
मोह-माया में भ्रमित अग-जग
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मथुरा से थोड़ी दूर पर छाता कस्बा है। 1850 में वहाँ के निवासी श्री बृजलाज वार्ष्णेय के घर एक बच्चे ने जन्म लिया। उसका नाम प्रकाश रखा गया। अभी यह बालक चार ही वर्ष का हुआ था कि वह एक दिन रात को सोते-सोते उठा, घर से निकल कर बाहर आ गया और सड़क की ओर चल पड़ा। यह तो अच्छा हुआ कि घर वालों को पता चल गया, वे पीछे-पीछे भागे और बच्चे को थोड़ी ही दूर से पकड़ लाये।
किन्तु हैरानी उस समय और बढ़ गई जब प्रकाश का स्वभाव सा हो गया कि वह रात के अँधेरे में ही अकेला जाग पड़ता और चुपचाप घर से निकलकर सड़क की ओर भागने लगता। घर वाले पकड़ते और पूछते तो वह कहता-मुझे कोसी कलाँ ले चलो मेरा घर कोसी में है वहाँ मेरे माता-पिता, भाई और बहन हैं, मैं उनसे मिलूँगा।
वार्ष्णेय परिवार लगातार की इस परेशानी से चिन्तित तो था ही अब उनकी जिज्ञासायें और तर्क-वितर्क भी प्रबल हो उठे। एक दिन वे बच्चे को कोसी लेकर आये भी पर दैवयोग से उस दिन वह दुकान बन्द थी जिसे वह अपने पूर्व जन्म की दुकान कहता था इसलिये वह और कुछ पहचान न पाया और इस तरह जैसे गया था वैसे ही वापस ले आया गया।
अगले दिन उस दुकान के मालिक श्री भोलानाथ जैन को पता चला कि कोई लड़का छाता से यहाँ आया था और यह कहता था कि यह उनके पूर्व जन्म के पिता की दुकान है तो एकाएक उन्हें 5 वर्ष पूर्व हुई अपने दस वर्षीय पुत्र निर्मल की मृत्यु की घटना याद हो आई। निर्मल बीमार पड़ा था। लगातार कोशिशों के बाद उसका बुखार टूटा नहीं। एकाएक ऐसा जान पड़ा कि बुखार बिल्कुल उतर गया है वह स्वस्थ चित्त होकर बातें करने लगा। मृत्यु के पूर्व प्रायः सदैव ही ऐसा होता है, बुझने से पूर्व एक बार तीव्र लौ प्रकट करने के समान आत्मा एक शरीर त्यागने को होती है तो कुछ क्षणों के लिये वह अपने दिव्य स्वरूप का अनुभव करती है और तब अतीत और भविष्य की अगणित बातें अनायास मस्तिष्क पर उभरती हैं। भारतीय दर्शन की इस मान्यता की पुष्टि उस समय देखने को मिली जब निर्मल ने कहा- “मैं छाता अपनी माँ के पास जा रहा हूँ” और इसके बाद ही उसका निधन हो गया था।
उस घटना की याद आते ही श्री भोलानाथ जैन ने छाता जाने का निश्चय किया। साथ अपनी पुत्री को लेकर जब वे छाता पहुँचे और पता लगाते हुए श्री बृजलाल वार्ष्णेय के यहाँ पहुँचे तो बालक प्रकाश उन्हें देखते ही खुशी से नाच उठा और श्री भोलानाथ की पुत्री को अपनी बहिन तारा कहकर उसके साथ घुल-मिल कर ऐसी बातें करने लगा जैसी उसके साथ वर्षों की पहचान हो।
इस घटना के बाद प्रकाश की सोई स्मृतियाँ एक बार पुनः तीव्र हो उठीं। अब यह पुनः कोसी कलाँ जाने के लिये हठ करने लगा। श्री भोलानाथ के आग्रह पर वार्ष्णेय परिवार उसे कोसीकलाँ लाने के लिये राजी हो गया पर वे लोग भीतर ही भीतर कुछ डर से रहे थे कि कहीं ऐसा न हो कि लड़का वहाँ से न आने का ही हठ करने लगे और वह अपने हाथ से भी चला जाये।
कोसीकलाँ लाये जाने पर उसने अपने पूर्व जन्म की माँ और अपने भाई जगदीश को पहचान लिया और अपने भाई देवेन्द्र को तो उसने देखते ही “देवेन्द्र” कहकर पुकारा भी। उससे लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि क्या पूर्व जन्मों की स्मृतियाँ इतनी भी स्पष्ट हो जाती हैं। दोनों परिवारों की बात-चीत से पता चला कि पूर्व जन्म के निर्मल और अब के प्रकाश की रुचि, आदतें, व्यवहार बहुत अंशों में एक ही समान हैं। निर्मल ने ही प्रकाश के रूप में जन्म लिया है, इस सम्बन्ध में कोई सन्देह शेष नहीं रहता। पहले जन्म में उसने छाता जाने का मोह प्रदर्शित किया इस जन्म में उसकी कोसी के प्रति ममता है-कुछ ऐसी माया का फेर है कि मनुष्य बार-बार जन्म लेता और मरता है पर अपने शाश्वत स्वरूप को पहचानने और पाने का प्रयत्न नहीं करता।