• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • जिसे जीना आता है, वह सच्चा कलाकार है।
    • विश्व-मैत्री
    • समर्थ गुरु की सहनशीलता
    • प्रेम-प्रतिरोपण से पत्थर भी परमात्मा
    • बिन्दु में सिन्धु समाया
    • मनुष्य-अनन्त शक्तियों का भाण्डागार
    • जीवनोद्देश्य से विमुख न हूजिए।
    • बाहर नहीं, भीतर देखते हैं।
    • असुरता के संहार में प्रवृत्त-हमारी अन्तःचेतना
    • गुरु-भक्ति
    • सौ प्यारे को सौ दुःख
    • उपकारिणी धरती माता
    • दान और परोपकार की महत्ता
    • समय और चेतना से उठकर आम-चेतना के दर्शन
    • संख्या नहीं; समर्थता जिन्दा रहेगी।
    • पार्थिव सुखोपभोग
    • प्रयोग कितने उत्पीड़क
    • पतिव्रत ही नहीं- पत्निव्रत भी
    • प्रकृति
    • सजीव स्वर्ग- हिमालय की पुष्प घाटी
    • तत्वशोध की साधना अधूरी न रहने पाये
    • एक भाषा- संस्कृत भाषा
    • ध्येय सबका एक ही है
    • मोह-माया में भ्रमित अग-जग
    • मकड़ी भी भगवान दत्तात्रेय की गुरु
    • परिश्रमशील मैक्सीकॉज कबीला
    • अज्ञ रहना अन्धकार में भटकना है।
    • साँसारिकता और वास्तविकता
    • बिना कुछ खाये जिन्दगी बीत गई।
    • अपनी संस्कृति तो प्रवासी पक्षी भी नहीं भूलते
    • बीमारियों का वास
    • हम सुधरें तो बच्चे सुधरें- वैज्ञानिक दृष्टि
    • योग्यता की परख
    • विज्ञान और धर्म में पारस्परिक सम्बन्ध
    • शरीर के हरिजन फेफड़े
    • भगवान सबको देखता है
    • कला की शक्ति लोक मंगल में लग जाय
    • धर्मात्मा गिद्धराज जटायु
    • अब बलिदानों की बात करो।
    • अब बलिदानों की बात करो (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • जिसे जीना आता है, वह सच्चा कलाकार है।
    • विश्व-मैत्री
    • समर्थ गुरु की सहनशीलता
    • प्रेम-प्रतिरोपण से पत्थर भी परमात्मा
    • बिन्दु में सिन्धु समाया
    • मनुष्य-अनन्त शक्तियों का भाण्डागार
    • जीवनोद्देश्य से विमुख न हूजिए।
    • बाहर नहीं, भीतर देखते हैं।
    • असुरता के संहार में प्रवृत्त-हमारी अन्तःचेतना
    • गुरु-भक्ति
    • सौ प्यारे को सौ दुःख
    • उपकारिणी धरती माता
    • दान और परोपकार की महत्ता
    • समय और चेतना से उठकर आम-चेतना के दर्शन
    • संख्या नहीं; समर्थता जिन्दा रहेगी।
    • पार्थिव सुखोपभोग
    • प्रयोग कितने उत्पीड़क
    • पतिव्रत ही नहीं- पत्निव्रत भी
    • प्रकृति
    • सजीव स्वर्ग- हिमालय की पुष्प घाटी
    • तत्वशोध की साधना अधूरी न रहने पाये
    • एक भाषा- संस्कृत भाषा
    • ध्येय सबका एक ही है
    • मोह-माया में भ्रमित अग-जग
    • मकड़ी भी भगवान दत्तात्रेय की गुरु
    • परिश्रमशील मैक्सीकॉज कबीला
    • अज्ञ रहना अन्धकार में भटकना है।
    • साँसारिकता और वास्तविकता
    • बिना कुछ खाये जिन्दगी बीत गई।
    • अपनी संस्कृति तो प्रवासी पक्षी भी नहीं भूलते
    • बीमारियों का वास
    • हम सुधरें तो बच्चे सुधरें- वैज्ञानिक दृष्टि
    • योग्यता की परख
    • विज्ञान और धर्म में पारस्परिक सम्बन्ध
    • शरीर के हरिजन फेफड़े
    • भगवान सबको देखता है
    • कला की शक्ति लोक मंगल में लग जाय
    • धर्मात्मा गिद्धराज जटायु
    • अब बलिदानों की बात करो।
    • अब बलिदानों की बात करो (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1970 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


