान और जनवान क्यों न हो महानता की कोटि में नहीं पहुँच सकता।

महानता के उपयुक्त साँचे में ढलने के लिये मनुष्य को सबसे पहले अपने व्यक्तित्व का विकास करना होगा। जिसका व्यक्तित्व अविकसित है, अपूर्ण है, वह बहुत कुछ आगे बढ़ जाने पर भी पीछे हट सकता है। जब तक उसे निम्न अथवा समकक्ष व्यक्तित्वों से पाला पड़ता रहेगा, तब तक तो वह बढ़ता जा सकता है, किंतु ऊँचा व्यक्तित्व सामने आते ही उसे ठिठक जाना पड़ेगा। अथवा जब वह सामान्य समूह से उठकर स्तरीय समाज में पहुँचेगा तब उसके व्यक्तित्व के दब जाने की सम्भावना रहेगी।

अस्तु, उन्नति के प्रथम सोपान-व्यक्तित्व को पूर्ण विकसित कर लेना बहुत आवश्यक है। व्यक्तित्व विकास की सबसे पहली शर्त है स्पष्ट एवं असंदिग्ध होना। मनुष्य जो कुछ है, वह साफ दिखाई देना चाहिये, जो साफ नहीं दिखाई देता वह समाज का विश्वास पात्र नहीं बन पाता। ईमानदार होते हुये भी लोग उसे गैर ईमानदार तथा महान होने पर भी निम्न समझ सकते हैं।

व्यक्तित्व की दूसरी शर्त है- एक समता। मनुष्य जो स्वरूप समाज के सामने रखता है उसका आचरण भी वैसा ही होना चाहिये। दूसरों को कितना ही सन्मार्ग दिखलाने वाला, कितना ही हित चाहने वाला यदि अपने निजी आचरण में यथावत नहीं है, तो लोग उसे छली, मतलबी अथवा स्वार्थी समझ कर, दूर भागेंगे!

व्यक्तित्व की तीसरी शर्त है-शिक्षा, स्वास्थ्य स्वच्छता, सुघड़ता, शिष्टता, सभ्यता आदि गुण। जो अशिक्षित है, रोगी है, मलीन अथवा अनगढ़ है, लोग सहज ही उसकी ओर आकर्षित नहीं होते। किसी भी फूहड़ अवस्था में फूहड़ भाषा अथवा फूहड़ शैली में कितनी ही महान एवं हितकारी बात क्यों न कही जाये कोई उसे सुनना पसंद न करेगा और यदि उसकी बात सुनी भी जायगी, तो उपहास की दृष्टि से, जिसका न कोई प्रभाव होगा और न फल।

उन्नति का दूसरा सोपान है-शक्ति! जिसका शरीर, मन और आत्मा शक्तिशाली है वह ही उन्नति पथ पर आये अवरोधों से टकरा सकता है। समाज विरोधी तत्वों से मोर्चा ले सकेगा ! जो निर्बल है, साहसहीन है वह एक छोटे से विरोध को भी सहन न कर सकेगा और शीघ्र ही मैदान छोड़कर भाग जायेगा! जो संयमी है, ज्ञानवान है, निस्पृह और निःस्वार्थ है, मन प्राण, शरीर और आत्मा उस ही के स्वस्थ एवं समर्थ हो सकते हैं। इसके विपरीत जो असंयमी है, अज्ञानी है लिप्सालु और लोलुप है, उसका निर्बल होना निश्चित है, अटल है।

उन्नति का तीसरा सोपान है- अनुशासन। जो व्यक्ति अनुशासन हीन है, अस्त-व्यस्त है, बिखरे मन, चंचल बुद्धि और कम्पित आत्मा वाला है उसके विचारों तथा कर्मों में वाँछित तेज नहीं आ पाता, जिसके अभाव में वह जन-मानस में प्रवेश कर सकने में असफल रहता है, मन जीते बिना जन-समुदाय को अनुशासित रखकर उपयुक्त दिशा में नहीं चलाया जा सकता। अनुशासनहीन व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली, प्रतिभाशाली, प्रभावान और प्रतापवान् क्यों न हो किसी को अपने वश में नहीं रख सकता। उन्नति के इच्छुक व्यक्ति के लिये आत्मानुशासन उतना ही आवश्यक है जितनी समुद्र के लिये मर्यादा।

उन्नति का चौथा सोपान है- परिश्रम तथा पुरुषार्थ। इन दोनों गुणों से रहित व्यक्ति आलसी, प्रमादी तथा दीर्घ-सूत्री होता है। जो उन्नति-पथ में पहाड़ जैसे अवरोध हैं, उन्नति पथ के पथिकों के लिये क्या दिन क्या रात, क्या जाड़ा क्या गरमी, क्या धूप और क्या छाया समान होता है। उसके पास हर समय काम रहता है और हर समय उस काम का समय है। जो आलसी है, प्रमादी और दीर्घ-सूत्री है वह आज के काम को कल टालेगा, दूसरों पर निर्भर रहेगा। ऐसी दशा में उन्नति के शिखर पर चढ़ने का उसका स्वप्न ही रहेगा। बिना पुरुषार्थ, परिश्रम तथा तत्परता के संसार का कोई भी काम नहीं हो सकता।

उन्नति का पंचम सोपान है- निष्काम कर्म प्रभाव! निष्काम कर्म प्रभाव के बिना कोई भी व्यक्ति ईमानदारी से काम नहीं कर सकता। कभी उसे सफलता असफलता आन्दोलित करेगी, कभी निन्दा रुष्ट और प्रशंसा प्रसन्न करेगी। महान पथ पर जिस राग द्वेष से रहित होना आवश्यक है, बिना निष्काम कर्म प्रभाव तभी प्राप्त हो सकता है, जब मनुष्य अपने प्रत्येक कर्तव्य को परम प्रभु का आदेश समझकर उसकी शक्ति से ही, उसके लिये ही करता हुआ अनुभव करे! जो अपने प्रत्येक कर्म को परमात्मा का ही काम समझकर करेगा वह उसे पूर्ण दक्षता, पूर्ण मनोयोग तथा पूर्ण श्रद्धा से करेगा। जिसके फल स्वरूप उसे उस सर्व शक्तिमान से सामर्थ्य एवं शक्ति प्राप्त होती रहेगी। जिसने अपनी सीमित शक्ति को ईश्वर की परम शक्ति में तिरोधान कर दिया है वह उन्नति के किस शिखर पर पहुँच सकता है यह बतलाना कठिन है।

इस प्रकार जो व्यक्ति उन्नति के इन पाँच सोपानों पर पाँव रखता हुआ आगे बढ़ता है, वह निश्चय ही उस महानता को प्राप्त कर लेता है जिसका न ह्रास होता है और न पतन। ऐसी ही महानता के पद पर प्रतिष्ठित महापुरुषों को इतिहास लिखता है और संसार याद करता है।

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