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Magazine - Year 1965 - Version 2

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अखण्ड-ज्योति सदस्यों को इतना तो करना ही चाहिए।

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अखण्ड-ज्योति परिवार के सक्रिय सदस्यों को अपने स्वाध्याय और अपनी साधना तक ही सीमित रहने से काम न चलेगा, उन्हें नव-निर्माण का उत्तरदायित्व भी वहन करना होगा। उन्हें एक संगठनकर्ता, धर्मोपदेशक एवं युग-निर्माता के रूप में परिणत होना चाहिए। अपने व्यक्तिगत कार्य करते हुए इन प्रयोजनों के लिये भी उन्हें समय निकालना ही चाहिये। सेवा के बिना मानव जीवन की सार्थकता नहीं। ईश्वर की भक्ति का सच्चा स्वरूप मानव प्राणी का आन्तरिक स्तर उठाने के लिए किया गया प्रयत्न ही हो सकता है। भजन का अपना महत्व है, पर वह भजन जिह्वा की नोंक तक ही सीमित है या अन्तःकरण में भी उतरा, इसकी परीक्षा इसी बात में है कि वह लोक मंगल की दिशा में सहृदयता एवं उदारता को अपनाकर कुछ कदम आगे चलने को तत्पर हुआ या नहीं।

कहना न होगा कि संसार में सबसे बड़ी सेवा, भावनाओं के उत्कर्ष में सहायक होने की ही हो सकती है। आध्यात्मिक ज्ञान से बढ़ कर और कोई ज्ञान नहीं और जीवन को सम्मानित बनाने वाली प्रेरणा से बढ़कर और कोई अनुदान नहीं। इन परमार्थों का पुण्य फल असीम है। समस्त कर्मकाण्डों का प्रतिफल मिला कर उतना नहीं हो सकता, जितना मानवीय श्रेष्ठता का स्तर ऊँचा उठाने के लिए किए गए पुरुषार्थ साधन का होता है। ईश्वर की प्रसन्नता और भक्ति भावना की सफलता में भी इन्हीं तथ्यों की प्रधानता रहती है। पूर्व काल के मनीषियों की रीति−नीति यही थी।

अखण्ड-ज्योति पिछले 26 वर्षों से निरन्तर यह बताती चली आ रही है कि आध्यात्मिकता, आस्तिकता, साधना उपासना के साथ ‘लोक सेवा’ भी अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। उसकी उपेक्षा करने पर न किसी की साधना सफल हुई है और न होगी। हमने स्वयं इसी मार्ग का अवलम्बन किया है और जब तक जीवित है इसी मार्ग पर चलते रहेंगे। उपासना को जितना महत्व हम देते हैं उससे कम जीवन शोधन और लोक सेवा को नहीं देते। हमारी जीवन साधना में उपरोक्त तीनों तथ्य समान रूप से गुंथे रहे हैं। फलस्वरूप अधिक नहीं तो इतना कहा जा सकता है कि हमारी साधना निरर्थक नहीं गई, सार्थक हुई है। दूसरे लोग हैं जो दिन-रात माला ही फेरते हैं और जनकल्याण के पुनीत धर्म कर्तव्य का महत्व नहीं समझते। उनकी उसी भूल ने उनके सारे भजन-पूजन में किये गये श्रम को एक प्रकार से निरर्थक बनाकर नष्ट कर दिया। हम ऐसे हजारों मनुष्यों को जानते हैं जो भजन हम से अधिक करते हैं, यों कहना चाहिये कि भजन के अतिरिक्त और कुछ काम ही उनके पास नहीं है। इतने पर भी वे आत्मिक प्रगति के नाम पर छूँछ ही बने हुए हैं। गुण कर्म स्वभाव से इतना भी परिष्कार नहीं हुआ, फिर कैसे कहा जाय कि वे आत्मिक दृष्टि से आगे बढ़े।

अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों को आरम्भ से ही यह प्रशिक्षण दिया जाता रहा है कि उन्हें मानव जीवन की सार्थकता के लिए अपने नित्य कर्मों में उपासना, जीवन शोधन एवं परमार्थ के विविध कार्यक्रमों को भी अनिवार्य कर्तव्यों की तरह सम्मिलित करना चाहिए। इसके बिना वे आत्मिक प्रगति के महान लाभ से लाभान्वित न हो सकेंगे। प्रसन्नता की बात है कि यह शिक्षा परिवार के प्रत्येक सदस्य ने हृदयंगम की है और सेवा धर्म को अपनाना जीवन की सार्थकता का अमोघ उपाय माना है। विभिन्न परिस्थितियों के व्यक्ति आर्थिक एवं शारीरिक साधनों से भी कुछ लोक सेवा करते ही हैं पर हमारे इस संगठन ने यह समझा और माना है कि आज की बुद्धि भ्रम-ग्रस्त जनता के ढोंग का एक मात्र कारण उसके पास विवेक दृष्टि का अभाव होना ही है। इस कमी की पूर्ति की जा सके तो संसार के समस्त अभावों, कष्टों एवं क्लेशों को दूर किया जा सकता है। जब तक भावनात्मक शुद्धि न होगी तब तक आन्तरिक विष बाह्य जीवन में अगणित कष्ट क्लेशों का, उलझन समस्याओं का, रोग शोकों का रूप धारण कर सामने आता रहेगा तब तक व्यक्ति तथा समाज के दुखों को मिटाया जा सकना संभव न होगा। अतएव हमें सामूहिक रूप से जन मानस को उत्कृष्ट एवं परिष्कृत बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।

सन्तोष की बात है कि नव निर्माण योजना के अंतर्गत इस वर्ष का लोक शिक्षण व्रत प्रायः सभी सदस्यों ने लिया है। ऐसे लोग कम ही है जो हिचकिचाते और बगलें झाँकते हैं। “एक घण्टा समय और एक आना नित्य” की माँग इतनी छोटी है कि आज की विषम परिस्थितियों में परिवर्तन लाने के लिए कोई उतना छोटा त्याग करने के लिए भी तैयार न हो सके।

विचार क्रान्ति के लिए सब से बड़ी आवश्यकता समय की ही तो है। चौबीसों घण्टे अपने व्यक्तिगत कामों में ही खर्च कर डालें और लोक मण्डल की सच्ची ईश्वर पूजा के लिए एक घण्टा भी न निकाल सकें तो हमारे लिए यह एक लज्जाजनक बात ही होगी। इसमें फुरसत मिलने का प्रश्न नहीं, केवल अभिरुचि की शिथिलता एवं न्यूनता की बात है। जिनमें देश, धर्म, समाज एवं संस्कृति के लिए थोड़ा भी दर्द एवं प्रेम है वे तो इतना त्याग आसानी से कर सकते हैं। भावनाशील लोगों ने पिछले दिनों अपने जीवन प्राण, धन एवं परिवार को मातृभूमि की बलिवेदी पर हँसते-हँसते समर्पित किया है, उनकी वंशावली से सम्बद्ध रक्त इतना स्वार्थी नहीं हो सकता कि इतने छोटे त्याग के बारे में भी यह सोचें कि हमसे इतना न बन पड़ेगा। यदि हम इतना करने लगें तो काम में बहुत हर्ज हो जायेगा, बड़े घाटे में रहेंगे। यदि परमार्थ के लिए इतना सा भी छोटा त्याग दिल दहला देता है तो समझना चाहिये वे जिस घाटे से डर रहे हैं, आदि से अन्त तक वह घाटा ही घाटा उनके बहुमूल्य जीवन को नष्ट कर रहा है। राष्ट्र के लिए अनिवार्य धर्म कर्तव्य का पालन करने में थोड़ा सा समय लगाना भी यदि घाटे का काम है तो पता नहीं लाभ आखिर है किस चिड़िया का नाम?