संख्या नहीं; समर्थता जिन्दा रहेगी।

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 14 16 Last
सारे विश्व में सबसे अधिक उत्पादन यदि किसी वस्तु का बढ़ रहा है तो वह है मनुष्य का उत्पादन। घड़ी में लगी सेकेण्ड की सुई इधर टिक करती है उधर संसार में कहीं-न-कहीं तीन बच्चे जन्म ले लेते हैं। एक सप्ताह गुजरता है तब जनसंख्या के पुराने आँकड़ों में 20 लाख शिशुओं की वृद्धि हो जाती है। इसलिए कोई भी जनसंख्या-विशेषज्ञ पृथ्वी की जनसंख्या की शत-प्रतिशत जानकारी कभी दे ही नहीं सकता। जितनी देर में वह एक वाक्य बोलेगा उतनी देर से ही एक सो बच्चों की संख्या और बढ़ जायेगी।

सृष्टि के आदि काल से लेकर सन् 1830 तक सारी धरती की जनसंख्या कुल एक अरब हुई, पर इसके बाद से विज्ञान की प्रगति से होड़ लेती हुई जनसंख्या भी इतनी तेजी से बढ़ी कि अगली एक शताब्दी में ही वह दुगुनी अर्थात् 2 अरब हो गई। इसके बाद तो वृद्धि और भी तीव्र हुई- 1830 के बाद कुल 30 वर्ष में ही आबादी 3 अरब हो गई। यदि इस क्रम को रोका न गया तो इस शताब्दी के अन्त तक अर्थात् सन् 2000 तक विश्व की जनसंख्या 6 अरब 20 करोड़ होगी और तब सारा संसार एक बार विस्फोट के लिये तैयार होगा। महाप्रलय अगले 30 वर्षों में कब हो जाये, कुछ कहा नहीं जा सकता।

इस बेतहाशा वृद्धि का देखकर ही माल्थस को चिन्ता हुई थी और उन्होंने जनसंख्या पर एक सुविख्यात शोधकार्य किया जो आज सारे विश्व में ‘माल्थस का जनसंख्या सिद्धाँत’ (माल्थस थ्योरी) के नाम से प्रसिद्ध है। माल्थस ने जनसंख्या वृद्धि की गम्भीरता का दिग्दर्शन कराते हुए लिखा है- “जनसंख्या गुणोत्तर क्रम (ज्योमेट्रिकल प्रोग्रेशन) की दर से अर्थात् 1 से 2। 2 से 4। 4 से 8। 8 से 16। 16 से 32। 32 से 64। 64 से 128 के हिसाब से बढ़ती है, जबकि उत्पादन समान्तर क्रम (अरिथमेटिकल प्रोग्रेशन) अर्थात् 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7 के हिसाब से बढ़ता है। इस हिसाब से पहले वर्ष 1 व्यक्ति था तब उसके लिये 1 यूनिट अन्न की आवश्यकता थी जो उसके उदर-पोषण के लिये पर्याप्त था। तीसरे वर्ष व्यक्ति हो गये 8 पर अन्न उत्पादन की यूनिट 3 ही रही। पाँच व्यक्तियों के लिये अन्न का जो दबाव पड़ेगा, उसके लिये शिक्षा, स्वास्थ्य, वस्त्र, मकान और मनोरञ्जन आदि के साधनों में कटौती करके भरण-पोषण की समस्या पूरी करनी पड़ेगी। प्रत्येक अगले वर्ष यह जटिलता बढ़ती ही जायेगी। 7 वर्ष बाद जहाँ खाने के लिये जनसंख्या 128 होगी वहाँ उत्पादन कुल 7 ही यूनिट होगा। तात्पर्य यह कि 121 व्यक्ति बेरोजगारी, भुखमरी, बीमारी और निरक्षरता की समस्या से जन्मजात पीड़ित होंगी और वह सब मिलकर उनको असुरक्षा की समस्या से पीड़ित कर रहे होंगे। उत्पादन का यह अनुपात अन्न के क्षेत्र में ही नहीं, वस्त्र आदि आत्म-सुरक्षा और आत्म-विकास के क्षेत्र में भी होगा। इस तरह संकट प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ेंगे। बेरोजगारी, भुखमरी, अशिक्षा और अनुशासनहीनता का वह स्वरूप आज स्पष्ट देखा जा सकता है।

सम्भवतः इन आँकड़ों के आधार पर ही डॉ. वी.आर.सेन (जो पहले भारत के खाद्य मन्त्रालय के सचिव थे, सन् 1966 में जो संयुक्त राष्ट्रीय खाद्य एवं कृषि संगठन के महानिर्देशक नियुक्त हुए थे) ने कहा था- ‘यह माना गया है कि संसार में तब तक स्थायी शान्ति और सुरक्षा कायम नहीं हो सकती जब तक भुखमरी और अभाव को खत्म न कर दिया जाये। वस्तुतः व्यक्तियों का स्वास्थ्य और सुख ही नहीं, वरन् एवं लोकतन्त्री समाज का अस्तित्व भी खतरे में हैं। अगले 14 वर्ष मानवीय इतिहास में अत्यधिक नाजुक होंगे। या तो हम उत्पादकता बढ़ाने और जनसंख्या न बढ़ने देने के लिये सब सम्भव प्रयत्न कर लें अन्यथा हमें अभूतपूर्व रूप से विशाल विपत्ति का सामना करना होगा।’

यह कथन शेख चिल्ली के विवाह की कल्पना नहीं वरन् एक सत्य है जो हमें आगामी दिनों किसी भयंकर विस्फोट के लिए तैयार रहने को सावधान करता है। प्रकृति के कोष में सीमित सामग्री है, वह असीमित लोगों के पेट नहीं भर सकती। इसलिए उसने एक सिद्धाँत बना लिया है कि जो भी जातियाँ दीवाली में आतिशबाजी के साँप की तरह बढ़ती हैं उनको नष्ट किया जाता रहे। मक्खी और मछलियाँ संसार में सबसे अधिक बच्चे पैदा करती हैं। यदि प्रकृति भी उनका संहार तेजी से न करती तो आज इन मक्खियों और मछलियों के रहने के लिये 10 करोड़ ऐसी ही धरतियों की आवश्यकता पड़ती जैसी अपनी पृथ्वी है।

एक हाथी मरने से पूर्व केवल 6 हाथी पैदा कर जाता है। यदि प्रकृति उन पर नियन्त्रण न करती तो संसार में हाथी ही हाथी होते। आस्ट्रेलिया में खरगोश बहुतायत से पाये जाते हैं। वहाँ छोटे-छोटे गड्ढों में पानी के लिये ही उनमें भयंकर युद्ध होता है और यादवों की सेना की तरह आपसी रक्तपात में ही उनका विनाश होता रहता है।

मनुष्य भी ऐसे ही विनाश के कगार पर आ पहुँचा है। संसार में जो भी जातियाँ अधिक प्रजनन वाली थीं वह अविकसित और पददलित ही नहीं हुई, नेस्तनाबूद भी हो गई। योरोप में पाई जाने वाले ‘डायनोसरस’ और ‘ब्रान्टोसरान’ जातियाँ जिनके पहले राज्यों-के-राज्य बसे थे, अब उनका एक भी आदमी संसार में देखने को भी नहीं मिलता। उनकी स्त्रियों को दूसरी समर्थ जातियों ने हड़प लिया और वे आपस में ही खाने-पहनने के नाम पर लड़-झगड़ कर नष्ट हो गई। जबकि थोड़े-से संयमी इजरायल और कजाख संख्या में थोड़े होने पर भी संसार में गौरवपूर्ण स्थान बनाये हैं। ‘जनसंख्या नहीं-समर्थता जिन्दा रहती हैं’ के सिद्धाँत को इन उदाहरणों द्वारा अनुभव किया जा सकता है। अभी युद्ध हुआ और इजराइल जिनकी संख्या कुछ लाख ही है, ने कई करोड़ अरबों को 7 दिन में परास्त करके रख दिया।

सूअर सबसे अधिक बच्चे देने वाला जानवर है। उसे अपना उदर-पोषण घृणित साधनों से ही करना पड़ता है। स्वयं भी बहुत कमजोर होता है दूसरी ओर ‘शेर’ बहुत ही कम बच्चे देता है, उसकी शारीरिक क्षमता इतनी प्रचण्ड होती है कि जब दहाड़ता है। किंवदन्ती है कि उसे आशंका रहती है कि मेरी दहाड़ से कहीं पृथ्वी न फट जाये। इस विशेष दहाड़ को ‘नाकी’ कहते हैं- जब वह दहाड़ भरता है तो उस क्षेत्र के सारे पेड़-पौधे और पृथ्वी तक काँप जाती है। भारतीयों की संख्या तब थोड़ी ही थी पर हमने संयमित और ब्रह्मचर्यपूर्ण जीवन के कारण वह शक्ति पाई थी जब हिमालय पर खड़े होकर दहाड़ते थे तो सारा एशिया काँप जाता था। हमारी वाहिनियाँ अमेरिका तक चली जाती थी और उन्हें जीतकर लौटती थी। अधिक सन्तान वाली जातियाँ होती हैं वे तो 1. जल्दी ही समाप्त हो जाती हैं। 2. कमजोर होती हैं। 3. अव्यवस्थित होती हैं इसलिये ये संघर्ष और प्रतिस्पर्धा में सबसे पिछड़ी रहती हैं।

माल्थस ने जनसंख्या रोकने के दो उपाय बताये हैं- 1.पॉजिटिव चेक 2. प्रिवेन्टिव चेक। पहले का आशय उपर्युक्त कथन से ही है। माल्थस कहते हैं- जनसंख्या बढ़ती है तो लोग पत्ते खाने को तरसते हैं। फिर प्रकृति अकाल, महामारी, भुखमरी आदि से उनका स्वयं संहार कर देती है।

प्रिवेन्टिव चेक का तात्पर्य यह है कि मनुष्य स्वयं निरोध कर ले। उससे वह सुरक्षित रह सकता है। इसमें प्रतिबन्धात्मक निरोध, जिसमें परिवार नियोजन के सारे साधन आते हैं। पहला उपाय है। दूसरा और सबसे अच्छा उपाय यह है कि मनुष्य संयमित जीवन बिताये पर इसके लिये उसे रचनात्मक दिशा की आवश्यकता होगी अर्थात् उसे मनोरञ्जन के ऐसे साधन देने होंगे जो काम-सुख की तुलना में कहीं अधिक आकर्षक हों।

प्रतिबन्धात्मक रोक-थाम को माल्थस ने भी बुरा माना है और बताया है कि कृत्रिम साधनों से परिवार-नियोजन करने वाली जातियाँ मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कमजोर होती हैं। लूप, निरोध, नसबन्दी आदि की चर्चा करने से आत्म-हीनता के भाव आते हैं जबकि सरकारी मशीनरी के हाथ में यह साधन हों तब उसके दुरुपयोग की और भी आशंका रहती है, जैसा कि इन दिनों हो रहा है। आज का परिवार नियोजन कार्यक्रम चारित्रिक अवस्थाओं को सबसे अधिक चरमरा देने वाला आयोजन है। बिनोवा जी ने तो उसे ‘मातृत्व की विडंबना’ कहकर पुकारा है। यदि इन कृत्रिम साधनों की चर्चा बन्द न हुई तो हम अपना सम्पूर्ण आध्यात्मिक, धार्मिक एवं साँस्कृतिक गौरव तक खो सकते हैं।

इन साधनों से स्वास्थ्य बिगड़ता है। कृत्रिम साधन नये-नये रोगों को जन्म देते हैं। अनेक महिलायें रक्तस्राव से पीड़ित हुई, अनेकों को दूसरी बीमारियाँ।

कृत्रिम साधन कामुकता और अनैतिक आचरण को प्रोत्साहन देते हैं। यौन-समस्या शारीरिक कम मानसिक अधिक है। कृत्रिम साधन लोगों को मानसिक दृष्टि से विभ्राँत और विक्षिप्त बनाते हैं। सामान्य चर्चा से काम-स्वेच्छावाद भड़कता है। सामाजिक मर्यादायें टूटती हैं। साँस्कृतिक मूल्य बदल जाते हैं।

