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Magazine - Year 1969 - Version 2

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शक्ति नहीं, करुणा जीतेगी

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1 मार्च 1954 की प्रातःकाल जब भगवान् सूर्यदेव का आगमन हो रहा था, पृथ्वी में-अमेरिका में विकिनी प्रवाल, द्वीप -विकिनी अटोल- में हाइड्रोजन बम का परीक्षण विस्फोट किया गया। जैक क्लार्क जो विस्फोट के बाद उत्पन्न हुए रेडियो बादल और परिस्थितियों के अध्ययन दल का नेतृत्व कर रहा था, अपने 9 साथियों सहित अस्थायी रूप से बनाये गये एक ऐसे दुर्ग में, वहाँ न तो हवा जा सकती थी और न जल का तूफान, भूकम्प से भी उसे कुछ क्षति नहीं पहुँच सकती थी, जाकर छुप गये। यह स्थान विस्फोट स्थल से 20 मील दूर दक्षिणी हिस्से पर बनाया गया था। यहीं से उन लोगों को विस्फोट और रेडियो सक्रिय धूल के दुष्परिणामों का अध्ययन करना था।

नागाशाकी और हिरोशिमा धीरे-धीरे ठण्डे पड़ गये। यह वह दो दुर्भाग्यशाली स्थान हैं, जिन्होंने परमाणु बम का सर्वप्रथम आघात झेला था। इस प्रदेश की विनाशलीला का छोटा उदाहरण यही है कि वहाँ 17 वर्ष तक लगातार जो भी पक्षी गया रेडियो-सक्रियता के दुष्प्रभाव से वह तुरंत बीमार पड़ा और मर गया।

वह आग अब ठण्डी हो चुकी है, किन्तु परीक्षण के नाम पर जो परमाणु-बमों का विस्फोट किया जाता है, वह वर्तमान संसार के लिये कितना घातक है, यह अनुमान उन लोगों तक ही सीमित है, जो रेडियो-सक्रियता की विनाशक शक्ति को पहचानते हैं। दिनों-दिन नये-नये रोग और मानसिक संताप बढ़ता जा रहा है, लोगों को यह पता भी नहीं है कि यह सब इन विस्फोटों से उत्पन्न रेडियो धर्मी धूल के कारण हो रहा है। विज्ञान का यह वीभत्स स्वरूप एक दिन मनुष्य जाति को जिन्दा जलाकर या तड़पा-तड़पा कर ही मारेगा। परित्राण का तो उपाय एक ही है कि विज्ञान-बुद्धि का उपयोग विध्वंसात्मक कार्यों में ने होकर ऐसे प्रयोग और शिक्षणों में हो जिनसे मनुष्य का सम्बन्ध नियामक शक्तियों से जुड़ता हो। जिससे मनुष्य की सुख-सुविधाओं की अभिवृद्धि के साथ संसार में स्नेह, अहिंसा, सात्विकता और सृजनशीलता का विस्तार होता हो।

विकिनी द्वीप एक छोटा-सा द्वीप है, जिसमें केवल मूँगे की चट्टानें हैं, पूर्व में एलिजिले राँजलैप और राँजेरिक द्वीप है, युटिरिक सबसे दूर है। दक्षिण में क्वाजामीन द्वीप दक्षिण पूर्व में मजुरो और पश्चिम में एनिवेटोक द्वीप है यहीं से अध्ययन दल अपने कार्य कर रहा था। उत्तर ही एकमात्र ऐसा स्थान था, जिस तरफ कोई द्वीप नहीं था। इसलिये इस बात की प्रतीक्षा 14 फरवरी से ही की जा रही थी कि जब वायु का रुख उत्तर की ओर हो, तभी विस्फोट करना चाहिये। बहुत प्रतीक्षा के बाद मौसम विभाग ने 1 मार्च की स्वीकृति यों दे दी कि उस दिन वायु उत्तर-पूर्व को बह रही थी, इसलिये आँशिक दुष्परिणाम की ही आशा की गई थी, किन्तु दुर्भाग्य से बम का विस्फोट होते ही वायु ने अपना कोण बदल दिया और वह अधिकांश पूर्व की ओर बह निकली।

उस समय राँजलैप में आदिवासी जाति के कुल 64 व्यक्ति ताड़ के बने मकानों में रह रहे थे। ऐलिजिले में 18 मार्शल द्वीपवासी मछलियाँ पकड़ने गये थे। राँजेरिक में 200 अमेरिकी मौसम सम्बन्धी जाँच और यूटिरिक में 157 निवासी थे। उसी दिन दुर्भाग्य से एक जापानी नौका ‘फुकुयं मारु’ जिसमें 23 व्यक्ति सवार थे, उसी क्षेत्र में पहुँच गई। इन लोगों को कोई चेतावनी भी न दी जा सकी। इनके अतिरिक्त 200 मील के क्षेत्र में सुरक्षा-परिधानों से लैस 1000 से भी अधिक अमेरिकी नौ-सैनिक अलग्रेव्स की दिशा में विस्फोट की पड़ताल कर रहे थे। विस्फोट की प्रथम माप से पता चला कि उसकी शक्ति 15 मेगाटन है।

