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Magazine - Year 1969 - Version 2

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हम देवत्व की ओर बढ़ें असुरता की ओर नहीं

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किसी अवसर का समुचित लाभ उठा लेना ही उस अवसर की सार्थकता कही गई है। मानव जीवन भी एक अवसर ही नहीं एक अनुपम अवसर है। जो बुद्धिमान इस अवसर की महत्ता समझते हैं, वे इसका लाभ उठाने में कभी नहीं चूकते। जीवन का लाभ उठाने का अर्थ है, इसको सफल एवं सार्थक बना लेना। इसकी श्रेष्ठ रचना ही इसकी सार्थकता मानी गई है और सार्थकता का अभिप्राय है, इसकी चेतना को देवत्व की ओर उठाया जाये। मनुष्य से बढ़कर देवताओं की कक्षा में प्रवेश किया जाये।

मनुष्य जीवन मध्यम श्रेणी है। इसके दायें बायें दो और श्रेणियाँ हैं। देवता और असुर। मनुष्य की क्षमता में है कि वह चाहे तो अपनी गतिविधियों तथा विचार प्रवृत्तियों के आधार पर देवता बन जाये अथवा असुर रूप में पतित हो जाये।इन दोनों श्रेणियों के बीज मनुष्य के अन्दर विद्यमान् हैं। वह जितनी तत्परता से जिन बीजों का विकास कर लेगा उतने अनुपात में ही देवता अथवा असुर बन जायेगा। यद्यपि इन दोनों श्रेणियों की एक पराकाष्ठा भी है। वे हैं परमात्म रूप एवं पिशाचता। देवत्व जब बढ़कर अपनी परिधि पार कर जाता है तब ईश्वर रूप हो जाता है और असुरता उतरते उतरते पिशाचता के रूप में परिणत हो जाती है।

मनुष्यता की पहचान यह है कि वह अपने और दूसरों के प्रति एक संतुलित दृष्टिकोण रखता है। यद्यपि उसे अपने अधिकारों तथा स्वार्थों का ध्यान अवश्य रहता है तथापि दूसरों के अधिकारों का भी उल्लंघन नहीं करता उनके स्वार्थों का हनन नहीं करता। वह जो कुछ उसका है लेना चाहता है और जो कुछ दूसरों का है उसको देने का साहस रखता है। अपनी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखते हुए दूसरों की सुख सुविधाओं में व्याघात उत्पन्न नहीं करता।

देवता का लक्षण यह है कि वह अपने स्वार्थ तथा अधिकारों को द्वितीय स्थान पर तो रखते ही हैं बल्कि उनकी हानि करके भी दूसरों की सुख सुविधा बढ़ाने का प्रयत्न किया करते हैं। अपनी उन्नति रोक कर दूसरों को उन्नति पथ पर बढ़ाने में प्रसन्नता अनुभव करते हैं। दूसरों के सुख में अपना सुख और दूसरों के दुःख में अपना दुःख समझकर परमार्थ में तत्पर रहते हैं। जब यह पुण्य प्रवृत्ति आगे बढ़कर अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है, तब उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं रह जाता। उनके पास जो कुछ होता है, उसमें निस्पृह हो जाता है। उनकी सारी गतिविधियाँ और सारी चिन्ताएँ दूसरे की सेविका बन जाती हैं।

वह जो कुछ सोचता है, दूसरों के हित के लिये, जो कुछ करता है दूसरों के लाभ के लिये। उसका खाना-पीना सोना-जागना उठना बैठना, हँसना बोलना वहाँ तक कि श्वाँस एवं प्रश्वास की प्रक्रिया तक दूसरों के हित के लिये ही सक्रिय रहती है। उसका सारा व्यक्तिगत एवं अस्तित्व लोक रंजन में विलीन हो जाता है। वह सम्पूर्ण रूप से परमार्थ रूप होकर ईश्वर की श्रेणी में पहुँच जाता है। ईश्वर का जो कुछ है, वह सब संसार के कल्याण के लिये। उसका अपना कोई स्वार्थ हो ही क्या सकता है?

असुर वह कहा जाता है, जिसकी भावनायें स्वार्थी एवं संकीर्ण हों। अपने सुख दुःख के अतिरिक्त दूसरों के सुख दुःख से कोई सम्बन्ध न रखता हो। केवल अपनी बात ही सोचना, दूसरों के विषय में कोई विचार न रखना, दूसरों के अधिकारों की उपेक्षा कर अपने अधिकारों को चाहना। दूसरे की हानि लाभ से निरपेक्ष रहकर अपना हित देखते रहना, स्वार्थपूर्ति के लिये पथ एवं प्रयत्न की कोई मर्यादा न मानना। स्वार्थ के लिये ईर्ष्या, द्वेप और क्रोध आदि वृत्तियों पर संयम न रखना असुरता के लक्षण हैं। जब यह असुरता अपनी परिधि से निरंतर पिशाचता अथवा पामरता की परिधि में प्रवेश कर जाती है, तब वह आततायी, अत्याचारी और असहनीय बन जाता है। अकारण एवं अनावश्यक रूप में दूसरों को सताना, दुःखी करना, हानि पहुँचाना उसका सामान्य मनोरंजन हो जाता है।

दूसरों के सुख में दुःख और दुःख में सुख अनुभव करना उसका विशेष लक्षण होता है। अपना कोई स्वार्थ न होते हुए भी दूसरों की उन्नति एवं विकास में बाधा डालना और प्राणपण से यह प्रयत्न करना कि दूसरा एक कदम आगे न बढ़ जाये, कहीं यह शांति अथवा सुख की एक बूँद न पाले आदि उच्छृंखल, अनर्गल एवं अन्यायपूर्ण कार्य करते रहने वाले पिशाच अथवा राक्षसों की कोटि में आते हैं। झूठ, छल, धूर्तता, कपट, मक्कारी, चोरी, विश्वासघात, प्रवंचना, शोषण आदि पैशाचिक प्रवृत्तियाँ ही तो हैं। ऐसे अभागे मानव पिशाचों को असाध्य ही मानना चाहिये। इनकी अपावन छाया तक जिस जिस स्थान पर पड़ जाती है, उस उस स्थान पर नरक निर्माण हो जाता है।

यह कोटियाँ अथवा श्रेणियाँ-इनमें से मनुष्य जिस कोटि में चाहे प्रवेश कर सकता है। उस पर किसी प्रकार का बाह्य प्रतिबन्ध नहीं है। वह देवता, असुर, राक्षस कुछ भी बन सकता है।

मनुष्य जीवन एक अनुपम अवसर है। इसी बात का कि इस श्रेणियों में से जिस श्रेणी में चाहे अपना उत्थान अथवा पतन कर सकता है। किन्तु जीवन की सफलता एवं सार्थकता इसी बात में है कि मनुष्य अधिकाधिक उन्नति की ओर बढ़ता हुआ ईश्वरत्व प्राप्त कर ले। वह उन्नति करता हुआ मनुष्य से देवता और देवता से ईश्वर रूप होकर सदा सर्वदा के लिये जन्म मरण के चक्र से निवृत्त हो जाये। किसी कार्य की सार्थकता सफलता ही हैं और सफलता का अर्थ है उन्नति एवं विकास। मनुष्यता से देवत्व की ओर पहुँचना ही उसकी सार्थकता है। पतन की ओर प्रगति करना अग्रसर होना नहीं कहा जा सकता है और न मनुष्य से असुर बन जाना सार्थकता ही। सुन्दर से असुन्दर बनना नहीं, सुन्दर, सुन्दरतम बनना ही विकास है। अस्तु हमारी, आप सबके जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम सब श्रेष्ठता की ओर बढ़कर देवत्व की कक्षा में प्रवेश करें।

