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Magazine - Year 1969 - Version 2

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सर्वोपरि और सर्वशक्तिमान सत्त-परमात्मा

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ॐ अणोरणीयानहमेव तद्वन्महानहं,

विश्वमिवं विचित्रम्।

पुरातनोऽहं पृरुषोऽहमीशो,

हिरण्यमयोऽहं शिवरूपमस्मि।

अपाणि पादोऽहमचिन्त्य शक्तिः,

पश्याम्यचक्षुः स श्रृणोम्यकर्णः।

अहं विज्ञानामि विविक्त रूपो,

न चास्ति वेत्ता ममचित्त सदाहम्।

-कैवल्योपनिषद् 20।21

अर्थात् मैं छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा हूँ। इस अद्भुत संसार को मेरा ही स्वरूप मानना चाहिये, मैं ही शिव और ब्रह्मा का स्वरूप हूँ, मैं ही परमात्मा और विराट् पुरुष हूँ, वह शक्ति जिसके न हाथ है, वह परब्रह्म मैं ही हूँ, मैं सर्वदा चित्तस्वरूप रहता हूँ, मुझे कोई जान और समझ नहीं सकता। मैं बुद्धि के बिना ही सब कुछ जानने, स्थूल कानों के बिना सब कुछ सुनने और स्थूल आँखों के बिना सब कुछ देखने की सामर्थ्य रखता हूँ।

उपनिषद्कार की इस अनुभूति को साधकों, योगियों और तत्व दर्शियों ने अनेक प्रकार से निरूपित करके परमात्मा की उपस्थिति प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है। हमारी भूल यह है कि मनुष्य देह में धारण होने के कारण हमारी बुद्धि भी मानवीय हो गई है, अर्थात् संसार की प्रत्येक वस्तु को मानवीय लाभ, मानवीय स्वार्थ और यहाँ तक कि ईश्वर और सूक्ष्म दैवी शक्तियों को भी मानवीय स्थूलता से जोड़ने का प्रयत्न करते है, इसलिये संसार के रहस्य समझने से रह जाते है।

वस्तुतः हमें अपने आपको एक बौद्धिक सत्ता मानकर विचार चाहिये, जिस दिन इस शरीर को सृष्टि के शेष प्राणियों के साथ बैठा देने की बुद्धि जागृत हो जाती है और अपने अपने को कोई ऐसा प्रकाश कण अनुभव करने की सूक्ष्म दृष्टि आ जाती है, जो केवल इच्छा और संकल्प मात्र से सर्वत्र गमन कर सकता है। सुख-दुःख आदि की अनुभूति कर सकता है और उसी रूप में विश्वदर्शन कर सकता है, उस दिन परमात्मा को समझना सरल हो जाता हैं। अपने आपको, अपने जीवन लक्ष्य को भी समझना सरल हो जाता है।

उपनिषद्कार के उक्त भाष्य को समझने के लिये चलिये, सर्वप्रथम यह मान लें, हम कोई शरीर नहीं वरन् एक कल्पना या विचार-शक्ति मात्र हैं। आइए सर्वप्रथम परमात्मा के अणु स्वरूप का चिन्तन करें। क्या सचमुच कोई सत्ता है, जो अणु प्रतीत हो पर उसमें ब्रह्माण्ड की सी चेतना सन्निहित हो।

‘शक्ति का भंडार परमाणु’ इस शीर्षक से लेखक श्री वेद मित्र ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान के 17 नवंबर 1968 अंक में परमाणु संरचना के पांच चित्र बनाकर इस महाशक्ति का परिचय कराया है। वे लिखते हैं-

“किसी तत्व के छोटे से कण को परमाणु कहते है, इसमें उस तत्व के सभी गुण मौजूद होते है, लोहे के गोले में जो गुण है, वे सभी लोहे के नन्हे से परमाणु में तुम्हें मिलेंगे परमाणु पदार्थ की सबसे छोटी इकाई है। वह एक इंच के 20 करोड़ वे भाग के बराबर होता है। दुनिया की सबसे बड़ी दूरबीन भी एक अणु को अकेला नहीं देख सकती। परमाणु को तोल लेने लायक तराजू मनुष्य नहीं बना सका है। फिर भी वैज्ञानिकों ने जो जानकारियाँ उपलब्ध की है, वह असाधारण है।

1 इंच के 20 करोड़वाँ भाग को तुम बहुत छोटा समझ रहे होंगे जरा उसके भीतर झाँक कर देखो। वहाँ तो खाली मैदान पड़ा हुआ। बीच में छोटा सा स्थान घिरा है, इसे ‘नाभिक’ कहते है। यह नाभिक प्रोटान और न्यूट्रान दो तत्त्वों से मिलकर बना है। अब परमाणु के अन्दर ब्रह्माण्ड का पता लगाओ। यह जो खाली स्थान (पोला) है, उसका क्षेत्रफल देखना। नाभिक को यदि एक छोटी सी गेंद मान लें तो उसकी तुलना में खाली स्थान का व्यास 2000 फुट होगा।”

इससे परमाणु के छोटे से छोटे बड़े से बड़े स्वरूप की कल्पना की आकांक्षा अभी विज्ञान पूरी नहीं कर सका, क्योंकि अभी नाभिक का विश्लेषण नहीं हो पाया और लगता है, उसका मशीनी एनालिसिस सम्भव भी नहीं है, क्योंकि वैज्ञानिक कहते है, उसे जानने के लिये तो उतनी ही सूक्ष्म चेतन शक्ति चाहिये, जो अनुभवों को लिखकर या बोल कर बता सके, जबकि भारतीय तत्त्वज्ञ कहते है कि वह अनुभूति इतनी विलक्षण और विशाल है कि जो मनुष्य उसे पा लेता है, वह स्वयं भगवान हो जाता है।

वैज्ञानिक अब उस ताकत को मानने को विवश हो रहे है-सन् 1937 में ‘द मिस्टीरियस यूनिवर्स नामक पुस्तक और दि न्यू बैक ग्राउन्ड आफ साइन्स में सर जेम्स जीन्स ने लिखा है-उन्नीसवीं शताब्दी के साइन्स में पदार्थ और पदार्थ जगत के जो ऊँचे से ऊँचे सिद्धान्त समझे जाते थे, अब हम उनसे दूर होते चले जायेंगे। जो नई बातें हमें पता चली है, उनसे हम विवश हैं कि प्रारम्भ में शीघ्रता में आकर हमने जो धारणा बनायी थी, उसे अब फिर से जाँचे अब मालूम होता है कि जिस जड़ पदार्थ को शाश्वत सत्य मानकर बैठे थे, वह गलत है, पदार्थ मन या आत्मा से पैदा हुआ है और उसी का जहूर (रूप) है।

“मुझे विश्वास है कि आत्मा ही पदार्थ का हस्तान्तरण करती है। यह शब्द हर्बर्ट स्पेन्सर और चार्ल्स डार्विन के साथी एल्फ्रेड रसल वैलेस ने अपनी पुस्तक सोशल इन विरानमेन्टस एण्ड मारल प्रोग्रेस में लिखे है।

विज्ञानाचार्य एलबर्ट आइन्स्टीन लिखते है-मैं परमात्मा को मानता हूँ, सृष्टि की व्यवस्था ओर सौंदर्य में वह स्पष्ट प्रकट है। मैं मानता हूँ कि प्रकृति में एक चेतनता काम कर रही है। विज्ञान के काम का आधार अब इसी विश्वास पर टिक रहा है यह संसार यों ही बन गया वरन इसमें एक क्रम और उद्देश्य है, जो समझ और पहचान में आ सकती है।”

प्रसिद्ध यूरोपियन विज्ञान वेत्ता सर ओलीवर लाज ने “आत्मा और मृत्यु पर भाषण देते हुए सन् 1930 में ब्रिस्टल में कहा था-

“इसमें सन्देह नहीं कि विज्ञान अब एक नये क्षेत्र में प्रवेश करेगा और उसकी वास्तविकता जानने का प्रयत्न करेगा, पर सच यह है कि हम सब चेतन जगत में जी रहे है यह चेतना शक्ति पदार्थ पर हावी है, पदार्थ उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यदि कोई अत्यन्त शक्तिशाली सत्ता न होती, जो हमें पिता की तरह प्रेम करती है, तो आज की भौतिक उपलब्धियाँ इतनी भयानक होती है कि मनुष्य उसमें जीवित भी न रह पाता।”

