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Magazine - Year 1969 - Version 2

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अपनी शक्तियाँ सही दिशा में विकसित कीजिए

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विश्वासी मनुष्य विश्व-विजय कर सकता है-इसमें सन्देह नहीं। जिसको अपने पर, अपने चरित्र पर, अपनी शक्तियों पर, अपनी आत्मा और परमात्मा पर विश्वास है, वह मरुभूमि को मालवा बना सकता है। मनुष्य से देवता और नगण्य से गण्यमान बन सकता है। असंदिग्ध विश्वास वाले व्यक्ति के लिये न कहीं भय है और न अभाव। वह किसी स्थान में रहे, किसी परिस्थिति में पड़ जाये सफल होकर ही बाहर आता हैं।

इसका साधारण-सा सार यह है कि जिसको अपने पर और अपनी शक्तियों में अडिग विश्वास है, उसका साहस एवं उत्साह हर चैतन्य बना रहता है। आशा उसकी अगवानी के लिये पथ में प्रस्तुत खड़ी रहती है। आशा-विश्वास साहस और उत्साह का चतुष्टय जिस भाग्यवान् के पास है, वह किसी भी कार्य-क्षेत्र में कूद पड़ने से कब हिचक सकता है? जो कर्म-क्षेम में उतरेगा पुरुषार्थ एवं परिश्रम करेगा- उसका फल उसे मिलेगी ही जो समुद्र में बैठेगा मणि-मुक्ता पायेगा ही। जो पर्वत पर चढ़ेगा वही तो चन्दन उपलब्ध करेगा। यह तो एक साधारण नियम है। इसमें कोई आश्चर्य एवं विचित्रता नहीं है।

यह सब होते हुए भी संसार में अधिकतर मनुष्य ऐसे ही दीख पड़ते हैं, जो दीन-हीन अवस्था में पड़े जीवन को आगे ठेल रहे है। न उसमें कोई उत्साह दृष्टिगोचर होता है और न कर्त्तव्य की कोई साधना काम करना पड़ा तो उल्टा-सीधा कर फेंका। जो कुछ उल्टा-सीधा खाने को मिला पेट में डाला और बस पड़ रहे असहायों जैसे समय और जीवन की हत्या करने के लिये।

बड़ा आश्चर्य होता है- कि ऐसे आदमियों की यह समझ में क्यों नहीं आता कि उनका यह जीवन-यापन मृत्यु-यापन का ही एक स्वरूप है। केवल हाथ-पैरों का हिल-डुल सकना और श्वाँसों का आगमन ही जीवन का प्रमाण नहीं है। यह तो केवल मिट्टी और आदमी के बीच अन्तर का संसूचक है। जीवन का चिह्न तो मनुष्य की प्रगति एवं विकास है। उसके वे कर्त्तृत्व है जो अपना और दूसरों का कुछ भला कर सकें। जीवन का लक्षण मनुष्य की वे भावनायें एवं विचार है जिनमें कुछ ताजगी, कुछ प्रेरणा और स्फूर्ति हो। जिसके मस्तिष्क से प्रेरक विचार और उद्बोधक भावनाओं का स्फुरण नहीं होता, जीवित कैसा? वह तो जड़ अथवा जड़ीभूत प्राणी ही माना जायेगा।

कर्त्तव्य का अर्थ कमाई कर लेना और जीवन-यापन का मतलब खाना-पीना सोना-जागना बोलना-चालना घूमना-फिरना लगाने वाले भूल करते है। यह सारी क्रियायें तो नैसर्गिक कार्य-कलाप है, जिन्हें जीवन बनाये रखने के लिये विवश होकर करना ही पड़ता है यदि मनुष्य इन क्रियाओं से विमुख होकर इन्हें स्थगित कर दे तो उसका जीवन ही न रहे, फिर उसके यापन का प्रश्न ही नहीं उठता। यापन का अर्थ है उपयोग करना। जीवन को बचाने के लिये, उपार्जन आदि के कार्य जीवन के उपयोग में सम्मिलित नहीं किये जा सकते। यह तो खाने-पीने के लिये जीना और जीने के लिये खाना-पीना जैसा एक चक्रात्मक कम हो गया, जिसमें जीवन की उपयोगिता जैसा अंश कहाँ है।

जीवन-यापन अथवा उसकी उपयोगिता का अर्थ यह है कि जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त कुछ ऐसे काम भी किये जायें, जो परमार्थ परक हों अर्थात् जो अपनी आत्मा और परमात्मा की इस सृष्टि के लिये कुछ उपयोगी हो सकें। जिनको करने से संसार में कुछ सौंदर्य-वर्धन हो, दीन-हीन और रोगी, दोषी व्यक्तियों की संख्या कम हो, अभाव एवं अशिक्षा का अंश अर्धांश दूर हो, सहचर, सौहार्द एवं सद्भावना का वातावरण बढ़े, आस्तिकता में गम्भीरता का समावेश हो, अज्ञान एवं अमित्रता के अन्धकार में ज्ञान एवं मैत्री के दीप जलें विरोध एवं संघर्ष के स्थान पर सामंजस्य और सहकारिता की स्थापना हो- आदि अनेक ऐसे सत्कर्म एवं सद्विचार हो सकते जिनके प्रसार एवं प्रकाश से हमारा संसार स्वर्गोपम स्थिति की ओर अग्रसर हो सकता है।

यदि हमारे जीवन का थोड़ा भी अंश इस स्वर्गीय उद्देश्य के लिए नहीं लगता और खाने, कमाने, भोगने और बचाने में ही लग जाता है तो मानना पड़ेगा कि हमने जीवन-यापन नहीं किया उसका विनाश किया है, हत्या की है और हम समाज का बहुत कुछ चुराकर उसको वंचित करके आत्मघात के अपराधी हुए है। इतनी एकांकी, एकांगी और निजत्वपूर्ण जीवन तो कीट-पतंग एवं पशु-पक्षी भी नहीं बिताते। वे भी अपने अतिरिक्त दूसरों का कुछ करते दिखाई देते है।

लोग धन कमाते, उसे खाते, व्यय करते और बचाकर रख लेते है। विद्या प्राप्त करते-उसे अर्थकारी बनाकर अपने तक सीमित कर लेते, लोग शक्ति संचय करते- उससे यह तो दूसरों पर प्रभाव का आनन्द लेते अथवा अपने को बलवान् समझकर संतुष्ट हो जाते, कला-कौशल का विकास करते और उसके पैसे खड़े कर लेते, शिल्प सीखते उनमें मौलिकता की वृद्धि करते और उसके आधार पर मालामाल होने के मंसूबे बनाते, लोग आध्यात्मिक उन्नति करते और अपने में लीन हो जाते है। अनेक विषयों पर एवं समस्याओं पर विचार करते और स्वयं समाधान समझकर चुप हो जाते हैं। यह और इस प्रकार की सारी बातें घोर स्वार्थपरता है। अपने स्वार्थ तक अपनी उन्नति एवं विकास को सीमित कर लेना अथवा उन्नति एवं विकास न करना एक ही बात है। कोई भी गुण, कोई भी विशेषता, कोई भी कला अथवा कोई भी उपलब्धि जो संसार एवं समाज एवं समाज के काम नहीं आती व्यर्थ एवं निरर्थक है। अस्तु, इस परिश्रम एवं पुरुषार्थ की निरर्थकता से बचने के लिये अपने से बाहर निकल कर विशेषताओं एवं उपलब्धियों का प्रसारण कीजिये और तब देखिये कि आपको उस स्थिति से भी सहस्र गुना सुख सन्तोष मिलता और लोक के साथ परलोक का भी सुधार होता है।

आपने प्रयत्न किया और परमात्मा ने आपको धन दिया। बड़े हर्ष का विषय, प्रसन्नता की बात है, आप बधाई के पात्र है। किन्तु इसको सार्थक बनाने के लिये, आपके व्यय से जो कुछ बचे उसमें से कुछ भाग से समाज का भला कीजिये। न जाने कितनी जरूरतमन्द अपनी जिन्दगी, जो कि उपयोगी हो सकती है, इसके अभाव में नष्ट कर रहे है। न जाने कितने होनहार निर्धन विद्यार्थियों की शिक्षा इसके अभाव में बन्द हो जाती है। न जाने कितने समाज-सेवी और सत्पुरुष आर्थिक असुविधा से हाथ-पैर बाँधे यथास्थान तड़पते रहते है। न जाने कितनी भूखी आत्मायें अकाल में ही शरीर त्याग देती हे। न जाने कितने अनाथ एवं अपाहिज बच्चे याचना भरी आँखों से टुकुर-टुकुर देखा करते है। अपने धन का उपयोग इनकी सहायता करने में करिये। इससे आपको यश एवं पुण्य का लाभ तो होगा ही साथ ही आपका वह समय जिसे आवश्यकता से अधिक धन कमाने में लगाया था, अब जीवन-यापन अथवा उपभोग में गिना जायेगा।

इसी प्रकार यदि आप विद्वान्, कुशल, शिल्पी, विचारक, बलवान् आदि किन्हीं भी विशेषताओं से विभूषित क्यों न हों, उससे समाज को प्रभावित करने और लाभ उठाने के स्थान पर उसकी सेवा, सहायता एवं सान्त्वना कीजिये आपके गुण, आपकी विशेषताएँ अपनी सता से आगे बढ़ कर पुण्य एवं परमार्थ की उपाधि प्राप्त कर लेगी।

यदि आपके पास धन-दौलत व गण-विशेषताएँ कुछ भी नहीं हैं। आप सन्तानवान् है तो अपनी सभी सन्तानों को अपने तक अथवा उनके अपने जीवन तक ही सीमित न कर दीजिये, कम-से-कम एक सन्तान को अवश्य ही समाज-सेवा लोक-हित के लिये प्रेरित कीजिये। यह आवश्यक नहीं कि वह साधु-संन्यासी अथवा नेता-नायक बनकर ही समाज-सेवा के लिये आगे बढ़े। वह साधारण नागरिक और गृहस्थ रहकर भी लोक-हित के काम कर सकता है। आपका केवल यह कर्त्तव्य है कि आप उसका निर्माण इस प्रकार से करें कि उसकी वृत्तियाँ स्वार्थी न होकर परमार्थोन्मुखी हो जायें।

यदि सीमा यहाँ तक हो कि किसी के पास उसके शरीर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है तो वह ओर कुछ न सही समाज को समय देकर उसकी शारीरिक सेवा करके पुण्यवान बन सकता है। तात्पर्य यह कि लोक-हित के कार्यों के लिये मात्रा अथवा परिमाण का कोई महत्व नहीं है। महत्व है उस प्रकार की भावना और यथासाध्य तदनुरूप सक्रियता की। यहाँ तक कि यह सेवा मानसिक, बौद्धिक और वाचिक भी हो सकती है, वैचारिक और भावनात्मक हो सकती है। अपनी संकुचित सीमा से निकलकर अपने सामाजिक स्वरूप को जानना और उसके दुःख-सुख और उत्थान-पतन से समभाव होना ही इसका आधारभूत सिद्धांत है। इस सिद्धांत में विश्वास रखने वालों से लोक-हित के थोड़े बहुत कार्य अनायास ही होते रहते हैं।

आइये हम सब अपने प्रति विश्वास का महामन्त्र सिद्ध करें और जीवन के उन्नत सोपानों पर चढ़े चलें। हम जितनी उन्नति कर सकेंगे उतना अपना और साज का हित कर सकेंगे। यदि हम गई-गुजरी और आश्रित अवस्था में अपने को डाले रहें, दूसरों पर मुखापेक्षी बने रहे तो स्वयं कुछ भी परमार्थ न कर दूसरों को अपने द्वारा परमार्थ का अवसर देने पर बाध्य होंगे और इस प्रकार अपने स्वयं के जीवन की सार्थकता एवं उपयोगिता से वंचित रह जायेंगे।