एक कक्षा से दूसरी कक्षा की ओर उछाल मारना ठीक नहीं। इस अभियान की क्रमिक प्रगति ही अधिक समुचित, सरल एवं विशद होगी। पहले हम मनुष्य से पूर्ण मनुष्य बनने के प्रयत्न में लगें और तब मनुष्यता की पूर्णता के बाद देवत्व की ओर बढ़ें।

मानना ही होगा, अभी हम मात्र मनुष्य ही हैं, पूर्ण मनुष्य नहीं। हमें अपने स्वार्थों एवं अधिकारों के प्रति काफी स्पृहा है। कभी कभी जब हमारी आसुरी वृत्तियाँ प्रबल हो जाती हैं, तब उनके प्रभाव में अपना कर्तव्य भूल जाते हैं और दूसरों के अधिकारों का अतिक्रमण भी कर बैठते हैं। यह बात अवश्य है कि बाद में समाधान होने के पश्चाताप भी करते हैं और क्षमा भी माँगते हैं। अच्छा हो कि हमसे यह भूल कभी न हो। इसका एक सरल सा उपाय यह है कि हम अपने अधिकारों की अपेक्षा अपने कर्तव्यों पर अधिक ध्यान दें। अपने कर्तव्यों तक सीमित रहने से स्वाभाविक है कि अधिकारों की जागरूकता कम हो जायेगी और इस प्रकार उनके प्रति हमारा ममत्व घटने लगेगा और निःस्वार्थ बुद्धि का विकास होने लगेगा। कर्तव्यों का अधिक भान ही तो स्वार्थ को प्रबुद्ध किया करता है। इस उपाय में अधिकारों के हनन होने का भय इसलिये नहीं है कि जब कोई नेक आदमी स्वयं अपने अधिकारों की स्पृहा न कर कर्तव्य करता रहता है, तब दूसरे लोग उसके अधिकार रक्षा को अपना कर्तव्य मान लेते हैं। कर्तव्यशील सत्पुरुष अपने अधिकारों से वंचित रह जाये यह सम्भव नहीं।

इस प्रकार स्वार्थ के प्रति ममत्व कम होते ही परमार्थ बुद्धि का विकास प्रारम्भ हो जायेगा और मनुष्य देवत्व की ओर चल पड़ेगा।

मनुष्य के कर्तव्य क्या हैं? इस प्रश्न का उत्तर यह हैं कि जिन कामों, भावों तथा विचारों का प्रभाव दूसरों पर अवांछनीय हो, उनका त्याग और जिनका प्रभाव अनुकूल हो उनका ग्रहण। निषेध की अपेक्षा विधेयक उपाय अधिक समीचीन होते हैं। निषेध की अपेक्षा विधेयक उपाय अधिक समीचीन होते हैं। हम क्या न करें, जिससे किसी पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े, इसी चिन्ता करते रहने की अपेक्षा यह अधिक सरल एवं सुखद है कि हम वह करें, जिसका प्रभाव दूसरों पर प्रतिकूल पड़े। यह काम सेवा, सहयोग, सहायता एवं सहानुभूति परक ही हो सकते हैं।

मानव समाज पारस्परिकता के ही आधार पर बना, विकसित हुआ, बढ़ा और उसी के आधार पर ठहरा हुआ है। यदि हम सब एक दूसरे का सहयोग करना छोड़ दें तो जीवन, अन्न तथा वस्त्र जैसी साधारण समस्यायें भी हल न हो सकें जीवन की सारी सुविधा साधनों का निर्माण, जिनका कि हम सब उपभोग करते है, परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप से सबके सहयोग से ही होता है। यदि हम एक दूसरे की सेवा करना छोड़ दें अथवा सहायता से विरत हो जायें तो हमारा समाज किसी भी विपत्ति आपत्ति का सामना करने में असमर्थ हो जाये। जो बीमार पड़ जाये वे बीमार ही पड़े रहे, जो आश्रित है वे निराश्रित होकर नष्ट हो जायें। जो धनपति हैं, वे सारा धन अपने पास ही रखें और सारा समाज दो दिन में ही असुविधा से त्रस्त हो उठे।

यदि विचारक अपने विचार, शक्तिवान अपनी शक्ति और शिल्पी अपना शिल्प अपने तक ही सीमित कर ले और दूसरों को उसका लाभ न दे तो शीघ्र ही पूरा समाज जड़वत् होकर एक स्थान पर रुक कर खड़ा हो जाये। तात्पर्य यह कि सारा मानव समाज ही क्यों संसार ही पारस्परिकता, सहायता, सहयोग और आदान प्रदान पर चल रहा है। जो स्वार्थी एवं संकीर्ण व्यक्ति इस पारस्परिकता का महत्व नहीं समझते अथवा इसके प्रतिपादन में प्रमाद करते हैं वे अविकसित एवं अपूर्ण मनुष्य ही हैं।

मनुष्यता की पूर्णता के लिये हमें संग्रह की नहीं त्याग की नीति अपनानी चाहिये। दूसरों से अपना स्वार्थ कैसे सधे यह सोचने के स्थान पर यह सोचना चाहिये कि ऐसा कुछ क्या किया जा सकता है, जिससे दूसरों का कुछ हित हो। जिस दिन हमारी अन्तःचेतना, सेवा, पुण्य, परोपकार, त्याग, उदारता, पारस्परिकता, सहायता, सहयोग, प्रेम, दया करुणा आदि की उदार भावनाओं से ओत प्रोत हो जाये, उस दिन समझना चाहिये कि हम मनुष्यता की पूर्णता की ओर अग्रसर हो आये हैं।

केवल पारमार्थिक विचार रखने अथवा परोपकार का म नहीं मन चिंतन करने से प्रयोजन पूर्ण न होगा। उसके लिये तदनुकूल सक्रियता की भी आवश्यकता है। भावनाओं को कार्य रूप में परिणित न करने से वे शीघ्र ही निष्क्रिय होकर मर जाती हैं और मनुष्य का मानसिक स्तर पुनः नीचे उतर जाता है। भावनाओं के परिपोषण के लिये उन्हें कार्यरूप में परिणित ही करते रहना चाहिये साथ ही केवल मनोरथ मात्र से ही तो किसी की सेवा सहायता नहीं हो सकती। जब तक किसी रोगी को दवा लाकर न दी जायेगी और यदि आवश्यक हो तो पिलाई न जायेगी, तब तक क्या तो उसकी सेवा होगी और क्या उसे सुख अथवा संतोष मिलेगा।

किसी असहाय को जब तक हाथ देकर नहीं उठाया जायेगा अथवा पदार्थ रूप में उसकी अपेक्षित सहायता न की जायेगी, तब तक उसका क्या दुःख दूर ही सकेगा। भूखे को रोटी, नंगे को वस्त्र, असहाय को हाथ, अज्ञानी को विद्या निरक्षर को अक्षर और रोगी को दवा देकर ही सुखी और शीतल बनाया जा सकता है। हमारी उदार, दयालु अथवा करुण भावनायें मात्र उसका न तो कोई हित कर सकती है और न हम ही परमार्थ पुण्य के अधिकारी बन सकते हैं।

मनुष्य की पूर्णता का चिन्ह यह हैं कि हममें कितनी उत्कृष्ट भावनाओं का विकास हुआ हैं और उन भावनाओं को यथार्थ रूप में परिणित करने की प्रेरणा कितनी प्रबल हुई है और हम परमार्थ कार्यों के लिये अपने कितने स्वार्थों और अधिकारों को त्याग करने में तत्पर होने लगे हैं और उस त्याग में हमें किस सीमा तक प्रसन्नता एवं सन्तोष मिलने लगा है। जिस दिन पूर्णरूप से हमारा स्वार्थ परमार्थ, हमारे अधिकार कर्तव्य और हमारा सुख दूसरों का सुख होकर सन्तुष्ट होने लगे, मानना चाहिये कि हम पूर्णता की परिधि में आ गये और अब उस भूमिका पर खड़े हुए हैं, जहाँ से देवत्व की ओर अभियान प्रारम्भ किया जा सकता है।

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