• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • और कोई रास्ता नहीं
    • प्रत्यावर्तन का दार्शनिक पक्ष
    • बुद्धिहीन वैज्ञानिक (kahani)
    • अनंत आनंद और उसकी प्राप्ति
    • प्रत्यावर्तन का साधना पक्ष
    • मधुमक्खी की मेहनत (kahani)
    • प्रत्यावर्तन सत्र की दससूत्री साधन-प्रक्रिया
    • नीति श्लोक
    • खेचरी मुद्रा का तारतम्य और साधना विज्ञान
    • सोमरस पान की दिव्य अनुभूति
    • खरे और खोटे (kahani)
    • परम प्रेरणाप्रद गायत्री उपासना
    • दो मित्रों ने ईख को खेती की (kahani)
    • सोहम्-साधना से भावोर्त्कष एवं शक्ति अवतरण
    • नीति श्लोक
    • ज्योति अवतरण की बिंदुयोग साधना
    • नादयोग— दिव्य सत्ता के साथ आदान-प्रदान
    • साधना के उपयुक्त सतोगुणी आहार
    • आत्मबोध का दिव्य वरदान
    • आत्मा की सुनो, आत्मा का मनन करो
    • तत्त्वबोध के प्रकाश में भवबंधनों से मुक्ति
    • पंचकोषों की साधना, पंचदेवों की सिद्धि
    • प्रत्यावर्तन-साधना संबंधी कुछ विशेष स्पष्टीकरण
    • सदा के लिए अपनाया जाने वाला सतत साधनाक्रम
    • आत्मशोधन की प्रायश्चित-प्रक्रिया
    • रोग से ज्यादा रोगी की शत्रु औषधियाँ
    • कबिरा चिहृ बावरी, ताते नास-बिनास
    • अपनो से अपनी बात
    • शक्तिपीठों के लिये कार्यकर्त्ताओं की आवश्यकता
    • वह किरण र्व्यथ है
    • वह किरण व्यर्थ है
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • और कोई रास्ता नहीं
    • प्रत्यावर्तन का दार्शनिक पक्ष
    • बुद्धिहीन वैज्ञानिक (kahani)
    • अनंत आनंद और उसकी प्राप्ति
    • प्रत्यावर्तन का साधना पक्ष
    • मधुमक्खी की मेहनत (kahani)
    • प्रत्यावर्तन सत्र की दससूत्री साधन-प्रक्रिया
    • नीति श्लोक
    • खेचरी मुद्रा का तारतम्य और साधना विज्ञान
    • सोमरस पान की दिव्य अनुभूति
    • खरे और खोटे (kahani)
    • परम प्रेरणाप्रद गायत्री उपासना
    • दो मित्रों ने ईख को खेती की (kahani)
    • सोहम्-साधना से भावोर्त्कष एवं शक्ति अवतरण
    • नीति श्लोक
    • ज्योति अवतरण की बिंदुयोग साधना
    • नादयोग— दिव्य सत्ता के साथ आदान-प्रदान
    • साधना के उपयुक्त सतोगुणी आहार
    • आत्मबोध का दिव्य वरदान
    • आत्मा की सुनो, आत्मा का मनन करो
    • तत्त्वबोध के प्रकाश में भवबंधनों से मुक्ति
    • पंचकोषों की साधना, पंचदेवों की सिद्धि
    • प्रत्यावर्तन-साधना संबंधी कुछ विशेष स्पष्टीकरण
    • सदा के लिए अपनाया जाने वाला सतत साधनाक्रम
    • आत्मशोधन की प्रायश्चित-प्रक्रिया
    • रोग से ज्यादा रोगी की शत्रु औषधियाँ
    • कबिरा चिहृ बावरी, ताते नास-बिनास
    • अपनो से अपनी बात
    • शक्तिपीठों के लिये कार्यकर्त्ताओं की आवश्यकता
    • वह किरण र्व्यथ है
    • वह किरण व्यर्थ है
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
    • नीति श्लोक
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1973 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


