
आत्मा की सुनो, आत्मा का मनन करो
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424. आत्मानमेव मन्येत कर्त्तारं सुखदुःखयोः।
— चरक
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने को ही सुख और दुःख का कर्त्ता समझें।
आत्मानं विद्धि।
आत्मा को जानो
आत्मानमुपास्व।
आत्मा की उपासना करो।
कोऽहं कथमिदं किंवा कथं मरणजन्मनी।
विचारयान्तरेवं त्वं महात्तामलमेष्यसि ।। 5/58/32
— योगवशिष्ठ
मैं कौन हूँ ? यह जीवन क्यों है ? क्या है ? कैसे है ? जन्म और मरण का प्रयोजन क्या है ? इन प्रश्नों पर गंभीरता से विचार करने वाला महानता को प्राप्त करता है।
स्ववासनादशावेशादाशाविवशतां गताः ।
दशास्वतिविचित्रासु स्वयं निगडिताशयाः ॥ 4/43/3
स्वसङ्कल्पानुसन्धानात्पाशैरिव नयन्वपुः ।
कष्टमस्मिन्स्वयम्बन्धमेत्यात्मा परितप्यते ॥4/42/32
स्वसङ्कल्पिततन्मात्रज्वालाभ्यन्तरवतिं च ।
परां विवशतामेति शृंखलाबद्धसिंहवत् ।। 4/42/34
— योगवशिष्ठ
जीव जो चाहता है, सो अपने आप ही उपलब्ध कर लेता है। प्रत्येक जीव में सृजन की चित्शक्ति विद्यमान है। कभी तप के रूप में, कभी देवता के रूप में स्वयं आत्मा ही अपनी इच्छाएँ आप पूरी करता रहता है। यहाँ कोई दूसरा हमारे भाग्य का निर्माता नहीं है। कोई वस्तु ऐसी नहीं, जो सत्कर्म और शुद्ध पुरुषार्थ से प्राप्त न हो सके।
सर्वशक्तिमयो ह्यात्मा यद्यथा भावयत्यलम् ।
तत्तथा पश्यति तदा स्वसङ्कल्पविजृम्भितम् ।।
— योगवशिष्ठ (6-1/33/41)
यह आत्मा समस्त शक्तियों से संपन्न है। यह अपनी संकल्पशक्ति से अपनी आवश्यकताएँ आप पूरी कर लेती है।
अहं वृक्षस्य रेरिवा। कीर्तिः पृष्ठं गिरेरिव। ऊर्ध्वपवित्रो वाजिनीव स्वमृतमस्मि। द्रविण (ग्वंग) सवर्चसम् । सुमेधा अमृतोक्षितः । इति त्रिशङ्कोर्वेदानुवचनम् ॥
— (तै० उप० 1/10)
“मैं इस संसार अथवा जीवन वृक्ष को हिलाने-चलाने वाला हूँ। मेरी कीर्ति पर्वत के समान ऊँची है। मैं वह सूर्य हूँ, जिससे ज्ञान का पवित्र प्रकाश उदय हुआ है। मैं वह हूँ, जिसे तात्त्विक अमृत कहते हैं। मैं दीप्तिवान संपदा हूँ। मैं दिव्य प्रज्ञा हूँ। मैं कभी नष्ट न होने वाला अमृत हूँ।” तत्त्ववेत्ता त्रिशंकु ने वेदशिक्षा का सार यही बताया।
चिदानन्दोऽस्म्यहं चेताश्चिद्घनश्चिन्मयोऽस्म्यहम् । ज्योतिर्मयोऽस्म्यहं ज्यायान् ज्योतिषां ज्योतिरस्म्य हम् ॥95
— ब्रह्मोपनिषद् 95
मैं चिदानंद हूँ। चेतन हूँ, चिद्घन और चिन्मय हूँ। ज्योतिर्मय हूँ। ज्योतियों में श्रेष्ठ ज्योति हूँ।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
— गीता
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र और कोई वस्तु नहीं है।
ज्ञानतः सुलभः मुक्तिभुक्तिर्यज्ञादि पुण्यतः।
ज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है और यज्ञादि पुण्यकर्मों से सांसारिक सुख प्राप्त होते हैं।
न विना ज्ञानविज्ञाने मोक्षस्याधिगमो भवेत्।
