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Magazine - Year 1973 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


नादयोग— दिव्य सत्ता के साथ आदान-प्रदान

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नाद ब्रह्म अथवा शब्द ब्रह्म का अभिप्राय उस अनाहत ध्वनि से है, जो प्रकृति और पुरुष के संयोगस्थल से निरंतर प्रसृत और निनादित होती रहती है। ॐकार वही स्वयंभू ब्रह्मनाद है। उससे सप्तस्वर प्रस्फुटित हुए। श्रुतिशास्त्र में प्रयुक्त होने वाले उदात्त-अनुदात्तस्वरूप उसी के आरोह-अवरोह हैं। संगीतशास्त्र में आगे चलकर वे ही ‘सा रे ग म प ध नि’ के स्वर-सप्तक बन गए। सूर्यरथ के सप्त-अश्व उसके प्रभा-किरणों में सन्निहित रंग हैं। उसी प्रकार ब्रह्मनाद का ध्वनि-गुंजन सप्तधा स्वरलहरी में निनादित होता है।

यों सुनने में सप्तस्वर और उनके आरोह-अवरोह मात्र शब्द-ध्वनि का उतार-चढ़ाव प्रतीत होते हैं और उनका उपयोग वाद्य-गायन में प्रयुक्त होना भर लगता है; पर वस्तुत: उसकी सीमा इतनी स्वल्प नहीं है। मनुष्यकृत स्वरलहरी के अतिरिक्त प्रकृतिगत स्वर-प्रवाह जीवधारियों द्वारा विविध-विधि उच्चारण भी कम महत्त्व के नहीं है। मेघ-गर्जन, समुद्र-तर्जन, विद्युत-कड़क, वायु- सनसनाहट, निर्जन की साँय-साँय, अग्निशिखा की धू-धू, निर्झर निनाद, प्रकृतिगत ध्वनियाँ हमें समय-समय पर सुनने को मिलती रहती हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न पशु-पक्षी आवश्यकतानुसार अपनी-अपनी बोलियाँ बोलते हैं। रात्रि की नीरवता में झिल्ली की झंकार सुनते ही बनती है। सूर्योदय के समय पक्षियों के कंठ कितने प्रकार की, कितनी मधुर स्वरलहरियाँ प्रस्तुत करते हैं, उन्हें सुनकर मुग्ध हो जाना पड़ता है। लगता है, स्वरब्रह्म अपने अगणित ध्वनि-प्रवाहों में न जाने कितने भाव-भरे संकेतों और संदेशों को इस विश्व-ब्रह्मांड में भरता, बहाता रहता है।

यह सब आहात ध्वनियाँ हैं, जो कानों से सूनी जा सकती हैं। विज्ञान की पकड़ में वे ध्वनियाँ भी आ गई हैं, जो मनुष्य के कानों से सूनी जा सकने वाली मर्यादा से या तो ऊँची हैं या नीची। हमारे खुले कान उन्हें सुन नहीं सकते, फिर भी साधन-उपकरणों द्वारा उन्हें उसी प्रकार सुना जा सकता है जैसे खुली आँख से न देखने वाले लघुकाय जीवाणु माइक्रोस्कोप जैसे सूक्ष्मदर्शक-यंत्रों से भली प्रकार देखे जा सकते हैं। यह प्रकृतिगत ध्वनियाँ हैं। कान की पकड़ से बाहर होने के कारण ही इन्हें सूक्ष्म कहा जाता है, अन्यथा वस्तुत: यह स्थूल ही हैं, क्योंकि यंत्रो के माध्यम से उन्हें हमारे कान भी सुन-समझ सकते हैं।

