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Magazine - Year 1969 - Version 2

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अन्य जीवों को तुच्छ न समझें

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जीव जन्तुओं और मानव में क्या सम्बन्ध है, यह एक बड़ा गम्भीर प्रश्न है। जिन लोगों ने आत्म तत्व को नहीं समझा है और सृष्टि रचना की प्रक्रिया से अनजान हैं, वे तो मनुष्य के सिवाय अन्य समस्त प्राणियों को अनात्म अथवा जड़ पदार्थों के तुल्य मानते है। यहूदी, ईसाई, मुसलमान आदि धर्मानुयायियों की विचार धारा ऐसी ही होती है और इसलिये वे पशु पक्षियों को मारने में कोई पाप कहाँ समझते। संसार के अधिकांश अन्य धर्मों की भी ऐसी हानि स्थित है। यह श्रेय केवल भारतीय धर्म को ही प्राप्त हैं कि उसने प्राचीनकाल से ही समस्त प्राणियों में एक ही आत्मा की स्थिति तथा एक छोटे से कीड़े को भी एक बराबर स्वीकार किया है। इसी तथ्य को हृदयंगम कराने के लिये गीताकार ने यहाँ तक कह दिया है कि ‘ज्ञानी व्यक्ति के लिये हाथी ओर चींटी तथा ब्राह्मण और चाँडाल एक समान हैं।’ आशय यही है कि यह समस्त विश्व एक ही आत्म तत्व का खेल है, इसमें किसी को छोटा बड़ा समझना भूल है।

यह ठीक है कि समस्त प्राणियों में मनुष्य ने ही बौद्धिक क्षेत्र में सर्वाधिक प्रगति की है और ज्ञान राज्य में प्रवेश करके वह सृष्टि के मूलतत्त्व को जान सकने में समर्थ हो गया है। इसी ज्ञान के बल पर उसने इस सिद्धान्त को भी खोज निकाला है कि यद्यपि एक आत्म तत्त्वदर्शी मनुष्य और हिरन, कुत्ता जैसे पशु अथवा मेंढक, चूहे जैसे छोटे जन्तु में बहुत अधिक अन्तर है पर आत्म तत्व दोनों में मौजूद है और इस समय मेढ़क में स्थित आत्मा किसी समय मनुष्य की योनि में भी पहुँच सकती है। इस प्रकार एक भारतीय शास्त्रों का ज्ञाता और उन पर आचरण करने वाला ही ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ के महान् सिद्धान्त की वास्तविकता को अनुभव कर सकता है।

जैसा हमने ऊपर कहा है निस्सन्देह बुद्धि और ज्ञान-शक्ति की दृष्टि से मनुष्य की अन्य जीव-जन्तुओं से कोई तुलना नहीं की जा सकती, फिर भी अनेक जीव जन्तुओं में ऐसी विशेषताएँ मिलती है, जिनकी समता कोई सामान्य दर्जे का मनुष्य नहीं कर सकता। उदाहरण के लिये कुत्ते की सूँघने की, गिद्ध की देखने की, शेर की उछलने की, मधु मक्खियों की सामूहिकता की शक्तियों का उदाहरण मनुष्य कभी उपस्थित नहीं कर सका। और भी अनेक जीवन आहार प्राप्त करने या आत्म रक्षा के लिये ऐसी ऐसी विधियों से काम लेते हैं, जो आश्चर्यजनक जान पड़ती हैं। साथ ही अनेक पशु समय समय पर ऐसी सूझबूझ का परिचय देते हैं, जिसे देखकर उनको कभी ‘जड़ पदार्थ’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। अनेक अन्वेषण करने वालों का तो यह कथन हैं कि मनुष्य ने कितनी ही बातों का ज्ञान जीव जन्तुओं से ही प्राप्त किया है।

बुनने वाली चिड़ियाँ -

बुनने के कार्य में कई तरह की चिड़ियों ने बड़ी उन्नति की है। हमारे देश में इसके लिये ‘दया’ पक्षी का घोंसला प्रसिद्ध है। वह घास के तिनकों को ऐसी कारीगरी से बुनती है कि उसका घोंसला एक दर्शनीय वस्तु बन जाता है। उसके भीतर न तो पानी जाता है और न कोई शत्रु साँप, बन्दर, कौआ आदि भीतर घुस कर अण्डों या बच्चों को कुछ हानि पहुँचा सकता है।

