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Magazine - Year 1969 - Version 2

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अपने को दीन-हीन और दुःखी मानकर रोते रहना, दिन रात चिन्ता करते रहना अनाध्यात्मिक वृक्षि है। मानवता का अपमान और आत्मा का तिरस्कार है। जिस मनुष्य को आत्मा जैसा प्रसाद मिला हो, बुद्धि और विवेक जैसा पुरस्कार मिला हो, क्षमताओं और विशेषताओं से भरा सुन्दर सुगढ़ शरीर मिला हो वह मनुष्य दीन-हीन कैसे हो सकता हैं। दीनता हीनता का अनुभव करना मनुष्य की अपनी मानसिक न्यूनता के सिवाय और कुछ नहीं है।

अपने को दीन हीन मानकर चलने वाले प्रायः जान या अनजान में नास्तिकता के अन्धकार की ओर बढ़ जाते हैं। निराश, चिन्तित, और अप्रसन्न रहना स्वयं ही एक नास्तिकता है। आस्तिक व्यक्ति हर दशा और हर स्थिति में प्रसन्न, संतुष्ट और उल्लसित रहते हैं। वे जानते हैं कि दीन हीन और मलीन रहने से आत्मा का तेज नष्ट होता है। उसका विश्वास उठ जाता है, जो एक प्रकार से आत्महत्या की है। आत्महत्या जैसा निकृष्ट तथा पापपूर्ण कार्य सिवाय और कौन करेगा। अपनी स्थिति में संतुष्ट और प्रसन्न रहने का आस्तिक -भाव रखने वाले सोचते हैं कि परमात्मा जो कुछ करता हैं, अच्छा ही करता उसके दिए दुःख-सुख में मनुष्य का कल्याण ही निहित रहता हैं। उसका कोई भी कार्य प्रयोजन अथवा मन्तव्य से रहित नहीं होता। प्रसन्न चेता व्यक्ति की परिष्कृत विचार -धारा इसी प्रकार चलती है।

वह सोचता है कि हो सकता है, हमें गरीबी देकर परमात्मा हमारे धैर्य और संतोष की परीक्षा ले रहा हो। सकता है वह हमारे पूर्व फलों को शीघ्रता से भुगता रहा हो। हो सकता है कि हमारे लिये वह धन-सम्पत्ति की प्रचुरता को अहितकर समझता हो। हो सकता है कि मैं निरभिमान और निरहंकार रहूँ भुक्त-भोगी होकर गरीबों की पीड़ा जानने का ज्ञान प्राप्त कर सकूँ और उनकी सेवा सहायता और संवेदना का पावन भाव प्राप्त कर सकूँ। हो सकता है, उसने अधिकाधिक परिश्रमी, पुरुषार्थी, कर्मठ और सहनशील बनने के लिये यह गरीबी और यह अभाव दिया हो।

अपनी स्थिति के विषय में इस प्रकार की आस्तिकता एवं आध्यात्मिक विचार-धारा रखने वाले कभी दुःखी नहीं होते। उनका आत्म-विश्वास बढ़ता ही जाता है। वे अधिकाधिक परिश्रमी, दयालु और उदार बन जाते है। प्रतिकूल अथवा विषम परिस्थितियाँ निश्चय ही उन्हें दीन-हीन नहीं बना पाती। ऐसे दृढ़ आत्म एवं परमात्म-विश्वासी जीवन की कठिन से कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण होकर एक दिन अवश्य ही सुख-सौख्य के अधिकारी बनते हैं। परमात्मा की कृपा पाते और आत्मा के प्रकाश से चमत्कृत होते हैं।

नास्तिक भाव से अपनी परिस्थितियों का रोना रोते रहने वालों का कभी उद्धार नहीं होता। उसके अनेक मोटे-मोटे कारण हैं। एक तो यह कि अपने मन, मस्तिष्क को परिस्थितियों की प्रतिकूलता को समर्पित कर उसकी चिन्ता करते रहने से सारी मानसिक क्षमताओं का क्षय हो जायेगा। मनुष्य निर्बल और निकम्मा बन जायेगा। चिन्ता से निराशा का जन्म होगा। निराशा तो अन्धकार होती ही है। अँधेरे में अटकते-भटकते रहने वाले व्यक्ति आज तक न उठ पाये हैं और न आगे उठ पायेंगे॥

मनोवैज्ञानिक तथ्य हैं कि मनुष्य के अपने भावों और विचारों के अनुसार ही उसके आस-पास का वातावरण निर्मित होता है। अप्रसन्न भावों वाला व्यक्ति जहाँ जायेगा अपने लिये अप्रसन्नता ही पायेगा। निराश विचारों के साथ विचरण करने वाले निराशा के सिवाय कुछ भी संचय नहीं कर सकते। अन्तर के भाव मनुष्य के मुख, वाणी और क्रियाओं में प्रकट होते रहते हैं। चिन्तित और निराश रहने वाले लोगों के मुख पर उदासी, वाणी में अनाकर्षण और क्रियाओं में अस्तव्यस्तता समाई रहती है। ऐसे मलीन और अर्धविक्षिप्त व्यक्ति से न तो कोई संपर्क करना पसन्द करता है और न सहयोग। उसके किये सभी ओर नापसन्दगी का वातावरण बना रहता है। ऐसे बहिष्कृत व्यक्ति को अपने उद्धार की ओर से निराश ही रहना पड़ेगा।

