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Magazine - Year 1966 - Version 2

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थोड़ी-सी आयु में बहुत कुछ दिखाने वाले—केशवचन्द्र सेन

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कर्म का महत्व और समय का मूल्य समझने वाले सुबुद्धिमान कर्म-योगी जितना काम थोड़ी-सी आयु में भी कर जाते हैं, उसका शताँश काम, मृत्यु के मानो भुलाये हुये से—रगड़ जिन्दगी और घिस-घिस करने वाले—अनेक अकर्मण्य जन्म-जन्मान्तर में नहीं कर सकते।

खाते-पीते, सोते-जागते, हँसते-बोलते तो सभी हैं, क्या कर्मठ और क्या निठल्ले, किन्तु अन्तर केवल यह होता है कि कर्मठ व्यक्ति यह सब कुछ काम करने के लिये नई शक्ति और ताजगी पाने के लिये करते हैं और निठल्ला इसी के लिये यह सब कुछ करता है।

केशवचन्द्र सेन ऐसे ही कर्मवीरों में से एक थे जो चालीस-पैंतालीस साल की छोटी-सी आयु पाने पर भी इतना काम कर गये हैं कि समाज युग-युग उसका लाभ उठाता रहेगा।

केशवचन्द्र सेन एक धार्मिक प्रवृत्ति तथा आध्यात्मिक विचार धारा के सामाजिक कार्यकर्ता थे। किन्तु उन्हें धर्म पर वाद-विवाद करने और उसे किसी संकीर्ण सीमा में बाँधने वालों के प्रति बड़ी नापसंदगी थी। उनका कहना था कि धर्म वाद-विवाद का नहीं कर्म का विषय है और उसकी परिधि किन्हीं विशिष्ट नियमों तक ही सीमित नहीं है बल्कि वह एक ऐसा सार्वभौमिक सत्य है जो तीनों कालों में सबके लिये—सब जगह, समान रूप से, मान्य एवं मंगलमय है।

मानव मात्र का धर्म एक है। दो हो ही नहीं सकते। जिन कर्मों और जिन विचारों से मानव द्वारा मानव ही नहीं प्राणी मात्र को सुख और शान्ति मिले वह ही धर्म है, अन्य सब बातें अधर्म हैं।

इस प्रकार की उदात्त एवं उदार विचार धारा और तदनुकूल एवं तदर्थ ही कार्य करने वाले केशवचन्द्र सेन का जन्म कलकत्ते के एक भरे-पूरे परिवार में 19 नवम्बर सन् 1838 ई. को हुआ।

सेन महोदय अपने पिता एवं पितामह के बड़े लाड़ले बच्चे थे। किन्तु फिर भी उन्होंने केशवचन्द्र सेन को लाड़ करने में कभी कोई ऐसी भूल नहीं की जिससे कि प्रायः बच्चे बिगड़ जाते हैं। उनके पितामह दीवान रामकमल सेन अपने समय के अद्वितीय विद्वान और एक कर्मठ समाज सेवक थे। उनकी विद्वता तथा सेवा को देखते हुए उन्हें भारतीय होने पर भी ‘एशियाटिक सोसायटी’ का मन्त्री चुना गया था।

दीवान रामकमल सेन अपने पौत्र को अधिकतर अपनी देख-रेख में ही रखते थे और सामाजिक कार्यक्रमों के समय सभा-सोसाइटियों में अपने साथ ले जाया करते थे, जिससे केशवचन्द्र सेन में शीघ्र ही सामाजिक चेतना जाग उठी और आयु के साथ उनकी विचार-शक्ति भी आत्म-निर्भर होने लगी। आगे चलकर उन्होंने सामाजिक कुरीतियाँ, धार्मिक भ्राँतियाँ, अन्धविश्वासों तथा ऊँच-नीच का भाव मिटाने के लिए बहुत ही सराहनीय काम किया।

कहना न होगा कि जिन बच्चों के अभिभावक अपने बच्चों को उन्नत बनाने के निश्चित ध्येय से पालते हैं, एक तो वे स्वयं ही समाज के लिये बहुत कुछ करके एक आदर्श उपस्थित करते हैं, दूसरे बच्चों को दिन-रात इसकी प्रेरणा देते रहते हैं। इस प्रकार पाले हुये बच्चे, निःसन्देह समाज में अपना एक उच्च स्थान बनाते हैं और संसार में अपने देश का नाम ऊँचा करते हैं।