पिछले अंक में अखण्ड-ज्योति परिवार का यह साहसिक कदम बड़े गर्व एवं गौरव के साथ उद्घोषित किया गया है कि 10 हजार परिजनों ने बौद्धिक शिक्षण के लिए दस-दस का जिम्मा लेकर एवं एक लाख व्यक्तियों को जीवन कला से प्रशिक्षित करने का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर उठा लिया है। यह बहुत बड़ी बात है। एक लाख व्यक्ति नियमित रूप से इस विचार क्रान्ति के विश्वविद्यालय में पढ़ेंगे। उसका परिणाम कितना आशाजनक होगा यह कुछ ही दिनों में सामने आ जायगा। अगले कदम हमारे और भी महत्वपूर्ण होंगे। सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन, अनैतिकताओं का, दुष्प्रवृत्तियों का प्रतिरोध, अनुपयुक्त मान्यताओं एवं भ्रान्तियों का निराकरण जैसे कितने ही काम करने शेष हैं। हमें समाज का नया निर्माण करने से पहले कूड़ा कचरा भी तो साफ करना ही होगा। इसके लिए कई सुसंगठित आन्दोलन चलाने पड़ेंगे। इन प्रयत्नों की पूर्व तैयारी बौद्धिक क्षेत्र में ही करनी होगी। पहला काम विचार परिवर्तन ही तो है। विचार बदलने पर ही तो काम बदलते हैं। एक लाख व्यक्तियों पर जो विचार परिवर्तन का प्रयोग आरम्भ किया गया है वह आगे अपना विशालकाय प्रतिफल उत्पन्न करेगा।

एक घण्टा समय देने वाली बात आमतौर से इस प्रकार निभाई जा रही है कि उस समय में व्रतधारी कार्यकर्ता अकेले या टोलियाँ बनाकर उन लोगों के घरों पर जाते हैं जिनमें धार्मिक संस्कार एवं विचारशीलता के अंकुर विद्यमान हैं। घरों पर जाकर नव निर्माण की बात कहने, प्रस्तुत कार्यक्रमों पर चर्चा करने, साहित्य पढ़ने देने का प्रयास विशेष सफल होता है क्योंकि निस्वार्थ भाव से किसी के यहाँ जाया जाय और लोक हित की उपयोगी बात कही जाय तो उस नेकनीयती से लोग प्रभावित होते हैं और उसकी बात ध्यानपूर्वक सुनते हैं। यह प्रयास निरन्तर जारी रखा जाय तो लोगों के मस्तिष्क बदलने में आश्चर्यजनक सफलता मिलती देखी गई है। यह बड़ा ही प्रभावशाली तरीका है।

दूसरा तरीका यह है कि जो घरों पर जाने की स्थिति में नहीं हैं वे अपने संपर्क में आने वाले लोगों से प्रस्तुत विषयों पर चर्चा किया करें, साहित्य पढ़ने के लिए प्रोत्साहन दिया करें। व्यापारी, अध्यापक, चिकित्सक, श्रमिक आदि प्रायः सभी वर्गों के लोगों को प्रतिदिन कितने ही परिचित-अपरिचित लोगों से मिलना पड़ता है। जब भी अवसर मिले, वार्ता प्रसंग में अपने आदर्शों एवं कार्यक्रम का थोड़ा बहुत परिचय कराया जा सकता है। अपने सम्बन्धी कुटुम्बी, मित्र रिश्तेदारों से जब भी मिलना हो, पत्र लिखना हो तो वैयक्तिक बातों के अतिरिक्त सैद्धांतिक चर्चा भी कुछ न कुछ होनी चाहिये, इस तरह व्यस्त व्यक्ति भी थोड़ी-थोड़ी मिनटों को मिलाकर एक घण्टा प्रतिदिन विचार निर्माण के लिए खर्च कर सकते हैं।

