• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • राष्ट्र-यज्ञ में आत्माहुति दें
    • भगवान की भक्ति और उसके स्वरूप
    • थोड़ी ही देर में बातचीत का सिलसिला चल पड़ा। राज नारायण वसु ने अपने मार्मिक उपदेश शुरू किये। भगवद्गीता तथा उपनिषदो
    • ब्राह्मण की बात सुनकर सन्त ने कहा- “तुम विन्ध्य पुरी के महात्मा प्रभु दास के पास जाओ। वे तुम्हें ऐसी पारस-मणि देंगे
    • None
    • None
    • आत्मा-साधना के कठिन पथ पर
    • जीवन-यापन के लिये जीवन लक्ष्य भी निर्धारित करें।
    • सुखी जीवन के लिये मानसिक प्रसन्नता सिद्ध कीजिये।
    • आपत्तियों से डरिये नहीं, लड़िए।
    • जड़ता छोड़ें---प्रगतिशीलता अपनाएं।
    • थोड़ी-सी आयु में बहुत कुछ दिखाने वाले—केशवचन्द्र सेन
    • भारतीयता के संरक्षक- महात्मा हँसराज
    • शिष्टाचार ही मानवता की पहचान है।
    • मितव्ययिता का महत्व समझिए।
    • आधुनिक बोधिसत्व—डा. अर्ल्बट श्वाइत्जर
    • Quotation
    • परम परिश्रमी-श्रीमती तारा चेरियन
    • Quotation
    • हमें दीर्घजीवी ही होना चाहिये।
    • नारी को समुचित सम्मान एवं उत्थान दीजिए।
    • गृहस्थ सुख की साधना
    • मितव्ययी आदर्श विवाहों का प्रचलन अत्यावश्यक
    • शिशु-निर्माण-माता के गर्भ में
    • Quotation
    • हमारी भावना और कार्य-पद्धति
    • पाँच रचनात्मक और पाँच प्रशिक्षण कार्यक्रम
    • जन्मोत्सव मनाना इस तरह आरम्भ करें।
    • देव-और मनुज
    • देव-और मनुष्य (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • राष्ट्र-यज्ञ में आत्माहुति दें
    • भगवान की भक्ति और उसके स्वरूप
    • थोड़ी ही देर में बातचीत का सिलसिला चल पड़ा। राज नारायण वसु ने अपने मार्मिक उपदेश शुरू किये। भगवद्गीता तथा उपनिषदो
    • ब्राह्मण की बात सुनकर सन्त ने कहा- “तुम विन्ध्य पुरी के महात्मा प्रभु दास के पास जाओ। वे तुम्हें ऐसी पारस-मणि देंगे
    • None
    • None
    • आत्मा-साधना के कठिन पथ पर
    • जीवन-यापन के लिये जीवन लक्ष्य भी निर्धारित करें।
    • सुखी जीवन के लिये मानसिक प्रसन्नता सिद्ध कीजिये।
    • आपत्तियों से डरिये नहीं, लड़िए।
    • जड़ता छोड़ें---प्रगतिशीलता अपनाएं।
    • थोड़ी-सी आयु में बहुत कुछ दिखाने वाले—केशवचन्द्र सेन
    • भारतीयता के संरक्षक- महात्मा हँसराज
    • शिष्टाचार ही मानवता की पहचान है।
    • मितव्ययिता का महत्व समझिए।
    • आधुनिक बोधिसत्व—डा. अर्ल्बट श्वाइत्जर
    • Quotation
    • परम परिश्रमी-श्रीमती तारा चेरियन
    • Quotation
    • हमें दीर्घजीवी ही होना चाहिये।
    • नारी को समुचित सम्मान एवं उत्थान दीजिए।
    • गृहस्थ सुख की साधना
    • मितव्ययी आदर्श विवाहों का प्रचलन अत्यावश्यक
    • शिशु-निर्माण-माता के गर्भ में
    • Quotation
    • हमारी भावना और कार्य-पद्धति
    • पाँच रचनात्मक और पाँच प्रशिक्षण कार्यक्रम
    • जन्मोत्सव मनाना इस तरह आरम्भ करें।
    • देव-और मनुज
    • देव-और मनुष्य (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1966 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


