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Magazine - Year 1973 - Version 2

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Language: HINDI
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पंचकोषों की साधना, पंचदेवों की सिद्धि

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प्रत्यावर्तन सत्र की साधनाएँ साधक की सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त करती हैं। उनमें व्यक्ति और समाज के समग्र उत्कर्ष की संभावना सन्निहित है।

बहिर्मुखी प्रवृत्तियों को अंतर्मुखी बनाने के लिए सत्र के चार दिनों में भरपूर प्रयत्न किया जाता है। मनुष्य जीवन भर बहिरंग समस्याओं में ही उलझा रहता है। बाहर ही सुख खोजता है, पदार्थों और परिस्थितियों की अनुकूलता के लिए व्याकुल रहता है और प्रसन्नता के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। फलतः कस्तूरी के मृग की तरह उसे असफलता ही मिलती है। एक कामना पूरी नहीं हो पाती कि दूसरी उससे भी प्रबल उग्रता के साथ उठ खड़ी होती है। एक कोने में अनुकूलता आती है तो दूसरे में और भी अधिक प्रतिकूलता उभर पड़ती है। एक धागा जुड़ता है तो दो टूटते हैं। ऐसे ही अशांति और अतृप्ति की सुरसा का मुँह भरने का प्रयास करने में हाथ मलता हुआ प्राणी इस संसार से विदा हो लेता है, पल्ले कुछ नहीं पड़ता। पाप और पश्चात्ताप की गठरी सिर पर लादकर ही उसे भगवान के दरवार में उपस्थित होना पड़ता है।

इस तथ्य को कोई बिरले ही जानते हैं कि प्रगति की सभी सम्भावनाएँ भीतर हैं। शक्ति के समस्त स्रोत अंतरंग में छिपे पड़े हैं। सुख और शांति परिष्कृत दृष्टिकोण पर निर्भर है। समस्याओं के उत्पन्न करने और सुलझाने के समस्त केंद्र अंतःकरण में हैं। बाह्य जीवन की अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ अपने आंतरिक स्तर की भली-बुरी प्रतिक्रियामात्र हैं, जिसने इस महासत्य को समझा है। वह बाह्य प्रयत्नों तक सीमित न रहकर अपनी अंतःसत्ता को समझने, सुधारने, बनाने और विकसित करने में ही संलग्न रहता है। इस दुहरे प्रयास के बिना उत्कर्ष की स्थिरता का समग्र समाधान किसी को भी, कभी भी मिल नहीं सकता।

आदत बाहर ही देखने, बाहर ही खोजने की पड़ी है। दूसरे भी यही करते हैं, अस्तु अपना स्वभाव एवं दृष्टिकोण भी वैसा ही बन जाता है। दूसरों की तरह चलने वाली अपनी भेड़चाल भी किसी शांतिमय समाधान तक नहीं पहुँचने देती। प्रत्यावर्तन सत्र के चार दिनों में इस भूल को सुधारने का प्रबल प्रयत्न किया जाता है। आश्रम से बाहर न जाओ, साधना-कक्ष से बाहर अकारण न भटकने, अनावश्यक वार्त्तालाप न करने के प्रतिबंध इसीलिए हैं। साधना में छह घंटे लगते हैं और दो घंटे प्रवचन सुनने को मिलते हैं। पंद्रह मिनट व्यक्तिगत परामर्श के हैं। इस प्रकार बाधित सवा आठ घंटे की प्रक्रिया साधक को अनिवार्य रूप से आत्मचिंतन में लगाए रहती है। निद्रा और नित्यकर्म के अतिरिक्त जो शेष समय बच जाता है, उसमें भी मनन और चिंतन की प्रक्रिया में ही संलग्न रहना पड़ता है। बाहर की बातें न सोचने की मनाही इसीलिए की गई है कि आत्मचिंतन में बाधा न पड़े। चार दिन तक संन्यासी जैसी मनःस्थिति में ज्ञान और वैराग्य की भूमिका में रहने का निर्देश इसीलिए किया गया है कि अंतर्मुखी स्थिति बनाने का अवसर जो प्रायः कभी भी नहीं मिलता, वह यहाँ मिल सके।

छोटे स्तर की पूजा-उपासना भी प्रायः बहिर्मुखी होती है। उसमें भगवान को अपने से बाहर मानकर स्तवन-पूजन किया जाता है और उसे किसी तीर्थ या लोक में मानकर वहाँ तक पहुँचाने का ताना-बाना बुनना पड़ता है। स्तवन-पूजन की मनुहार से उसे द्रवित, प्रसन्न करने की बात सोची जाती है। यह बालकक्षा विस्मृति को स्मृति में इसी की समीपता में लाने की दृष्टि से ही कुछ उपयोगी होती है, अन्यथा भगवान को प्राप्त तो भीतर ही करना पड़ता है। मिलन के लिए यही एकमात्र स्थान है। इससे बाहर तो दिव्य प्रकाश की अनुभूति कभी किसी को होती भी नहीं हैं। जीवनलक्ष्य को उपलब्ध करा सकने वाले समस्त स्रोत अंतःलोक में ही उद्भूत होते हैं। आत्मपरिष्कार की विद्या का नाम ही अध्यात्म विद्या अथवा ब्रह्म विद्या है। श्रय साधन के लिए इस क्षेत्र में गहराई तक उतरने के अतिरिक्त और कोई गति है ही नहीं।

प्रत्यावर्तन के साधक को बहिरंग जीवन में अब तक हुए पापों का ब्यौरा देना होता है और उस पर पश्चाताप करते हुए विश्वमानव को पहुँचाई गई क्षतिपूर्ति का प्रायश्चित्य करना पड़ता है। इसमें भावी जीवनक्रम की शुद्धता बनाए रखने का संकल्प भी सम्मिलित है। यही प्रक्रिया अंतरंग जीवन के लिए लागू होती है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव में फँसे हुए दोष-दुर्गुणों पर, कषाय-कल्मषों पर, मल-आवरण और विक्षेपों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के लिए आत्मसमीक्षा पर उतारू होना पड़ता है और जो अवांछनीयताएँ  भावनाओं में, मान्यताओं में, आकांक्षाओं में भर गई हैं, उन्हें भी निरस्त करने के लिए साहसिक कदम बढ़ाना पड़ता है। बहिरंग और अंतरंग जीवन को अधिकतम पवित्र और प्रखर बनाने की यह चेष्टा हेय स्तर के नर-कीटक को नर-नारायण स्तर तक पहुँचा देने में समर्थ होती है। अंगारा तभी तक ठंडा और काला दीखता है, जब तक उस पर राख की परत जमी रहती है। जैसे ही यह परत हटी कि अंगारा अपने असली रूप में उष्णता एवं चमक से भरा-पूरा दीखने लगता है। आत्मा की महत्ता को जिन दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों ने अवरुद्ध कर रखा है, यदि उन्हें हटा दिया जाए तो फिर सफल जीवन जीने में कोई व्यवधान शेष नहीं रहता और न स्वर्गमुक्ति एवं ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य पूरा करने में कोई अड़चन शेष रहती है।

परिष्कृत जीवन अपने लिए, अपने परिवार के लिए, समस्त संसार के लिए कितना मंगलमय होता है, इसे हर कोई प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है। मान्यताओं, आकांक्षाओं, आदतों को बदल देने पर जीवन का बाह्यस्वरूप सहज ही बदल जाता है। मनुष्य में देवत्व उदय होने का परिणाम धरती पर स्वर्ग के अवतरण की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा सकता है। उपासना और साधना का प्रयोजन इसी स्थिति को प्राप्त कराना है।

 आत्मा का परिष्कृत स्वरूप ही परमात्मा है। उसे प्राप्त करने के लिए आत्मशोधन और आत्मविकास के दोनों पंखो से उड़ना होता है— दोनों पैरों से चलना होता है। प्रायश्चित्य प्रक्रिया से लेकर 6 घंटे की साधना दो घंटे का प्रवचन पंद्रह मिनट का परामर्श विशुद्ध रूप से इस एक ही प्रयोजन के लिए है। यदि यह पूरा हो सके तो नरक से स्वर्ग में पहुँचना, बंधन से मुक्त होना अविलंब संभव हो जाता है। अवांछनीय गतिविधियों में उलझी हुई अंतःचेतना जब अपना चिंतन और कर्तृत्व बदलने के लिए सहमत हो जाती है तो मनुष्य का कायाकल्प महामानव के,  भूसुर के रूप में हुमा तत्काल दीख पड़ने लगता है। जीवनलक्ष्य की पूर्ति इसी को कहते हैं। अपना आत्मा जिसे सबमें दीखने लगा, जिसने स्वार्थपरता और संकीर्णता की जंजीरें तोड़कर समस्त विश्व को परमात्मा का रूप माना और उसे समुन्नत बनाने के लिए आत्मसमर्पण का साहस किया, उसके लिए ईश्वरीय अनुकंपा दूर कहाँ रहती है ? वह तो स्वयं ईश्वर बन जाता है।

व्यक्ति निर्माण की दृष्टि से प्रत्यावर्तन-साधना को अत्यंत सफल प्रक्रिया कहा जा सकता है। प्रस्तुत मार्गदर्शन को जो जितनी मात्रा में अपना सकेगा, वह उसी अनुपात से अपने में देवत्व की ज्योतिर्मयी आभा जाज्वल्यमान अनुभव करेगा। दूसरों का स्नेह, सहयोग और सद्भाव उसी अनुपात में उस पर बरसेगा। प्रगति की बहुमुखी संभावनाओं का उतना ही द्वार खुला हुआ प्रत्यक्ष दिखाई देगा।

कहना न होगा कि उस प्रकार की श्रेय साधना में निरत उच्चस्तरीय चिंतन और कर्तृत्व के अभ्यस्त व्यक्ति किसी भी राष्ट्र की बहुमूल्य संपदा सिद्ध हो सकते हैं। चरित्रवान, कर्मठ और आदर्शवादी लोग ही समाज को समुन्नत बनाते हैं। विश्वशांति में उन्हीं की भूमिका प्रमुख होती है। प्रत्यावर्तन-साधना की सफलता का सामाजिक परिणाम अत्यंत सुखद होगा। उनके हाथ में जो भी काम होगा उसे उच्चस्तरीय कर्मयोग भावना से पूरा करेंगे। फलतः व्यक्ति के सदाशयता पूर्ण अनुदान से समाज को, विश्व को, अत्यंत सुखद परिणामों से लाभान्वित होने का अवसर मिलेगा।

आत्मा परमात्मा का अंश है। उसमें बीजरूप से वे सभी शक्तियाँ और संभावनाएँ भरी हुई हैं जो परमात्मा में विद्यमान हैं। स्थुलशरीर की पवित्रता के सत्परिणामों की चर्चा ऊपर हो चुकी है। उससे व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में सुखद परिवर्तन होना नितांत स्वाभाविक है। उससे आगे सूक्ष्मशरीर और कारणशरीर का प्रसंग आता है। वे दोनों ही कलेवर स्थूलशरीर की तुलना में असंख्य गुनी ऐसी क्षमताएँ दबाए पड़े हैं, जिन्हें अतींद्रिय, अलौकिक एवं अतिमानवी कहा जा सकता है। सिद्धयोगी, देवपुरुष एवं ऋषिकल्प व्यक्तित्व किसी भी क्षेत्र में कुछ भी काम करते हुए पाए जा सकते हैं। इनकी अंतःचेतना इतनी प्रचंड होती है कि वे न केवल अपना कल्याण करते हैं, वरन दूसरे असंख्यों का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से महान कल्याण संपन्न करते हैं।

सूक्ष्मशरीर के पाँच कलेवर हैं, जिन्हें अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश एवं आनंदमयकोश कहते हैं। मूलाधार और सहस्रार को छोड़कर पाँच चक्र भी इन्हीं से संबद्ध हैं, इन्हें पाँच आण्विक विद्या का भंडार कहा जा सकता है। इन्हें अंतरिक्ष में संव्याप्त असंख्य शक्ति-धाराओं के साथ संबंध जोड़ने वाले ‘शक्तिशाली इलेक्ट्रॉनिक्स संयत्र’ कह सकते हैं। आत्मा और परमात्मा के बीच अगणित आदान-प्रदान इन्हीं पाँच कोशों के द्वारा होते हैं। इन पर अधिकार करने वाला व्यक्ति अशक्ति और तुच्छता का उल्लंघन करके,  असंभव को संभव बनाने वाले, अमृतपायी देवताओं की पंक्ति में जा विराजता है।

प्रत्यावर्तन सत्र में सूक्ष्मशरीर को परिष्कृत एवं बलिष्ठ बनाने की पाँच साधनाएँ हैं। इन्हें पाँच कोशों की, पाँच चक्रों की समग्र साधना कह सकते हैं। चार दिनों में उसी महायात्रा के संबंध में आवश्यक परिचय एवं अभ्यास करा दिया जाता है, ताकि क्रमशः उस मार्ग पर कदम बढ़ाते हुए अध्यात्म संपदाओं से संपन्न बना जा सके। चार दिन में साधना की पूरी मंजिल पार करके पूर्णता के लक्ष्य तक जा पहुँचना और सिद्धयोगी बन सकना तो असंभव है, उसके लिए समय और सतत श्रम चाहिए। इन थोड़े से दिनों में शिक्षण और अनुभव की इतनी आवश्यकता पूरी हो जाती है कि प्रगति प्रयाण की शांति सुव्यवस्था एवं सफलता के साथ द्रुतगति से आगे बढ़ाया जा सके।

प्रत्यावर्तन-साधनाक्रम में पांच योगों का समावेश है— (1) लययोग (2) बिंदुयोग (3) प्राणयोग (4) ऋजुयोग (5) नादयोग। इस एक ही साधनाक्रम में पाँच योग-साधनाएँ जुड़ी-गुथी हुई हैं। इन्हें पंचकोशों के अनावरण का प्रयोजन पूरा करने वाली पंचकोशी उच्चस्तरीय गायत्री साधना कह सकते हैं। प्रातः खेचरी मुद्रा वाला प्रथम साधना-सोपान लययोग है। दूसरे सोपान में सोऽहम्-साधना प्राणयोग के अंतर्गत आती है। आज्ञाचक्र में ज्योति आवरण बिंदुयोग है। नादयोग के दो प्रयोग ब्रह्मसंबंध और मनोनिग्रह का प्रयोजन दो बार में पूरा करते हैं। तीसरे सोपान में आत्मबोध और तत्त्वबोध की साधना ऋजुयोग के दो पक्ष हैं। लययोग से आनंदमयकोश बिंदुयोग से अन्नमयकोश, प्राणयोग से प्राणमयकोश, नादयोग से मनोमयकोश और ऋजुयोग से विज्ञानमयकोश की जागृति होती है। इसी साधना में पाँच चक्र भी जागृत होते चले जाते हैं।

इनमें से प्रत्येक योग की अपनी सिद्धियाँ हैं— खेचरी मुद्रा से अमृतत्व की, देवत्व की प्राप्ति, देवसत्ताओं के साथ आदान-प्रदान, बिंदुयोग से अदृश्य दर्शन, व्यक्तित्व में विद्युतीय प्रवाह का अभिवर्द्धन। प्राणयोग से स्थिरता, सुदृढ़ता, साहसिकता एवं तेजस्विता की वृद्धि, अभय एवं पराक्रम में कौशल। नादयोग से दिव्य श्रवण, वायरलेस जैसा चेतन स्तर उपयोगी सूझ का उठना। ऋजुयोग से आत्मसाक्षात्कार, स्वर्ग एवं मुक्ति की प्राप्ति। सिद्धियों के यह संकेत भर हैं। वस्तुतः उनका सीमा-बेधन नहीं किया जा सकता। वे कितने प्रकार एवं कितने स्तर की हो सकती हैं, यह साधक की मनःस्थिति पर निर्भर है। दर्पण पर साधना करने के छोटे से विधान को ही लें, उसमें छायापुरुष सिद्धि की समस्त संभावनाएँ विद्यमान हैं। अपने ही स्तर का एक नया सूक्ष्मव्यक्तित्व उत्पन्न कर लेना छायापुरुष कहलाता है। पाँचकोशों में पाँच छायापुरुष तक सिद्ध कर लेने की गुंजाएश है, वे विश्वस्त एवं समर्थ सेवक का कार्य करने में निरंतर जुटे रह सकते हैं। बिंदुयोग से मैस्मरिज्म, हिप्नोटिज्म जैसी सफलताएँ मिल जाती हैं। प्राणयोग के सहारे प्राण चिकित्सा से कठिन रोगों को सरलतापूर्वक दूर करने में सफलता मिल सकती है।

प्रत्यावर्तन में सूर्यार्घदान तथा माता के गोदी में न लेने के पीछे जो भावनाएँ हैं, वे अध्यात्म मार्ग में महज ही बहुत ऊँचे तक पहुँचा देती हैं। गायत्री महामंत्र की अन्यान्य शक्तियों एवं सिद्धियों के बारे में तो कुछ कहना ही कठिन है। वस्तुतः भारतीय साधना-विज्ञान का वह प्राण है। मंत्रयोग की धुरी गायत्री साधना को ही कहा जा सकता है। प्रत्यावर्तन को तात्विक दृष्टि से देखा जाए तो उसे गायत्री के पाँच मुखों के अलंकार चित्र में चित्रित पाँच कोशों की पंचयोग सम्मिश्रित साधना कह सकते हैं। यह जागृत कोश— (1) भवानी (2) गणेश ( 3) ब्रह्मा (4) विष्णु (5) महेशरूपी। पाँच देवता कहे जा सकते हैं। इस साधना की सफलता को प्रख्यात पाँच देवों के द्वारा प्राप्त हो सकने वाले अनुदान वरदान के रूप में देख सकते हैं।

गायत्री का देवता सविता है। सविता को महातेजस्वी परब्रह्म का प्रतीक कह सकते हैं। सूर्यार्घदान में, सूर्योपस्थान में सविता देवता की उपासना के सूत्रों का समावेश है, उससे मनुष्य तेजस्वी, मनस्वी एवं प्रचंड ब्रह्मतेज संपन्न बन सकता है।

प्रत्यावर्तन-साधना के समय एकाग्रता पर जोर नहीं दिया जाता; वरन प्रत्येक साधना के साथ जुड़ी हुई विचारणा एवं भावना को सुविस्तृत करने वाला व्यापक चिंतन करने के लिए कहा जाता है। साधना और निर्दिष्टि दिशा में चलने की उन प्रेरणाओं को हृदयंगम करने की विधि क्या हो सकती है? इसी की विस्तृत योजनाएँ साधनाकाल में बनाते रहने के लिए कहा जाता है। भाव-प्रवाह को निर्दिष्ट दिशा में लगाए रहा जाए और भावी जीवन में उन प्रेरणाओं का समावेश कैसे किया जाए, इसी की योजनाएँ बनाते रहने के लिए कहा जाता है। इन साधना सत्रों में साधक को विशेष दिशाओं में चिंतन करने का, विचारणाओं को दिशा-विशेष में नियोजित किए रहने का अभ्यास कराया जाता है। एकाग्रता इस सत्र में आवश्यक नहीं मानी गई है।

एकाग्रता का भाव, समाधि का स्तर कारणशरीर को जागृत करने की साधनाएँ हैं। उसी में कुंडलिनी जागरण की समग्र प्रक्रिया जुड़ी रहती है। यह उन लोगों के लिए सुरक्षित है, जो प्रत्यावर्तन के माध्यम से सूक्ष्मशरीर को परिष्कृत करने की दूसरी मंजिल पूरी कर लेंगे। सामान्य गायत्री उपासना को प्राथमिक कक्षा कह सकते हैं। प्रत्यावर्तन-साधना का हाईस्कूल कक्षा, मंत्रदीक्षा और प्राणदीक्षा इन्हीं दो स्तरों का नाम है। इस साधना के साधक अपने को प्राणदीक्षा से दीक्षित अनुभव कर सकते हैं। कॉलेज-कक्षा, अग्निदीक्षा कहलाती है। उसमें साधक ब्रह्मभूत होता है, अपने को स्थितिप्रज्ञ की, जीवनमुक्त की, ब्रह्मसायुज्य की स्थिति में अनुभव करता है। इस स्तर की साधनाएँ प्राण-प्रत्यावर्तन के सफल साधक समयानुसार प्राप्त कर सकते हैं। क्रमिक प्रगति के साथ-साथ अग्रगामी उपलब्धियों का पथ स्वयमेव प्रशस्त होता चला जाता है।

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