प्रतिदिन एक घण्टा न बन पड़े तो सप्ताह में सात घण्टे, महीने में तीस घण्टे किसी भी प्रकार कोई न कोई ढंग से दिये जा सकते हैं। किसी प्रकार इस वर्ष कमी रह जाय तो उसे अगले वर्षों में पूरा करने का प्रयत्न किया जा सकता है। यदि मन में संकल्प होगा तो भगवान उसकी पूर्ति का अवसर भी निकाल देंगे। जब हमारे दृढ़ संकल्प पूरे होते रहते हैं तो सत्संकल्प भी अवश्य पूरे होंगे।

इस ज्ञान यज्ञ के महान अभियान में कुछ खर्च भी पड़ता ही है। प्रचार साहित्य तो हर हालत में चाहिये ही। बन्दूक बिना सैनिक, हथौड़ा बिना लुहार, बैल बिना किसान अधूरा है उसी प्रकार ज्ञान-यज्ञ के होता को भी सत्साहित्य चाहिये ही। उसी के आधार पर तो उसे अपना निज का मस्तिष्क परिष्कृत करना है, उसी को पढ़ाकर लोगों के मस्तिष्क बदलने हैं। यह साहित्य कितना ही सस्ता क्यों न हो, लागत मात्र ही उसका मूल्य क्यों न हो, पर कागज छपाई तो लगेगी ही। इसके लिए एक आना प्रति दिन खर्च कर सकना किसी के लिए भी अशक्य नहीं है। लगभग एक छटाँक गेहूँ की लागत भला कौन ऐसा है जो खर्च न कर सकेगा आधी रोटी कम खाकर भी एक राशि बचाई जा सकती है। इन दिनों एक रोटी की लागत 10 नये पैसा आती है। एक आने का अर्थ लगभग आधी रोटी की बचत है। गरीब से गरीब आदमी भी अपने पेट को इतना खाली रख कर राष्ट्र-निर्माण में अपने हिस्से की श्रद्धाँजलि अर्पित कर सकता है। श्रद्धा न हो तो एक आना तो दूर एक कानी कौड़ी भी पहाड़ दिखाई देगी और उसका बोझ उठाये न उठ सकेगा।

युग-निर्माण योजना के तीसरे वर्ष में प्रवेश करते हुये हमने अपने प्रत्येक परिजन से यह आशा की है कि वह ‘एक घंटा समय एक आना नित्य’ का अनुदान देना आरम्भ कर दे। देखने में यह बहुत छोटी चीज है पर अपना संगठित परिवार क्रमबद्ध रूप से इतना भी करने लगे तो जनमानस का कायाकल्प करके रख देना हमारे लिये कुछ अधिक कठिन न रहेगा। अब तक 10 हजार व्यक्तियों ने सक्रिय सेवा का व्रत लेकर 1 लाख व्यक्तियों के प्रशिक्षण का कार्य आरम्भ किया है। 40 हजार परिजनों में से प्रत्येक जब यही करने लगेंगे तो इसी वर्ष यह प्रशिक्षण चार गुना, चार लाख हो जायगा। इसका प्रतिफल कितना महान होगा इसकी कल्पना मात्र से किसी देशभक्त का अन्तःकरण उल्लसित हो ही सकता है।

इस वर्ष हमारी एक ही आकाँक्षा है कि अखण्ड-ज्योति परिवार का प्रत्येक सदस्य नव निर्माण का सक्रिय सैनिक बने और समय एवं धन का नियमित उपयोग आरम्भ कर दे। जिनने यह प्रारम्भ कर दिया उनका हार्दिक अभिनन्दन। जो अभी नहीं कर सके हैं, सोच-विचार में पड़े हैं, उनसे अनुरोध है कि इतने छोटे त्याग के लिए इतना सोच विचार न करें। आध्यात्मिकता, धार्मिकता, त्याग एवं सेवा पर अवलम्बित है। यदि अखण्ड-ज्योति की शिक्षा उन्हें पसंद आती है तो उन्हें व्यवहार में भी उतरना ही चाहिये और वह इतना तो होना ही चाहिये जितना कि इस वर्ष के लिए हमने अपने प्रिय परिजनों से आशा की है।

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