आधुनिक बोधिसत्व—डा. अर्ल्बट श्वाइत्जर

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 15 17 Last
डा. अर्ल्बट श्वाइत्जर का जन्म जर्मनी के आल्सीसी प्रान्त में सन् 1875 में हुआ था किन्तु उन्होंने अपना सारा जीवन अफ्रीका के फ्रान्सीसी काँगों में लाम्वार्ने नामक स्थान पर हब्शियों की सेवा में लगा दिया। उनकी करुणा, दया और सेवा-भावना की गहराई को समझने वाले श्रद्धावश उन्हें बोधिसत्व की संज्ञा देते हैं और ध्यानपूर्वक उनके जीवन-दर्शन और जीव के प्रति दया भाव को निष्पक्ष रूप से देखा जाये तो वे बोधिसत्व के ही रूप प्रतीत होंगे।

“भगवान बोधिसत्व ने अपने एक प्रवचन में कहा था—जब तक संसार के दूसरे प्राणी कष्ट से पीड़ित हो रहे हैं, तब तक हमें सुखोपभोग का अधिकार नहीं है।” और श्री अर्ल्बट श्वाइत्जर का कथन है-’मरणान्तक पीड़ा से तड़पता हुआ रोगी जब मेरे सामने आता है उस समय मेरी भावनायें करुणा की शत-सहस्र धाराओं में बह उठती हैं। मैं सोचने लगता हूँ कि यह पीड़ित मनुष्य यह आशा करता है कि इस असहाय प्रदेश में मैं ही एक अकेला ऐसा व्यक्ति हूँ जो उसकी कुछ सहायता कर सकता हूँ। इसका आशय यह नहीं कि मैं उसके जीवन की रक्षा कर सकता हूँ। हम सभी को एक न एक दिन मृत्यु की गोद में जाना है। विशेष बात तो यह है कि वह यह आशा लेकर आता है कि मैं उसकी पीड़ा हर सकता हूँ, कम कर सकता हूँ। यही मेरा महान और चिरनूतन अधिकार बन गया है। मृत्यु की अपेक्षा पीड़ा मनुष्य को कहीं अधिक दुःखी करती है।”

डा. अर्ल्बट श्वाइत्जर एक जर्मन वंशज थे किन्तु उनका पालन पोषण फ्रांस में हुआ था। उनकी इच्छा धर्माचार्य और महान संगीतज्ञ बनने की थी और इसीलिये उन्होंने धर्म शास्त्र, दर्शन-शास्त्र तथा संगीत शास्त्र का अध्ययन कर पारंगति प्राप्त की थी। किन्तु एक छोटी-सी घटना ने उनकी जीवन धारा बदल दी, जिससे वे धर्माचार्य तथा संगीतज्ञ के रूप में ख्याति प्राप्ति की जिज्ञासा छोड़कर चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन करके एक डॉक्टर बने।

एक बार एक मित्र से मिलने के लिये वे पेरिस गये। तब उनकी दृष्टि मेज पर पड़ी एक ‘जर्नल दे मिशन्स एवेन्जेलीक्स’ नामक पत्रिका पर पड़ी। उन्होंने उसको हाथ में लेकर पन्ना उल्टा ही था कि उनकी नजर उसमें छपी इस अपील पर पड़ गई—”अफ्रीका में प्रशिक्षित चिकित्सकों का बहुत अभाव है। वहाँ के असहाय लोग भयानक रोगों से पीड़ित होकर नारकीय मृत्यु मर रहे हैं। जिन्हें अपनी आत्मा में यह अनुभव हो कि परमात्मा ने उन्हें उन असहाय मानव की सेवा करने के लिये पहले से चुन लिया है, वे इस ओर ध्यान दें।”

डा. श्वाइत्जर को लगा जैसे ईश्वर ने उन्हें ही इस काम के लिये चुना है। बस फिर क्या था उस आत्मनिष्ठ महामानव ने अपने जीवन का चरम उद्देश्य निश्चित कर लिया। उन्होंने जीवन में व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं को विदा कर दिया और चिकित्सा-शास्त्र का अध्ययन करने लगे। सात वर्ष तक चिकित्सा-शास्त्र का अखण्ड अध्ययन करने के बाद उन्होंने पत्नी, परिवार तथा इष्ट मित्रों के मना करने और समझाने पर भी अफ्रीका में असहाय मानवों की सेवा करने के लिये 1913 में प्रस्थान कर दिया। उनकी पत्नी ने जब समझ लिया कि उनके महान पति ने मानव हित के लिये अपना जीवन समर्पित कर दिया है तो वे भी पति के महान कार्य में सहयोग देने के लिये नर्स के रूप में प्रशिक्षित होकर तैयार हो गई।