यह सोचना और यह कहना कि हम किसी योग्य ही नहीं हैं, हमारे पास है ही क्या जिससे हम उन्नति कर सकते हैं और दूसरों का हित सम्पादित कर सकते हैं। यह भावना निराशाजनक है। इसको अपने मस्तिष्क से निकाल फेंकिये। आपमें उत्साह, साहस और स्फूर्ति के भण्डार भरे पड़े हैं। अपने पर विश्वास तो कीजिये आस्थापूर्वक आगे कदम तो बढ़ाइये फिर देखिये कि आपका मार्ग आप से आप स्पष्ट होता जायेगा।

हो सकता है आपमें विश्वास की कमी हो। उमंग आने पर भी आपका कदम न बढ़ता हो। बढ़ा कदम किसी भय से अथवा आशंका से ठिठक जाता हो और आप इस बात से दुखी हों कि आपका आदि ही प्रारम्भ नहीं हो पा रहा है। तब भी दुखी अथवा निराश होने की आवश्यकता नहीं। अपने को देखिये, अपनी परीक्षा कीजिये। अवश्य ही कोई न कोई कमजोरी अथवा कमी आपको भयभीत बनाते हुये है।

यदि आपमें शिक्षा की कमी है तो आज ही पढ़ना आरम्भ कर दीजिये। पढ़ने के लिये कोई भी समय असमय नहीं होता। सबको सब समय विद्या लाभ हो सकता है, यदि वह उसके लिये जिज्ञासापूर्वक प्रयत्न करता है। साक्षर बनिये और सत्साहित्य का अध्ययन कीजिये, सत्साहित्य का अध्ययन मनुष्य के विचार को अनायास ही खोल देना है, प्रकाश एवं प्रेरणा देता है। नई-नई योजनाएँ और क्रियाओं की प्रेरणा देता और मनुष्य में आत्मविश्वास की वृद्धि करता है। शिक्षा की कमी दूर होने से मनुष्य की अनेक अन्य कमियाँ स्वयं दूर हो जाया करती है। अविश्वास, सन्देह, शंका और संशय का कुहासा तो विद्या की एक किरण बात की बात में विलीन कर देती है।

यदि आपमें चारित्रिक दुर्बलता तो चरित्रवानों की संग कीजिये। सज्जनों का सत्संग और उनका जीवन देखने अध्ययन करने से यह दुर्बलता तो शीघ्र ही दूर हो जाती है। यदि आपके संकल्प शुद्ध है, उद्देश्य उन्नत एवं हितकारी हैं, यदि आप लोक-मंगल की भावना से प्रेरित है यों चारित्रिक दुर्बलता के प्रति निराशा अथवा आत्महीन होने की आवश्यकता नहीं, चरित्र का सुन्दर एवं शिव स्वरूप में देख सकने के कारण ही मनुष्य अन्धकार की भाँति भटक जाता है। जब आप सत्साहित्य और सत्संग द्वारा चरित्र का उज्ज्वल पक्ष देख लेंगे, आपकी सारी उपलब्धियां लजाकर तिरोहित हो जायेंगी और तब आप दर्पण की तरह प्रसन्न होकर पुलकित उठेंगे

इस प्रकार अपनी कमियाँ एवं कमजोरियों को निकाल फेंकिये, आपमें आत्म-विश्वास की वृद्धि होगी, जिसके साथ ही साहस, उत्साह और आशा की त्रिपथगा भी आपके अन्दर लहराने लगेगी। अपने शिव संकल्पों और लोक-कल्याण की भावना के साथ आप अपने इस विश्वास चतुष्टय को नियोजित कीजिये और वह सब कुछ बनकर वह सब कुछ कर दिखाइये, जो पुण्य एवं पुरुषार्थ उन्नति एवं विकास के नाम से पुकारा जाता है।

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