इससे मिलती जुलती एक चिड़िया अमेरिका में भी होती है, जो अपना घोंसला बड़ा सुन्दर बनाती है। कितने ही लोग इनकी कारीगरी देखने के लिये रंग तिरंगा ऊन उनके निवास स्थान के पास रख देते हैं। चिड़ियाँ इसी का प्रयोग अपने घोंसले पेड़ों में लटकते हुए दिखाई पड़ते हैं तो उनकी शोभा विचित्र दिखाई देती है। उनमें अनायास ही ऐसे अद्भुत और आकर्षक डिजाइन बन जाते है कि फिर स्त्रियाँ और पुरुष उनकी नकल करने लगते है। भारतवर्ष में एक ‘दर्जी चिड़िया’ भी पाई जाती है। यह अपने घोंसले को केवल बुनती ही नहीं वरन् लटकती हुई पत्तियों को घास का प्रयोग करके इस प्रकार सी देती है, जैसे ही फीतों के बीच कोई झूला (हिंडोला) लटक रहा हो। इसी लटकते हुए ‘कटोरे’ के बीच उसका घोंसला टिका रहता है।

बिजली उत्पन्न करने वाली मछलियाँ-

कई प्रकार की मछलियों ने अपने शरीर में बिजली के बैटरीनुमा अंग विकसित करके उनके द्वारा आत्म रक्षा और आहार संग्रह की विधि निकाली है। अमेरिका की अमेजन नदी में पाई जाने वाली ‘एल’ मछली की पूँछ बहुत बड़ी होती है। उसमें बिजली की बैटरी के तीन समूह होते हैं। इसके द्वारा यह मछली कई सौ वोल्टेज की ताकत का धक्का मार सकती है, जिससे कभी कभी घोड़े और मनुष्य भी गिर कर पानी में डूब जाते हैं। इस बिजली का प्रयोग वह सम्वाद प्रेषक तार के रूप में भी करती है। क्योंकि जैसे ही एक मछली किसी शिकार पर आघात करती है, वैसे ही उसके सभी दूरवर्ती साथियों को उसका पता लग जाता है और दौड़ कर उसी स्थान पर आ जाती हैं।

अरब समुद्र और नील नदी में ‘कैट फिश’ बिल्ली-मछली नाम की एक भारी और दो फीट के लगभग लम्बी मछली होती है, जिसका रंग पीला होता है और उस पर भूरे धब्बे पड़े होते हैं। इसका सारा शरीर एक लिफाफे की तरह बिजली के अंग से ढका रहता है। इसमें भी काफी शक्ति होती है और प्रायः आपस में लड़कर एक दूसरे पर विद्युत-शक्ति द्वारा आघात पहुँचाया करती है।

एक और मछली ‘टारपेडो’ नाम की होती है, जिसमें हल्की विद्युत शक्ति होती है और जो काफी संख्या में सारे गरम समुद्रों में पाई जाती हैं। यह कोमल मछलियों को बिजली का धक्का देकर पकड़ लेती है। पुराने जमाने में हकीम लोग इससे गठिया रोग का इलाज करने का काम लेते थे। इसके लिये रोगी को मछली के ऊपर तब तक खड़ा रहना पड़ता था, जब तक के लिये चिकित्सक आज्ञा देता था या रोगी बिजली के झटके को सहन कर सकता था।

सुरंग खोदने वाले जीवः-

मानव इतिहास में सुरंगों का भी बड़ा महत्व है। शत्रुओं से बचने अथवा बहुमूल्य वस्तुओं के भण्डार आदि को गुप्त रखने के लिये पुराने जमाने में सुरंगें खोदी जाती थीं। भारत के कितने ही प्राचीन किलों में सुरंगें देखने में आती हैं, जिनके भीतर अब भय के कारण कोई नहीं घुसता। इससे उनके विषय में तरह तरह के किस्से सुनने में आते रहते हैं। पर इनमें से अधिकांश किसी घेरे या आक्रमण के समय बाहर निकलने के गुप्त मार्ग के रूप में ही प्रयुक्त होती थीं।

इन सुरंगों को बनाने का विचार सम्भवतः मनुष्यों ने जीव जन्तुओं से ही ग्रहण किया है, क्योंकि वे आत्मरक्षा अथवा आहार की खोज में सुरंगें बनाया करते हैं।

सुरंग बनाने वाले कीड़ों में केंचुआ बहुत प्रसिद्ध है। वह अपने एक सिरे से भूमि में प्रवेश करता हैं और जो कुछ मिलता है, उसे निगल कर दूसरे सिरे से मिट्टी के रूप में ही बाहर फेंकता जाता है। इस प्रकार के अपना निर्वाह करते हैं और साथ ही नीचे की मिट्टी को ऊपर लाकर छोटे पेड़-पौधों की वृद्धि में भी सहायक होते हैं। कहते हैं कि इस प्रकार केंचुए किसी बगीचे की एक एकड़ भूमि की 400 मन मिट्टी को एक वर्ष के भीतर नीचे से ऊपर ले आते हैं। और भी कितने ही छोटे कीड़े इसी प्रकार धरती में छेद करके नीचे की मिट्टी को ऊपर लाया करते हैं।

