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Magazine - Year 1969 - Version 2

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गायत्री साधना- - संकट और कष्टों के निवारण में गायत्री शक्ति का प्रयोग

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आपत्तियों और संकटों के समय लोग भौतिक उपायों से निवारण का उपाय तो करते हैं पर उन उपायों की सामर्थ्य अतिस्वल्प एवं अस्थायी है। इसलिये निश्चयपूर्वक यही नहीं कहा जा सकता कि इन उपायों से वे संकट टल ही जायेंगे। अस्वस्थता के लिये औषधियों का, शत्रु प्रतिरोध के लिए अस्त्र शस्त्रों का, दरिद्र निवारण के लिये व्यवसाय का, उलझनों को सुलझाने के लिये विद्या बुद्धि का और प्रयत्न पुरुषार्थ का हर कोई आश्रय लेता है। किन्तु इन उपायों का परिणाम अमोघ नहीं। भौतिक पदार्थ और उपाय सभी स्वल्प सामर्थ्यवान् एवं अनिश्चित हैं। इसलिये उनके परिणाम के बारे में भी कोई निश्चय नहीं कि अभीष्ट प्रतिफल मिल ही जाएगा एवं प्रस्तुत संकट टल की जाएगा

आत्म बल की शक्ति अमोघ है। उसकी क्षमता भौतिक माध्यमों की तुलना में असंख्य गुनी बढ़ी चढ़ी है। इसलिये जब कोई ऐसा संकट सामने आ खड़ा हो, जिसका निवारण सामान्य उपायों से सम्भव न दिखता हो, तब आत्म शक्ति का सहारा लिया जाता है। देखा गया है कि यह प्रयोग असफल नहीं होता।

आत्म-बल उत्पन्न करने और बढ़ाने के उपायों में गायत्री उपासना सर्वोपरि है। अन्यान्य उपासनाओं की तुलना में यह प्रयोग निस्सन्देह अति सामर्थ्यवान् है। आपत्तियों के निवारण में लोक व्यवहार में प्रचलित उपाय करते हुए, यदि आत्म शक्ति को उत्पन्न एवं प्रयुक्त किया जा सके तो उसके आश्चर्यचकित करने वाले परिणाम होते देखे गये हैं।

इतिहास, पुराणों में ऐसे कथानक भरे पड़े हैं, जिनमें बताया गया है कि देव शक्तियों ने संकट एवं निराशा की घड़ियों में आत्म शक्ति की मूर्तिमान् देवी-गायत्री-का आश्रय लिया और उसकी सहायता से आपत्तियों के निवारण में सफल हुए। दैवी, आसुरी शक्तियों के युद्ध संघर्ष का क्रम चिरकाल से चला आ रहा है। असुर अपने प्रबल पुरुषार्थ के आधार पर पहले दौर में विजयी होते रहे हैं। देवताओं की एकांकी धार्मिक रुचि से सम्बन्धित रही है, वे बल, पुरुषार्थ एवं संगठन से उदासीन रहते है, इस भूल का दण्ड उन्हें अनेक बार भुगतान पड़ा है। देव दानव युद्ध के प्रथम दौर में दानवों को विजय देवताओं की एकाकी प्रगति के कारण उपलब्ध होती रही है। पराजित देवों को अन्ततः आत्म शक्ति का सहारा लेना पड़ा है और तब वे नई सामर्थ्य से सुसज्जित होकर संघर्ष क्षेत्र में उतरते और विजयी होते रहे हैं।

देवाधिराज इन्द्र को पराजित स्थिति से उतार कर विजयी बनाने में समय समय पर आदि शक्ति भगवती गायत्री का योगदान रहा है। ऋषियों, महापुरुषों एवं सामान्य मनुष्यों ने इस शक्ति के आधार पर कैसे पराजित स्थिति से छुटकारा पाकर विजयी बनने में सफलता पाई है, इसके कुछ प्रसंग नीचे देखिये-

मातः प्रसीद सुमुखी भव दीनसत्वाँ स्त्रायस्य, नो जननि दैत्य पराजितान्वै। त्वं देवि नः शरणदा भुवने प्रमाणा शक्तासि दुःख शमनेअखिल दीर्ययुक्ते। ध्यायन्ति येअपि सुखिनो नितराँ भवन्ति। दुःखान्विला विगत शोक-भयास्तयान्ये रुह्मार्थिनो विगतमानविमुक्त संगाः संसार वारिधजलं प्रतरन्ति संतः। त्वं देवि विश्व जननि प्रथित प्रभावा संरक्षणार्थ मुदिताअअर्ति हर प्रतापा।

इन्द्रादि देवगण सावित्री देवी का स्तवन करते हुए कहते हैं- “हे माता! आप प्रसन्न होइए और सुमुखि अर्थात् प्रसन्न मुख वाली होकर कृपा कीजिये। हे जननी! हम हीन सत्व वालों को आप रक्षा कीजिये, जिन हम लोगों को दुष्ट दैत्य गण अहर्निश पराजित करने की चेष्टा किया करते हैं। हे देवि! आप लोक में शरण में आये हुओं की सुरक्षा करने वाली प्रसिद्ध हैं और आप समस्त प्रकार के दुःखों के शमन करने में पूर्ण समर्थ हैं। आप परिपूर्ण पराक्रम से युक्त हैं। जो भी कोई आपका ध्यान किया करते हैं, वे अत्यन्त सुखी हो जाते हैं। जो भी कोई दुःखों से युक्त होते है, वे आपकी कृपा से शोक और भय से छुटकारा पा जाया करते हैं। जो मोक्ष की इच्छा रखने वाले हैं, वे मान और संग से रहित होकर सन्त पुरुष आपके प्रसाद से इस संसार रूपी समुद्र के जल को पार कर जाते हैं। हे देवि! आप इस सम्पूर्ण विश्व की माता हैं। आपका यह प्रभाव सर्वत्र प्रसिद्ध है कि आप दुःखियों के संरक्षण करने के लिये ही प्रकट हुई हैं और आपका प्रताप समस्त दुःखों को मिटा देने वाला है।

त्वतः सर्वमिदं विश्वं स्थावरं जगमं तथा। अन्ये निमित्त मात्रा स्ते कर्तारस्तव निर्मिताः।

अर्थ-हे देवि! यह सम्पूर्ण चराचर विश्व आपसे ही समुत्पन्न हुआ है। अन्य ब्रह्मादि जो इसके कर्ता हैं, वे तो केवल इसके निमित्त मात्र ही हैं, क्योंकि उनको भी आपने ही बनाया है।

संहर्त्त् मेतदह्मिलं किल काल रूपा कोवेत्ति तेअम्ब चरि त्वं तेनु मन्द बुद्धिः। ब्रह्मा हरश्च हरिश्च रचो हरिश्च इन्द्रो यमोअथ वरुणोअग्नि समीरणौच। सातुँ क्षमान् मुन योअपि महानुभावा यस्याः प्रभावमतुलं निगमागमाश्च। धन्यास्त एवं तव मक्तिपरा महान्तः संसार दुः,ख रहिता सुख सिन्धु माताः॥

हे देवि! इस सम्पूर्ण विश्व का जब आप संहार करना चाहती हैं तो आप ही का स्वरूप वाला बन जाया करता है। हे अम्बा! मन्द बुद्धि वाला कौन आपके चरित्र को समझ सकता है, जबकि ब्रह्मा, हर, हरिदश्च रथ, हरि, इन्द्र, यम, वरुण, अग्नि, वायु ये सब भी आपके इस परम अद्भुत चरित्र के जानने में समर्थ नहीं होते हैं। महानुभाव मुनिगण और निगम और सागम भी जिस आपके अतुल प्रभाव को नहीं समझते हैं और महान् हैं। आपके भक्तजन इस संसार के दुःख से रहित होकर सदा सुख के सागर में मग्न रहा करते हैं। आपकी भक्ति का ऐसा अद्भुत प्रभाव है।

देवोघाने पराशपतेः प्रासादमकरोद्धरिः। पह्मरागमयी मूर्ति स्थापयामास वासवः॥

त्रिकालं महतीं पूजाँ चक्रुः सर्वेअपि निर्जराः। तदा प्रभृति देवानाँ श्री देवी कुल दैवतम्॥

विष्णु च त्रिभुवन श्रेष्ठ पूजया मास वासवः। ततो हते महावीयें वृत्रे देव भयकंरे॥

अर्थ- इसके अनन्तर इन्द्र ने देवोद्यान में परमशक्ति देवी का एक परम सुन्दर प्रसाद का निर्माण कराया था और उसमें एक पद्मरांग मणि की प्रतिभा को निर्मित करा कर संस्थापित किया था। वहाँ पर उस देवी की समस्त देवगण तीनों काल में महती अर्चना किया करते थे। उसी समय से देवताओं की श्री देवी कुल देवता मानी जाने लगी थी। उस महान् भयंकर शत्रु देवगण को त्रास देने वाले अत्यन्त पराक्रमी वृत्रासुर के वध हो जाने पर इन्द्र ने त्रिभुवन में श्रेष्ठ भगवान् विष्णु का भी पूजन किया था।

पूर्व मदोद्धता वैस्या देवैर्युद्धं तु चकिरे। शतवर्ष महाराज महाविस्मय कारकम्॥

पराशक्ति कृपानेशात् देवैर्दैत्या जितायुधि। त्तः प्रहर्षिता देवाः स्वपराक्रम वर्णनम्॥

चक्रूः परस्परं मोहात्साभि माताः समन्ततः। परोशक्ति प्रभावं ते स्वत्वा मोहभाग ताः॥

तेषा मनुग्रहं कतु तदैव जगदम्बिका। प्रादुरासीत् कृपा पूर्णा यज्ञ रूपेण भूमिय।

कोटि सूर्य प्रतीकाशं चन्द्र कोदि सुशीतलम्। विद्युत्कोटि समानाभं हस्त पादादि वर्जितम्॥

अदृष्ट पूर्व तद दृष्ट्वा तेजः परम सुन्दरम्। सविस्मया स्तरा प्रोचः किमिदं किमिदं विति॥

प्राचीन काल में मद से उद्धत दैत्यों ने देवताओं के साथ युद्ध किया था। वह महाघोर युद्ध सौ वर्ष एक महान् विस्मय उत्पन्न करने वाला हुआ था। उस समय परमशक्ति की कृपा के आवेश से ही देवगण ने युद्ध में दैत्यों को पराजित किया था। विजय होने पर देवगण अत्यन्त प्रसन्न हुए और परस्पर में अपने बल-पराक्रम की प्रशंसा का वर्णन करने लगे। परमशक्ति के प्रभाव का ज्ञान प्राप्त न कर मोह से अभिमानपूर्वक सभी ओर अपने बल की शेखी बघारते थे। उन देवताओं पर कृपा करने के लिये जगत्-जननी ने उसी समय में अपना प्रादुर्भाव किया था। भगवती कृपा से परिपूर्ण स्वरूप वाली थीं। हे राजन्! उसने एक यक्ष के रूप में देवों को दर्शन दिया था। उस समय करोड़ों सूर्यों के तुल्य उसका तेज था, किन्तु करोड़ों चन्द्रों के सदृश वह तेज शीतल भी था। करोड़ों विद्युत के समान देदीप्यमान वह तेज हस्त पाद आदि से रहित था। ऐसे दिव्यातिदिव्य तेज को देवों ने पहले कभी भी नहीं देखा था, जो कि बहुत ही अधिक सुन्दर भी था। तब तो देवता आश्चर्य से भर गये और कहने लगे कि यह क्या वस्तु है?

इत्यं निश्चित्य तत्रैव गर्व हित्वा सुरेश्वरः। चरित्र मीदृशं यस्य तमेव शरणंगतः॥

तस्मिन्मेव क्षणे जाता व्योम वाणी नमस्तले। मायाबीजं सहस्त्राक्ष जप तेन सुखी भव॥

ततो जजाय परमं माया बीजं परात्परम्। तदेवायिरभूत्तेज स्तस्मिन्नेव स्थले पुनः॥

प्रेमाश्र पूर्ण नयनो रोमांचित तनुस्ततः। दण्डवत्प्रणनामाय पादयोर्जगदीशि तुः॥

तुष्टाव विविधैः स्तोत्रैर्यक्ति सम्मत कन्धरः। उवाच परम प्रीतः किमिहं यक्षमित्यणि॥

प्रादुर्भूत च कस्मात्तहद सर्व सुशोभने। इति तस्य वचः श्रृत्वा प्रोवाच करुणार्णथा।

मत्प्रसाद्भवभिस्तु जलोलब्धोअस्ति सर्वथा। अनुग्रहं ततः कर्तयुश्मदंहायनुशमम्॥

निःसुतं सहसा तेजो मदीपं यक्षमित्यपि।

अर्थ- देवेश्वर ने मन में विचार किया कि मुझे अब इसकी ही शरण में जाना चाहिये, अन्य कोई भी चारा नहीं है। ऐसा निश्चय करके वहाँ पर ही अपने गर्व का परित्याग करके देवेश्वर इन्द्र न जिसका ऐसा अद्भुत चरित्र है, उसी की शरणागति प्राप्त हो गया था। उसी क्षण में आकाश में,प्रकाशवान उत्पन्न हुई थी-हे इन्द्र! तुम माया बीज का जाप करो। इसी से तुमको सुख प्राप्त होगा। इसके अनन्तर इन्द्र ने परात्पर जो माया बीज है, उसका जप किया था। अचानक ही उसी स्थल में वही तेज पुनः आविर्भूत हुआ था। उस परम दिव्यतम-दिव्य तेज को देखकर इन्द्र के नेत्रों से प्रेमाश्रुओं का पात होने लगा और उसकी सम्पूर्ण देह पुलकित हो गई थी। उस जगदीश्वरी के चरणों में इन्द्र ने दण्डवत् प्रणाम किया था भक्तिभाव से अपनी कन्धरा को नत करके अनेक स्रोतों के द्वारा उसका स्तवन किया था। इन्द्र ने प्रार्थना की कि हे सुशोभने! कृपा कर यह बताइये यह यक्ष स्वरूप क्या है, जो कि प्रादुर्भूत हुआ है और इसका क्या कारण है? इन्द्र के इस वचन का श्रवण कर अतिशय करुणा से पूर्ण भगवती ने कहा-तुम्हारा जो दैत्यों से युद्ध हो रहा था, उसमें विजय मेरी ही कृपा से तुमको प्राप्त हुई है। मैं तुम्हारे ऊपर अनुग्रह करते हुए, तुम्हारे देह से ही यह मेरा तेज सहारा यक्ष स्वरूप वाला निकला है।

अतः परं सर्वभावै हित्वा गर्वतु देहअम्। मामेव शरणं यात सच्चिनान्न्द कपिणीम्॥

इत्युपत्वा च महादेवी मूल प्रकृति रीश्वरी। अन्तर्धानं गता सच्चो भक्तया देवै रभिष्टुता॥

ततः सर्वे स्वगर्वतु विहाय षडपंकअम्॥ सम्यगाराषप्राप्ततु र्भगवत्याः परात्परम्॥

त्रिसन्ध्यं सर्वदा सर्वे गायत्री अप तत्पराः। यज्ञ भागादिभिः सर्वे देवीं नित्यं सिपेविरै॥

अर्थ- भगवती ने इन्द्र से कहा-इसलिये सर्वभावों से देह में उत्पन्न होने वाले अभियान का त्याग करके परम सच्चिदानन्द स्वरूप वाली मेरी ही शरण ग्रहण करो। अर्थात् केवल मेरी उपासना करो।” इतना कह कर मूल प्रकृति ईश्वरी महादेवी अन्तर्ध्यान ही गई। देवगण के द्वारा भक्तिभाव से उसकी स्तुति की थी। इसके अनन्तर समस्त देवों ने अपने गर्व का त्याग करके परस्पर भगवती के चरण कमल की आराधना की थी। सब लोग सर्वदा तीनों कालों में गायत्री के जप करने में तत्पर हो गये थे। सभी यज्ञ के भागों आदि के द्वारा नित्य देवी की सेवासाधना करने लगे थे।

इस संसार में अगणित भौतिक और आध्यात्मिक कष्ट संकट एवं विघ्न है। जिनके कारण सत्यासत्य स्तर का विघ्न रहित जीवन यापन कठिन हो जाता है। प्रयत्न करते हुए भी सफलता हाथ नहीं लगती। ऐसी दशा में करते हुए भी सफलता हाथ नहीं लगती। ऐसी दशा में हमें हताश न होकर भगवती आदि-शक्ति-अध्यात्म सामर्थ्य-गायत्री माता का सहारा लेना चाहिये।

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