
सौ प्यारे को सौ दुःख
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
भगवान् बुद्ध ने आमन्त्रण स्वीकार कर लिया था। श्रावस्ती की विशाखा मृगार माता के लिये यह बड़े हर्ष की बात थी। उसके पास धन-संपत्ति, वैभव, विलास का कोई अभाव था नहीं। पुत्र-पौत्र भी खूब फल-फूल रहे थे। तथागत के स्वागत के लिये उसने अपने पूर्वाराम प्रासाद को खूब अच्छी तरह सजाया और भगवान् को उसी में विश्राम दिया।
परमात्मा की रचना बड़ी विलक्षण है। वह कब क्या कर दे-कुछ ठिकाना नहीं। भगवान् बुद्ध जिस दिन श्रावस्ती पधारे उसी रात विशाखा के पौत्र धीरज का देहाँत हो गया। पौत्र के निधन से विशाखा इस तरह व्याकुल होकर रुदन करने लगी जैसे मरुस्थल में डाल दी गई मत्स्य।
प्रातःकाल हुआ। शिशु का शवदाह कर दिया गया। अब तक बह रहा आवेग शोक-निर्झर अब पर्वतीय अंचल से उतरकर मैदान में बहने वाली नदी की तरह धीर, शाँत और गम्भीर हो चला था। विशाखा उस समय भी अस्त-व्यस्त शरीर, वस्त्र और बाल भिगोये उस सभा-भवन में जा बैठी जहाँ भगवान् बौद्ध दर्शनार्थियों को आत्म-कल्याण का उपदेश कर रहे थे।
इस मुद्रा और वेश-भूषा में देखकर भगवान् बुद्ध ने पूछा- “विशाखे! मध्याह्न हो चुका, अब तक तूने वस्त्र और बाल भी नहीं सुखाये।”
आहत स्वर में विशाखा ने उत्तर दिया- “हाँ भगवन्! मेरे पौत्र का निधन हो गया है। वह वेदना मेरे हृदय का उच्छेदन कर रही है।” कहकर वह फिर सुबक-सुबक कर रुदन करने लगी।
भगवान् बुद्ध ने बहुत धीरज दिया, फिर भी वह चुप न हुई। तब उन्होंने कहा- “अच्छा विशाखा! बोल यदि तेरा नाती तुझे मिल जाये तो तू खुश हो जायेगी।”
“हाँ! हाँ!! भगवान् तब तो मेरी प्रसन्नता का पारावार ही नहीं रहेगा।” विशाखा ने विस्मय के साथ उत्तर दिया।
“अच्छा तो मुझे कितने पौत्र चाहिए? एक, दो, दस, सौ या जितनी श्रावस्ती की जनसंख्या है।” भगवान् बुद्ध ने किञ्चित् विनोदपूर्वक प्रश्न किया।
उसका उत्तर देते हुए मृगार माता ने कहा- “भगवन्! जितने अधिक दे सकते हों दें, मेरी प्रसन्नता उतनी ही बढ़ेगी।”
तब फिर बुद्ध भगवान् ने प्रश्न किया- “अच्छा, यह मान लें कि इस नगर के सभी लोग तेरे ही पुत्र-पौत्र हैं। अब यह बता यहाँ प्रतिदिन कितने लोग मरते होंगे?”
=कोटेशन============================
शाँति और संतृप्ति चाहते हो? तो साँसारिक कामनायें कम कर अपने संकल्प को कहने दो- परमात्मा के अतिरिक्त मुझे कुछ नहीं चाहिए।
-स्वामी रामतीर्थ
==================================
“निश्चित तो नहीं, पर कभी दस भी मरते हैं कभी चार-छः, तीन और दो भी। कोई महामारी आ जाती है तो सौ-दो सौ भी मर जाते हैं- यह मृगार माता का उत्तर था।
अब तू ही बता विशाखा! भगवान् बुद्ध ने हँसते हुए पूछा- “एक पौत्र के निधन से तो तू इतनी दुःखी है, यदि तेरे हजार पौत्र हो जाएं तो प्रतिदिन कितने मरेंगे और तब तू कितनी दुखी होगी। यह तो उनकी मृत्यु का ही दुःख होगा। उनके पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा में कितना कष्ट उठाना पड़ेगा। सेवा का ही सुख चाहिए तो सारा संसार पड़ा है सबकी सेवा कर, आसक्ति से तो दुःख ही बढ़ेगा?”
मृगार माता की समझ में बात आ गई। उसने अपना दुःख भुला दिया और संसार की सेवा में जुट गई।