अपने अभावों और विषमताओं पर रोते रहने के अभ्यासी लोगों का अपने पर से ही नहीं परमात्मा पर से भी विश्वास उठ जाता है। वह सोचता है कि परमात्मा बड़ा अन्यायी और क्रूर है। उसने हमें यह परिस्थिति देकर अन्याय किया है। उसने हमारे भाग्य में दरिद्रता और दैन्य लिखकर अपनी क्रूरता का परिचय दिया है। ऐसे निर्दयी और अन्यायी परमात्मा पर विश्वास करना उसकी पूजा, उपासना करना व्यर्थ है। ऐसे अन्यायी और क्रूर परमात्मा का तो बहिष्कार हो जाना चाहिये। हीन-मना व्यक्ति इस प्रकार निराश होकर जीवन का एक बहुत बड़ा सम्बल और धैर्य का एक बहुत बड़ा आधार खो देता है। वह नास्तिक बनकर परमात्मा का विरोधी बन जाता है। ऐसा करके वह उस सर्वशक्तिमान का तो कुछ बिगाड़ नहीं पाता, केवल अपना ही आत्मिक विनाश कर लेता है। ऐसे परमात्मा के विरोधी नास्तिक व्यक्ति की आत्मा उसे छोड़ देती है और फिर किसी भी आपत्ति अथवा अंधकार में उसे प्रकाश की एक किरण भी नहीं देती।

यही क्यों, इस प्रकार का निराश नास्तिक अपनी और भी बहुत सी हानियाँ कर लेता है। एक तो अपनी स्थिति का दोष परमात्मा पर मढ़ने से उसकी प्रवृत्ति पुरुषार्थ की ओर नहीं होती। वह पड़ा-पड़ा भाग्य अथवा भाग्य-निर्माता को कोसता रहता है और यदि कुछ करता भी है तो असफलता और निराशा के भाव से। निदान उसके कर्तव्य में न तो दक्षता आ पाती है और न सार्थकता। सारा किया कराया व्यर्थ चला जाता है। इस प्रकार या तो ऐसा निराश नास्तिक निकम्मा बन जाता है अथवा प्रतिक्रिया से प्रेरित होकर भयानक रूप से, धन के लिये अनुचित एवं अनैतिक मार्गों का अवलम्बन कर लेता है। निर्धनता से आघातित होकर धन के लिये नर से नर-पिशाच बन जाता है। ठगी, मक्कारी, शोषण ही नहीं उसे चोरी, लूट और हत्याएँ करने में भी संकोच नहीं रहता। आत्मा और परमात्मा से बहिष्कृत व्यक्ति की यह दशा हो जाना निश्चय ही मानना चाहिये।

संसार में धन आवश्यक तो है किन्तु स्पृहणीय कदापि नहीं। धन में स्पृहा उत्पन्न होने के दो कारण है। एक लोभ और दूसरा ईर्ष्या, लोभ की तो कोई सीमा होती ही नहीं। सौ बढ़कर वह हजार पर पहुँच जाता है, हजार से लाख पर और लाख से करोड़ों पर जा पहुँचता है। इस वृत्ति में न तो विराम होता है और न पर्याप्तता। लोभ ग्रसित व्यक्ति को यदि संसार का सारा धन वैभव दे दिया जाय तो भी वह सन्तुष्ट नहीं होगा। उसे कमी ही दिखती रहेगी। लोभ में प्रसार का एक और भी बड़ा दोष होता है। इसको जितना सन्तुष्ट किया जाता हैं, यह उतना ही बढ़ता जाता है और अन्त में लोभी को आमूल नष्ट करके ही ठंडा पड़ता है।

ईर्ष्यालु व्यक्ति भी जीवन में संतोष से वंचित रहता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति के पास यदि पर्याप्त साधन होते भी है, तब भी दूसरों के प्रति ईर्ष्या और स्पर्धा के कारण उसे वे कम ही मालूम होते है। वह जब भी किसी दूसरे की स्थिति अपने से अच्छी देखता है, तभी अपने को गरीब, दीन-हीन अनुभव करने लगता है। यही नहीं यदि वह किसी को नीचे से ऊपर उठते देखता हैं, तब भी जलने लगता है और सोच उठता है कि यदि वह अवसर जो अमुक व्यक्ति को मिल रहे हैं, मुझे मिल जाते तो बड़ा अच्छा होता। ऐसे अभागे व्यक्ति जीवन में स्थायी शोक-संतापों के सिवाय और क्या पा सकते है? यदि धन की तृष्णा और उसके दोषों से बचना हो तो लोभ और ईर्ष्या के पिशाच से अपने को मुक्त करना ही होगा।

अपने को दीन-हीन मानकर असन्तुष्ट, निराश और चिन्तित रहने का कोई कारण मनुष्य के पास नहीं है, सिवाय इसके कि यह उसकी अपनी मनो हीनता ही होती है। मनुष्य परमात्मा का अंश आत्मवान् प्राणी है। उसके भीतर शक्तियों, क्षमताओं और आनन्दों का भण्डार भरा हुआ है। आनन्द, सुख, सन्तोष और सम्पन्नता, धन, वैभव, सम्पत्ति और सम्पदा जैसे बाह्य उपादानों में नहीं है। वे तो मनुष्य की आत्मा में निवास करने वाले दैवी-भाव है। यदि इनका निवास बाह्य साधनों में होता तो संसार के हर धनवान् और सम्पत्तिशाली व्यक्ति को सुखी संतुष्ट और आनन्दित होना चाहिये। जबकि ऐसा होता कदापि नहीं। वे भी गरीबों और अभाव ग्रस्तों की तरह ही दुःखी और निरानन्द देखे जाते हैं।

सुख, संतोष और सम्पन्नता का निवास आत्मा में है। इनके लिये मनुष्य को आत्मविमुख ही होना चाहिये। जो अपने अन्दर जाकर आत्मा में खोजेगा, वह आनन्द अवश्य पायेगा, इसमें सन्देह नहीं। संसार में सबसे अधिक सुखी सन्तुष्ट और आनन्दित रहने वाले ऋषि-मुनि शायद साधनों के नाम पर सबसे ज्यादा गरीब रहते थे। वृक्ष की सूखी डालों और पत्तों से बनी कुटी, पत्तों और छालों के चीवर और कन्द मूल, फल फूलों का भोजन बस इसके सिवाय उनके पास कौन से रत्न, रेशम अथवा व्यंजन होते थे। तब भी वे कितने तुष्ट, सुखी और सम्पन्न रहते थे। इसका एकमात्र कारण यही था कि वे बाह्य वैभव में उसकी स्पृहा नहीं करते थे, वे अपने आनन्द को उसी आत्मा में खोजते और पाते थे, जिसमें उसका वास्तविक निवास होता है।

जो मनुष्य आज मनुष्य रूप में स्थित है, उसने पहले चौरासी लाख निकृष्ट योनियों की दयनीयता का भोग किया है। तरह-तरह के ऐसे त्रास पाते हैं, जिनको दूर करने का न तो उसके पास उपाय था और न अधिकार। उन चौरासी लाख भोग योनियों का बंदीगृह काटकर इस कर्म-योनि में, जिसमें वह अपना भाग्य ही आप नहीं बना सकता, बल्कि आनन्द कंद सच्चिदानन्द परमात्मा को पा सकता है, आकर अपने को दीन-हीन माने तो इसे आश्चर्य ही माना जायेगा।

इतना ही क्यों, यदि इस आध्यात्मिक तथ्य को छोड़ दे तब भी तो मनुष्य के लिये अपनी स्थिति से दुःखी और असन्तुष्ट होने का कोई कारण नहीं है। जो अपनी स्थिति में दुःखी हो रहा है, उसे सोचना चाहिये कि क्या उसकी स्थिति संसार में सबसे गई-गुजरी है? क्या उस जैसी अथवा उससे खराब स्थिति में और कोई नहीं है? यदि ऐसा हो तब तो एक बार माना जा सकता है कि उसका खेद करना ठीक है। किन्तु ऐसा होता कदापि नहीं। यह असम्भव है।

संसार में एक से एक बढ़कर धनवान् और एक से एक बढ़कर गरीब और अभाव ग्रस्त पड़े है। अपनी स्थिति पर असंतुष्ट रहकर रोने से पहले मनुष्य को अपने से गये बीते और गरीब लोगों की ओर देखना चाहिये। उसे संतोष करना चाहिये और उस परमपिता परमात्मा को शतशः धन्यवाद देना चाहिये कि यदि उसने सौ से गिरी स्थिति मुझे दी है तो हजारों से अच्छा भी बनाया। संसार में एक से एक भयानक स्थितियाँ हो सकती हैं, जिनमें मनुष्य का एक क्षण जीवित रहना कठिन हो जाय, परमात्मा का आभार मानना चाहिये कि उसने आपको उस भयावह, असहनीय और घातक स्थिति में न रखकर ऐसी स्थिति में रखा हैं, जिसमें आप अपने पर विचार कर पा रहे है, गलत सही किन्तु परमात्मा को कोस पा रहे है। यह कम नहीं है कि आप अभी उस स्थिति में हैं, जिसमें आपकी चेतना, आपके विचार और आपकी अनुभव शक्ति सुरक्षित है अन्यथा संसार में ऐसी स्थितियाँ भी है, जो पागल, विक्षिप्त, पंगु, गूँगे, अपाहिज और शून्य कही जाती है। अपनी स्थिति पर सन्तोष करिये, आगे बढ़ने के लिये पुरुषार्थ करिये और परमात्मा को धन्यवाद दीजिये कि उसने आपको मनुष्य बनाकर बड़ा भारी अनुग्रह किया है।

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