माल्थस के इस कथन की सत्यता को आज हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं। सिनेमा के भद्दे अभिनय, गन्दे गीत और अश्लील दृश्य यह बताते हैं कि आज समाज की मनोवृत्ति ऐसी ही है। अधिकाँश जनता यही देखना चाहती है। इसमें फिल्म-निर्माताओं का उतना दोष नहीं है- उनकी आदर्शवादी फिल्में लोग देखना पसन्द ही नहीं करते जबकि सस्ते ड्रामे रिपीट-रिपीट कर देखने में लोगों को प्रसन्नता होती है। यह साँस्कृतिक मूल्य, सामाजिक मनोवृत्ति के कारण ही बदले हैं।

माल्थस ने सबसे अच्छा उपाय समाज और भावी पीढ़ी को रचनात्मक दिशायें देने को माना है। परिवार नियोजन कार्यक्रमों को हटाकर यह शक्ति समाज-कल्याण को दे देनी चाहिए और उनका कार्यक्षेत्र गाँव-गाँव 1. खेलकूद और व्यायामशालायें 2. पाठशालायें 3. लघु कुटीर उद्योग 4. साँस्कृतिक आयोजन आदि तक बढ़ा देना चाहिए। मालवीय जी के मन में यह योजना थी- वे गाँव-गाँव में पाठशालायें, व्यायामशालायें और साँस्कृतिक आयोजनों के मण्डल और पीठ स्थापित करने का एक विधिवत् आन्दोलन चलाना चाहते थे। उससे लोगों को स्वस्थ मनोरञ्जन मिलता और वर्तमान काम-प्रवृत्ति से लोगों का ध्यान टूटता।

महामना मालवीयजी की इस आकाँक्षा को अब पूरा किया जाय तो हम जनसंख्या रोकने में सात्विक ढंग की सफलता प्राप्त कर सकते हैं, और तो न रोकने का परिणाम वही होगा जो इस लेख की प्रारम्भिक पंक्तियों में दर्शाया गया है।

First 14 16 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • जिसे जीना आता है, वह सच्चा कलाकार है।
  • विश्व-मैत्री
  • समर्थ गुरु की सहनशीलता
  • प्रेम-प्रतिरोपण से पत्थर भी परमात्मा
  • बिन्दु में सिन्धु समाया
  • मनुष्य-अनन्त शक्तियों का भाण्डागार
  • जीवनोद्देश्य से विमुख न हूजिए।
  • बाहर नहीं, भीतर देखते हैं।
  • असुरता के संहार में प्रवृत्त-हमारी अन्तःचेतना
  • गुरु-भक्ति
  • सौ प्यारे को सौ दुःख
  • उपकारिणी धरती माता
  • दान और परोपकार की महत्ता
  • समय और चेतना से उठकर आम-चेतना के दर्शन
  • संख्या नहीं; समर्थता जिन्दा रहेगी।
  • पार्थिव सुखोपभोग
  • प्रयोग कितने उत्पीड़क
  • पतिव्रत ही नहीं- पत्निव्रत भी
  • प्रकृति
  • सजीव स्वर्ग- हिमालय की पुष्प घाटी
  • तत्वशोध की साधना अधूरी न रहने पाये
  • एक भाषा- संस्कृत भाषा
  • ध्येय सबका एक ही है
  • मोह-माया में भ्रमित अग-जग
  • मकड़ी भी भगवान दत्तात्रेय की गुरु
  • परिश्रमशील मैक्सीकॉज कबीला
  • अज्ञ रहना अन्धकार में भटकना है।
  • साँसारिकता और वास्तविकता
  • बिना कुछ खाये जिन्दगी बीत गई।
  • अपनी संस्कृति तो प्रवासी पक्षी भी नहीं भूलते
  • बीमारियों का वास
  • हम सुधरें तो बच्चे सुधरें- वैज्ञानिक दृष्टि
  • योग्यता की परख
  • विज्ञान और धर्म में पारस्परिक सम्बन्ध
  • शरीर के हरिजन फेफड़े
  • भगवान सबको देखता है
  • कला की शक्ति लोक मंगल में लग जाय
  • धर्मात्मा गिद्धराज जटायु
  • अब बलिदानों की बात करो।
  • अब बलिदानों की बात करो (kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj