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Magazine - Year 1969 - Version 2

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आत्मा में परमात्मा का निकटतम अनुभूति

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ईश्वर ज्ञान की वस्तु नहीं है, इसलिये वैज्ञानिक उसके सम्बन्ध में कोई निश्चित विचार देने से हिचकिचाते है तो भी वह इस बात को मानते है क संसार में एक कोई ऐसी वस्तु अवश्य है, जिससे निकल कर ही यह विविधतापूर्ण संसार आया। निर्माण-कर्ता और पालन-कर्ता के रूप में विज्ञान भगवान् को नहीं देखता। 17 वीं शताब्दी ईश्वर के अस्तित्व की मान्यता का सबसे बुरा युग था, क्योंकि इस शताब्दी के अधिकांश वैज्ञानिकों ने तो यही माना कि ईश्वर की कल्पना भ्रामक है। जे. बी. एस. हाल्डेन पाश्चात्यों के ईश्वर विश्वास का खण्डन करते हुए बताया-” जब मैं कोई प्रयोग करने बैठता हूँ तब मैं विचार करता हूँ कि कोई भी ईश्वर अथवा देवदूत अपने क्रिया-कलापों द्वारा मुझको बाधा नहीं डाल रहे, इसलिये मैं कह सकता हूँ कि ऐसी कोई सत्ता नहीं है, जिसे ईश्वर कहा जा सके।”

बरनाल ने भी ऐसी विचार-धारा व्यक्त की और सन्देह व्यक्त किया-ईश्वर का कार्य या दायित्व रोल वस्तुवादी संसार में भी धीरे-धीरे क्षीण होता जा रहा है, भौतिक-शास्त्र में ईश्वर की आवश्यकता केवल विश्व की उत्पत्ति व्यक्त करने के लिये तो हो भी सकती है।’

न्यूटन ने इस स्थिति को न सम्भाला होता तो संभवतः आज ईश्वर के सम्बन्ध में थोड़ी सी मान्यतायें शिक्षित वर्ग में बनी हुई हैं, वह भी समाप्त हो जातीं। न्यूटन ने कहा-” सृष्टि के उत्पादन में जो एक सिद्धान्त और क्रम है, उसे न तो विज्ञान बिगाड़ सकता है, न ही उस पर शासन या निर्माण थोप सकता है। इसलिये हम एक ऐसी सत्ता से इनकार नहीं कर सकते जिसको ईश्वर कहा जा सके।”

इस प्रकार विज्ञान भी एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें ईश्वरीय अस्तित्व के सम्बन्ध में शंकाएँ भी है और धारणायें भी। तथापि सभी बड़े वैज्ञानिकों का विश्वास ईश्वरवादी रहा है। पिछले दिनों आइन्स्टीन सबसे बड़े वैज्ञानिक होकर चुके है, उनसे जब इस सम्बन्ध में अपनी सम्मति देने को कहा गया तो उन्होंने बताया-संसार के सम्पूर्ण उच्च वैज्ञानिक कार्यों में अपराध स्वीकृति बौद्धिकता और निपुणता का सन्निहित होना यह व्यक्त करता है कि धार्मिक भावनायें गलत नहीं है, इसलिये गहन भावनाओं से घिरे हुये इस विश्वास को हमें मानना ही पड़ेगा कि ईश्वर है और वह एक श्रेष्ठ मस्तिष्क है, जो संसार के अनुभवों में स्वयं व्यक्त होता है।”

गैलीलियो का कथन है- ‘‘प्रकृति की बृहद् पुस्तकें गणित की भाषा में लिखी हुई है, उसे कोई बुद्धि ही लिख सकती है, इसलिये हम भगवान् को बुद्धि या विचार कह सकते है।” ‘ईश्वर सदैव रेखागणित कर रहा है’( गाॅड इस आँलवेज डूइंग ज्योमेट्री) यह मान्यता प्लेटो की है। इसी प्रकार एडिंग्टन ने भी बौद्धिक सूक्ष्म दर्शन को ईश्वरीय अस्तित्व के रूप में प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है।