सर ए. एस. महोदय कहते है-हम अब इस निष्कर्ष पर पहुँच गये है कि कोई असाधारण शक्ति काम कर रही है, पर हम यह नहीं जानते, वह क्या कर रही है। जे. बी. एस. हैल्डेन ने लिखा है-हम जिस संसार को एक मशीन समझ बैठे थे, वह आत्म चेतना की दुनिया है। हम उसे अभी बहुत कम देख पाये है, जबकि असलियत वही है। पदार्थ और पदार्थ की शक्तियाँ कुछ नहीं है, असली तो मन और आत्मा ही है।”

1934 में प्रकाशित पुस्तक दि ग्रेट डिजाइन में विश्व के 14 प्रख्यात विज्ञानाचार्यों ने एक सम्मिलित सम्मति प्रकट करते हुए लिखा है-इस संसार को एक मशीन कहे, तो यह मानना पड़ेगा कि वह अनायास ही नहीं बन गई वरन् पदार्थ से भी कोई सूक्ष्म मस्तिष्क और चेतना-शक्ति पर्दे से उसका नियन्त्रण कर रही है।”

रावर्ट ए. मिल्लीकान ने लिखा है-” विकासवाद के सिद्धान्त से पता चलता है कि जिस तरह प्रकृति अपने गुणों और नियमों के अनुसार पदार्थ पैदा करती है, उससे विपरीत परमात्मा में वह शक्ति है कि वह अपनी इच्छा से ही सृष्टि-निर्माण में समर्थ है। प्रकृति बीज से सजातीय पौधा पैदा करती है। आम के बीज से इमली पैदा की शक्ति प्रकृति में नहीं है। पर तरह-तरह के प्राणी प्रकट करके परमात्मा ने अपना अस्तित्व और सर्वशक्ति सत्ता सिद्ध कर दी। मनुष्य के रूप में उसने अपने आपको भी प्रकट करके रख दिया।”

आर्थर एच. काम्प्टन ने बताया-मालूम होता है, हम अपने मस्तिष्क से अलग होकर भी सोच सकते है। अभी पूरी तरह तो साबित नहीं है, पर मालूम ऐसा होता है कि मरने के बाद भी चेतनता नष्ट नहीं होती।”

वैज्ञानिकों के इन आशाओं को पुष्ट करने वाले ऐसे आश्चर्यजनक प्रमाण भी है, जिनसे यह सिद्ध होता है कि संसार का नियमन करने वाली सत्ता अत्यन्त सूक्ष्म और सचेतन है, उसकी शक्ति की सीमा से परे कुछ नहीं है।

डा. नार्मन विन्सेन्ट पील ने मरते हुए मनुष्यों की गतिविधियों का बड़ा सूक्ष्म अध्ययन किया। स्टेएलाइव आल योर लाइफ नामक पुस्तक में उन्होंने एक संस्मरण लिखा है कि एक मनुष्य मर रहा था, वह अर्द्ध-चेतनावस्था में था, जब उसकी आत्मा कुछ-कुछ इस संसार से भी संपर्क साध सकती थी और नैसर्गिक आत्मन् को भी देख रही थी, उसने बताया-मैं बहुत आश्चर्यजनक ज्योति देख रहा हूँ, उस ज्योति पुञ्ज से बहुत मधुर संगीत विस्फोिटित हो रहा है।” (स्मरण रहे-ईश्वर को भारतीय तत्व-दर्शन में’ ओंकार की ध्वनि वाला मधुर संगीत भी बताया गया है।)

पदार्थ को विस्फोट कर शक्ति उत्पन्न करने का विज्ञान लोग जान चुके है। एक पदार्थ को कूट कर दूसरे पदार्थ में बदल देने का वैज्ञानिक विधान है, पर एक सूक्ष्म विधान ऐसा भी पाया गया है जिसमें किसी उपकरण के सहयोग के बिना केवल संकल्प या विचार शक्ति के द्वारा वस्तुओं तक की अन्तर्धान करने की सत्यता पाई गई।

टेनेसी राज्य के नीलटिन नामक स्थान में डेविड लैंग नामक एक आदमी रहता था। 23 सितम्बर 1880 की सायंकाल उसने अपने आठ वर्षीय पुत्र जार्ज और ग्यारह वर्षीय सारा को खेलने के लिये खिलौने दिये और स्वयं उस मकान की ओर चल पड़ा जो उसी चरागाह के दूसरे सिरे पर बन रहा था। पत्नी बोली-शीघ्र लौट आना, मुझे वस्तुएँ खरीदनी है, दुकानें बन्द होने से पहले बाज़ार चलना है।”

डेविड लैंग ने कहा-अच्छी बात है, बस पाँच मिनट में वापिस आता हूँ।” इसके बाद वह मुश्किल से पाँच कदम ही चला था कि एकाएक जिस तरह चक्रवातों में फँसकर कोई तिनका अदृश्य हो जाता है, उसी प्रकार लैंग सबके देखते-देखते अन्तर्धान हो गया। आस-पास की चप्पा-चप्पा भूमि बिल तक छान डाले गये, पर वहाँ डेविड की देह का छल्ला तक न दीखा। भूगर्भ विभाग के निरीक्षकों तक ने जाँच कर ली पर डेविड के जीवन के कही भी लक्षण दिखाई न दिये।

इस घटना के छः महीने बाद अप्रैल 1881 में डेविड लैंग के दो बच्चों ने देखा कि जहाँ से उसका पिता अन्तर्धान हुआ था, उस स्थान के चारों ओर 15 फुट के घेरे में घास एकदम पीली पड़ गई है। वे उस घेर के पास चले गये। ग्यारह वर्षीय सारा ने पुकारा-पिता जी! उसे बहुत ही दर्द भरी कमजोर आवाज में डेविड लैंग के यह शब्द कई बार सुनाई पड़े-हाँ बिटिया मुझे बचाओ, मुझे बचाओ। इसके बाद आज तक वहाँ न कुछ सुनाई दिया न दिखाई दिया।

इस घटना से रहस्य का भले ही कुछ पता न चले पर एक ऐसी सत्ता का होना अवश्य प्रमाणित हो जाता है, जो किन्हीं सूक्ष्म शक्तियों द्वारा पदार्थ का लोप कर सकती है।

इसी प्रकार की एक घटना 1 दिसम्बर 1963 के धर्मयुग पृष्ठ 23 पर छपी है, जिसमें श्री दामोदर अग्रवाल ने लिखा है- तालों के अन्दर रखी हुई पूड़िया, मेवे आदि सवेरे देखने पर मिट्टी में परिवर्तित मिलते, जबकि ताला ठीक तरह बन्द मिलता और ताली पूर्ण सुरक्षित।”

बीसवीं शताब्दी के इस युग में जब विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है, तब भी हाट पीपल्या की लगभग 711 सेर वजन की पत्थर की प्रतिमा डोलग्यारस के पुण्य पर्व पर हजारों की भीड़ के सामने पानी में तैरा दी जाती है और वह मूर्ति पानी में डूबती नहीं। वैज्ञानिकों के लिये यह एक खुली चुनौती है, पुरातत्व वेत्ताओं में उसकी जाँच करली है। वह पत्थर की है और पाण्डव काल की लगभग मानी जाती है। 20.9.61 को इसका सार्वजनिक प्रदर्शन किया गया, जहाँ सैकड़ों पत्रकारों ने भी प्रतिमा को तैरते देखा और उसके फोटो लिये। एक फोटो धर्मयुग में भी छपा था।

यह घटनायें और प्रमाण यह मानने के लिये विवश करते है कि संसार-जितना हमें दिखाई देता है, उतना ही नहीं - वरन् उससे भी सूक्ष्म और विशाल है और उसका नियमन किसी अदृश्य, चेतन, संकल्प स्वरूप, सर्वशक्तिमान् सत्ता के द्वारा हो रहा है।

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