इसमें ऊँचे स्तर की ध्वनियाँ वे ही हैं, जिन्हें जड़ जगत के अंड-परमाणुओं द्वारा स्पंदित नहीं कहा जा सकता। उनका संबंध चेतन जगत के जीवन-प्रवाह से है। उन्हें एक प्रकार से अतींद्रिय भी कह सकते हैं। उनका मूल स्रोत चेतना तत्त्व है, इसलिए उन्हें ब्रह्मवाणी भी कहते हैं। इन्हीं ध्वनियों का अलंकारिक वर्णन शिव के डमरू-घोष, सरस्वती के वीणा-वादन एवं कृष्ण के वंशी, दुर्गा के निनाद, तालनृत्य एवं भैरवनाद जैसे सरस उपाख्यानों और घटनाक्रमों के रूप में किया गया है।

यह दिव्य ध्वनियाँ अनंत अंतरिक्ष में बिना किसी प्रकृतिगत हलचल का आश्रय लिए स्वयमेव विनिसृत होती रहती हैं। ये चेतन हैं, दिव्य हैं। अलौकिक, अभौतिक और अतींद्रिय हैं, इसलिए उन्हें देववाणी भी कहते हैं। उन्हें ध्यानयोग के माध्यम से हमारा चेतन अंतःकरण सुन सकता है। श्रवण का संबंध कर्णेंद्रियों से है, अस्तु सूक्ष्म एवं चेतन श्रवण भी शब्द संस्थान के इसी प्रतिनिधि केंद्र का सहारा लेकर सुना जाता है। प्रत्येक इंद्रिय की तन्मात्राएँ स्थूल से सूक्ष्म का संबंध बनाती हैं। शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श शरीर की पाँच ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से पाँच तत्त्व के सान्निध्य से उत्पन्न होने वाली अनुभूतियों से ही हमें अवगत कराती हैं। यह स्थूल का सूक्ष्म की ओर गति का एक चरण हुआ, उसके अगले चरण विशुद्ध चेतन एवं अभौतिक हो जाते हैं। जिन दिव्य ध्वनि-प्रवाहों की चर्चा इन पंक्तियों में हो रही है, वह उसी चेतन जगत के उच्चस्तर से संबंधित हैं। ब्रह्मवाणी, देवध्वनि को इसी रूप में समझा जाए।

नादयोग का केंद्रबिंदु उपरोक्त पंक्तियों के आधार पर सरलतापूर्वक जाना जा सकता है। योगशास्त्र के साधना-विधानों में एक महत्त्वपूर्ण धारा नादयोग की भी है। कानों को उगलियों से, शीशी वाले कार्क से, कपड़े की गोली से इस प्रकार बंद किया जाता है कि बाहर की वायु या स्थूल आवाजें भीतर प्रवेश न कर सकें। इस स्थिति में कानों को बाहरी ध्वनि आधार से विलग किया जाता है और ध्यान को एकाग्र करके यह प्रयत्न किया जाता है कि अतींद्रिय जगत से आने वाले शब्द-प्रवाह को अंतःचेतना द्वारा सुना जा सके। यों इसमें भी कर्णेंद्रिय का, उसकी शब्द तन्मात्रा का योगदान तो रहता है; पर वह श्रवण है, वस्तुतः उच्चस्तरीय चेतन जगत की ध्वनिलहरी सुनने के लिए, कर्णेंद्रिय और अंतःकरण का इसे संयुक्त प्रयास भी कह सकते हैं।

प्राण प्रत्यावर्तन सत्र में 9.30 से 10 बजे तक आधा घंटा नादयोग के अभ्यास का समय है। इसका प्रथम चरण अभ्यास के लिए इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि प्रत्येक साधक के एकाकी कक्ष में लाऊडस्पीकर के माध्यम से एक सुमधुर ध्वनि-प्रवाह पहुँचाया जाता है और साधक को कहा जाता है कि वह आराम कुर्सी पर शांतिपूर्ण स्थिति में शरीर और मन को साधकर इस ध्वनि-प्रवाह के साथ-साथ अपनी अंतःचेतना को भावविभोर स्थिति में बहाने का प्रयत्न करें। जिस प्रकार सपेरे द्वारा बीन बजाए जाने पर सर्प बिल में से निकल आते हैं और उस स्वरलहरी पर लहराने लगते हैं, उसी प्रकार इस संगीत-ध्वनि के साथ-साथ साधक अपने मन को लहराने का प्रयत्न करे।

कृष्ण द्वारा रात्रि की नीरवता में वंशी बजाए जाने और गोपियों के घर-बार छोड़कर उस रास आह्वान के लिए निकल पड़ने का सविस्तार वर्णन भागवत आदि पुराणों में वर्णित है। यह व्यावहारिक, सामाजिक, भौतिक व्यवस्था के सर्वथा प्रतिकूल होते हुए भी अध्यात्म परंपरा के पूर्णतया अनुकूल भी है। वस्तुतः कथा-गाथाओं में रहस्यमय पहेली की तरह गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों का ही उद्घाटन किया गया है। रासलीला के पीछे नादयोग की व्याख्या-विवेचना ही सन्निहित है। भगवान वंशी बजाते हैं, मधुर रस चखाने का आह्वान करते हैं। गोपियाँ समस्त सांसारिक बंधनों को तोड़कर उस ओर दौड़ पड़ती हैं। संकेत आह्वान का स्वागत करती है और उसी के लिए आकुल-व्याकुल होकर अपना समर्पण कर देती हैं। अपना आपा खोकर दिव्य ध्वनि के साथ थिरकन, नाचना आरंभ कर देती हैं। यही तो रासलीला है। कृष्ण अर्थात परमात्मा वंशी-ध्वनि अर्थात ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए चल पड़ने का संकेत, गोपियाँ अर्थात आत्मा की भौतिक एवं आत्मिक संपदाएँ रासनृत्य अर्थात दिव्य संकेतों के अनुरूप कठपुतली जैसे भावविभोर आचरण हैं।

रासलीला में सम्मिलित गोपियों के आनंदमुग्ध होने का तथ्य सर्वविदित है। उसी का स्थूलरूप देखने-दिखाने के लिए जहाँ-तहाँ रासलीला के अभिनय किए जाते हैं। यों एक पुरुष के साथ इतनी नारियों का कामुक नृत्य न तो अभिनंदनीय ही हो सकता है और न अभिनीय। फिर भी आत्मा और परमात्मा के बीच  आदान-प्रदान का जो भाव-भरा अलंकारिक चित्रण रासलीला में किया गया है, वह पहेली जैसा लगते हुए भी अर्थपूर्ण और तथ्यपूर्ण ही कहा जाएगा। रास की प्रधान नायिका राधा है और अन्य सभी सखियाँ-सहेलियाँ उनके साथ पूर्ण स्नेह-सहयोग के साथ सहनृत्य में तल्लीन होती हैं।

राधा अर्थात आत्मा, उनकी सहयोगिनी सखियाँ अंतरंग की सत्प्रवृत्तियाँ, बौद्धिक विभूतियाँ और सांसारिक संपदाएँ, क्षमताएँ, प्रतिभाएँ, यह सभी आत्मा की आकांक्षा में स्नेहित सहयोग देती हैं। कोई अवरोध उत्पन्न नहीं करती, अर्थात् आत्मा के परमात्मा से मिलने के सदुद्देश्य सत्प्रयत्नों को सफल बनाने के लिए अपना पूर्ण समर्पण, समग्र नियोजन प्रस्तुत कर देती हैं। आत्मा की दिव्य आकांक्षा की पूर्ति के लिए उनका पूरा-पूरा समर्थन मिलता है। यह स्थिति प्राप्त हो सके तो हर आत्मा को, हर राधा को रासलीला का दिव्य आनंद मिल सकता है। आत्मा और परमात्मा के मिलन का ब्रह्मानंद उपलब्ध हो सकता है।

नादयोग में कान को सूक्ष्मचेतना की दिव्य ध्वनियाँ सुनाई पड़ती है। कई बार ये अतिमंद होती हैं, कई बार कुछ प्रखर। इनमें प्रायः कृष्ण की वंशी जैसी सर्प पकड़ने में काम आने वाले बीन जैसी ध्वनियाँ रहती हैं। रास में प्रयुक्त वेणुनाद की चर्चा ऊपर हो चुकी है। कुमार्गगामी भौतिक तृष्णा और वासना का विषपिंड मन एक प्रकार से विषधर सर्प है। उसे भी आनंद-उल्लास की दिव्य प्रेरणाओं के अनुगमन के रूप में लहराने का अवसर इस वेन की ध्वनि सुनने से मिल सकता है। सँपेरा विषधर सर्पों को पकड़ने के लिए बीन बजाता है। जब वह लहराने लगता है तो उसे चुपके से पकड़कर पिटारे में बंद कर लेता है। मन के निग्रह में, प्राणों के निरोध में, नादयोग का ध्वनि-प्रवाह बहुत सफल रहता है। दिव्य ध्वनि श्रवण के साथ-साथ उपरोक्त दो विचारधाराओं का अदल-बदलकर समन्वय करना चाहिए। भगवान के वेणुनाद पर राधा और उसकी सखियों का रासनृत्य करना और मनसर्प का इस दिव्यनाद में तन्मय होकर अपना आत्मसमर्पण कर बैठना, यही है नादयोग की विधि-साधना के साथ जुड़ा हुआ अत्यंत महत्त्वपूर्ण तत्त्व दर्शन।

वंशी और बीन के अतिरिक्त और भी कई प्रकार की ध्वनियाँ नादयोग के साधकों को सुनाई पड़ती हैं। इनकी संगति इस प्रकार बिठाई जा सकती है— भगवती सरस्वती अपनी वीणा झंकृत करते हुए, ऋतंभरा प्रज्ञा और अनासक्त भूमा के मृदुल-मनोरम तारों को झनझना रही है और अपनी अंतःचेतना में वही दिव्य तत्त्व उभर रहे हैं। भगवान शंकर का डमरू बज रहा है। उससे प्रलय के, मरण के संकेत आ रहे हैं और सुझाया जा रहा है कि इस नश्वर काया का अंत करने वाला तांडव किसी भी क्षण सम्मुख आ सकता है, इसलिए प्रमाद से न उलझा जाए, लक्ष्य की प्राप्ति में आलस्य एवं उपेक्षाभाव न बरता जाए। माया-मोह छोड़कर यथार्थता को समझा जाए। शंखनाद की ध्वनि को महाभारत के पांच जन्य का महाकाल के भैरवनाद का उद्घोष माना जाए और अनुभव किया जाए कि अब महाप्रयाण का ऐसा समय आ पहुँचा, जिसमें आनाकानी या सोच-विचार करने की गुजाइश नहीं है। युग की कर्त्तव्य की पुकार गूँज रही है और उभार रही है कि अविलंब जीवनोद्देश्य की दिशा में कदम बढ़ाया जाए। बिजली की कड़क, दावानल की धू-धू, बादलों की गर्जन, समुद्र का तर्जन इस संकेत को लेकर आते हैं कि अपनी गतिविधियों का कायाकल्प होना ही चाहिए। पशु स्तर को निरस्त करके दिव्य स्तर अपनाया ही जाना चाहिए और उस उलट-पुलट में जो उफान-तूफान प्रस्तुत होते हैं, उनका सामना किया ही जाना चाहिए। कभी झिल्ली की झंकार, कभी चिड़ियों की चहचहाहट के शब्द सुनाई पड़ते हैं, इन्हें छोटे जीवों द्वारा मानवी प्रमाद को हिला देने वाला उद्बोधन समझा जाए। जब इतने छोटे जीव अपने नियत-नियमित आनंद बिखेरने वाले क्रियाकलाप में निरत रहते हैं तो मनुष्य के लिए यह कैसे शोभनीय होगा कि वह जीवनोद्देश्य के साथ जुड़े हुए अपने महान कर्त्तव्य का परित्याग करके मात्र पेट और प्रजनन के लिए जीवन संपदा को कौड़ी मोल गवा देने की मूर्खता अपनाए?

नादयोग में कितने प्रकार की ध्वनियाँ सुनाई पड़ सकती हैं, इनकी कोई सीमा नहीं। प्रायः परिचित ध्वनियाँ ही सुनाई पड़ती हैं, सो सूक्ष्मदर्शी साधक उनके पीछे उच्च संकेतों को विवेक-बुद्धि के द्वारा सहज संगति बिठा सकते हैं। कोयल की कुकन, मुर्गे की बांग, मयूर की पीक, सिंह की दहाड़, हाथी की चिंघाड़ शब्द सुनाई पड़ें तो उनमें इन प्राणियों को उच्चारण समय की मनःस्थिति की कल्पना करते हुए, अपने लिए प्रेरक संकेतों का तालमेल बिठाया जा सकता है। कई बार रुदन, क्रंदन, हर्षोल्लास, अट्टहास, उच्छास जैसी ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं, उसे अपनी अंतरात्मा का संतोष-असंतोष समझा जा सकता है। कुमार्गगामी गतिविधियों से असंतोष और सत्प्रवृत्तियों का संतोष स्पष्ट है। आत्मनिरीक्षण करते हुए आत्मा को समय-समय पर अपनी भली-बुरी गतिविधियों पर संतोष-असंतोष प्रकट करने के अवसर आते हैं। इन्हीं की प्रतिध्वनि, हर्ष-क्षोभ व्यक्त करने वाले स्वरों में सुनाई पड़ती रहती है। किस ध्वनि के पीछे क्या संकेत, संदेश, तथ्य हो सकता है; उसे नादयोगी की सहज बुद्धि ही समयानुसार निर्णय करती चलती है। उसकी विस्तृत चर्चा यहाँ अभीष्ट नहीं। तथ्य इतना भर है कि इन दिव्य ध्वनियों में किसी-न-किसी स्तर की उच्च प्रेरणाएँ होती हैं और उन सबका प्रयोजन एक ही रहता है कि हमें आत्मा की स्थिति से ऊपर उठकर उच्च भूमिका के लिए द्रुतगति से अग्रसर होना चाहिए— साहसपूर्ण कदम चढ़ाना चाहिए।

कानों के छिद्र बंद करके अंतर्जगत की दिव्य ध्वनियाँ सुनने की साधना जब परिपक्व होने लगती है तो भावोत्कर्ष क्षेत्र से आगे बढ़कर सुविस्तृत अंतरिक्ष में संव्याप्त हलचलों को समझने का अवसर मिलता है। इस संसार को प्रभावित करने वाली अगणित ब्रह्म-प्रेरणाओं के प्रवाह बहते रहते हैं। उनके स्पंदन हमारी कर्णेंद्रिय से शब्दरूप में टकराते हैं। उन्हें पहचानने और पकड़ने की सफलता, साधक में परिपक्वता आने के साथ-साथ सहज ही बढ़ने लगती है और यह प्रतीत होने लगता है कि सूक्ष्मजगत  में क्या हो रहा है और क्या होने जा रहा है। किसी व्यक्तिविशेष क्षेत्र, देश अथवा लोक के संबंध में इस प्रकार की  सही स्थिति का पूर्वाभास होने लगता है। अविज्ञात को ज्ञात स्तर पर उतारने में नादयोग की साधना बहुत ही उपयोगी एवं प्रभावशाली होती है। यों शब्द, रूप, रस, गंध स्पर्श, की किसी भी प्रक्रिया के आधार पर बनी हुई साधना-पद्धति से भी वही प्रयोजन सिद्ध हो सकता है; पर नादयोग का इसी प्रयोजन के लिए अपना अत्यधिक महत्त्व है।

नादसंकेत वे सूत्र हैं, जिनके सहारे परमात्मा के विभिन्न शक्तिस्रोतों के साथ हमारे आदान-प्रदान संभव हो सकते हैं। टेलीग्राम, टेलीफोन, वायरलेस, टेलीविजन पद्धतियों का आश्रय लेकर हम दूरवर्त्ती व्यक्तियों के साथ अनुभूतियों का आदान-प्रदान करते हैं।

ठीक इसी प्रकार ईश्वर के विभिन्न शक्तिकेंद्रों के साथ इन विभिन्न ध्वनियों के माध्यम से संबंध मिला सकते हैं और इस स्थिति पर पहुँच सकते हैं कि अपनी बात ईश्वर तक पहुँचा सकें और उसके उत्तर प्राप्त कर सकें। इतना ही नहीं— यह ध्वनि-प्रवाह सड़कों का भार वाहनों का भी काम करते हैं। व्यक्ति की व्यथाएँ लादकर परमात्मा तक पहुँचाना और परमात्मा के अनुदान-वरदान लादकर व्यक्ति तक पहुँचाना भी इन ध्वनियों के माध्यम से संभव हो सकता है। सिद्धपुरुष प्रायः ऐसे ही साधना-माध्यमों के आधार पर अपने को परमेश्वर के साथ जोड़कर अभीष्ट आदान-प्रदान का लाभ प्राप्त करते हैं।

भावनाशील मन:स्थिति के लोग नादयोग जैसी सुकोमल ध्वनियाँ भाव-संवेदनाओं के आधार पर सुन लेते हैं, पर यह हर किसी के लिए आवश्यक— अनिवार्य नहीं कि वह उस प्रकार का दिव्य श्रवण कर ही सके। किन्हीं-किन्हीं को बहुत करने पर भी ऐसी कुछ अनुभूतियाँ नहीं होतीं। उन्हें निराश होने की तनिक भी आवश्यकता है नहीं; वे अपनी अंतःचेतना को प्रत्यक्ष ध्वनियों के सहारे नादयोग जैसी स्थिति में ही उद्वेलित कर सकते हैं।

बिंदुयोग की प्रारंभिक साधना प्रकाश-दीप के माध्यम से होती है। बार-बार दीपशिखा देखने, आँखें बंद करने और भ्रूमध्य भाग में ध्यान जमाने की आवश्यकता पड़ती है, जब वह भूमिका परिपक्व हो जाती है, तो प्रकाश स्वतः दृष्टिगोचर होता है और दीपक की आवश्यकता नहीं रहती। ठीक इसी प्रकार बाहरी वाद्य यंत्रों का सहारा लेकर नादयोग का साधनाक्रम आगे बढ़ाया जा सकता है। टेप रिकार्डर पर संगीत ध्वनियाँ भरी रह सकती हैं और उन्हें अपने साधना-कक्ष में सुनते हुए उपरोक्त अनुभूतियाँ जगाई जा सकती हैं। रिकार्ड प्लेयर पर कोई भाव-भरे स्वर-प्रवाह सुने जा सकते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि एक केंद्र स्थान पर वाद्य यंत्र बजते रहें और समीपवर्त्ती कक्षों में साधनारत साधक उनका श्रवण आनंद लेते हुए नादयोग का क्रम चलाते रहें। स्वयं भी इकतारा, सितार जैसे मृदुल वाद्य यंत्र बजाते हुए उस स्थिति में आत्मविभोर हो सकते हैं। झींगुरों की झंकार, चिड़ियों की चहचहाहट सुनने का प्रकृति सान्निध्य मिल सके तो वह सहज वाद्य भी उपयुक्त रहेगा। इस प्रकार के बाह्य माध्यमों का आश्रय लेकर भी नादयोग की साधना हो सकती है और यदि भावना स्तर प्रखर रहे तो उनसे भी उतना ही लाभ मिल सकता है, जितना कि कान के छेद बंद करके अंतःचेतना द्वारा दिव्य नाद सुनने से उपलब्ध होता है।

विभिन्न व्यक्तियों के मनःस्तर विभिन्न प्रकार के होते हैं। किन्हीं की कल्पनाशीलता, भावुकता बढ़ी-चढ़ी होती है और वे दिव्य दर्शन, दिव्य श्रवण, दिव्य रस, दिव्य स्पर्श का आनंद अधिक कोमलतापूर्वक उठा सकते हैं; पर किन्हीं का भाव स्तर काफी कठोर होता है, उन्हें बहुत प्रयास करने पर भी ऐसा कुछ अनुभव नहीं होता। इसमें संरचनामात्र का अंतर है। यह समझ बैठने का अवसर नहीं कि इनमें से आत्मिक-प्रगति के क्षेत्र में कौन सफल और कौन असफल रह रहा है।

साहसिकता और प्रखर चेतना का एक स्तर है, जिसे धन विद्युत आवेशों से बनी मनोभूमि कह सकते हैं। दूसरी मनोभूमि ऋण आवेशों से बनी होती है, उससे भावुकता बढ़ी-चढ़ी होती है, संवेदनाएँ बहुत उठती हैं और भावात्मक अनुभूतियाँ सहज ही उठती रहती हैं और कई बार वे इतनी प्रबल होती हैं कि निष्ठा को प्रत्यक्ष मूर्तिमान बनने का सहज अवसर मिल जाता है। उन्हें कतिपय प्रकार की दिव्य अनुभूतियाँ निरंतर होती रहती हैं। मृदुल और कठोर संरचनाओं का अपना-अपना महत्त्व है, पर प्रायः होता जन्मजात है। उसमें सुधार यत्किंचित ही हो पाता है।

जिनकी मानसिक संरचना कोमल होगी, उन्हें ध्यान-धारण के स्वल्प प्रयास ही बहुत कुछ अनुभव कराने लगेंगे, किंतु यदि संरचना कठोर हुई तो फिर कुछ अतिरिक्त अनुभव न हो सकेगा। इतना होने पर भी निराशा का कोई कारण नहीं। कठोर संरचना की स्थिति अपने ध्यान प्रयोजन स्थूल उपकरणों के माध्यम से जमानी चाहिए। दिव्य दर्शन का प्रयोजन मूर्तियों अथवा चित्रों को देखकर हो सकता है। दीपशिखा, सूर्य अथवा चंद्र का आश्रय लेकर भी वही प्रयोजन पूरा हो सकता है। दिव्य गंध के लिए कपूर, चंदन, इत्र आदि का प्रयोग हो सकता है। दिव्य रस के लिए मुख में मिश्री या कोई मिठास जैसी गोली रखी जा सकती है। स्पर्श के लिए शीत या ताप के लिए ठंडे घड़े या गरम अग्नि उपकरण का प्रयोग हो सकता है और नादयोग के लिए स्वयं इकतारा जैसा कोई वाद्य यंत्र सीखकर अथवा टेप रिकार्डर आदि का उपयोग करके वह प्रयोजन पूरा किया जा सकता है।

वायु का दवाव हलका होने और प्रशांत सागर के पानी में नमक की मात्रा अधिक रहने से उसमें ऊँची लहरें नहीं उठतीं; किंतु अटलांटिक सागर की स्थिति इससे भिन्न है, उसमें तूफानों की भरमार रहती है। कठोर मनःस्थिति की तुलना प्रशांत महासागर से और कोमल स्थिति को अटलांटिक के समतुल्य समझा जा सकता है। दोनों में किसी को श्रेष्ठ-निकृष्ठ नहीं ठहराया जा सकता, दोनों की ही अपनी विशेषताएँ हैं और दोनों को ही अपना महत्त्व प्रकट करने तथा प्रगति-पथ पर अग्रसर होने का पूरा-पूरा अवसर है। साधना-पद्धति में उसके माध्यम-उपकरण में यह हेर-फेर किया जा सकता है कि व्यक्ति की चेतना-स्थिति को ध्यान में रखते हुए उसे अंतर्मुखी अथवा बहिर्मुखी की साधना-प्रक्रिया अपनाने के लिए कहा जाए।
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