संसार में बुराइयों, कष्टों की विद्यमानता कभी-कभी ईश्वर की सत्यता पर शंका उत्पन्न करती है कि किस प्रकार ईश्वर निर्दयता, अन्याय और युद्ध की अनुमति देता है। अन्यथा विश्व के सभी धर्म और महापुरुषों ने ईश्वरीय सत्ता को माना उसकी सर्वशक्ति सत्ता, सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता, सर्वन्याय प्रियता, करुणाशीलता, सुरक्षा-शक्ति पर विश्वास किया है।

महापुरुषों के रूप में ईश्वर की प्रामाणिकता का प्रयत्न भी प्रायः सभी धर्मों में किया गया है। किसी-किसी धर्म में वह पैगम्बर या फरिश्ते के रूप में प्रकट होता है, किसी-किसी में अवतार के रूप में। पर ईश्वर की सत्यता के बारे में संसार के सभी धर्म एकमत है। किसी ने उसे न्यायकारी गुणवाचक से संबोधित किया और किसी ने उसे धर्म-उद्धारक के रूप में। पर उसका पूर्ण वैज्ञानिक विश्लेषण कोई धर्म नहीं कर सका ऐसी कि जिसमें संसार की सम्पूर्ण परिस्थितियों में उसे विश्वस्त ठहराया जा सका होता। इसीलिये संसार के धर्म अपनी इस मान्यता पर लड़खड़ाते रहे है।

मुसलमानों में से अनेक ऐसे हुये है, जिन्होंने अल्लाह की सत्ता को प्रवंचना कहा। अनेक कैथोलिकों ने ईसा को भगवान् मानने से इनकार किया, प्रोटेस्टेण्ट मत उसी का परिणाम था। अवतारवाद का झगड़ा हिन्दू-धर्म में भी कम नहीं है। वे राम, कृष्ण, बुद्ध, शंकर आदि को ईश्वर के रूप में मानते है, जैन तीर्थंकरों के रूप में तो सिख गुरुओं के रूप में। अनेक प्रकार के ईश्वरों का अस्तित्व ही इस संसार को भ्रमित करता है। प्रत्यक्ष प्रमाणों द्वारा उसे सिद्ध करना वैसे ही कठिन था। जब धर्मों में भी प्रतिद्वंद्विता लोगों का उस मान्यता से फिसलना स्वाभाविक ही था।

इस स्थिति में वेदान्त ही एक मात्र ऐसा धर्म है, जिसकी ईश्वरीय व्याख्या को पूर्ण शुद्ध और बुद्धि-संगत कहा जा सकता है। सम्पूर्ण मीमाँसा पड़ने के बाद किसी के भी मन में तर्क का सन्देह नहीं रह जाता है। क्योंकि वह व्याख्याएँ विज्ञान के आधार-भूत सिद्धान्तों को लेकर चली हैं और उनमें सम्पूर्ण दार्शनिक एवं लौकिक परिस्थितियों का विवेचन भी आ जाता है।

वेदान्त ईश्वरीय सत्ता की अनुभूति के लिये सबसे पास से अपने आपसे चलने को कहता है। हम शरीर की स्थूलता में भी गुण है और गुणों को अपने शरीर से अधिक महत्व देते है। आत्म-तुष्टि के लिये माता-पिता अपनी प्रिय वस्तुयें अपने बच्चों को दे देते है, जबकि उसका उपभोग करने में उन्हें भी सुख मिल सकता था। शरीर की आकांक्षा को मन की आकांक्षा से निरन्तर मानने के साथ ही संसार में दो तत्त्वों की विलगता का स्पष्ट आभास हो जाता है, एक को चेतन और दूसरे को जड़ कहते है। जड़ एक देशीय पदार्थ है और चेतन सर्वव्यापी। यहीं से ईश्वर के सिद्धान्त का तात्त्विक विकास वेदान्त ने प्रारम्भ किया है।

‘ईश्वर साकार है या सशरीर है, यह एक तथ्य नहीं अपितु कल्पना मात्र है और चूँकि मृत्यु का प्रभाव उस पर पड़ता है, जिसके शरीर है किन्तु जब हम इस विश्वास को पुष्ट कर लेते हैं कि हमारी चेतना का अन्त नहीं होता हम विश्वात्मा या परमात्मा के बिल्कुल अनुरूप है तो मृत्यु भी इस विचार के सामने शक्ति और सामर्थ्य-विहीन हो जाती है। यह एक कल्पना मात्र नहीं वरन् सत्य भी है कि शरीर ही मरता है, अहंभाव या अपना मन, अपनी चेतना का नाश नहीं होता, वह एक अविनाशी तत्व है। हम जब स्वप्न की अवस्था में होते है, तब भी हमारी क्रियायें शरीर धारी जैसी ही होती हैं, वैसे ही संवेगों से हम प्रभावित होते रहते है, वैसा ही दुःख-सुख हमारे अनुभव में आता है। इसलिये उस स्थिति में भी हम जीवन से बँधे होते है, ऐसा कहना कोई निराधार कल्पना नहीं है।

दुःख और सुख इन दोनों से जब हम अपने आपको रहित मानने लगते है और इस विश्वास को अन्तिम स्थिति तक सिद्ध कर लेते है कि हमारे लिये संसार में मोह-माया की भ्रान्ति कुछ है ही नहीं न यहाँ कोई अपना है, न हम किसी के है, सब चेतना ही अपनी इच्छा से बनती-बिगड़ती रहती है, तब हमारे सामने उसका तात्त्विक रूप प्रकट होता है ओर हम अपने आपको मुक्त अनुभव करने लगते है।

कण्ठ उपनिषद् में कहा है-

हम ब्रह्म है और मृत्यु हमारे लिये एक खाद्य है, (1/2/25) छाँदोग्य (6-8-7) में उसे ही ‘तत्वमसि’ वू वही है-कहा है। वृहदारण्यक (24/4/5) अहं ब्रह्मास्मि ‘मैं ही ब्रह्म हूँ, एतरेय उपनिषद् (3/1/3) शुद्ध ज्ञान ही ब्रह्म है, वृहदारण्यक 4/4/5 में अयमात्मा ब्रह्म-वह आत्मा ही ब्रह्म है। इसी उपनिषद् के 4/4/19 मंत्र में कहा है कि यहाँ इस संसार में कुछ भी बहुतायत नहीं है और यथार्थ ही संसार के प्राणियों में जो गुण बर्तते हैं, अर्थात् इच्छाओं, आकांक्षाओं को यदि निकालकर मानसिक चेतना का विश्लेषण किया जाये तो ऐसा समझ में आ जाता है, चेतना एक अगाध सिन्धु की तरह है और मनुष्य उसमें से इच्छाओं की लहरों की तरह है। ‘अहं ब्रह्मास्मि इच्छाओं और वासनाओं से ग्रस्त मानसिक स्थिति को नहीं कहा गया तो उस सबसे परम पद में अर्थात् विश्व चेतना तादात्म्य की स्थिति होती है, जिसमें न तो किसी प्रकार का राग होता है और न द्वेष, वह कर्म भी करता है और किसी से आसक्त भी नहीं होता इसीलिये सर्व न्यायकारी है, उसमें व्यक्ति के गुणों का समावेश हो गया है, वह गुण है, प्रेम, दया, करुणा, उदारता, पर वहीं वह स्वयं इन गुणों से प्रभावित नहीं होता अर्थात् उनसे अलग नहीं है, शुद्ध चेतन अवस्था में वह यह गुणों की ही संज्ञा मात्र है, भाव मात्र है। इस बात को ‘बर्कले’ ने भी स्वीकार किया था ओर कहता था-सारे जगत् के पदार्थ मानसिक-संवेदना ही है।” मांडूक्यकारिका 2/11 में उसे ही ‘कएतान्बुध्यते भेदन्को व। तेषां विकरुपकः? अर्थात् कौन इस भिन्न-भिन्न विश्व में दिखाई देने वाले पदार्थों का दृष्टा और कौन इनकी कल्पना करता है?

इसी अवस्था में वेदान्त न मन का तादात्म्य ब्रह्म से कराने का यत्न किया है। शास्त्रों में स्थूल अन्न की सात अवस्थायें कही हैं- अन्न से रस बनता है, रस से रक्त, रक्त से माँस, माँस से मज्जा, मेदा, अस्थि और वीर्य बनता में। वीर्य अन्न की सूक्ष्म अवस्था है और शरीर में व्याप्त है पर किसी एक स्थान को काट कर उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता है। वह मन्थन से ही दिखाई देता है। वीर्य ही अन्तःकरण चतुष्टय, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के रूप में सूक्ष्म से सूक्ष्मरूप होता चला गया है। यह क्रमशः इच्छा आवेग और भावनाओं की गहराइयाँ है, जो अन्त में जाकर एक ही विश्व चेतना-अहंकार में ढल जाती है।

पैंगल उपनिषद् में इस बात को और स्पष्ट कर दिया है कि चूँकि अहंभाव प्रत्येक क्षुद्र प्राणी में होता है, इसलिये शास्त्र की उक्त मान्यताओं को लेकर ही कोई अपने को ब्रह्मं न कहने लगे। बहुत से पाखण्डी और दम्भी लोग ऐसा करते भी हैं, इसीलिये वेदान्त ने पहले ही स्पष्ट कर दिया कि-” हृदय को निर्मल करके और अनामय ब्रह्मं का चिन्तन करके यह अनुभव करना चाहिये कि मैं ही सर्वरूप ब्रह्मं हूँ, मैं ही परम सुख रूप हूँ। जल में जल डालने से, दूध में दूध डालने ओर घी में घी मिला देने से वे एक रूप हो जाते है। उसी प्रकार परमात्मा के मिल जाने पर उनमें कोई अन्तर नहीं रह जाता। जब इस तरह ज्ञान द्वारा देहाभिमान नष्ट हो जाता है और बुद्धि अखण्डाकार हो जाती हे कर्मों में कोई आसक्ति नहीं रह जाती, मोह और वासनायें जलकर नष्ट हो जाते है, तभी अद्वैत ब्रह्मा की प्राप्ति होती है।”

इस स्थिति में मनुष्य पृथ्वी पर ही निवास करता हुआ भी उससे भिन्न रहता है, उसका नियन्त्रण भी करता है। उत्पत्ति रक्षा और विनाश इसी प्रकृति के स्पष्ट गुण हैं, वह अच्छाई और बुराई से परे तत्व रूप मात्र है। यह कल्पना और वैज्ञानिक शोध केवल वेदान्त ही संसार को दे सका है और इन तथ्यों का जितना अधिक चिन्तन मनन और धारण किया जाता है, ईश्वरीय सत्ता का बोध उतना ही निर्मल होता चला जाता है। उसके लिये न तो मनुष्य को कही अलग जाने की आवश्यकता है और न कुछ और अध्ययन कीं गीता के 9 वे अध्याय में इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए भगवान् कृष्ण ने कहा था-

मया ततमिद सर्व जगद व्यक्तमूर्तिमा। मस्स्वानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्डडडड स्थितः।

सर्वभूतानि कौतेय प्रकृर्ति यान्ति मामिकाम्। कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पातौ विसृजम्यहम्।

मयाध्यक्षेण प्रकृतिःसूयते सचराचरम्। हेतु नानेन कौतेय जगद्विपरिवर्तते।

है अर्जुन मैंने (विश्व चेतना) अपने अव्यक्त स्वरूप से इस समग्र जगत् को फैलाया अथवा व्याप्त किया है, परन्तु चह आश्चर्य देख कि मुझमें ही सब सृष्टि संग्रहित है पर मैं उनमें नहीं हूँ, कल्प के अन्त में सब भूत मेरी प्रकृति में आ मिलते है ओर फिर कल्प के आरम्भ में मेरी अध्यक्षता में प्रकृति ही सब चराचर सृष्टि को उत्पन्न करती रहती है।

अदृश्य की इतनी अच्छी शोध किसी धर्म में नहीं हुई। यहाँ उसका विकास भी किया गया है, जीव को ही ब्रह्मा रूप में शुद्ध करके उसके सर्वव्यापी, सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान्, शुद्ध, चैतन्य, मुक्त, कर्माध्यक्ष, साक्षी, दृष्टा स्वरूप को प्रमाणित किया है।

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