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Magazine - Year 1970 - Version 2

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विश्व-मैत्री

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“हाँ-हाँ अम्बे! वनराज (शेर) को मैंने स्वयं चन्द्रारिका उपत्यिका की ओर जाते देखा। राजमाता (शेरनी) उनके साथ ही थीं। लगता है उनके नवाप्रसूत शावकों पर किसी रिच्छ ने आक्रमण कर दिया है। मचान बनाते समय मैंने उनका करुण क्रन्दन सुना है। जननी! तू इधर आ, देख यह मेरे परिधान यहाँ रखे हैं। मेरा धनुष और तूणीर मुझे देना- देखूँ तो मेरे मित्रों को कष्ट देने का साहस किसने किया है?” इतना कहते-कहते बालक ने स्वयं उठकर धनुष की प्रत्यञ्चा चढ़ाई और निविड़ वनस्थली में एक ओर विलीन हो गया।

शकुन्तला के लिये यह कोई नई बात नहीं थी। उसे कोई भय या आशंका भी नहीं थी। महाराज दुष्यन्त से परित्यक्त होने के बाद पितामह कण्व ने बहुतेरा प्रयत्न किया कि शकुन्तला आश्रम में रहे, पर शकुन्तला ने अस्वीकार कर दिया था। उन्हें मालूम था कि समाज में परित्यक्त की स्थिति क्या होती है। अपनी ही बात होती तो वह सहन भी कर लेती, उदर में पल रही आत्मा को आत्म-हीनता की परिस्थितियों में डालना आर्य ललनाओं ने कभी भी स्वीकार नहीं किया, शकुन्तला ही अपवाद क्यों बनती। वह जंगल में चली आई। अपना आश्रम अपने हाथों बनाया। भगवती गायत्री की उपासना की थी उन्होंने। इसीलिये प्राणवान् पुत्र ने उनकी कोख से जन्म लिया था।

भरत 11 वर्ष के सुकुमार बालक थे। जब वह 5 वर्ष के थे, शकुन्तला ने उनका उपवीत संस्कार अपने हाथों एकाकी आश्रम में भगवान् यज्ञ की साक्षी में सम्पन्न कराया था। मन्त्र-दीक्षा उन्होंने ही दी थी और उस दिन से भरत उनका पुत्र ही नहीं, शिष्य भी हो गया था। पुत्रों के साथ माताओं की जो ममता होती है, शकुन्तला ने उसे शिष्य के प्रति कठोरता में परिणत कर दिया था। ममता तो अन्तःकरण में प्रकाश भरती थी, पर उनका पुत्र-नहीं उनका शिष्य कहीं निम्न कोटि का नागरिक बनकर न रह जाये इसलिये जितनी कठोरता कर सकती थीं, की थीं। 5 वर्ष से ही उन्होंने गायत्री के महापुरश्चरण प्रारम्भ किये थे। यज्ञ के लिये समिधायें लाने से लेकर हविष्यान्न तैयार करने तक का सारा श्रम भरत को स्वयं करना पड़ता था। माँ उसे पढ़ाती भी थी-उसकी तैयारी और पहले दिये हुए पाठ को कण्ठस्थ करने का काम भी उसे साथ-साथ पूरा करना पड़ता था। इतनी कठोर साधना में ढालने का एकमात्र उद्देश्य यही था भरत साहसी बने, भरत प्राणवान्, प्रज्ञावान् और यशस्वी बने। सो वह सब राजसूय लक्षण उसमें अभी से परिलक्षित होने लगे थे।

दो दिन पूर्व ही उसने व्याघ्र के एक बालक को पकड़कर पटका था, तब शकुन्तला ने उसे न्याय-दर्शन पढ़ाया था-तात! तुम राजपुत्र हो। तुम्हें मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षियों के साथ भी न्याय करना चाहिए। उनकी प्रकृति जो भी हो, पर तुम्हें अकारण दण्ड देने का क्या अधिकार? मेरी तरह इस व्याघ्र शिशु की माता जब उसे पीड़ित अवस्था में देखेगी, तब उसके अवसाद का अभिशाप क्या तुझे पीड़ित नहीं करेगा? खबरदार, फिर कभी भी प्राणी को पीड़ा मत पहुँचाना। तुम्हें प्राणिमात्र के प्रति रक्षा, क्षमा और न्याय की भावना रखनी चाहिए।

आज माँ की उस शिक्षा की कसौटी थी। इसलिये शकुन्तला उसे रोक भी नहीं सकती थी। बालक भरत उधर ही बढ़ते गये, अब भी जिधर से सिंह-शावकों का करुण क्रन्दन बहता आ रहा था। सघन लताओं और वृक्षों को चीरते हुए राजकुमार भरत वहाँ जा पहुँचे, जहाँ से आवाज आ रही थी। सचमुच 5 भालुओं ने दो नन्हें सिंह-शावकों को घेर रखा था। शेर के आने से पहले ही वे उन्हें झपटकर खा जाना चाहते थे। प्रतिरोध की तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। उनमें से एक भालू झपटा और जैसे ही उसने तलवार की धार के समान तीक्ष्ण पञ्जों से बच्चों पर प्रहार करना चाहा कि गिद्ध-पंखों से पुच्छावेष्ठित तीर सनसनाता हुआ आया और पास ही पड़े शिलाखण्ड को तोड़ता हुआ गहराई तक भीतर प्रविष्ट हो गया।

भालू चौंक पड़े। पत्थर को फोड़कर तीर का उसमें प्रवेश कर जाना उनके लिये भारी आश्चर्य था। वे आक्रमण करना भूल गये। सब पीछे मुड़ गये। अब भरत कुमार को दस और चार चौदह आंखें निहार रही थीं। 10 क्रूर दृष्टि से और 4 करुणा और दया की दृष्टि से।

शिकार के समय वन्य जीव-जन्तुओं का रक्त वैसे ही गर्म हो उठता है, फिर प्रतिरोध से तो उनके क्रोध की सीमा ही टूट जाती है। विलम्ब किये बिना पाँचों भालू भरत पर टूट पड़े। आह्लाद चित्त भरत एकबार मुस्कराये, माँ की बात यादकर- ‘वत्स! दण्ड तो अपराधी को ही दिया जा सकता है। अपराधी को दण्ड न देना तो पाप भी है, पर अकारण किसी को नहीं सताना चाहिए।’

भरत ने पूर्व ही चेतावनी दी थी, पर भालुओं पर उसका कुछ प्रभाव न पड़ा तो अब दण्ड देना ही उचित था। तड़ित गति से भरत का हाथ खंग पर गया और उसने एक ही प्रहार में दो भालुओं के शीश धड़ से उड़ा दिये। शेष तीन में उसे वीर बालक का सामना करने की हिम्मत न रही। वे अपना-सा मुँह लेकर जंगल में एक ओर भाग गये।

दोनों सिंह-शावकों ने आगे बढ़कर महाराज कुमार का विनीत स्वागत किया। वह उनके चरणों पर लोट गये। भरत ने दोनों बच्चों को दोनों हाथों से उठाकर छाती से लगा लिया और कहा- ‘बच्चों चलो, आज तुम्हें अपनी माँ- अपने गुरु के दर्शन करायें।’ यह कह जैसे ही वह पीछे मुड़े, उन्होंने देखा-पीछे सिंह-सिंहनी दोनों ही कृतज्ञ मुद्रा में खड़े तीनों बालकों की क्रीड़ा ध्यान से देख रहे हैं। देखने से पता चलता था कि वे काफी समय पूर्व ही आ गये थे। उन्होंने भरत को अपने बालकों की रक्षा करते देखा था। उनकी आँखें अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये झर-झर कर रही थीं। उन्होंने कोई विरोध नहीं किया। अपने दोनों छोनों को वनराज ने भरतकुमार के साथ सुखपूर्वक खेलने जाने दिया।

माँ ने अपने पुत्र के साहस और कर्त्तव्य-निष्ठा के लिये भगवान् को धन्यवाद दिया और भरत ने अपनी माँ को, जिनकी कृपा से आज उसे खेलने के लिए दो मित्र मिल गये थे।

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