इससे पूर्व कि इस विस्फोट से हुए दुष्परिणामों पर दृष्टि डालें, यह जान लेना आवश्यक है कि विस्फोट के बाद उत्पन्न रेडियो धूल की वह मात्रा जो शरीर को जलाती, रुग्ण बनाती या मार डालती है, उसे नापने की इकाई को ‘रोएन्टजन’ कहते हैं। 1 रोएन्टजन का अर्थ है शरीर के एक इंच के पच्चीसवें हिस्से को उठाने की शक्ति रखता है। यह शक्ति प्रति औंस 60 अरब अयन-जोड़ी के बराबर होता है, जबकि एक अयन जोड़ी 32 इलेक्ट्रान वाल्ट शक्ति के स्थानान्तरण के बराबर होती है, उसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि रोएन्टजन शारीर को कितनी तीव्रता से जलाता और उसे रुग्ण कर सकता है। यह शक्ति तरंग के रूप में उठती है, इसलिये दिखाई तो नहीं दे सकती, किन्तु उसका देर तक प्रभाव पड़ता रहता है। कहते हैं 50 से 100 रोएन्टजन केवल खाद्य सामग्री की शक्ति ही कमजोर करते हैं, उससे मनुष्य मरता नहीं तो भी शक्ति का ह्रास अवश्य होता है पर 100 से आधिक रोएन्टजन की मात्रा रुग्ण मनुष्य को तत्काल मार तक डालती है।

बम विस्फोट से पूर्व उसकी भीतरी हलचल में जितनी तीव्रता होती है, उतना ही बाह्य क्षेत्र प्रभावित होता है। भीतर का न्यूक्लियर वेग कई सौ मील गति से परिभ्रमण करता है और जब बम का आवरण फटता है। उतने ही सीमा क्षेत्र की वायु में आग लग जाती है और एक आग का गोला फायर बाल) सा उठता है। हवा के दबाव के कारण शक्ति साधारण ध्वनि की गति से भी अधिक तेजी से फैलता है और आँधी-तूफान की तरह सारे क्षेत्र को मथ डालता है। छोटा-सा बम भी 200 मील के घेरे में जो लोग होंगे, यदि उनकी आँखों में कोई रक्षा-यन्त्र न होगा तो उन्हें यह अग्नि-ज्वाल अन्धा कर देता है। दूसरी ओर आघात तरंगें (शाक-) वेग से विस्फोटक तत्व लेकर फैलती है और जब तक विस्फोट की गूँज शांत हो कई मील फैल जाती है।

जैसे ही उक्त विस्फोट किया गया, 20 मील दूर का सुरक्षा दुर्ग हिल गया। समुद्र का पानी उछलने लगा, एक मिनट बाद जब वायु आघात वहाँ से गुजरा तो उसके धूल ऐसे हिल उठे जैसे वे एक क्षण में ही चरमरा कर बैठ जाने वाले हों। जहाजों पर विनाशकारी तत्त्वों की वर्षा भी होने लगी। इसलिये सारे जहाजों को वहाँ से तुरन्त हट जाने का निर्देश दिया गया। सारे वातावरण में वीभत्सता छा गई। लोगों के दिल हिल गये, बेचारे राँजलैप और एलिजिले द्वीपवासियों को कोई खबर नहीं दी गई थी उन्हें बचाव के कुछ उपायों का पता भी न था, इसलिये उनमें से अधिकांश की त्वचा जल गई। अन्य जीव-जन्तुओं के शरीर किस तरह जले होंगे, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक तीन मास के खरगोश के बच्चे को एस. आर. 89 का इंजेक्शन दिया गया तो भी वह दस मिनट के अन्दर मर गया, उसकी टाँग की हड्डी पर स्ट्रानटियम की ऐसी प्रतिक्रिया हुई कि भीतर तक हड्डी जलकर काली पड़ गई।

राँजेरिक के निवासियों को इस विस्फोट का पता था, वे अधिक समय तक एल्युमीनियम के झोपड़ों में रहे स्नान भी किया और अधिक कपड़े भी पहने तो भी उत्तरी क्षेत्र के निवासियों के शरीर में 200 रोएन्टजन रेडियो सक्रियता ने प्रभाव डाला और वे सब बीमार पड़ गये, राँजलैप की स्थिति तो बड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण थी। सबसे बुरी स्थिति उत्तर की ओर थी वहाँ 15 मील की दूरी तक 50 प्रतिशत अधजली स्थिति में पड़ा तड़प-तड़प कर अपने प्राण दे रहा था। 30 मील की दूरी पर तो 1000 रोएन्टजनों का प्रभाव पड़ा था, जिन-जिन पर इतना प्रभाव पड़ा वे 1 माह के अन्दर ही मर गये।