महान मानव दम्पत्ति अफ्रीका में लाम्वार्ने नामक स्थान पर पहुँचे और अपना चिकित्सालय एक टूटे-फूटे मकान के खण्डहर में खोल दिया। वह स्थान क्या था एक प्रकार से दो-तीन तरफ टूटी-फूटी दीवारों से घिरा एक छोटा-सा मैदान ही था। न उस पर छत थी और न कोई खिड़की अथवा रोशन दान। डा. श्वाइत्जर को स्थानाभाव से कुछ परेशानी हुई। किन्तु उनकी पत्नी ने उत्साहित करते हुये कहा—”परमात्मा ने हम लोगों को मानवता की सेवा करने के लिये चुना है। उसने जो कम ज्यादा साधन दिये हैं हम उन्हीं के द्वारा अपने कर्तव्य का पालन करेंगे।” पत्नी के पवित्र शब्द सुनकर डा. श्वाइत्जर का रोम-रोम आनन्द विभोर हो उठा और वे समग्र तन-मन से पीड़ितों की सेवा में संलग्न हो गये। उन दोनों पति-पत्नी ने घास-फूस का छप्पर डालकर अपने चिकित्सालय पर छाया कर ली।

अभी उनका चिकित्सालय खुला ही था कि सौ-सौ मील के इर्द गिर्द से रोग पीड़ित नीग्रो उन परमात्मा के भेजे हुये देवदूत के पास आने लगे और डॉक्टर श्वाइत्जर ने उनकी चिकित्सा करनी शुरू कर दी। उन्होंने आठ-नौ माह की अवधि में ही लगभग दो ढाई सौ असाध्य रोगियों को नया जीवन दे दिया। डा.श्वाइत्जर के इस पुण्य कार्य ने उनको न केवल ख्यातिनामा बना दिया बल्कि वे देवता की तरह हब्शियों के श्रद्धा-भाजन बन गये।

तन्मयता से पीड़ितों की चिकित्सा करते करते डा.श्वाइत्जर का सेवा कार्य आध्यात्मिक साधना के रूप में बदल गया। अभी तक ये अपने विचार से पीड़ितों की सेवा कर अपने मानवीय कर्तव्य का पालन करते थे, किन्तु अब उनका विश्वास हो गया कि मानव-सेवा के माध्यम से साक्षात् परमात्मा की ही भक्ति कर रहे हैं। उन्होंने अपनी इस आध्यात्मिक अनुभूति को व्यक्त करते हुये कहा-

“अभी तक मैं एक धर्म-शिक्षक के रूप में शब्दों द्वारा आत्म-दान करता रहा था। प्रेम-योग की शाब्दिक चर्चा करते हुये आनन्द पाता रहा था। परन्तु अब मैं अपने इस सेवा कार्य को प्रेम-योग की चर्चा करके पूरा नहीं कर सकता। यह प्रेम के व्यावहारिक प्रयोग का क्षेत्र है। मैं धर्माचार्य न बनकर चिकित्सक इसलिये बना कि बिना बोले सेवा कर सकूँ। अपनी इस मौन प्रधान सेवा को मैं आध्यात्मिक साधना ही मानता हूँ।”

इस प्रकार डॉक्टर श्वाइत्जर आध्यात्मिक विश्वास के साथ-सेवा करते-करते मानापमान और हानि लाभ से परे होकर सच्चे योगी बन गए और उनका चिकित्सालय सेवा-आश्रम। डा.श्वाइत्जर साढ़े छः बजे बिस्तर छोड़ देते और अपने दिन भर के कार्य क्रम की योजना बनाते। वे पहले से ही कोई योजना तैयार न रखते थे। आवश्यकतानुसार तत्काल बनाया करते थे। क्योंकि वे जानते थे कि उनका कार्य ही कुछ इस प्रकार का है कि न जाने किस समय उन्हें क्या करना या कहाँ जाना पड़ जाये। ऐसी दशा में निश्चित कार्यक्रम में विघ्न अथवा अनियमितता आ जाने से उन्हें परेशानी होगी। उनकी दिनचर्या का मूल उद्देश्य सेवा करना था उसको वे नियमित रूप से बिना पूर्व कार्यक्रम के किया करते थे। साढ़े छः बजे से साढ़े सात तक नित्य-नैमित्तिक से निवृत्त होते। आठ बजे तक नाश्ता करके सहयोगियों को दिन भर का काम बताते डिस्पेन्सरी और औजार ठीक करते। दस बजे तक बागवानी, सड़क की मरम्मत, भवन निर्माण और वृक्षारोपण के काम करते और फिर अपने चिकित्सालय में आकर रोगियों की सेवा में संलग्न हो जाते। सवा बारह तक चिकित्सालय का काम निबटा कर दो बजे तक भोजन और आराम से निवृत्त होकर पुनः चिकित्सालय में आ जाते और साढ़े छः बजे तक काम में लगे रहते। उसके बाद भोजन आदि से निवृत्त होकर रोगियों की देख-भाल करने निकल जाते और इस प्रकार उनका यह कार्यक्रम साढ़े ग्यारह बजे रात तक चलता रहता। डा. श्वाइत्जर ने अपने इस व्यस्त कार्यक्रम को पूरे नब्बे वर्षों तक चलाया। उन्होंने अपने कार्य के घंटों में से न तो एक मिनट कभी कम दिया और न आराम के समय को बढ़ाया। अपनी इस एकान्त कार्य निष्ठा के कारण डा.श्वाइत्जर नब्बे वर्ष की आयु तक पूर्ण स्वस्थ एवं समर्थ बने रहे। वे अपने जीवन में बहुत कम बीमार पड़े और यदि कभी ऐसा संयोग हुआ भी तो भी उन्होंने पड़कर आराम कभी न किया। उनकी इस अखण्ड कार्य व्यस्तता को देखकर एक दिन उनकी पत्नी ने पूछा “आप कब तक इस प्रकार अविश्रान्त काम करते रहेंगे।”डा.श्वाइत्जर ने बड़े सरल भाव में उत्तर दिया-”जीवन की अन्तिम श्वाँस तक।” और निःसन्देह उन्होंने अपने वचन को पूर्ण रूपेण निवाहा कर दिखा दिया।

डा. श्वाइत्जर के आश्रम में जहाँ एक ओर रोगी हब्शियों की चारपाइयाँ पड़ी रहती थीं, वहाँ दूसरी ओर बहुत से पशु-पक्षी भी रह रहे थे। हिरन, चीतर, गुरिल्ला, चिम्पाँजी, बत्तख, मुर्गी, उल्लू आदि न जाने कितने पशु-पक्षी उनके परिवार के सदस्य बने हुये थे। यह सब पशु-पक्षी वही थे जो एक बार रोगी होने के कारण जंगल से पकड़कर उपचार के लिए डा. श्वाइत्जर के पास लाए गए थे और फिर चंगे होकर अपने प्रेमी सेवक को छोड़कर दुबारा जंगल में नहीं गए।

सन्त श्वाइत्जर को मानव जाति की तरह ही अन्य जीवों से भी प्यार था। उन्हें उनकी भावनाओं का कितना ख्याल रहता था यह इस छोटी घटना से ही प्रकट हो जाता है। एक बार वे अपने कमरे में जा रहे थे। रास्ते में एक मुर्गी अपने बच्चों को प्यार कर रही थी। वे रुक गए। किन्तु जब मुर्गी ने रास्ता नहीं दिया तब उन्होंने उसके कान में धीरे से कहा-माँ मुर्गी, मुझे चले जाने के लिए रास्ता दे दो। किन्तु जब वह तब भी नहीं हटी तो वे उसके ऊपर से लाँघ कर इस प्रकार धीरे से निकल गये कि मुर्गी के कार्यक्रम में तनिक भी बाधा नहीं पड़ी। इस छोटी से घटना में डा. श्वाइत्जर के हृदय की विशालता का कितना सुन्दर तथा स्पष्ट चित्र प्रतिबिम्बित होता है इसे भावुक व्यक्ति ही समझ सकते है। वे स्वयं तो माँस नहीं हो खाते थे। उन्होंने हब्शियों को भी कभी किसी पशु-पक्षी को मारने नहीं दिया। उनके आश्रम में भोजन से पूर्व प्रार्थना होती थी और व्यालू के बाद सामूहिक प्रार्थना। उनका चिकित्सालय पूर्ण रूप से एक ऋषि आश्रम के समान ही था।

मानव सेवा के इस सराहनीय कार्य के लिये डा. श्वाइत्जर को 1948 में नोवुल पुरस्कार दिया गया जिसकी समग्र धनराशि से उन्होंने चिकित्सालय से थोड़ी दूर महारोगी (कुष्ट) सेवा श्रम खोलने में लगा दी। इस नये सेवा श्रम में उन्होंने पाँच सौ कोढ़ियों के रहने के लिये व्यवस्था कर दी। उसी अवसर पर जब वे ओसलो गये तो अपने सम्मान समारोह में बोलते हुये उन्होंने कहा था- “मानव की आत्मा अभी मरी नहीं है। वह उन जीवों के प्रति दया एवं करुणा भावना से परिचित है जिसमें सम्पूर्ण नैतिकता सन्निहित है। यह जीव दया तभी सार्थक होती है जब कोई मानव-जाति से ऊपर उठकर सारी जीव-सृष्टि को अपने शीतल अंचल की छाया में ले ले। मनुष्य ने विज्ञान के बल पर अतिमानव शक्तियाँ तो प्राप्त कर ली हैं किन्तु वह अभी वाँछित अतिमानवी बुद्धि का विकास नहीं कर सकता है। इसीलिये उस वैज्ञानिक शक्ति के घातक परिणाम सामने आने की सम्भावना दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। अब हम मानवता के भविष्य को अधिक समय तक टाल नहीं सकते। इसके लिये सबसे महत्वपूर्ण एवं मूल बात यह है कि हम सब एक स्वर से स्वीकार करें, कि हम सब अमानवीय आचार के अपराधी हैं। यही एक उपाय है जिससे कि हम उस मार्ग पर आगे बढ़ सकेंगे जो एक युद्ध-विहीन जगत की ओर जाता है।”

इसके पूर्व भी जब वे जर्मन विद्वान गेटे की शताब्दी के उपलक्ष में फ्रेंकफर्ट महोत्सव में बोलने के लिये आमंत्रित किए गए थे उन्होंने बड़े ही मार्मिक सत्यों को उद्घाटित करते हुये कहा था- “मनुष्य एक आध्यात्मिक व्यक्तित्व है और उसे उसी रूप में मानकर व्यवहार किया जाना चाहिए। उसे हठात् पदार्थवादी सभ्यता के घूरे में दबाना सरासर अन्याय एवं अनर्थ है।” इस पर जर्मन डिक्टेटर हिटलर बहुत कुछ लाल-ताल हुआ किन्तु उन्होंने उसकी जरा भी चिन्ता नहीं की।

इसी प्रकार एक बार आनफोर्ड में हिबर्ट भाषण करते हुए उन्होंने केवल चार छोटे वाक्यों में पश्चिमी सभ्यता का सार रखकर उत्सव में उपस्थित लोगों को न केवल स्तब्ध ही कर दिया, बल्कि वक्ताओं की वाचालता समाप्त कर दी। उन्होंने कहा- “क्या आज हमारे जीवन में धर्म का कोई अस्तित्व है? नहीं! प्रमाण! युद्ध।” इतना कहकर उन्होंने अपना भाषण समाप्त कर दिया और फिर उसके बाद कोई भी बोलने खड़ा नहीं हुआ।

इस प्रकार आधुनिक बोधिसत्व सन्त श्वाइत्जर आजीवन मानव सेवा करते और सत्य का सन्देश देते हुये नब्बे वर्ष की आयु में 4 दिसम्बर 1965 को मानव देह से मुक्त हो गए।

First 15 17 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • राष्ट्र-यज्ञ में आत्माहुति दें
  • भगवान की भक्ति और उसके स्वरूप
  • थोड़ी ही देर में बातचीत का सिलसिला चल पड़ा। राज नारायण वसु ने अपने मार्मिक उपदेश शुरू किये। भगवद्गीता तथा उपनिषदो
  • ब्राह्मण की बात सुनकर सन्त ने कहा- “तुम विन्ध्य पुरी के महात्मा प्रभु दास के पास जाओ। वे तुम्हें ऐसी पारस-मणि देंगे
  • None
  • None
  • आत्मा-साधना के कठिन पथ पर
  • जीवन-यापन के लिये जीवन लक्ष्य भी निर्धारित करें।
  • सुखी जीवन के लिये मानसिक प्रसन्नता सिद्ध कीजिये।
  • आपत्तियों से डरिये नहीं, लड़िए।
  • जड़ता छोड़ें---प्रगतिशीलता अपनाएं।
  • थोड़ी-सी आयु में बहुत कुछ दिखाने वाले—केशवचन्द्र सेन
  • भारतीयता के संरक्षक- महात्मा हँसराज
  • शिष्टाचार ही मानवता की पहचान है।
  • मितव्ययिता का महत्व समझिए।
  • आधुनिक बोधिसत्व—डा. अर्ल्बट श्वाइत्जर
  • Quotation
  • परम परिश्रमी-श्रीमती तारा चेरियन
  • Quotation
  • हमें दीर्घजीवी ही होना चाहिये।
  • नारी को समुचित सम्मान एवं उत्थान दीजिए।
  • गृहस्थ सुख की साधना
  • मितव्ययी आदर्श विवाहों का प्रचलन अत्यावश्यक
  • शिशु-निर्माण-माता के गर्भ में
  • Quotation
  • हमारी भावना और कार्य-पद्धति
  • पाँच रचनात्मक और पाँच प्रशिक्षण कार्यक्रम
  • जन्मोत्सव मनाना इस तरह आरम्भ करें।
  • देव-और मनुज
  • देव-और मनुष्य (Kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj