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Magazine - Year 1973 - Version 2

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प्रत्यावर्तन का दार्शनिक पक्ष

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प्राण-प्रत्यावर्तन , अर्थात प्राण-चेतना का आदान-प्रदान किसके साथ ? इसका उत्तर यही हो सकता है— लघु का महान के साथ, आत्मा का परमात्मा के साथ, प्राण का महाप्राण के साथ।

आत्मा वस्तुत: महान परमात्मा का एक छोटा घटक है। बीजरूप से उसमें वे समस्त संभावनाएँ और क्षमताएँ विद्यमान हैं, जो उसकी मूलसत्ता में है। वृक्ष की समस्त विशेषताएँ बीज में भरी रहती हैं, छोटे से दाने के अंदर पूरे पेड़ का स्वरूप और क्रियाकलाप अंतर्निहित रहता है। अवसर पाते ही यह बीज विकासोन्मुख होता है और उसकी विभूतियाँ अव्यक्त से व्यक्त होती हैं। यों देखने में बीज की सत्ता और वृक्ष की स्वरूपसत्ता एकदूसरे से सर्वथा भिन्न स्तर की मालूम पडती है। बीज का मूल्य कानी-कौड़ी और पेड़ की कीमत मुहर-अशर्फी होती है। अंतर स्पष्ट है; पर कुछ अत्यंत महत्त्वपूर्ण क्षण ऐसे भी आते हैं, जब बीज के भीतर एक विचित्र हलचल उत्पन्न होती है, वह अपना दाने जैसा अकिंचन स्वरूप खोता है और गल-बदल अंकुर, फिर पौधा, फिर वृक्ष बनने के लिए विचित्र प्रकार के क्रियाकलाप अपनाता है। यह परिवर्तन का काल थोड़ा ही होता है। बीज को डालने और अंकुर का रूप धारण करने की काया-कल्प जैसी प्रक्रिया कुछ ही दिनों की होती है। इनके बाद बीज की सत्ता समाप्त हो जाती है और वृक्ष का अस्तित्व अपने ढंग से काम करने लगता है। इसी हलचल भरी उथल-पुथल को प्रत्यावर्तन  कह सकते हैं।   

प्राण उस इकाई का नाम है, जो मनुष्य के काय-कलेवर के अंतगर्त काम करती है और चेतना की क्रिया का रूप धारण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका संपादित करती है। जीवसत्ता चेतनायुक्त है, उसमें प्रेरणाओं का आलोक ज्योतिर्मय है। मस्तिष्कसहित शरीर, काय-कलेवर की संरचना इस प्रकार हुई है कि वह निर्धारित क्रियाकलापों को कुशलतापूर्वक संपन्न कर सके। दोनों के संयोग से ही जीवनयात्रा चलती है। जीव की आकांक्षा और शरीर की क्रियाशीलता का समन्वय ही जीवन की विभिन्न हलचलों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जीव चेतना और शरीर जड़; दोनों का समिश्रण जिस स्तर पर, जिस केंद्रबिंदु  पर होता है— उसे ‘प्राण’ कहते हैं। और भी स्पष्ट करें तो चेतना और क्रिया की सम्मिश्रित स्थिति को जड़ और चेतन के मिलनकेंद्र को प्राणतत्त्व कह सकते हैं। मोटे रूप से जीवधारी की भौतिक सत्ता को प्राण रूप में ही देखा जाता और समझा जा सकता है। सरल विश्लेषण की दृष्टि से जीवन तत्त्व का दूसरा नाम प्राण भी दिया जा सकता है। इसी सत्ता की प्रधानता देखते हुए जीवधारी को ‘प्राणी’ कहते हैं। प्राण जब अपना काम बंद कर देता है तो जीव तथा शरीर की सत्ताएँ यथावत् विद्यमान रहते हुए भी मृत्यु हो जाती है और कहा जाता है— प्राण निकल गए।

व्यक्ति के भीतर जो लघु एवं असीम प्राण है, वह समष्टि में समाए हुए असीम महाप्राण का एक लघु अंश है, जैसा कि परमात्मा का एक घटक— आत्मा। बिंदु वस्तुतः सिंधु का ही एक घटक है। बादल समुद्र से जल लाकर भूमि पर बरसाते हैं। जमीन पर गिरते ही वह इस उधेड़ बुन में लग जाते हैं कि किस प्रकार वह सिंधु तक पहुँचे। भूमिगत तुच्छ नलिकाओं से होती हुई, नदी-सरोवरों को पार करती हुई, वह अंततः इस प्रयास में सफल हो जाती हैं कि समुद्र में अपनी सत्ता मिलाकर असीम और अनंत स्तर के आनंद का उपभोग करें। जीव की स्थिति भी यही है, वह ब्रह्म का एक घटक है। तुच्छता एवं ससीमता में बेचेनी रहना स्वाभाविक है। समस्त संभावों और असंतोषों का समाधान असीमता की स्थिति आने पर ही मिल सकता है। इसी प्रयास में जीवधारी लगा रहता है; पर सही मार्ग मिलने से भटकाव की स्थिति, उलझन भरी भूल-भुलैयों में घुमाती है।

प्राण-प्रत्यावर्तन का तात्पर्यं है— काय-कलेवर में काम करने वाली ससीम प्राणसत्ता का अनंत-असीम में संव्याप्त महाप्राण को महत्ता के साथ आदान-प्रदान। लघु का महान में समापन और महान का लघु में आधिपत्य। महाप्राण को दूसरे शब्दों में अतिमानुष्य या अतींद्रिय आलोक कह सकते हैं। लघुप्राण जब महाप्राण की सत्ता में अपना समर्पण करता है तो स्वभावत: महाप्राण को उस रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए अपना कदम बढ़ाना पड़ता है। जीव जिस कदर परमेश्वर में घुलता है, उसी अनुपात से ईश्वर का आलोक जीवधारी में जगमगाने लगता है, इसलिए पूर्णता की प्राप्ति और ईश्वर की उपलब्धि दोनों को एक ही तथ्य के दो पहलु माना जाता है। जितने अंश में हम अपनी स्वार्थ-संकीर्णता का परित्याग करते हैं, ठीक उसी अनुपात में महान की महत्ता का आच्छादन हमें घेर लेता है।

आत्मा और परमात्मा के बीच का संबंध-सूत्र भावनात्मक चुंबकत्व के आधार पर जुड़ता है। दो चेतनाओं के बीच की कड़ी यही है। हम उत्कृष्टतम भावनाओं को अपने अंतःकरण में स्थान देकर ही परमात्मसत्ता को अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं और उसके साथ आबद्ध हो सकते हैं। आमतौर से हमारा भावना स्तर मृत न सही तो मूर्छित स्थिति में ही पड़ा रहता है। पेट और प्रजनन, वासना और तृष्णा, लोभ और मोह, स्वार्थ और अहंकार की सड़ी कीचड़ से एक कदम आगे अपना चिंतन और कर्तृत्व बढ़ता ही नहीं। ऐसी दशा में अंतःकरण को पोषण मिल ही नहीं पाता और वह भूख-प्यास से संत्रस्त मृतप्राय: स्थिति में ही पड़ा रहता है। शरीर की, बुद्धि की, संपत्ति की, सत्ता की दृष्टि से कितने ही व्यक्ति बहुत बढ़े-चढ़े एवं सफल- श्रेयाधिकारी पाए जाते हैं। भावना की दृष्टि से, जिनमें अभीष्ट कोमलता जीवंत रह रही हो, ऐसे कोई विरले ही दीखते हैं। यंत्रवत् जीवन जीने वालों को इसकी कुछ आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। शरीरगत सुदृढ़ता और बुद्धिगत कुशलता से ही उन्हें सांसारिक सुविधाएँ मिल जाती हैं। उत्कृष्टता, आनंद का न उन्हें अनुभव होता है और न उस तरह के वातावरण का प्रोत्साहन मिलता है। ऐसी दशा में भाव-भूमिका का मृतप्राय: स्थिति में पड़ा रहना स्वाभाविक है।

कहना न होगा कि परमात्मा असीम शक्ति, शांति का केंद्र है। उसके साथ संबद्ध होकर, हम समस्त सीमाओं को लाँघकर, असीम और समस्त अभावों को परास्तकर अनंत वैभववान बन सकते हैं। ऋषि और देवदूत वस्तुतः इसी स्तर के होते हैं। जन्मजात रूप से वे भी अन्य सबकी भाँति सामान्य ही होते हैं; पर भावना को विकसित करके अपनी क्षुद्रता को असीम में जोड़ देते हैं। जुड़ी हुई दो वस्तुएँ एक ही हो जाती हैं। ईश्वर के साथ जुड़ा हुआ जीव — महाप्राण के साथ जुड़ा हुआ प्राण लगभग एक ही— समतुल्य हो जाते हैं। आत्मिक विकास की दिशा में बढ़ते हुए जीवसत्ता, सिद्धियों और विभूतियों की दिव्य संपदाओ से लद जाती हैं।

विवेकसंगत और शास्त्रसम्मत साधना-पद्धतियाँ, एक ही प्रयोजन पूरा करती हैं कि अंतःकरण की प्रसुप्त उच्च भावनाओं को जगाएँ, उन्हें दिशा दें और इतना आत्मबल उत्पन्न करें, जिसके सहारे लोभ और मोह के बंधनों को तोड़ते हुए मनुष्य उत्कृष्ट चिंतन को ह्रदयंगम और आदर्श कर्तृत्व को क्रियान्वित करने के लिए आंतरिक और बाह्य अवरोधों को तोड़ता हुआ कटिबद्ध हो सके। उपासना के अनेकों विधि-विधान प्रचलित हैं, पर उनका एकमात्र उदेश्य यही है। कर्मकांडो, साधना उपक्रमों की बालपोथी के साथ भावनात्मक उत्कर्ष की उच्चस्तरीय शिक्षा-व्यवस्था की जाती है। सीढ़ियों के सहारे ऊपर चढ़ते हैं, केवल मुगदरों के सहारे पहलवान बनते हैं, पुस्तकों के सहारे विद्या प्राप्त करते हैं। ठीक इसी प्रकार साधना-विधानों के सहारे भावनात्मक उत्कर्ष का प्रयोजन पूरा किया जाता है। जिन साधनाओं में भावोत्कर्ष का तथ्य अछूता छोड़ दिया जाता है और शारीरिक क्रियाकलाप अथवा वस्तुओं का हेर-फेर भर जुड़ा रहता है, वे प्राय: बालक्रीड़ा बनकर ही रह जाती हैं। उनसे कोई महत्त्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।

प्राण का महाप्राण के साथ आदान-प्रदान संभव हो सके, आत्मा और परमात्मा के परस्पर मिलन की अनुभूति होने लगे; यही है — प्रत्यावर्तन-प्रक्रिया, जिसकी व्यवस्था इन दिनों शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में चल रही है और उपयुक्त साधकों को क्रमशः थोड़ी-थोड़ी संख्या में बुलाया जा रहा है। यह प्रत्यावर्तन-साधनाक्रम यदि सही रीति से संपन्न हो सके, तो तत्काल उसका प्रतिफल देखा जा सकता है। जीवन का जो कुछ भी भला-बुरा स्वरूप है, वह मनुष्य के चिंतन और कर्तृत्व की प्रतिक्रियामात्र है। उत्थान और पतन की अंतःस्थिति का प्रतिबिंबमात्र कहना चाहिए। विक्षोभ और उल्लास का तात्त्विक विवेचन किया जाए तो उन्हें चेतना के श्वासोच्छास भर रख सकते हैं और आंतरिक स्तर में हेर-फेर संभव हो सके तो परिस्थितियों के बदलने में एक क्षण भर की भी देर नहीं लगती। इतिहास के पृष्ठ ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं कि मनुष्य की अंतःनिष्ठा एवं आकांक्षा-प्रवाह में परिवर्तन हुआ तो बाह्य जीवन का सारा ढाँचा ही उलट गया। भीतरी परिवर्तन का बाह्य जीवन पर परिवर्तन- प्रभाव देखने को न मिले, ऐसा हो ही नहीं सकता। आज का दुःखी कल सुखी बन सकता है, आज का पतित कल प्रातः स्मरणीय और अभिवंदनीय बन सकता है, आज का उलझन भरा व्यक्ति कल समुन्नत और संतोषजनक स्थिति का आनंद ले सकता है। यह परिवर्तन सांसारिक घटनाक्रम के हेर-फेर से नहीं हो सकता, जैसा कि आमलोग समझते हैं। इसके लिए एकमात्र अंतःचेतना के स्तर में ही उलट-पुलट होनी चाहिए।

शास्त्रीय साधनाएँ इसी प्रयोजन को पूरा करती हैं। देखने में उनमे भी तपश्चर्या, योग-साधना एवं विधि-विधानों का ही बाह्य कलेवर गठित होता है; पर उनके साथ-साथ भावोत्कर्ष की ध्यान-धारणा अत्यंत सघन रूप में जुड़ी रखी जाती है और यह प्रयत्न किया जाता है कि प्रत्येक साधना-विधान की लकीर पीटने के लिए नहीं— शारीरिक हलचल मात्र के रूप में नहीं; वरन भावभरी मन:स्थिति में संपन्न किया जाए।

प्राण प्रत्यावर्तन  सत्रों में यों 6 घंटे तथा दस प्रकार के विभिन्न साधना-विधान करने पड़ते हैं; पर उनके साथ-साथ यह तथ्य भली प्रकार ह्रदयंगम करा दिया जाता है कि क्रिया-कृत्य को ही सब कुछ न मान बैठें, उसके भीतर गहराई तक प्रवेशकर और जिस साधना के साथ भावना जुड़ी हुई है, उसे आत्मसात करने का पूरा-पूरा प्रयत्न करें। प्रयत्न इतना गहरा होना चाहिए कि क्रिया-प्रक्रिया अनुभूति के रूप में परिणित, प्रतिबिंबित होने लगे। इस प्रकार भावोत्कर्ष का प्रयोजन सरलतापूर्वक संपन्न होता चला जाता है। इस अंतःस्फुरणा को व्यावहारिक जीवन में किस प्रकार उतारा जा सकता और पिछले ढर्रे को बदलकर उपलब्ध आलोक के आधार पर किस प्रकार, किस दिशा में, क्या परिवर्तन किया जा सकता है? तथ्य स्पष्ट हो जाते हैं तो आध्यात्मिक जीवन का एक स्पष्ट ढाँचा सामने आ खड़ा होता है। कहना न होगा कि परिष्कृत प्रक्रिया में जब, जिस क्षण भी प्राण-प्रतिष्ठा होती है, उसी क्षण मनुष्य की क्षुद्रता, महानता में परिणत हुई दीखने लगती है। इस स्थिति में वह अपने लिए और दूसरोँ के लिए एक अनुपम वरदान बनकर सामने आता है। उसकी पिछली उलझन भरी जीवनचर्या और नवोदित प्रगतिशीलता की जब तुलना की जाती है; तो यह स्पष्ट अनुभव होता है कि वस्तुतः व्यक्तित्व में भारी हेर-फेर हुआ है और प्राण-प्रत्यावर्तन  ने एक तथ्यपूर्ण यथार्थता का रूप धारण किया है। लघु से महान बनने के उपरांत गुण, कर्म, स्वभाव में और तदनुरूप परिस्थितियों में जो अंतर होना चाहिए, वह जब प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होगा तो यह संदेह करने का कोई कारण न रह जाएगा कि साधना में सिद्धि न जाने मिलती हैं या नहीं।

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