इन कीड़ों के अतिरिक्त नेवला, चूहे, छछूँदर, झींगुर और स्याही, स्यार आदि जंगली पशु भी सुरंग खोदते रहते हैं। इन सब प्राणियों का शरीर लम्बाई में अधिक होता है, जिससे उन्हें खोदने के काम में सहायता मिलती हैं। अफ्रीका का चींटी खाने वाला रीछ तो अपने पैरों से सुरंग बनाने में इतनी तेजी से मिट्टी काटता है, जितना कि दो मजदूर फावड़ा या गैंती लेकर भी नहीं काट सकते।

जानवरों का स्वभाव और स्मरण शक्तिः-

जीव जन्तु एक प्रकार के जड़ पदार्थ हैं, इस मान्यता का खण्डन उन अनेक पशुओं की बुद्धिमानी से होता है, जो वे समय-समय पर प्रकट करते हैं। कुत्तों की स्वामीभक्ति और चोरों का पीछा करके गाढ़े हुए धन का पता लगा आना और फिर स्वामी को वहाँ ले जाना आदि घटनाओं के सच्चे किस्से आमतौर से प्रसिद्ध हैं। बन्दर भी अपने किसी साथी को बचाने के लिये बहुत समझदारी का परिचय दिया करते हैं। कहते हैं कि एक बन्दर का बच्चा कुएँ में गिर गया तो कई बन्दर एक दूसरे के पैर पकड़ कर कुएँ में लटक गये और बच्चा उन पर चढ़ कर बाहर आ गया। घोड़ों की बुद्धिमानी और स्वामि-भक्ति की कथाएँ भी प्रसिद्ध है। जब एक सेनाध्यक्ष बहुत घायल होकर रणक्षेत्र में गिर गया तो उसका घोड़ा उसके कमरबन्द को मुँह में पकड़कर घर तक उठा लाया जो दस पन्द्रह मील दूर था।

भिन्न-भिन्न जाति के पशुओं में पारस्परिक प्रेम के समाचार प्रायः सामयिक पत्रों में छपा करते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि उनमें प्रेम की भावना और एक दूसरे के प्रति सहानुभूति भी होती है। एक विलायती अख़बार में एक मेमना तथा नर बतख की दोस्ती का वर्णन छपा था, जो कभी अलग नहीं होते थे। इसी तरह एक बिल्ली तथा डौमकौवे में घनिष्ठता मित्रता हो गई थी कौआ अपनी शरारती आदत के अनुसार सोने की इच्छुक बिल्ली की पूँछ मोड़कर जगा देता था। तब थोड़ी देर के लिये दोनों में खट- पट भी हो जाती थी।

स्मरण शक्ति और बदला लेने की घटनाओं से भी पशुओं के मानसिक विकास का कुछ पता चलता है। कुछ वर्ष पहले अखबारों में एक हाथी की घटना इस प्रकार छपी थी-

“धुवरी राज्य में एक हाथी को खीला सूत्रधार नामक महावत ने पीटा था। इसके कुछ समय बाद खीला ने अन्यत्र नौकरी कर ली और वह एक नये हाथी का महावत बनाया गया। कई वर्ष बाद संयोग से लीला का नया हाथी और वह हाथी जिसे उसने पीटा था, काम पर से साथ साथ वापिस आ रहे थे। दोनों महावत परस्पर परिचित थे और मार्ग में उनमें से एक ने हाथी को दी। उसी समय मौका देखकर पीटे गये हाथी ने एकाएक सूंड उठाकर खीला को नीचे खींच लिया और महावत द्वारा बहुत रोके जाने पर भी तुरन्त ही उसे कुचल कर मार डाला।”

कानपुर में चैतू नामक गड़रिया ने किसी बात पर एक गाय को बहुत मारा। गाय ने इस घटना को स्मरण रखा और कई महीने बाद जब उसे अवसर मिला उसने चैतू को गिराकर सींगों से खूब मारा।

इन सब बातों से सिद्ध होता है कि चाहे पशुओं का मानसिक और बौद्धिक विकास बहुत ही कम हुआ हो, पर फिर भी उनमें प्रेम, सहानुभूति, कृतज्ञता, स्वामि-भक्ति आदि गुण पाये जाते हैं और कितने ही पशु समय-समय पर बुद्धिमानी का प्रमाण भी देते हैं। ये सब बातें किसी चैतन्य-तत्व के अभाव में सम्भव नहीं हो सकतीं। इसलिये पशुओं को जड़ अथवा मनुष्यों का भक्ष्य समझ लेना एक बड़ी भूल है। वरन् एक मनुष्य को चौंका देने वाला सच्चा दृष्टिकोण तो वह हैं कि मानसिक विकास में पिछड़े होने के कारण ये जीव जन्तु मानव के ‘छोटे भाई’ हैं, जिनके साथ उसे सहृदयता और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिये। इस प्रकार के व्यवहार का अन्तर ही भौतिक-विज्ञान और अध्यात्मवादी दृष्टिकोण के भेद को सही रूप में प्रकट कर सकता है।

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