
बिना कुछ खाये जिन्दगी बीत गई।
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
जैसे-जैसे गिरिबाला की आयु बढ़ती गई, उसकी भोजन पचाने की क्षमता भी असाधारण एवं आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ती गई। यों वह और भी काम करती थी, पर मुख्य रूप से उसका ध्यान खाने में ही लगा रहता। वह दिन भर खाती रहती। औसतन पाँच-छः व्यक्तियों का भोजन वह अकेली ही खा जाती? अपनी बच्ची थी, इसलिये उसे भूखों मारना तो कठिन था पर माँ भी नहीं चूकती थी- “गिरिबाला! तू ससुराल जायेगी तो तेरी सास तेरी अच्छी मरम्मत करेगी। इतना खायेगी तो भला किस घर में निर्वाह होगा?”
इन पंक्तियों में प्रस्तुत घटना कोई काल्पनिक कथा नहीं, वरन् एक सत्य इतिहास है। गिरिबाला नाम की यह कन्या बंगाल के बाकुड़ा जिले में ब्यूर नामक एक छोटे-से गाँव के सम्पन्न बंगाली परिवार में जन्मी। माता-पिता यद्यपि जमींदार थे पर भाई लम्बोदर बाबू ख्यातिप्राप्त वकील थे। गिरिबाला की इस अस्वाभाविक खाने की आदत से सभी लोग चिन्तित थे और सोचते थे कि यह ससुराल जायेगी तो क्या होगा? पर होनी तो आखिर होनी ठहरी। 12 वर्ष की अल्पायु में ही गिरिबाला का सम्बन्ध कलकत्ता जिले में नवाबगंज के एक सम्पन्न परिवार में कर दिया गया। गिरिबाला ससुराल आई तो पहली ही उसकी इस राक्षसी भक्षण-प्रवृत्ति ने सबको चौंका दिया।
कुछ दिन यों ही बीते। पर आखिर यह पीहर तो था नहीं, अपरिचितों ने अपरिचितों जैसा ही व्यवहार किया। एक दिन सास ने आखिर व्यंग्य-बाण छोड़ ही दिया- बहू, भला तू अपने पिता के घर भी कुछ छोड़कर आई है? तू तो इतना खाती है कि लगता है- घर का एक साल का अन्न एक महीने में ही चुका देगी?
गिरिबाला स्वयं नहीं जानती थी कि यह किस जन्म के संस्कार हैं। पर वह अपने आपको असहाय अनुभव करती, बिना खाये उससे रहा ही नहीं जाता था। पर उस दिन का अपमान कुछ ऐसा था जिसने उसके सम्पूर्ण स्वाभिमान को चरमरा दिया। गिरिबाला ने बड़े आत्म-विश्वास से कहा- “अच्छा, अब आज से बिलकुल एक दाना भी न खाऊँगी।”
सास हंसी और बोली- “बिना खाये एक दिन तो रहा नहीं जाता, उपवास की कहती तो सम्भवतः मान भी लेती। जीवन भर कुछ न खाने का संकल्प और वह भी तू करे- यह नितान्त असम्भव है। कोई योगी होता तो कुछ विश्वास भी कर सकते थे।”
परमहंस योगानन्द ने अपनी पुस्तक- एक योगी की आत्मकथा (ऑटो बाईग्राफी आफ योगी) नामक अपनी जीवनी में इस घटना का कौतूहलपूर्ण विवरण देते हुए लिखा है- मनुष्य को कई जन्मों के संस्कार विलक्षण ढंग से प्रभावित करते हैं, पर सामान्य मनुष्य उन्हें पहचान नहीं पाते, जबकि असामान्य व्यक्ति अपनी बौद्धिक सूक्ष्मता के कारण अपने जीवन की राहें असामान्य बना लेते हैं। गिरिबाला भी ऐसी ही कन्या थी, जो पूर्व जन्म में कोई महान् तपस्विनी, योग-साधिका अथवा कुटीचक संन्यासिनी रही होगी। किसी साधना में विघ्न के कारण सम्भवतः ऐसी स्थिति और यह संस्कार बन गये होंगे। पर साधना और कठिन तपश्चर्या के संस्कार तथापि आत्म-निष्ठा के संस्कार उसमें अब भी अत्यधिक प्रबल थे। उन संस्कारों का ही प्रभाव इस आत्म-विश्वास पूर्ण संकल्प में उभरा था।
गिरिबाला घर से निकली और सीधे गंगा-तट की ओर चल पड़ी। घाट टूटी-फूटी, सीढ़ियों का था, गंगाजी के किनारे देवी का मन्दिर था। पुजारी बाहर ही बैठा था। गिरिबाला ने उसे प्रणाम कर पूछा- “आप कोई ऐसी औषधि, रसायन, प्राणायाम या यौगिक क्रिया बता सकते हैं, जिससे खाने की आवश्यकता न रहे?”
पुजारी ने छूटते ही कहा- “हाँ-हाँ, है क्यों नहीं। पर तुम शाम को आना, तब एक वैदिक क्रिया बतलायेंगे।
गिरिबाला ने पुजारी की मुद्रा में स्पष्ट फूहड़पन देखा। उसे अन्तःकरण में इस वृत्ति पर बड़ा दुःख हुआ कि यह साधु-पुजारी कदाचित् अपना समय नष्ट करने और दूसरों को छलने की अपेक्षा आत्म-निर्माण की आवश्यकता पर कुछ भी जोर दे सके होते तो अपनी यह अवनति क्यों होती, भारतीय दर्शन यों अस्त-व्यस्त क्यों होता? पर 12 वर्ष कुछ महीनों की यह कन्या भला उसे क्या समझाती। वहाँ से चुपचाप चली आई।
गंगाजी में स्नान करते समय गिरिबाला को बड़ी पुलक थी। उसे बार-बार रोमाँच हो जाता था। रह-रह कर उसके अन्तःकरण में एक आवाज उठती थी कि आज उसे कोई महापुरुष मिलेगा अवश्य। जैसे ही वह स्नान कर बाहर खड़ी हुई कि उसने अपने समक्ष एक ज्योति-वृत्त और उसमें खड़े एक छायापुरुष को देखा। और कोई होता तो भय से चक्कर खाकर वहीं ढेर हो जाता। सम्भवतः इसीलिये शक्तिशाली योग-आत्मायें संसार में विचरण तो करती हैं पर किसी को स्थूल रूप से प्रकट होकर कोई सन्देश नहीं दे पातीं। मुसीबत यह है कि सूक्ष्म सन्देश और परा-वाणी को ग्रहण करना सबके वश में नहीं होता।
इसलिये पूर्वजन्मों के परिचितों के साथ ही समर्थ योगी इस तरह प्रकट होते हैं। छाया-पुरुष को देखते ही गिरिबाला की पूर्वजन्मों की स्मृतियाँ साकार हो उठीं। उसके मुँह से अनायास निकल पड़ा-बाबा! आप आ गये।- यह कहकर उसने दण्डवत् की और कहा- भगवन्! दिन भर भोजन करते रहने की पशु-प्रवृत्ति पीछा नहीं छोड़ती। आप मुझे वह योगिक क्रिया बतायें जिससे मुझे फिर कभी खाने की आवश्यकता न पड़े।
छायाकृति योगी ने पातञ्जलि योग-सूत्र के तीसरे अध्याय के 31वें सूत्र का स्मरण कराते हुए कहा-
-बालिके पूर्वजन्म में सिखाया हुआ यह पाठ- ‘कण्ठ कूप से संयम करने से भूख-प्यास की निवृत्ति हो जाती है, भूल गई क्या?
गिरिबाला ने अपनी उँगलियों से सिर खुजलाया मानो उसे पूर्वजन्म की कोई साधना याद आ रही हो। तत्पश्चात् प्रकाश-पुरुष ने प्रकाश-घेरे को बढ़ाया और गिरिबाला को उसी घेरे में ले लिया।
यह सम्पूर्ण घटना श्री स्वामी योगानन्द को बताते हुए गिरिबाला ने आगे कहा- “इसके बाद बाबा ने मुझे प्रकाश के घेरे में दीक्षा दी और वह योगिक क्रिया बताई जिसके द्वारा मैं आकाश से ही भोजन ग्रहण कर लेती हूँ। प्रकाश का वह घेरा लक्ष्मण-रेखा के समान था, उसे कोई नहीं और लाँघ सकता था- हम बाहर के सभी दृश्य देख सकते थे किन्तु हमें कोई भी नहीं देख सकता था। इस तरह मेरे जीवन का एक अध्याय समाप्त हुआ और दूसरे अध्याय का श्रीगणेश, जो 56 वर्ष बीत जाने पर भी लोगों के लिये विस्मय का विषय बना हुआ है।”
गिरिबाला दीक्षित होकर लौटी। शाम तक कुछ भी नहीं खाया। पर घर वालों ने समझा यों ही रूठ गई है, इसीलिये न खा रही होगी। किन्तु दूसरा दिन बीता, तीसरा दिन आया और चला गया। सप्ताह बीते, पखवारे आये और चले गये। कितनी ही पूर्णमासियाँ गुजर गई, वर्ष के वर्ष समाप्त होते गये। अन्न तो दूर गिरिबाला ने कभी एक गिलास पानी भी नहीं पिया। लोग ताक-ताक कर रह गये पर कहीं से कभी भी किसी ने यह नहीं पाया कि गिरिबाला के मुँह में भूल से भी अन्न का एक दाना चला गया हो, जबकि शारीरिक विकास और स्वास्थ्य में राई-रत्ती भर भी अन्तर नहीं था।
समय बीतने के साथ यह खबर भी सारे बंगाल, भारतवर्ष और विदेशों तक में फैलने लगी। बर्दवान के तत्कालीन राजा ने गिरिबाला को राज-दरबार में उपस्थित कराया और परीक्षण के तौर पर तीन महीने तक एक कोठरी में बन्द कर दिया और बाहर से सशस्त्र पहरा लगा दिया। तीन महीने बाद जब उसे निकाला गया और डाक्टरों से जाँच कराई गई तो डाक्टरों ने बताया कि स्वास्थ्य, हृदय और नाड़ियों की गति, रक्त-दबाव आदि सब कुछ वैसा ही है जैसे 3 महीने पूर्व था। स्वास्थ्य में कोई गड़बड़ी या निर्बलता नहीं है। सारे उपस्थित लोग चकित थे कि यह सब क्या है?
सन् 1933 में मेमफिश में चिकित्सकों की एक बड़ी सभा हुई। उसमें क्लेवलैंड के वैज्ञानिक डॉ. जार्ज डब्ल्यू. क्रायल ने अपना शोध निबन्ध प्रस्तुत किया, जो इस विषय में था। डॉ. क्रायल ने बताया कि हम जो कुछ खाते हैं वह मात्र प्रकाश-तरंगों का स्थूल रूप है। हमारा भोजन एक प्रकाश का शक्ति-पुञ्ज है। यदि हम उसे सीधे ग्रहण करने की कोई पद्धति जान सकें तो पेड़-पौधों की तरह हम भी आकाश से सीधे पोषण तत्व प्राप्त कर सकते हैं, अन्न लेना कोई आवश्यक नहीं है।
अपने कथन का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने बताया- “आकाश में प्रकाश विकिरण होता है। उससे शरीर में स्थित विद्युत् तरंगों के लिये विद्युत् प्राप्त होती है। नाडी संस्थान (नर्वस सिस्टम) को सूर्य की किरणों से भोजन मिलता है। अणु सौरमण्डल ही है। ये अणु सूर्य-आभा (सोलर रेडियेन्स) से पूर्ण रहते हैं। इनके अन्दर शक्ति वर्तुलाकार (लाइक क्वाइल्ड स्प्रिंग) रूप में स्थित रहती है। यही अगणित अणु हमारे भोजन के रूप में शरीर में प्रवेश करते हैं और प्रोटोप्लाज्म (वह तत्व जिससे शरीर का निर्माण होता हैं) में परिवर्तित हो जाते हैं। इससे शरीर में स्थित विद्युत् तरंगों को रासायनिक ढंग से शक्ति प्राप्त होती है। शरीर ऐसे ही अणुओं से बना है, यही अणु माँस-पेशियों, मस्तिष्क, ज्ञानेन्द्रियों आदि सभी के ऊतक (टिसूज-कई कोष मिलकर शरीर का अंग बनाते हैं, उन्हें टिसूज कहते हैं) बनाते हैं और इस तरह सम्पूर्ण शरीर शक्ति तरंगों का खेल है। हम चाहे तो आवश्यक शक्ति सीधे आकाश से खींच सकते हैं पर अभी तक उस विधि की खोज नहीं कर सकें।”
जब डॉ. क्रायल का यह बयान योरोप में प्रसारित हुआ, उस समय परमहंस योगानन्द अमरीका में थे। उन्होंने गिरिबाला के सम्बन्ध में कभी सुना था कि वह कभी भोजन नहीं करती। उसका पता और फोटो भी उनके पास था। उनकी जिज्ञासा इस तथ्य को जानने के लिए तीव्र हो उठी। अतएव वे अपने अमेरिका सेक्रेटरी मिस्टर राइट के साथ भारत आये और गिरिबाला के गाँव तक पहुँचे। उन्होंने गिरिबाला से प्रश्न किया- माँ! आप अपने मुँह से बताइये, क्या आप भोजन नहीं करतीं?
गिरिबाला ने उत्तर दिया- “यह बिलकुल सत्य है।”
“क्या आपको भोजन की इच्छा होती है?” योगानन्द ने दूसरा प्रश्न किया।
“नहीं” गिरिबाला ने उत्तर दिया- “इच्छा होती तो खाना पड़ता।”
“तब फिर आप अपने शरीर और स्वास्थ्य के लिये पोषक तत्व कहाँ से पाती हैं?” उन्होंने अगला प्रश्न किया।
“आकाश और सूर्य से जिस प्रकार पेड़-पौधे आवश्यक पोषण प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार मेरे गुरु ने मुझे प्राणायाम की एक ऐसी विधि बताई है, जिससे हम आकाश से सीधे तत्व प्राप्त कर लेते हैं।”- गिरिबाला ने विस्तार से बताया।
स्वामीजी ने पूछा- “आप यह विधि हमें और दूसरों को क्यों नहीं बताती, आप अकेले ही ऐसा क्यों करती हैं?”
गिरिबाला ने उत्तर दिया- “मनुष्य कैसा ही समर्थ हो, वह ईश्वर की इच्छा के बाहर नहीं जा सकता। ईश्वर इच्छा-शक्ति की रक्षा करता है, इसलिए ऐसी क्रियायें गुप्त रखनी पड़ती हैं। हमें तो यह प्रदर्शन इसलिये करना पड़ रहा है, ताकि लोग अनुभव करें कि मनुष्य शरीर नहीं आत्मा है।” इस तरह की अनेक वैज्ञानिक प्रणालियाँ हमारे शास्त्रों में हैं, जिन्हें आज के बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी नहीं जानते, पर अपना वह तत्व-दर्शन आज अपनों से ही उपेक्षित है- यह सोचते हुए योगानन्द वहाँ से वापिस लौट आये। गिरिबाला 70 वर्ष तक बिना कुछ खाये जीती रहीं, उनका निधन सन् 1962 में हुआ। इसी तरह की कुछ न खाने वाली एक अँगरेज महिला ‘थेरसे न्यूमैन’ भी हुई हैं। उनका वर्णन फिर कभी देंगे।