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Magazine - Year 1969 - Version 2

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पुस्तकालयों का जाल बिछा दिया जाये

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स्वाध्याय की महिमा अतुल है अनन्त है, जिसने पढ़ने का महत्व जान लिया, उसने सौभाग्य का द्वार पा लिया। जिसने विचार की आवश्यकता अनुभव कर ली, उसने विकास का आधा पथ पार कर लिया, यह जानना चाहिये। “स्वाध्याय से बढ़कर आनन्द कुछ नहीं (गाँधी जी) और ‘मुझे नरक में भेज दो वहाँ भी स्वर्ग बना दूँगा, यदि मेरे पास पुस्तकें हों” (लोकमान्य तिलक)- इन दोनों मूर्धन्य महापुरुषों ने ज्ञान की महत्ता उपरोक्त शब्दों में गा दी।

डनफर्मलाइन (स्काटलैंड) में एक बालक जन्म। उसकी माँ केक बनाती थीं और एक छोटी सी कोठरी में बैठकर उन्हें बेचा करती थी। पिता फेरा लगाता था, शाम को उतने पैसे मिल जाते थे, पिता फेरा लगाता था, शाम को उतने पैसे मिल जाते थे, जितने से तीनों प्राणी पेट भर लेते थे और आधे फटे कपड़े पहन लेते थे। गरीबी से दुःखी लड़का एक दिन घर से भाग गया और अमेरिका पहुँच कर एक इस्पात कम्पनी में चपरासी हो गया। काम उतना था नहीं, इसलिये अपने साहब की अलमारी से कोई किताब निकाल लेता और पढ़ने लगता और कर्मचारी आते और उसे बातचीत में लगाना चाहते पर वह उन्हें किसी न किसी बहाने से टरका देता और फिर अपने पढ़ने में लग जाता। वह इतनी तल्लीनता से पढ़ता कि पुस्तक की अधिकांश बातें एक पाठन में ही याद हो जातीं।

एक दिन एक मीटिंग थी। कोई प्रश्न आ पड़ा उसे मैंनेजिंग डायरेक्टर भी सुलझाने में असमर्थता अनुभव कर रहे थे। वह लड़का पास ही खड़ा था, उसने एक किताब उठाई बीच में से शीघ्रता से एक पृष्ठ खोलकर डायरेक्टर के आगे बढ़ा दिया। यही वह उत्तर था, जिसकी खोज हो रही थी। बालक की इस असाधारण प्रतिभा से सब हक्के बक्के रह गये। वह बालक अपनी बुद्धि से उद्योग के तमाम तकनीक सीख गया और एक दिन करोड़पति होकर एन्ड्रयू कार्नेगी के नाम से विख्यात हुआ। यह श्रेय-जिसने उसे जमीन से उठाकर आसमान पर पहुँचा दिया- उसकी स्वाध्याय बुद्धि को ही दिया जा सकता है।

एक और वैसा ही निर्धन बालक दक्षिण भारत में भी हुआ है, जिसे अपने स्वाध्याय की आकांक्षा को तृप्त करने के लिये सड़कों में जलने वाली बत्तियों के नीचे पढ़ना पड़ता था। किताबें खरीदने के लिये पैसे नहीं होते थे, इसलिये वह भी पुस्तकालय की शरण लेता था। इस तरह उसने ज्ञान वृद्धि की साधना सतत जारी रखी और एक दिन उसकी बौद्धिक प्रतिभा इस योग्य हुई कि ब्रिटिश सरकार ने उसे मद्रास हाईकोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त किया। वह बालक- सर टी. एस. मुत्तुस्वामी अय्यर पहले भारतीय थे, जिनको इस तरह का कोई महत्त्वपूर्ण पद प्रदान किया गया।

ज्ञान अर्जन के इस लाभ को जिसने भी समझा, वह गई गुजरी स्थिति से निकल कर कुछ से कुछ हो गया। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जिनसे पुस्तकालयों की उपयोगिता का पता चलता है। सम्पन्न घरों के लोगों को तो पुस्तकों की कोई कमी नहीं रहती पर एक साधारण नागरिक को जिसे ज्ञान वृद्धि और व्यक्तित्व के विकास की इच्छा होती है, उनके लिये पुस्तकालय ही उपयोगी माध्यम हैं। उनसे हजारों व्यक्ति सम्पन्न परिवार की तरह अपनी ज्ञान अर्जन पिपासा शान्त कर लेते हैं और इस तरह समाज के सैकड़ों लोग- जो विचार और बौद्धिक क्षमता के अभाव में आगे बढ़ने से रह जाते हैं- अपनी उन्नति के लिए भी मार्ग खोल लेते हैं।

इस तथ्य को कनाडा ने अनुभव किया। कनाडा तब निर्धन देश था, जिन दिनों की बात कर रहे हैं। अभी पौने दो सौ वर्ष ही हुए होंगे, वहाँ शिक्षा की बड़ी कमी थी। सरकार ने बच्चों के लिये शिक्षा अनिवार्य कर दी पर जो शेष नागरिक थे, क्या उन्हें इसी स्थिति पर पड़ा रहने दिया जाये, यह एक गम्भीर समस्या थी। उधर उद्योगों के लिये भी कुछ शिक्षित लोगों की आवश्यकता अनुभव की गई। वहाँ के नेताओं ने परस्पर विचार किया और सारे देश में पुस्तकालयों का जाल बिछा दिया। जो बालक पढ़ रहे थे, उन्हें बीच में पढ़ाई छुड़ाकर धन्धों में लगा दिया जाता था, इस बीच वे पुस्तकालयों में जाकर ज्ञानार्जन करते रहते थे, क्रम न टूटने पाता था। कुछ वर्ष बाद उन्हें फिर से फोक-हाईस्कूल में शिक्षा दी जाती थी। वयस्क हो जाने पर फिर उन्हें पुस्तकालयों में पढ़ने के लिये पुस्तकें दी जाती थीं। अधिक से अधिक सेवा के लिये वहाँ लाइब्रेरियनों को परीक्षण देने की व्यवस्था बनाई गई। कुशल पुस्तकालयाध्यक्षों के मार्ग दर्शन में लोगों को अपने व्यक्तित्व के विकास का समुचित अवसर मिला और कनाडा देखते ही देखते दुनियाँ के समृद्ध और विकसित देशों की पंक्ति में जा खड़ा हुआ।

प्रसिद्ध विद्वान् डा. एस. आर. रंगनाथन ने एक बार जापान की यात्रा की। ओसाका में उन्होंने एक स्थान पर बाहर कतार में खड़े लोगों को पुस्तकें पढ़ते देखा। पढ़ने वालों की अधिक संख्या देखकर उन्हें कुछ आश्चर्य हुआ, उन्होंने वहाँ जाकर पता लगाया तो मालूम हुआ कि यह एक पुस्तकालय है, जहाँ प्रतिदिन लोग भारी संख्या में पुस्तकें पढ़ने आते हैं। पूछने पर पुस्तकालय के अध्यक्ष ने बताया कि यह पुस्तकालय 30 वर्ष पहले बना था। तब थोड़े से आदमियों के आने का अनुमान था, इसलिये उतने ही स्थान की व्यवस्था की गई थी। अब लोग बहुत अधिक आते हैं, इसलिये सीटें रिजर्व कर दी गई हैं। जिनका नम्बर नहीं आता वे लोग अपनी अध्ययन की आकांक्षा को तृप्त करने के लिये बाहर खड़े होकर पढ़ते हैं। हम इस कमी को दूर करने के प्रयत्न में हैं।

जापानी लोगों की इस स्वाध्याय वृत्ति से वहाँ के जीवन में क्या कोई क्राँति हुई है? इस प्रश्न पर विचार करें तो मालूम होगा कि जापान ने इतनी अधिक उन्नति कर ली है कि वह एशिया के विकसित देशों में अपना प्रथम स्थान रखता है।

धन कमाना कोई बड़ी बात नहीं है। पढ़े लिखे और विचारवान व्यक्तियों के लिये तो वह सबसे छोटी समस्या है। ज्ञान का उद्देश्य व्यक्तिगत जीवन में शांति और सामाजिक जीवन में सभ्यता और व्यवस्था लाता है, वह भी शिक्षा और ज्ञान के अभाव में पूरा नहीं हो सकता। इसलिये पढ़ना सब दृष्टि से आवश्यक हैं। पुस्तकालय एक ऐसी व्यवस्था है, जहाँ औसत नागरिक भी अधिकतम ज्ञान और विचार अर्जित कर सकता है।

पुस्तकालय समाज की अनिवार्य आवश्यकता है। मनुष्य को भोजन कपड़े और आवास की व्यवस्था हो जाती है तो वह जिन्दा रह जाता है, शेष उन्नति तो वह उसके बाद सोचता है। समाज यदि विचारशील है तो वह शांति और सुव्यवस्था की अन्य आवश्यकतायें बाद में भी पूरी कर सकता है, इसलिये पुस्तकालय समाज की पहली आवश्यकता है, क्योंकि उससे ज्ञान और विचारशीलता की सर्वोपरि आवश्यकता की पूर्ति होती है, किन्तु इतना ही काफी नहीं है कि एक स्थान पर पुस्तकें जमा कर दी जायें, उनके विषय चाहे जो कुछ हों।

गन्दे और दूषित विचार देने वाली पुस्तकों से तो अनपढ़ अच्छा जो बुराई करता है पर बढ़ाता नहीं। जितनी बुराइयाँ बन चुकी हैं, उन्हीं तक सीमित रह जाता है। यथार्थ की आवश्यकता की पूर्ति उन पुस्तकों से होती है, जो प्रगतिशील विचार दे सकती हैं। जो समस्यायें हल कर सकती हैं, जो नैतिक और साँस्कृतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक, सामाजिक और विश्व बन्धुत्व की प्रेरणाएँ और शिक्षाएँ भी दे सकती हैं।

एक बार इंग्लैण्ड में भी ऐसी ही क्राँति उठी थी। वहाँ भी जनता के लिये स्थान स्थान पर पुस्तकालय स्थापित किये गये। काफी समय तक इससे अधिक कोई दिलचस्पी न ली गई पर द्वितीय विश्वयुद्ध के समय शासनाध्यक्षों ने पाया कि चारित्रिक और नैतिक दृष्टि से इंग्लैण्ड का स्तर बहुत नीचे गिर गया है। उसके कारणों की विस्तृत खोजबीन की गई तो यह पाया कि वे पुस्तकालय ही इसके कारण हैं, जिन्हें जनता के बौद्धिक विकास के लिये स्थापित किया गया था। हुआ यह कि वहाँ के अधिकांश युवकों ने उपन्यास और कामोत्तेजक साहित्य में ही ज्यादा रुचि ली। सृजनात्मक साहित्य उपेक्षित पड़ा रहा। जैसे विचार लोगों ने पढ़े वैसी ही मनोवृत्ति बनती गई।

अब वहाँ एक योजना बनाई गई। पुस्तकालयाध्यक्ष प्रशिक्षित किये गये और उन्हें बताया गया कि यदि कोई स्त्री पुस्तक लेने आती है तो पहले यह पूछो कि उसकी समस्यायें क्या हैं? उदाहरणार्थ यदि वह कम शिक्षित है तो उसे हल्की फुल्की साहस और नैतिकता की पुस्तकें पढ़ने को दो और यह भी कहो कि वह यह कहानियाँ बच्चों को भी सुनाया करे। इसी प्रकार यदि कोई शिक्षित स्त्री है तो उसे बाल-समस्या बाल-कल्याण परिवार मनोविज्ञान की पुस्तकें दी। इस योजनाबद्ध तरीके से वहाँ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नये नये अनुसंधान प्रारम्भ हुए। अंग्रेजी साहित्य ही आज एक मात्र ऐसा साहित्य है, जिसमें मनुष्य जीवन के किसी भी पहलू पर विचार और शोध जानकारियाँ मिल सकती हैं, यह उसी योजना बद्ध ‘पुस्तकें पढ़ाओ’ अभियान का चमत्कार है। वहाँ 80 प्रतिशत से भी अधिक लोग पुस्तकालयों का लाभ उठाते हैं। जहाँ पुस्तकें नहीं हैं, वहाँ भी चल-पुस्तकालयों द्वारा पुस्तकें पहुँचाई जाती हैं।

इससे लोगों की सुख समृद्धि का द्वार खुल गया। बैकवेल नामक एक गाँव के एक युवक ने पुस्तकालय में उपलब्ध इलेक्ट्रानिक्स की तमाम पुस्तकें पढ़ी, वह बेरोजगार था पर इन पुस्तकों के सहारे वह रेडियो बनाना सीख गया, यही नहीं रेडियो इञ्जीनियरिंग की भी बहुत सी तकनीकें उसने सीखी। इंग्लैण्ड का औसत नागरिक विश्व समस्याओं, परिस्थितियों और ज्ञान विज्ञान से लेकर छोटे छोटे उद्योगों तक की इतनी जानकारी रखता है, जितनी भारतवर्ष का एम. ए. उत्तीर्ण छात्र भी नहीं जानता होगा, यह सब उनकी स्वाध्याय वृत्ति का ही प्रतिफल है।

यह छोटे उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि मस्तिष्क को संस्कारवान् और ज्ञान से परिपूर्ण कर लेने पर मनुष्य व्यक्तिगत उन्नति ही नहीं, सामाजिक और राष्ट्रीय समृद्धि का भी द्वार खोल लेता है। इन लाभों को देखते हुए भारतवर्ष में भी पुस्तकालयों का जाल बिछाने की आवश्यकता अनुभव हो रही है। यदि कुछ विचारवाद व्यक्ति अथवा राजनैतिक नेता इसे एक अभियान का स्वरूप प्रदान कर दें तो देश देखते देखते धरती से आकाश में पहुँच सकता है।

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