बिना ज्ञान और विज्ञान के मोक्ष प्राप्त नहीं होती।
— चरक
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने को ही सुख और दुःख का कर्त्ता समझें।
आत्मानं विद्धि।
आत्मा को जानो
आत्मानमुपास्व।
आत्मा की उपासना करो।
कोऽहं कथमिदं किंवा कथं मरणजन्मनी।
विचारयान्तरेवं त्वं महात्तामलमेष्यसि ।। 5/58/32
— योगवशिष्ठ
मैं कौन हूँ ? यह जीवन क्यों है ? क्या है ? कैसे है ? जन्म और मरण का प्रयोजन क्या है ? इन प्रश्नों पर गंभीरता से विचार करने वाला महानता को प्राप्त करता है।
स्ववासनादशावेशादाशाविवशतां गताः ।
दशास्वतिविचित्रासु स्वयं निगडिताशयाः ॥ 4/43/3
स्वसङ्कल्पानुसन्धानात्पाशैरिव नयन्वपुः ।
कष्टमस्मिन्स्वयम्बन्धमेत्यात्मा परितप्यते ॥4/42/32
स्वसङ्कल्पिततन्मात्रज्वालाभ्यन्तरवतिं च ।
परां विवशतामेति शृंखलाबद्धसिंहवत् ।। 4/42/34
— योगवशिष्ठ
जीव जो चाहता है, सो अपने आप ही उपलब्ध कर लेता है। प्रत्येक जीव में सृजन की चित्शक्ति विद्यमान है। कभी तप के रूप में, कभी देवता के रूप में स्वयं आत्मा ही अपनी इच्छाएँ आप पूरी करता रहता है। यहाँ कोई दूसरा हमारे भाग्य का निर्माता नहीं है। कोई वस्तु ऐसी नहीं, जो सत्कर्म और शुद्ध पुरुषार्थ से प्राप्त न हो सके।
सर्वशक्तिमयो ह्यात्मा यद्यथा भावयत्यलम् ।
तत्तथा पश्यति तदा स्वसङ्कल्पविजृम्भितम् ।।
— योगवशिष्ठ (6-1/33/41)
यह आत्मा समस्त शक्तियों से संपन्न है। यह अपनी संकल्पशक्ति से अपनी आवश्यकताएँ आप पूरी कर लेती है।
अहं वृक्षस्य रेरिवा। कीर्तिः पृष्ठं गिरेरिव। ऊर्ध्वपवित्रो वाजिनीव स्वमृतमस्मि। द्रविण (ग्वंग) सवर्चसम् । सुमेधा अमृतोक्षितः । इति त्रिशङ्कोर्वेदानुवचनम् ॥
— (तै० उप० 1/10)
“मैं इस संसार अथवा जीवन वृक्ष को हिलाने-चलाने वाला हूँ। मेरी कीर्ति पर्वत के समान ऊँची है। मैं वह सूर्य हूँ, जिससे ज्ञान का पवित्र प्रकाश उदय हुआ है। मैं वह हूँ, जिसे तात्त्विक अमृत कहते हैं। मैं दीप्तिवान संपदा हूँ। मैं दिव्य प्रज्ञा हूँ। मैं कभी नष्ट न होने वाला अमृत हूँ।” तत्त्ववेत्ता त्रिशंकु ने वेदशिक्षा का सार यही बताया।
चिदानन्दोऽस्म्यहं चेताश्चिद्घनश्चिन्मयोऽस्म्यहम् । ज्योतिर्मयोऽस्म्यहं ज्यायान् ज्योतिषां ज्योतिरस्म्य हम् ॥95
— ब्रह्मोपनिषद् 95
मैं चिदानंद हूँ। चेतन हूँ, चिद्घन और चिन्मय हूँ। ज्योतिर्मय हूँ। ज्योतियों में श्रेष्ठ ज्योति हूँ।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
— गीता
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र और कोई वस्तु नहीं है।
ज्ञानतः सुलभः मुक्तिभुक्तिर्यज्ञादि पुण्यतः।
ज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है और यज्ञादि पुण्यकर्मों से सांसारिक सुख प्राप्त होते हैं।
न विना ज्ञानविज्ञाने मोक्षस्याधिगमो भवेत्।
बिना ज्ञान और विज्ञान के मोक्ष प्राप्त नहीं होती।