उन्नीस वर्ष की अवस्था में पहुँचते-पहुँचते केशवचन्द्र सेन समाज-सेवा के क्षेत्र में उतर पड़े।

उनका चिन्तन रुझान एवं कार्यक्रम देखकर घर वालों को चिन्ता होने लगी। वे चाहते थे कि लड़का कमाये, खाये, मौज करे, कमाई से घर भरे। उन्होंने केशवचन्द्र को उनके इस स्वभाव से विरत करना चाहा, किन्तु बहुत कुछ प्रयत्न करने पर भी वे सफल न हो सके। केशवचन्द्र सेन को जो लगन लग गई सो लग गई। वास्तव में ऐसी ही अटल निष्ठा वाले व्यक्ति संसार में कुछ काम कर भी सकते हैं। ढुलमुल विचारधारा वाले न आज तक कोई काम कर सके हैं और न कभी कर पायेंगे।

अपने अध्ययन कार्यक्रम में केशवचन्द्र सेन पर जिस विचारधारा का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा वह थी ‘ब्राह्मसमाजी’ विचारधारा। इस विचारधारा से केशवचन्द्र सेन को प्रभावित करने वाली राज नारायण वसु द्वारा लिखित पुस्तक “ब्राह्मवाद क्या है?” रही है। इस पुस्तक के अध्ययन से श्री सेन को पता चला कि ब्रह्म-समाज एक ऐसी संस्था है जिसका उद्देश्य भारतीयों की आध्यात्मिक सामाजिक उन्नति करना है। समाज-सेवा करने को लालायित केशवचन्द्र सेन को एक दिशा मिली और वे तत्काल ब्रह्म-समाज के सदस्य बन गये।

नया रक्त, नया उत्साह और नवीन कार्यक्षमता लेकर आये हुये केशवचन्द्र सेन ने संस्था में एक नवीन प्राण फूँक दिये। जिसके आगमन से यदि किसी संस्था में एक नया जागरण और अग्रगामी प्रगति के लक्षण नहीं आते तो समझ लेना चाहिए कि वह व्यक्ति संस्था में कुछ काम करने के लिए नहीं, कोई स्वार्थ साधन के लिए आया है। जिसमें काम करने की लगन होगी संस्था का उद्देश्य सफल बनाने का जोश होगा, उसके पदार्पण करने से उसमें नवजीवन अवश्य आ जायेगा। ऐसे ही कार्यकर्ताओं की समाज एवं संस्थाओं को वास्तविक आवश्यकता रहती है, वैसे तो उनकी सदस्य-संख्या बढ़ाने-घटाने के लिए सैकड़ों लोग आते-जाते ही रहते हैं।

अधिक नहीं केवल दो वर्ष के कामों से ही केशवचन्द्र सेन राजा राममोहन राय की स्थापित की हुई और ईश्वर चन्द्र विद्यासागर जैसे प्रकाण्ड पंडितों की प्रचण्ड कर्मठता से पाली हुई संस्था ‘ब्रह्म-समाज’ के प्रमुख कार्यकर्ता बन गये। यह कोई साधारण उपलब्धि न थी, किन्तु सच्चे कार्यकर्ता और ऊँचे उद्देश्य रखने वाले केशवचन्द्र सेन के लिए यह अभी श्री गणेश से भी कम था।

जो समाज से कुरीतियाँ, अन्ध-विश्वास और अवाँछित एवं अहितकर बीमारियाँ मिटाकर उसका काया-कल्प कर डालने का संकल्प लेकर तन, मन, धन से मैदान में उतरा हो वह संस्था में अपनी प्रमुखता से प्रसन्न हो उठे यह कैसे हो सकता है, और यदि ऐसा होता है तो उसके इरादे छोटे और विचार ओछे हैं। मान-वृद्धि का अर्थ—आराम-वृद्धि नहीं, कार्य-वृद्धि होता है।

