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Magazine - Year 1966 - Version 2

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Language: HINDI
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आत्मा-साधना के कठिन पथ पर

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मृत मनुष्य के विषय में सारा संसार संशय-शील है। कोई लोग मृत्यु को ही जीवन की इति मानते हैं, कोई कहते हैं कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि के अतिरिक्त कोई आत्मा है जो मृत्यु के पश्चात् लोक-लोकान्तरों में भ्रमण करती है। प्रत्यक्ष या अनुमान से इसका कोई उचित निर्णय नहीं दे पाता। इस गूढ़ प्रश्न को लेकर एक दिन महर्षि उद्दालक के पुत्र नचिकेता ने यमाचार्य के पास जाकर अत्यन्त विनीत भाव से पूछा— “देव! आप मृत्यु के देवता हैं अतएव मैं यह आत्म-तत्व आप से जानता चाहता हूँ।”

ऋषि बालक की जिज्ञासा पर एक-क्षण यमाचार्य को बड़ी प्रसन्नता हुई। पर दूसरे ही क्षण वे प्रश्न की गहराई में डूब गये। यमाचार्य ने पंचागिन-विद्या का ज्ञान बड़ी कठोर तपश्चर्या के बाद प्राप्त किया था, वे साधना-पथ की कठिनाइयों से पूरी तरह अवगत थे। बालक की दृढ़ता पर वे एकाएक विश्वास न कर सके अतः उन्होंने नचिकेता को सम्बोधित करते हुये कहा—”वत्स! तुम इस आत्म-ज्ञान को प्राप्त कर क्या करोगे, मैं तुम्हें सुख-सामग्रियों से भरपूर राज्य कोष, घोड़े, हाथी, रूपवती स्त्रियाँ और सौ वर्ष जीने वाले बहुत से पुत्र दे सकता हूँ, तुम चाहो तो इन्हें प्राप्त कर बहुत दिनों तक इस धरती का सुखोपभोग करो। यह आत्म-ज्ञान बड़ा कठिन है तुम ऐसी तपश्चर्या क्यों करना चाहते हो? दीर्घ-जीवन व्यापी सामर्थ्य प्राप्त कर इस संसार के सुखोपभोग क्यों नहीं माँग लेते।”

यमाचार्य की इन प्रलोभनपूर्ण बातों का नचिकेता पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। उसने कहा -भगवन्! यह वस्तुएँ जो आप मुझे देना चाहते हैं, पता नहीं कब तक मेरा साथ देंगी, फिर भोग तो शक्तियों को नष्ट करने वाले ही होते हैं और शक्तियों के नाश से मनुष्य निश्चय ही दुःखी होता है और मृत्यु की ओर अग्रसर होता है। मैं इस मृत्यु-रूपी भय से छुटकारा पाना चाहता हूँ। शरीर के सौंदर्य और विषय भोग को अनित्य और क्षणभंगुर समझकर ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो आत्म-ज्ञान की अपेक्षा दीर्घ-जीवन और साँसारिक वैभव विलास को बड़ा मानेगा?

नचिकेता की प्रबल आत्म-जिज्ञासा के भाव को देखकर यमाचार्य सन्तुष्ट हुये और उन्होंने नचिकेता को आत्म-तत्व का उपदेश दिया।

जिस बात को यमाचार्य और नचिकेता के इस कथानक में बताया गया है, आत्म-साक्षात्कार के साधक के जीवन में भी वैसी ही घटनायें घटित होती हैं। मनुष्य की साधारण जिज्ञासा और आत्म-साक्षात्कार के बीच में जीवन शोधन की जो आवश्यक शर्त लगी हुई है वह अति दुस्तर है, इसीलिये शास्त्रकार ने कहा है—

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया- दुर्ग पथस्तत्कवयो वदन्ति।

“यह आत्म-ज्ञान का मार्ग छुरे की धार पर चलने के समान कठिन है, ऐसा कवि-मनीषियों का निश्चित मत है।”

बात भी प्रायः ऐसी ही है, क्योंकि मनुष्य की स्वाभाविक जीवन-क्रम में चलते रहने की प्रवृत्ति होती है। जल को किसी स्थान पर लुढ़का दिया जाय जो वह अपना रास्ता आप बना लेता है। नीचे की ओर बहने में उसे कोई कठिनाई नहीं होती। संक्षेप में हमारा जैसा जीवन-क्रम चल रहा है उसे वैसे ही चलता रहने दें तो इसमें न कोई असुविधा होगी न कठिनाई। कठिनता तो अपने आप को ऊपर उठाने में ही होती है। पानी को अपनी सतह से ऊँचे उठाना हो तो उसे विशेष यत्नपूर्वक बड़ी कठिनाइयों के साथ ऊपर चढ़ा पाते हैं। आत्मा को लघुता से विभुता की ओर अग्रसर करने में भी ठीक ऐसी ही कठिनाई आती है।

सबसे पहली आत्म-साधना जीवन को शुद्ध बनाना है। पाप और विकार ही आत्मा के बन्धन माने गये हैं अतः उनसे मुक्ति पाने का प्रयत्न किया जाता है। पीछे जो पाप हो गये हैं उनके प्रक्षालन के लिए प्रायश्चित और तपश्चर्या करनी पड़ती है। इसके बिना आत्म-ज्ञान के लिए जिस एकाग्रता और दृढ़ता की आवश्यकता होती है वह नहीं हो पाती। पापों में रत और चित्तवृत्तियों का शोधन न करने वालों के मन सदैव अशान्त रहते हैं। ऐसी अवस्था में शब्द पाण्डित्य या केवल सैद्धान्तिक ज्ञान काम नहीं देता आत्म साक्षात्कार के लिये इन्द्रिय लालसाओं से मुक्त होना, शुद्ध, संयत और समाहित होना अत्यन्त आवश्यक है। पर इन्द्रिय विजय योंही नहीं हो जाती। जप, तप, व्रत, उपवास, तितीक्षा आदि के द्वारा आत्मा का शुद्धिकरण होता है, प्राणायाम, ध्यान, धारणा आदि के द्वारा उसे शक्तिशाली बनाया जाता है। यह कार्य ऐसे नहीं होते जिन्हें मनुष्य का मन आसानी से स्वीकृति देता रहे और उनका किंचित विरोध न करे।

बुद्धि पाप, इच्छाओं और वासनाओं पर लगाम लगाती हैं,उन्हें बार-बार नियंत्रण में लाती है किन्तु इन्द्रियाँ और उनके विषय भी बड़े शक्तिशाली और प्रमथनकारी होते हैं। चोट खाये हुए सर्प तथा हारे हुये जुआरी की तरह वे बार-बार दाँव लगाते हैं और परिस्थितियाँ पाकर मनुष्य की सारी बुद्धि और विवेक में घमासान हलचल मचा देते हैं। काम और क्रोध, लोभ और मोह,भय और आशंका के तूफान एक क्षण मनुष्य की बुद्धि पर पर्दा डाल देते हैं, उसे साधना से विचलित करने का हर संभव प्रयत्न करते हैं। कुचली हुई वासनाओं को जब भी अवकाश मिलता है वे ऐसे-ऐसे प्रलोभनकारी रूपक रचकर मनुष्य को लुभाती हैं कि आत्म-ज्ञान का सारा महत्व उसकी आँखों से ओझल हो जाता है, बात की बात में साधक पथभ्रष्ट होकर रह जाता है।

ऐसे कठिन समय में जिनकी बुद्धि में विवेक होता है, जिनका मन एकाग्र और समाहित होता है उसी की इन्द्रियाँ सावधान रहती हैं और वही आत्म-साधना के पथ पर धैर्यपूर्वक अन्त तक टिके रह पाते हैं।

आत्म-ज्ञान की इच्छा करने वालों को स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि जो अनावश्यक जान पड़ती हों कम से कम उन कामनाओं का तो परित्याग करना ही पड़ता है। अपनी बुद्धि को यथा संभव एकाग्र और निर्मल बनाने की वैसी ही आवश्यकता होती है जिस प्रकार भरे हुए जल में अपना प्रतिबिम्ब देखने के लिए लहरों का रोकना आवश्यक होता है। कामनायें एक प्रकार की लहरें ही होती हैं जिनके रहते हुए आत्मा का प्रतिबिम्ब साफ नहीं झलकता। इस बात का पक्का और पूर्ण विश्वास हो जाने पर किसी मार्गदर्शक की आवश्यकता नहीं रहती। इसके बाद आत्मा स्वयं अपना गुरु, नेता या मार्गदर्शक हो जाता है और सभी सदाचरण स्वतः उसमें प्रकट होने लगते हैं। वह स्वयं ही सत्य और शुद्ध चरित्र मय बनने लगता है।

भय और लोभ आत्म-विकास के मार्ग में निरन्तर बाधाएं पहुँचाते रहते हैं। बहिर्मुखी इन्द्रियाँ भी चैन से नहीं बैठने देतीं। अन्तरात्मा को देखने की दूर दृष्टि थोड़ी देर के लिए जागृत होती है अन्यथा अधिकाँश समय यह इन्द्रियाँ तरह-तरह के बाहरी प्रलोभनों की ओर ही आकर्षित होती रहती हैं। अच्छे अच्छे स्वाद-युक्त भोज्य पदार्थ, अधिक धन, विपुल ऐश्वर्य कुच और कंचन की अतृप्त तृष्णा बार-बार अन्तर्मुखी इन्द्रियों को बहकाती रहती हैं। अज्ञानी लोग बाह्य विषयों के प्रलोभनों में फँस जाते हैं, इसीलिए बताया गया है कि यह मार्ग अति कठिन है और उसे पार पा जाना कोई आसान बात नहीं है।

पर अमृतत्व की तीव्र आकाँक्षा रखने वाले साहसी पुरुष इन्द्रियों की क्षणिक लोलुपता और मन के विद्रोह के आगे नहीं झुकते। वे नचिकेता की तरह ही निष्ठा भाव से आध्यात्मिक विकास की साधना में संलग्न रहते हैं और आत्म-ज्ञान का लाभ प्राप्त करते हैं। यह मार्ग कायरों के लिए कठिन है पर पुरुषार्थियों के लिए कठिन नहीं होता। वे इन कठिनाइयों में भी अपने जीवन का आनन्द ढूँढ़ लेते हैं और अन्त तक तत्परतापूर्वक अभ्यास करते रहते हैं। यह आत्मा अन्त में उन्हीं वीर पुरुषों को प्राप्त होता है। वही स्वर्ग और मुक्ति के अधिकारी होते हैं।

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