ज्योति अवतरण की बिंदुयोग साधना

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 14 16 Last
साधना ग्रंथो में बिंदुयोग का उल्लेख विस्तारपूर्वक है। ध्यान के लिए किसी दीप विशेष पर मन को केंद्रित किया जाता है। देवताओं की प्रतिमाएँ उसी प्रयोजन के किए गढ़ी गई हैं। जब ध्यान साकार भूमिका की प्रथम कक्षा से ऊँचा उठकर प्रकाश तत्त्व पर केंद्रित किया जाता है तो उसे बिंदुयोग कहते हैं। बिंदुयोग अर्थात प्रकाश-केंद्र पर ध्यान-धारणा को केंद्रीभूत करके अंतर्जगत में दिव्य आलोक का आविर्भाव करना। योगाभ्यास में इसका प्रथम पाठ त्राटक-साधना के रूप में कराया जाता है। पीछे इसी का उच्चस्तर विकसित होकर आत्मज्योति एवं ब्रह्मज्योति दर्शन के रूप में परिणत विकसित हो जाता है, तब फिर किसी त्राटक के लिए प्रकाशोत्पादक दीपक आदि भौतिक उपकरणों की भी आवश्यकता नहीं पड़ती।

बिंदुयोग की साधना के लिए प्राण प्रत्यावर्तन सत्र में प्रात: आठ बजकर पैतालीस मिनट से लेकर नौ बजकर तीस मिनट तक पौन घंटे का समय निर्धारित है। सोऽहम्-साधना के उपरांत इस बिंदुयोग का ही क्रम आता है। त्राटक अभ्यास करना इस साधना का प्रथम चरण है। इसे पंद्रह मिनट करते और शेष आधा घंटा अपनी समग्र सत्ता को दिव्य प्रकाश से ओत-प्रोत स्थिति की अनुभूति में लगाया जाता है।

शरीर को ध्यानमुद्रा में शांत एवं शिथिल करके बैठते हैं। सामने प्रकाश-दीप रहता है।  पाँच सेकिंड खुली आँख से प्रकाश-दीप को देखना, इसके बाद आँखें बंद करके भ्रूमध्य भाग में उसी प्रकाश आलोक को ज्योतिर्मय देखना। जब वह ध्यान आलोक शिथिल पड़ने लगे तो फिर नेत्र खोलकर पाँच सेकिंड प्रकाश-दीप को देखना और फिर आँखे बंद करके पूर्ववत् भ्रूमध्य भाग में प्रज्वलित ज्योति का ध्यान करने लगना। यही है त्राटक-साधना का स्वरूप, जो पौने नौ बजे से नौ बजे तक किया जाता है। इतने समय यों प्राय: ऐसी स्थिति बन जाती है, जिसके आधार पर देर तक भ्रूमध्य भाग में प्रदीप्त किए गए प्रकाश की आभा को समस्त शरीर में विस्तृत एवं व्यापक हुआ अनुभव किया जा सके।

पंद्रह मिनट त्राटक कर लेने के उपरांत प्रकाश-दीप की आवश्यकता नहीं रहती। अधखुले नेत्र, दोनों हाथों की उगलियाँ मिली हुईं, हथेलियाँ ऊपर की ओर करके उन्हें गोदी में रखना— यही है ध्यानमुद्रा। भगवान बुद्ध के चित्रों में प्रायः यही स्थिति चित्रित की जाती है। इस स्थिति में अवस्थित होकर भ्रूमध्य भाग में अवस्थित प्रकाश-पुँज की धारणा और अधिक प्रगाढ़ की जाती है। बिजली के बल्ब का मध्यवर्त्ती तार— फ्लामेंट, जिस प्रकार चमकता है और उसकी रोशनी बल्ब के भीतरी भाग में भरी हुई गैस में प्रतिबिंबित होती है। इससे बल्ब का पूरा गोला चमकने लगता है और उसका प्रकाश बाहर भी फैलता है। ठीक ऐसी ही भावना बिंदुयोग में करनी होती है।

भ्रूमध्य भाग में आज्ञाचक्र अवस्थित है। इसी को दिव्य नेत्र या तृतीय नेत्र कहते हैं।  शंकर एवं दुर्गा के चित्रों में इसी स्थान पर तीसरा नेत्र दिखाया जाता है। पुराण-कथा के अनुसार इसी नेत्र को खोलकर भगवान शिव ने अग्नि— तेजस् उत्पन्न किया था और उससे विघ्नकारी मनोविकार कामदेव को जलाकर भस्म किया था। यह नेत्र हर मनुष्य में मौजूद है।  शरीरशास्त्र के अनुसार इसे पिटयूट्री ग्रंथि कहते हैं। इसमें नेत्र जैसी सूक्ष्म संरचना मौजूद है।  सूक्ष्मशरीर के विश्लेषण में यह केंद्र विशुद्ध रूप में दिव्य नेत्र है और उससे प्रकट-अप्रकट, दृश्य-अदृश्य, भूत-भविष्य सभी कुछ देखा-जाना जा सकता है। एक्सरेज द्वारा शरीर के भीतर की टूट-फूट अथवा किसी बंद बक्से के भीतर रखे आभूषणों का चित्र खींचा जा सकता है। इस दिव्य नेत्र की भी एक्सरेज मंत्र से तुलना की जा सकती है, यदि वह प्रदीप्त हो उठे तो घर बैठे महाभारत के दृश्य टेलीविजन की भाँति देखने वाले संजय जैसी दिव्यदृष्टि प्राप्त की जा सकती है और वह सब देखा जा सकता है, जिसका अस्तित्व तो है; पर चमड़े से बने नेत्र उसे देख सकने में समर्थ नहीं हैं।

इस नेत्र में अदृश्य देखने की ही नहीं, ऐसी प्रचंड अग्नि उत्पन्न करने की भी शक्ति है, जिसके आधार पर अवांछनीयताओं को, अवरोधों को जलाकर भस्म किया जा सके। शंकर जी ने इसी नेत्र को खोला था तो प्रचंड शिखाएँ उद्भूत हो उठीं थीं। विघ्नकारी कामदेव उसी में जल-बलकर भस्म हो गया था। बिंदुयोग की साधना को, यदि इस तृतीय नेत्र को ठीक तरह ज्योतिर्मय किया जा सके तो उसमें उत्पन्न होने वाली अग्निशिखा मनोविकारों को— अवरोधों को जलाकर भस्म कर सकती हैं। उसकी शक्ति व्याख्या है। यदि दार्शनिक व्याख्या करने हो तो उसे विवेकशीलता एवं दूरदर्शिता का जागरण भी कह सकते हैं, जिसके आधार पर लोभ, मोह, वासना, तृष्णा, अहंता जैसे मनोविकारों के कारण उत्पन्न हुए अगणित शोक-संतापों और विग्रह-उपद्रवों को सहज ही शमन या सहन किया जा सकता है।

पौराणिक गाथा के अनुसार पुरातनकाल में जब यह दुनिया जीर्ण-शीर्ण हो गई थी, उसकी उपयोगिता नष्ट हो गई थी, तब भगवान शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोलकर प्रलय दावानल उत्पन्न किया था और ध्वंस के तांडव नृत्य में तन्मय होकर भविष्य में अभिनव विश्व के नवनिर्माण की भूमिका संपादित की थी। उस प्रलयकारी तांडव नृत्य का बाह्य स्वरूप कितना ही रोमांचकारी क्यों न रहा हो, उसकी चिंगारी शिवनेत्र से ही प्रस्फुटित हुई थी। बिजली जीवनक्रम में तथा समाजगत समिष्ट जीवन में भी ऐसी आवश्यकता पड़ सकती है कि प्रचलित ढर्रे में आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक न हो जाए, जो चल रहा है उसे उलटना अनिवार्य बन जाए। यह महापरिवर्तन भी तृतीय नेत्र से दूरदर्शी विवेक संभव विचारक्रांति से ही संभव हो सकता है। शिवजी के द्वारा तांडव नृत्य के समय तृतीय नेत्र खोले जाने के पीछे महाक्रांति की सारभूत रूपरेखा का दिग्दर्शन है।

त्राटक करने के पंद्रह मिनट पूरे हो जाने के उपरांत भ्रूमध्य में प्रदीप्त ज्योति का ध्यान करते हुए यह धारणा करनी पड़ती है। प्रत्येक जीवाणु में, कण-कण और रोम-रोम में  प्रकाश— आलोक की आभा प्रदीप्त होती है। अंधकार किसी भी कोने में छिपा नहीं रहा, उसे पूर्णतया बहिष्कृत कर दिया गया है।

जिस प्रकार सोऽहम्-साधना में प्रत्येक अवयव को पृथक-पृथक ध्यान-भूमिका में सम्मुख लाया जाता था और उसमें प्राणशक्ति भर जाने का भाव किया जाता था। ठीक उसी प्रकार इस साधना में ह्रदय, फ्फुफुस, आँते, आमाशय, वृक्क, मस्तिष्क आदि अंग-प्रत्यंग में भरी हुई ज्वलंत ज्योति की अनुभूति की जाती है। प्रत्येक कोशिका एवं तंतु को आलोकित देखा जाता है। मष्तिष्क के चार परत माने गए हैं— मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। इन चारों को प्रकाश-पुँज बना हुआ अनुभव किया जाता है। अपनी सत्ता के प्रत्येक पक्ष को भ्रूमध्य केंद्र से निकलने वाले प्रकाश-प्रवाह से आलोकित अनुभव करना लगभग उसी स्तर का, जैसा कि प्रभातकालीन सूर्य निकलने पर अंधकार का हर दिशा से पलायन होने लगता है और समस्त संसार आलस्य-अवसाद छोड़कर आलोक, उल्लास, स्फूर्ति एवं सक्रिय उमंगो के साथ कार्यरत हो जाता है। बिंदुयोग की साधना जीवन सत्ता के कण–कण में प्रकाश उद्भव की अनुभूति तो कराती ही है, साथ ही उन अभिनव स्तर की हलचलें भी उभरती दृष्टिगोचर होती हैं।

अध्यात्म की भाषा में प्रकाश शब्द का उपयोग मात्र चमक के अर्थ में प्रयुक्त नहीं होता; वरन उसका अभिप्राय ज्ञान और क्रिया में सम्मिश्रित उल्लास भरी भावतरंगो में होता है। पंचभौतिक जगत में गर्मी और रोशनी के सम्मिलित को प्रकाश कह सकते हैं, किंतु अध्यात्म क्षेत्र में गर्मी का अर्थ सक्रियता और प्रकाश का अर्थ दूरदर्शी उच्चस्तरीय ज्ञान ही किया जाता है। प्रकाश की प्राप्ति की चर्चा जहाँ कहीं भी होगी वहाँ रोशनी चमकने जैसे दृश्य खुली या बंद आँखों से दीखना भर नहीं हो सकता, वहाँ इसका अभिप्राय गहरा ही रहता है। आत्मोत्कर्ष की भूमिका स्पष्टत: विवेकयुक्त सक्रियता अपनाने पर ही निर्भर है— भौतिक गर्मी या रोशनी से वह महान प्रयोजन कैसे पूरा हो सकता है।

त्राटक-साधना में अग्नि या बिजली के सहारे जलने वाले प्रकाश-दीप का प्रयोग आरंभिक आवश्यकता पूरी करने के लिए ही किया जाता है। ध्यान-धारणा को प्रकाश का भौतिक स्वरूप भली प्रकार अपनाने का अवसर मिल जाए, बस इतनी भर आवश्यकता वह प्रत्यक्ष दीपक पूरी करता है। उससे आगे की मंजिल पूरी करने के लिए अग्नियुक्त प्रकाश को सद्ज्ञान प्रकाश में परिणत करना पड़ता है। आत्मोत्कर्ष प्रयोजन के साथ स्पष्टत: उसी का संबध भी है।

प्रकाश ध्यान के लिए आमतौर से घृतदीप जलाया जाता है। उसे सीने की सीध में रखा जाता है। दीपक के अभाव में मोमबत्ती जलाई जा सकती है, बिजली की मंद प्रकाश वाली बत्ती का भी प्रयोग हो सकता है। यदि बिजली काम में लानी हो तो उस पर नीला बल्ब लगाना चाहिए। इससे एक तो आँख पर अनावश्यक चमक नहीं पड़ती है, दुसरे— नीला प्रकाश शांतिदायक भी होता है। उसका प्रभाव साधक पर शांतिदायक प्रतिक्रया उत्पन्न करता है।

प्रभातकालीन सूर्य जब तक लाल-पीला रहे— त्राटक प्रयोजन के लिए काम में लाया जा सकता है। डूबते सूर्य का उपयोग नहीं हो सकता। पूर्ण चंद्रमा भी त्राटक के लिए उपयुक्त माना गया है। वैसे इन चमकदार पदार्थों की सहायता आरंभ में ही कुछ दिनों लेनी पड़ती है, पीछे तो भ्रूमध्य भाग में प्रकाश का आभास साधना पर बैठते ही अनुभव होने लगता है। कुछ समय तो यह ज्योति कई रंगों की तथा हिलती हुई दीखती है। पीछे स्वयमेव स्थिर एवं शुभ्रवर्ण की बन जाती है।

बिंदुयोग में आधा घंटे तक नौ से साढ़े नौ बजे तक यही धारणा करनी पड़ती है कि प्रकाशरूप परमात्मा का आलोक अंग-प्रत्यंग के कण–कण में, अंत:करण के प्रत्येक कक्ष परत में प्रकाशवान होता है। दिव्य चेतना की किरणें काय-कलेवर की प्रत्येक लहर पर प्रतिबिंबित हो रहीं हैं। विवेक की आभा फूटी पड़ रही है, सतोगुण झिलमिला रहा है, सत्साहस प्रखर-प्रचंड बनकर सक्रियता की ओर अग्रसर हो रहा है। अज्ञान के आवरण तिरोहित हो रहे हैं। भ्रमाने वाले और डराने वाले दुर्भाव, संकीर्ण विचार अपनी काली चादर समेटकर चलते बने। प्रकाश भरे श्रेयपथ पर चल पड़ने का शौर्य सबल हो उठा, अशुभ चिंतन के दुर्दिन चले गए। ईश्वरीय प्रकाश शरीर में सत्प्रवृत्ति और मन की सद्भावना बनकर ज्योतिर्मय हो चला। अँधेरे में भटकने वाली काली निशा का अंत हो गया। भगवान की दिव्य ज्योति ने सर्वत्र अपना आधिपत्य जमा लिया।
आधे घंटे तक इन्हीं भावनाओं की प्रकाश-ज्योति के साथ संगति बिठाते हुए, अपनी सत्ता के प्रत्येक पक्ष को उज्ज्वल संभावनाओं के साथ आलोकित करनी वाली विविध कल्पनाएँ करनी चाहिए। यह चिंतन आत्मिक प्रखरता को दीप्तिमान बनाने असाधारण रूप से सहायक सिद्ध होता है।

यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि बिंदु-साधना के समय उपरोक्त विचारधारा की सुविस्तृत शृंखला मस्तिष्क में घुमड़ते रहने से एकाग्रता नष्ट हुई। एकाग्रता की लययोग एवं समाधि-प्रक्रिया में ही आवश्यकता पड़ती है। शेष सभी साधनाओं में विचार-प्रवाह की एक दिशा बनाए रहना ही पर्याप्त होता है। गंगा हिमालय से निकलकर समुद्र में मिलने के लिए चलती है। यह दिशा-निर्धारण उसे लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए पर्याप्त है। प्रवाह में लहरें उत्पन्न हों, टकराव आएँ, भँवर पड़ें, मोड़ बने इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। एकाग्रता मुख्य नहीं, दिशा-प्रवाह का ही महत्त्व है। सरकस में काम करने वाले नटों की सारी सफलता उनकी एकाग्रता पर ही निर्भर रहती है। यदि वे ध्यान बटाएँ तो तार पर चलना, झूले पर उछलना जैसे करतव दिखा सकना संभव ही न हो सके। इन नटों को एकाग्रता की सिद्धि होती है, पर उन्हें योगी नहीं कह सकते। मीरा, चैतन्य, सूर, कबीर, रामकृष्ण परमहंस जैसे संत सदा भावविह्वल स्थिति में रहते थे और ‘घायल की गति घायल जाने’ जैसे शब्दों में अंतर की पीड़ा व्यक्त करते थे। उन्हें एकाग्रता कहाँ थी। उस पर भी उन्हें अयोगी नहीं कहा जा सकता। बिंदुयोग, प्राणयोग आदि प्रत्यावर्तन उपक्रम में आने वाली प्राय: सभी साधनाओं पर यही सिद्धांत लागू होता है। उनमें विचार-विस्तार का, भाव-प्रवाह का क्षेत्र अतिव्यापक है। अंत:भूमिका, परिशोधन, परिमार्जन और परिष्कार इसी समुद्र-मंथन में संभव है, इसलिए यहाँ एकाग्रता में कमी पड़ने की बात नहीं सोचनी चाहिए। साकार उपासना में तो पूजा-पाठ, स्तवन, जप आदि का पूरा उपक्रम ही बहुमुखी चिंतन के साथ जुड़ा हुआ है। जहाँ क्रिया होगी वहाँ भावविस्तार भी रहेगा ही। समग्र एकाग्रता तो पूर्ण निष्क्रियता वाली स्थिति में ही संभव है। ऐसी स्थिति समाधि स्थिति की पूर्ण भूमिका में ही उत्पन्न होती है।

बिंदुयोग में तथा अन्य प्रत्यावर्तन साधना-उपक्रमों में यथासमय ऐसी स्थिति स्वयमेव आती है, जिसमें योग-निद्रा जैसी अनुभूति होती है। सारे क्रियाकलाप ठप्प हो जाते हैं। जप में माला फेरना और मंत्रोच्चार बंद हो जाता है। जब स्थिति सुधरती है तो ऐसा प्रतीत होता है, झपकी लग गई थी, सो गए थे; पर वस्तुतः ऐसा होता ही नहीं, यह साधनाएँ ऊर्जा और ऊष्मायुक्त हैं। उसमें आवेश संभव नहीं, निद्रा की कोई संभावना नहीं। अस्तु उस स्थिति को विशुद्ध रूप में योगनिद्रा, समाधि स्तर की भूमिका ही समझा जाना चाहिए और ऐसी सहज एकाग्रता जब भी प्राप्त होती है, तब उसे सफलता का उत्साहवर्द्धक चिह्न मानते हुए स्थिति को यथावत बनाए रहना चाहिए। साधना उपक्रम भले ही रुका रहे, पर उसे सहज समाधि के दैवी अनुदान को अस्त-व्यस्त न किया जाए, यही उचित है। प्रत्यावर्तन साधना में एकाग्रता का नहीं प्रवाहक्रम की प्रखरता का महत्त्व है। इसी बिंदुयोग की प्रकाश-साधना करने वालों को अपने कलेवर के हर कक्ष में ज्योति अवतरण के साथ दिव्य भावनाओं के समावेश का चिंतन करते हुए प्रसन्नता ही अनुभव करनी चाहिए।

First 14 16 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • और कोई रास्ता नहीं
  • प्रत्यावर्तन का दार्शनिक पक्ष
  • बुद्धिहीन वैज्ञानिक (kahani)
  • अनंत आनंद और उसकी प्राप्ति
  • प्रत्यावर्तन का साधना पक्ष
  • मधुमक्खी की मेहनत (kahani)
  • प्रत्यावर्तन सत्र की दससूत्री साधन-प्रक्रिया
  • नीति श्लोक
  • खेचरी मुद्रा का तारतम्य और साधना विज्ञान
  • सोमरस पान की दिव्य अनुभूति
  • खरे और खोटे (kahani)
  • परम प्रेरणाप्रद गायत्री उपासना
  • दो मित्रों ने ईख को खेती की (kahani)
  • सोहम्-साधना से भावोर्त्कष एवं शक्ति अवतरण
  • नीति श्लोक
  • ज्योति अवतरण की बिंदुयोग साधना
  • नादयोग— दिव्य सत्ता के साथ आदान-प्रदान
  • साधना के उपयुक्त सतोगुणी आहार
  • आत्मबोध का दिव्य वरदान
  • आत्मा की सुनो, आत्मा का मनन करो
  • तत्त्वबोध के प्रकाश में भवबंधनों से मुक्ति
  • पंचकोषों की साधना, पंचदेवों की सिद्धि
  • प्रत्यावर्तन-साधना संबंधी कुछ विशेष स्पष्टीकरण
  • सदा के लिए अपनाया जाने वाला सतत साधनाक्रम
  • आत्मशोधन की प्रायश्चित-प्रक्रिया
  • रोग से ज्यादा रोगी की शत्रु औषधियाँ
  • कबिरा चिहृ बावरी, ताते नास-बिनास
  • अपनो से अपनी बात
  • शक्तिपीठों के लिये कार्यकर्त्ताओं की आवश्यकता
  • वह किरण र्व्यथ है
  • वह किरण व्यर्थ है
  • नीति श्लोक
  • नीति श्लोक
  • नीति श्लोक
  • नीति श्लोक
  • नीति श्लोक
  • नीति श्लोक
  • नीति श्लोक
  • नीति श्लोक
  • नीति श्लोक
  • नीति श्लोक
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj