
प्रयोग कितने उत्पीड़क
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जीवित खरगोश को मारकर उसकी आँत निकाल लेते हैं और उस पर नव निर्मित दवाइयों का प्रभाव देखते हैं। चिकित्सा-अनुसन्धान के क्षेत्र में ऐसी हिंसा तो सामान्य बात है। कुत्ते के दिल, मेंढक के दिल, कबूतर के दिल और गिनीपिग के गर्भाशय (यूट्रस) में भी दवाओं के प्रभाव देखे जाते हैं। उन परीक्षणों के समय इन जीवों को जो मर्मान्तक पीड़ा होती है उसका वर्णन नहीं हो सकता।
अमेरिका की एक प्रयोगशाला में खरगोश का कान काटकर कोशिकाओं (कैपिलरी) पर दवा का प्रभाव देखा जा रहा है। दवा इतनी तीक्ष्ण थी कि प्रत्येक बार के प्रयोग से खरगोश टट्टी-पेशाब कर देता, उसकी चीख सुनकर बाहरी लोगों के रोंये खड़े हो जाते पर उन्हें तब भी कुछ दया न थी जो उन पर दवाओं के नाम पर यह क्रूर अत्याचार कर रहे थे।
आँख की औषधियों की जाँच के लिये खरगोश की आँखों की पुतलियों पर दवायें छोड़ी जाती हैं। कई बार तो उनकी जिन्दा आँखें बाहर निकल आती हैं। बेचारे जीव की जान जाती है और उसकी पुतली के घटने-बढ़ने से वैज्ञानिक अपना अनुमान लगाते हैं। इतना ही नहीं, खरगोश और गिनीपिग के शरीर छील दिये जाते हैं। छीलना बालों का नहीं खाल का होता है। खून चहचहा आता है तब उस पर दवायें लगाकर उनका हिप्नोटिक रिएक्शन देखा जाता है। फिर उस कटे हुए स्थान पर सुइयाँ चुभोकर देखते हैं कि चिल्लाता है या नहीं। हमारे एक काँटा लग जाता है तो आंखें छलछला आती हैं और सृष्टि के इन निरीह जीवों को औषधि के नाम पर इस तरह क्रूर अत्याचार किया जाता है, इस पर किसी की दृष्टि नहीं दौड़ती। आज का मनुष्य इतना अशाँत आत्मा को तड़पाने के कारण ही है। वह दिन-प्रतिदिन निर्दयी बनता जा रहा है। मनुष्य-मनुष्य में ही प्रेम-भाव नहीं है। उसे यदि इन जीवों का शाप न भी कहा जाये तो इतना तो निश्चित ही है कि इन प्रयोगों से आज का मनुष्य इतना तक निष्ठुर हो सकता है कि वह कल मनुष्यों के भी गले घोटने लगे। ऐसा होने भी लगा है, इसका हृदयस्पर्शी वर्णन अखण्ड-ज्योति के अगले पृष्ठों में करेंगे जबकि डाक्टरों ने माताओं के गर्भ से जीवित भ्रूण धोखा देकर निकाला और प्रयोग के बाद उसे एक तरफ फेंक दिया।
डिजी टेलिस औषधियों जो हृदय-रोगों के लिये बनाई जाती हैं, उनका प्रभाव कबूतरों पर देखा जाता है। दर्जनों कबूतरों पर एक साथ यह औषधि इन्जेक्शन कर दी जाती है। इन्जेक्शन देने के बाद यदि आधे से अधिक कबूतर मर जाते हैं तो यह माना जाता है कि दवा अच्छी बन गई अन्यथा उसे फिर से बनाते हैं। रोग प्रकृति की नहीं, मानव स्वभाव की विकृति है। अपने बुरे आचरण का दण्ड मनुष्य को भोगना ही चाहिए, चाहे वह शूल के रूप में हो या बीमारी के रूप में। उसे अपने खातिर जीव-हत्या करने का अधिकार नहीं है। यदि वह बलात् ऐसा करता है तो आज तो उसका दण्ड कम ही है, अगले दिनों मनुष्य जाति अपने ही उद्धत स्वभाव के दुष्परिणाम अब की अपेक्षा सौ गुने अधिक भोगेगी।
शारीरिक प्रतिक्रिया की जाँच के लिये चूहे, खरगोश, मेंढक, बन्दर आदि के सिर, हाथ, पाँव में डण्डे मारते हैं और फिर देखते हैं-उन पर क्या प्रभाव पड़ा? मेढ़क को तो गेंद की तरह उछालकर पटका भी जाता है। दाबा जाता है और इतना दाबा जाता है कि नीबू के रस की तरह रक्त छलछला आता है। इन सब प्रयोगों के बाद बुद्धिमान् और वैज्ञानिक कहाने की अपेक्षा मनुष्य अनपढ़, मजदूर और किसान बने रहते तो अच्छा था। हिंसा मनुष्य जाति पर कलंक है जो उसे नारकीय परिस्थितियों में ढकेलती ले जा रही है।