प्राकृतिक प्रकोप भी माना बहुत भयंकर होते हैं पर उनमें मानवीय सुरक्षा के लिये बहुत गुँजाइश रहती है। जो विनाशलीला इन विस्फोटों से होती है, वैसी तो भयंकर ज्वालामुखी फटने से भी नहीं होती। विस्फोट के एक पर्यवेक्षक एडवर्ड टेलर का कहना है-विस्फोट के 6-7 घण्टे बाद राँजेरिक स्थित अमेरिकी सैनिकों ने अत्यधिक रेडियो सक्रिय धूल की कुहरे जैसी वर्षा देखी। धीरे-धीरे यह धूलि चारों तरफ फैल गई। इन घण्टों में इस क्षेत्र में कैसी विनाशलीला हुई उसका कोई अनुमान नहीं लगा सकता।

विस्फोट समाप्त हो जाने के 15 दिन बाद जापानी नौका जब ‘येंजू’ बन्दरगाह पहुँची तब लोगों को पता चला कि उसमें सवार सभी 23 व्यक्ति बीमार पड़ गये हैं और उन सब पर 200 से अधिक रोएन्टजनों का प्रभाव पड़ा है। एक तो तत्काल ही मर गया था, शेष के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं दी गई। राँजलैप की चार स्त्रियाँ विस्फोट के समय गर्भवती थीं, उनमें से एक बच्चा तो जन्मा ही मृत, शेष तीनों बीमार और दुर्बल थे।

प्रश्न एक विस्फोट से उत्पन्न इस गम्भीरता का नहीं है वरन् तब से निरन्तर हो रहे परीक्षणों और अब उनके रूस, फ्राँस, ब्रिटेन, चीन और दूसरे देशों में भी फैल जाने का है। अमेरिका अब तक 15 से भी अधिक बम विस्फोट कर चुका है, इनमें 1000 मेगाटन क्षमता वाले विस्फोट भी सम्मिलित हैं। अमेरिका का परमाणविक शक्ति आयोग का चिकित्सक दल इस बात की तत्परतापूर्वक खोज कर रहा है कि इन विस्फोटों का मानवीय जीवन पर दीर्घकालीन प्रभाव क्या होगा। चूँकि रसायन शास्त्र का सम्पूर्ण जानकारी वैज्ञानिकों को नहीं है, इसलिये उसका निश्चित अनुमान तो नहीं किया जा सकता पर जितने तथ्य प्रकाश में आये हैं, उनसे पता चलता है कि आगामी तीस वर्षों में सम्पूर्ण विश्व में साठ लाख व्यक्ति ल्युकेकिया और हड्डियों के कैंसर से मरेंगे। दस हजार अतिरिक्त घटनायें, जिनमें अयन-मण्डल में छा गये विनाशक रेडियो धूल के कारण प्राकृतिक प्रकोप भी सम्मिलित हैं, घटित होंगी। दस हजार व्यक्तियों की आयु कम होगी। रेडियो-सक्रियता का सम्बन्ध ‘जीन्स’ से होता है और ‘जीन्स’ ही भावी सन्तानों के आकार-प्रकार तय करते हैं, इसलिये आगामी पीढ़ी जन्म से ही 05 रोएन्टजन का प्रभाव लेकर जन्मेगी। उसका असर शरीर कुरूपता, जन्म से रोगी और मानसिक विक्षिप्तता के रूप में प्रकट हो सकता है। इतने पर भी वैज्ञानिक पूर्ण दुष्परिणामों के बारे में कुछ भी कहने से इनकार करते हैं। तात्पर्य यह है कि वह अब तक भी जो बम-परीक्षण हो चुके हैं, मनुष्य जाति के दुःख और कष्ट अत्यधिक बढ़ा देने वाले हैं, अभी उनके बारे में तो कुछ कहा नहीं जा सकता, जो युद्ध सामग्री के रूप में सुरक्षित रखे हुए हैं और जिनका प्रयोग कभी भी किसी भी युद्ध में विश्व के किसी भी भूभाग में किया जा सकता है।

प्रश्न यह है कि इतना सब जानते हुए भी इन विनाशक आयुधों को निर्माण क्यों होता है। अपनी शक्ति औरों पर जमाने, दूसरों पर आक्रमण कर उन्हें जीतने के लिये ही तो इनका निर्माण किया गया है पर क्या -- कभी शक्तियों से जीते गये हैं। जो लोगों को अपना बनाती है, वह है अहिंसा की शक्ति, धर्म की शक्ति, प्रेम, दया, न्याय, करुणा, क्षमा और उदारता की शक्ति। मानवता इन्हीं पर जिन्दा है। बम और राकेटों पर नहीं और निश्चित है कि मनुष्यता तभी जीवित रह सकेगी, जब मनुष्य अपना ध्यान इन विध्वंसक शक्तियों से हटाकर आत्म-केन्द्रित बने। यह भी देखने और ढूँढ़ने का प्रयत्न करे कि मानवीय आत्म-चेतना की सोच और परिष्कार के द्वारा भी क्या विश्व-शांति और आत्म-शांति सम्भव है।

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