Magazine - Year 1966 - Version 2
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Language: HINDI
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देव-और मनुष्य (Kavita)
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मनुज ने कहा एक दिन-देव! हमें दें भक्ति भाव, सद्ज्ञान!
ताकि हम सुविधा से कर सकें आत्म-जीवन का अभ्युत्थान॥
शक्ति सामर्थ्य देव की अतुल तुच्छ सी थी मानव की माँग,
किन्तु याचकता को क्या कहें हो गया सुर को अति अभिमान॥
मनुज भी था कुछ अधिक अधीर प्रश्न था अब तक पहला शेष।
देव की ओर जोड़कर पुनः किये कातर निज दृग उन्मेष॥
कहा प्रभु बल दें, साहस विपुल, प्राण दें, दें जीवन की शक्ति,
करें आरोग्य युक्त हे श्रेष्ठ! मिटायें जन के कष्ट कलेश॥
देव को आती कैसे दया उन्हें तो और हो गया गर्व।
हमारे स्ववश विचारा जीवन जिन्दगी आश्रित हम पर सर्व॥
हठी था मनुज न चुप ही रहा जलाये अगणित पूजा-दीप,
देव का किया बहुत सम्मान मनाकर उसने अगणित पर्व॥
विनय कर माँगी धन सम्पत्ति, पुत्र, पत्नी साधन सम्मान।
माँग पर माँगें जितना बढ़ीं देव का उतना बढ़ा गुमान॥
दान तो पाना था अति दूर देव दे सके न तनिक प्रबोध,
अन्तक हुआ मनुज को रोष समझकर पौरुष का अपमान॥
भाव हैं मुझ में अभिनव शेष भला फिर माँगे हम क्यों भक्ति।
शक्ति की क्यों माँगे हम भीख कर्म की जब तक पास प्रवृत्ति॥
विधाता ने है दिया शरीर, बाहु-द्वय, बुद्धि अनंत विचार,
देव निर्तन देंगे फिर मुझे भला क्या साधन या सम्पत्ति॥
आत्मा का उद्बोधन हुआ भीरुता हुई मनुज की दूर।
भक्ति अपनी, अपना ही ज्ञान, देह में अपनी शक्ति सिंदूर॥
भुलाया आलस औ अज्ञान, अगाया श्रम साहस सम्मान-
दिव्य जीवन का बहा प्रवाह हीनता का कर चकनाचूर॥
देखकर मानव का पुरुषार्थ गल गया देवों का अभिमान।
लगे बरसाने उस पर कृपा प्राण बल, जीवन ज्ञान महान्॥
देखकर यह अजीब संदर्भ हँसे उस दिन विभुवर अखिलेख
पराजित हुये विचारे देव! हुआ विजयी भू-सुत इन्सान॥
—बलराम सिंह परिहार
*समाप्त*