संस्था में प्रमुखता पाते ही केशवचन्द्र सेन और अधिक सक्रिय एवं सजग हो उठे क्योंकि वे जानते थे कि अब संस्था का मानापमान उनके नाम के साथ जुड़ गया है। उनकी इस अधिकाधिक उत्तरदायित्व भावना एवं सक्रियता का फल यह हुआ कि वयोवृद्ध देवेन्द्र ठाकुर जैसे महान व्यक्ति के साथ इक्कीस वर्ष की अवस्था में ही संयुक्त मंत्री चुन लिये गये। जिस उत्तरदायित्व को महर्षि कहे जाने वाले देवेन्द्र ठाकुर ने सफेद हो जाने पर पाया वह केशवचन्द्र सेन ने इतनी कम आयु और इतने कम समय में पा लिया।

केशवचन्द्र सेन की योग्यता एवं कार्य क्षमता ने उन्हें केवल संस्था का ही नहीं, बल्कि देवेन्द्र ठाकुर का भी दाहिना हाथ बना दिया और वे बहुत कुछ उन पर निर्भर रहने लगे। 1859 के साल में जिस समय देवेन्द्र ठाकुर पर लंका में प्रचार कार्य का भार डाला गया तो वे तब तक वहाँ जाने को तैयार न हुये जब तक कि संस्था केशवचन्द्र सेन को उनके साथ भेजने को तैयार न हो गई।

लंका में श्री केशवचन्द्र सेन ने संस्था के उद्देश्यों का इस योग्यता के साथ प्रचार किया कि वहाँ बहुत से लोग उसके अनुयायी बन गये। अनुभव और आदर पाकर लंका से लौटने पर उन्होंने “ब्रह्म-समाजी-विचार धारा” पर अनेक उपयोगी पुस्तकें लिखीं जिसमें से “युवा बंगाल! यह तुम्हारे लिये”—ने इतना व्यापक प्रभाव डाला कि संस्था की सदस्य संख्या कुछ ही दिनों में हजारों की तादाद में बढ़ गई।

इस समय कतिपय परिस्थितियों तथा वयोवृद्धता के कारण पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने संस्था से त्याग पत्र दे दिया। श्री केशवचन्द्र सेन अपनी पात्रता प्रमाणित ही कर चुके थे। निदान विद्यासागर ने विश्वास पूर्वक उन्हें ही भारत की विधवाओं का उद्धार करने का महान उत्तरदायित्व सौंपकर संतोष की श्वाँस ली। श्री केशवचन्द्र सेन भी पद लोलुपता को पाप समझते थे और समझते अपने उत्तरदायित्व। निदान विद्यासागर को दिये अपने वचन के अनुसार विधवाओं के उद्धार-कार्य में पूरी तरह से जुट गये।

विधवाओं के उद्धार कार्य में विधाता विवाह उन्हें सबसे सार्थक कार्य लगा और वे विविध प्रकार से इसके प्रचार में लग गये। उन्होंने इसके समर्थन में भाषण दिये, लेख लिखे और नाटक खिलाये। विचार गोष्ठियों में लोगों को समझाया, प्रेरित किया और विधवा विवाह के लिए तैयार किया। उनके इस धुआँधार प्रचार से समाज में विधवा-विवाहों का प्रचलन होने लगा और श्री केशवचन्द्र सेन का सम्मान बढ़ गया।

जनमत को केशवचन्द्र सेन के पक्ष में होते और जनमानस में उनका स्थान बनते देखकर बंगाली नौजवानों से भयभीत रहने वाली तात्कालिक बंगाल सरकार के कान खड़े हो गये। उसने सोचा यदि केशवचन्द्र जैसा तेजस्वी कार्यकर्ता कहीं गोरी सरकार की अनीतियों की ओर मुड़ गया तो सरकार को लेने के देने पड़ जायेंगे। निदान उसने उनको उपकृत करने के लिए “बैंक आफ बंगाल” में एक प्रतिष्ठित पद देने का प्रस्ताव किया। किन्तु समाजसेवा में अपना सर्वस्व अर्पण कर देने वाले केशवचन्द्र सेन ने उसे स्वीकार न किया। केशवचन्द्र के इस त्याग ने समाज में उनका विश्वास तथा सम्मान और भी बढ़ा दिया।

उसी समय देश के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में भीषण अकाल पड़ा। हजारों आदमी भूखों मरने लगे। श्री केशवचन्द्र सेन संसार के सारे काम छोड़कर अकाल-पीड़ितों की सेवा में जुट गये। उन्होंने पूरे पीड़ित-क्षेत्र का दौरा किया। भूखों के लिए अन्न-धन, सहानुभूति तथा सहायक इकट्ठे किये, और एक सहायता-कोष की स्थापना की। अकाल-पीड़ितों की सहायता में केशवचन्द्र सेन ने न केवल श्रम एवं सहानुभूति का ही दान दिया, बल्कि अपने बहुत से पैसे को भी उनकी सेवा में लगा दिया।

1870 में श्री सेन इंग्लैंड गये। वहाँ पर उन्होंने भारत की आध्यात्मिक विचारधारा का इतनी सरलता एवं सफलता के साथ प्रचार तथा प्रतिपादन किया कि उन्हें “भारत का आध्यात्मिक राजदूत” कहा जाने लगा।

श्री केशवचन्द्र सेन इंग्लैंड केवल सैर-सपाटे के लिए नहीं गये थे। बल्कि वे वहाँ समाज का अध्ययन करने उसकी अच्छाई बुराई को देखने और उसके सुधार के उपायों का आधुनिक दृष्टिकोण पाने गये थे। अस्तु अपने उद्देश्य पूर्ति के बाद वे भारत वापस आये और यहाँ “इण्डियन रिफार्म एसोसियेशन” नाम की एक समाज-सुधारक संस्था और स्थापित की। इसके अतिरिक्त उन्होंने “सुलभ समाचार” तथा “मदन गरल” नामक दो पत्र-पत्रिकायें भी निकाली।

स्त्रियों के हित के लिए श्री केशवचन्द्र सेन ने जहाँ विधवा-विवाह का प्रचलन कराया वहाँ उनकी शिक्षा के लिए अनेक पाठशालायों, विद्यालयों एवं विक्टोरिया कॉलेज जैसी शिक्षा संस्थाओं की स्थापना कराई। अनेक अस्पताल तथा शिल्प-कला-भवन बन गये।

सभी धर्मों की एकता के हामी तथा उदार विचारधारा के होने पर भी श्री केशवचन्द्र सेन हिन्दू धर्म पर ईसाई पादरियों के औंधे एवं विरोधात्मक प्रहार सहन न कर सके और 1862-63 में उन्होंने ईसाई पादरियों की ऐसी खबर ली कि वे हिन्दू धर्म के विरुद्ध प्रचार करना ही भूल गये। इसी समय भारत में शिक्षा प्रसार तथा सच्चे धर्म का स्वरूप दिखाने और उसका प्रचार करने के लिए ‘इण्डियन मिरर’ नाम का एक समाचार-पत्र भी निकाला।

श्री केशवचन्द्र सेन ने अपने त्याग और तपस्या से अपनी प्रतिभा एवं व्यक्तित्व पर जो पानी चढ़ाया था उसने उन्हें एक ऐसे स्तर पर पहुँचा दिया जहाँ से लोग उन्हें देवदूत की दृष्टि से देखने लगे। उन्होंने, समाज-सुधार शिक्षा, स्त्री-शिक्षा, धर्म तथा अध्यात्म क्षेत्र में इतना काम किया कि लोग उन्हें युग-युग तक नहीं भूल सकते।

इस प्रकार आजीवन समाज की सेवा करते-करते जब वे 8 जनवरी 1883 में केवल 46 वर्ष की अवस्था में स्वर्ग सिधारे उससे पूर्व बंगाल के तरुणों में नवीन भावना, नवीन विचार और नया जोश भरने के लिये “भारत-आश्रम” और “ब्राह्म-निकेतन” नाम की दो संस्थायें और स्थापित कर गये।

महापुरुष आते है, सुधार कर जाते हैं और सन्देश देकर चले जाते हैं। अब यह उस समाज का भाग्य अथवा दुर्भाग्य होता है कि वह उन सन्देशों से लाभ उठाता है या नहीं।

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