
तत्वशोध की साधना अधूरी न रहने पाये
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
इन्द्र जैसे महाबली देवता के लिये भी, जब तक महर्षि दधीचि की धर्मपत्नी भगवती वेदवती उपस्थित थीं, आश्रम में प्रवेश करना कठिन था। इन्द्र सबसे छुप सकते थे पर सती के अपूर्व तेज के समक्ष छद्मवेश छिपा सकना उनके लिये भी सम्भव न हुआ।
वेदवती जल भरने के लिये बाहर निकलीं, तब इन्द्र ने आश्रम में प्रवेश किया और महर्षि दधीचि से अस्थिदान ले लिया। वेदवती लौटी तब दान दिया जा चुका था। महर्षि अपने प्राण निकाल चुके थे।
वेदवती ने एक क्षण में ही सारी स्थिति का अनुमान कर लिया। अभी वे इन्द्र को शाप देने ही जा रही थीं कि दिव्य देहधारी महर्षि ने उन्हें परावाणी में समझाया-भद्रे! देवत्व की रक्षा के लिये यह दान मैंने स्वेच्छा से दिया है। अब आपके लिये भी यह उचित है कि शाप न देकर गर्भ में पलने वाली आत्मा का ऐसा निर्माण करो कि ‘तत्वशोध’ की हमारी साधना अधूरी न रहने पाये।
“आज्ञा शिरोधार्य है देव।” यह कहकर वेदवती तपश्चर्या में संलग्न हो गई। इतिहास साक्षी है कि इवपक गर्भ से महर्षि पिप्पलाद जैसा महान् ऋषि उत्पन्न कर उन्होंने पति की अन्तिम आकाँक्षा भी पूरी कर दी।