Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रत्यावर्तन का साधना पक्ष
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गायत्री महामंत्र का दार्शनिक और साधनात्मक पक्ष कितना प्रखर है; यह कहने की आवश्यकता नहीं। इन चौबीस अक्षरों में जिन तथ्यों और प्रेरणाओं का समावेश है, उस आधार पर इस महामंत्र को संसार का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्वदर्शन, सबसे छोटा, किंतु सबसे महान सार्वभौम धर्मशास्त्र कहा जा सकता है। इन अक्षरों पर जितना विचार किया जाए, उतने ही बहुमूल्य मणि-मुक्तक हस्तगत होते हैं। इसमें भरी शिक्षाएँ देश, काल, धर्म, जाति से ऊपर हैं। इसमें विश्वमानव के लिए आत्मिक एवं भौतिक रीति-नीति अपनाने का उच्चस्तरीय ऐसा मार्गदर्शन किया गया है, जिसे अपनाने पर अभाव और अशांति का कहीं कोई कारण शेष रह ही नहीं सकता।
गायत्री मंत्र का दूसरा पक्ष शक्ति-साधना है। भौतिक शक्तियाँ विद्युत, भाप, अणुऊर्जा आदि के यंत्र-उपकरणों द्वारा गुप्त की जाती है और उससे विविध-विधि, सुविधा-साधन उपलब्ध किए जाते हैं। आत्मिक शक्तियों के समस्त स्रोत मानवी काय-कलेवर में विद्यमान हैं। चेतन की क्षमता जड़ की तुलना में असंख्यगुनी अधिक है। चेतन्य शक्तियों ने जड़ जगत को बनाया है और वे ही उसका नियंत्रण करती हैं। रेलगाड़ी कितने ही मूल्य की क्यों न हो, वह चेतन ड्राइवर के बिना निरर्थक ही बनी रहेगी। विश्व में संव्याप्त चेतन-सत्ता के औजार-उपकरणों को ही जड़ जगत में काम करने वाले शक्ति-प्रवाहों में गिना जा सकता है। अनंत अंतरिक्ष में बिखरी हुई चेतन ब्रह्मसत्ता से संपर्क कैसे बनाया जाए और उन विभूतियों से व्यक्ति को, विश्व को, कैसे लाभान्वित किया जाए, इसके समस्त रहस्य और उपकरण मनुष्य के काय-कलेवर में भरे पड़े हैं। इन महान संबंध-सूत्रों को उपयोग करने के विधि-विधान को ही साधना-विज्ञान कहते हैं।
चेतनात्मक ब्रह्मसत्ता से संपर्क स्थापित करने और उससे उपयोगी विभूतियाँ उपलब्ध करने की विद्या ही साधनात्मक योग-प्रक्रिया है। इसी को ब्रह्मविद्या कहते हैं। दिव्य चेतना के अभीष्ट अवतरण का विज्ञान ही साधना उपक्रम है। इसके लिए यों अन्य विधि-विधान भी प्रचलित हैं; पर सर्वोत्तम सर्वसुलभ और समुचित फलप्रद साधना गायत्री महामंत्र के शक्ति पक्ष की ही है।
गायत्री उपासना के दो पक्ष हैं— सामान्य और असामान्य। सामान्य उपासनाओं में सर्वसाधारण के लिए सुगम पड़ने वाले दैनिक नित्यकर्म में प्रयुक्त होने वाले तथा नवरात्रि आदि पर्वों पर किए जाने वाले छोटे-बड़े अनुष्ठान आते हैं। उच्चस्तरीय असामान्य साधनाओं में वे उपक्रम आते हैं, जिन्हें गायत्री महाविज्ञान के तृतीय खंड में गायत्री योग-साधना संदर्भ में बताया— समझाया गया है।
उच्चस्तरीय गायत्री साधना को पंचकोशी साधना कहते हैं। गायत्री माता की कुछ मूर्तियाँ तथा तस्वीरें ऐसी भी मिलती हैं, जिनमें उनके पाँच मुख दिखाए गए हैं। अलंकारिक रूप में उन्हें पंचकोश कह सकते हैं। मानवी सत्ता का एक ही काय-कलेवर इंद्रियगम्य है। इसे अन्नमयकोश कहते हैं। इसके भीतर क्रमशः अधिक सूक्ष्म होते चले गए कलेवरों की परतें भी हैं। केले के तने में, प्याज की गाँठ में एक के भीतर एक परत होते हैं। मानवी सत्ता में भी ऐसी ही परतें हैं, इनमें एक अन्नमयकोश देखा जा सकता है। शेष चार प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश, आनंदमयकोश सूक्ष्म— अद्रश्य हैं। शरीर के अंतर्गत बाहुबल और मनोबल आते हैं। श्रम, पुरुषार्थ एवं बुद्धिबल से हम कितना कुछ उपार्जन-उपयोग करते हैं, यह स्पष्ट है। संसार की साधना-संपदाएँ इसी एक कोश की उपलब्धियाँ हैं। शेष चार सूक्ष्मकोश, द्रश्यमान स्थूलकोश की तुलना में असंख्य गुने अधिक बलिष्ठ हैं। उनमें जो अदृश्य क्षमताएँ भरी पड़ी हैं, उनका लेखा-जोखा ले सकना सामान्य बुद्धि के लिए प्राय: असंभव ही है। योगियों, सिद्धपुरुषों, ब्रह्मज्ञानियों, तत्त्ववेत्ताओं, महामानवों की अलौकिक क्षमताओं का यदा-कदा विवरण सुना-देखा जाता है, जो नहीं सुना-देखा गया, वह और भी अधिक विस्तृत एवं रहस्यपूर्ण है। इस समस्त अलौकिकता को अदृश्य कोशों का जागरण- प्रतिफल ही कह सकते हैं। इन दिव्य आवरणों में ज्ञान और विज्ञान के अनिर्वचनीय शक्तिस्त्रोत दबे पड़े हैं, उनका प्रयोग-उपयोग जाना जा सके तो मनुष्य निश्चित रूप से सामान्य भूमिका का अतिक्रमण करके असामान्य बन सकता है।
पंचकोशों का अनावरण— जागरण, गायत्री महामंत्र की उच्चस्तरीय पंचकोश साधना से संबधित है। इसके लिए सरल विधि-विधान प्राण-प्रत्यावर्तन सत्र की साधना-पद्धति में समन्वित किया गया है। चार दिन के सत्र में इसकी भूमिका इस प्रकार अभ्यस्त करा दी जाती है कि उसे भविष्य में नियमित साधना का अंग बना लिया जाए तो क्रमशः आत्मोत्कर्ष की आत्मबलवर्द्धन की दिशा में क्रमिक, किंतु तीव्र प्रगति की जा सकती है। विशिष्ट प्रगति करने वाले इसी मार्ग पर चलते हुए कुंडलिनी जागरण जैसी महान उपलब्धियाँ भी प्राप्त कर सकते हैं।
मानवी काय-कलेवर में षट्चक्रों का अस्तित्व है। इन्हें सिद्धियों और विभूतियों के रक्तभंडार कहा जाता है। देव सत्ताओं के द्वारा महत्त्वपूर्ण आदान-प्रदान इन्हीं केंद्रों द्वारा होता है। कुंडलिनी जागरण-प्रक्रिया— षट्चक्रबेधन के साथ जुड़ी हुई है। इस चक्रबेधन प्रक्रिया को पंचकोश अनावरण का ही दूसरा विधान कह सकते हैं। षट्चक्रों के नाम— (1) आज्ञाचक्र (2) विशुद्धाख्यचक्र (3) अनाहतचक्र (4) मणिपुरचक्र (5) स्वाधिष्ठानचक्र (6) मूलाधारचक्र हैं। इनके अतिरिक्त एक मूर्धन्यचक्र है, ब्रह्मरंध्र स्थित सहस्त्रारचक्र। इसे जोड़ें तो वे 6 न रहकर 7 हो जाते हैं। वस्तुतः कुंडलिनी का अग्निकुंड मूलाधारचक्र भी सहस्त्रारकमल के स्तर का ही है। इन दोनों को काया का उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव भी कह सकते हैं। सर्वविदित है कि पृथ्वी पर जो अंतग्रही ब्रह्मांडीय आदान-प्रदान होता है, उसके यह दोनों ध्रुव ही आधार हैं। बिजली के प्लग में दो पिनें होती हैं, इन्हें स्विच के छिद्रों में ठूस देने पर करेंट चालू हो जाता है। ठीक इसी प्रकार पृथ्वी और ब्रह्मांड के बीच भौतिक शक्तियों का महत्त्वपूर्ण आदान-प्रदान इन ध्रुवकेंद्रों द्रारा ही होता है। सूक्ष्मशरीर में अवस्थित यह मूलाधारचक्र दक्षिण ध्रुव की और सहस्त्रारचक्र उत्तरी ध्रुव की भूमिका संपन्न करता है। महासर्पिणी और महासर्प का निवास इन्ही दोनों में हैं। उनका मिलन-संयोग मनुष्य को अतिमानव बना देता है।
यहाँ कुंडलिनी जागरण तथा षट्चक्रबेधन प्रक्रिया का वर्णन अप्रासंगिक होगा। कहा इतना भर जा रहा है कि यदि मूलाधार के तथा सहस्त्रार के दो ध्रुवों को अतिरिक्त स्थिति में मान लिया जाए तो शेष पाँच ही रह जाते हैं। इन पाँचों चक्रों को, पाँच कोशों का प्रतीक कह सकते है। दोनों को परस्पर अविच्छिन्न रूप से संबद्ध कहा जा सकता है। (1) अन्नमयकोश— आज्ञाचक्र (2) प्राणमयकोश— विशुद्धाख्यचक्र (3) मनोमयकोश— अनाहतचक्र (4) विज्ञानमयकोश— मणिपुरचक्र (5) आनंदमयकोश— स्वाधिष्ठानचक्र। इस प्रकार कोश और चक्र परस्पर संबद्ध ही समझे जा सकते हैं।
प्रत्यावर्तन सत्र में जो साधनाक्रम निर्धारित है, उसे पंचकोश जागरण भूमिका कह सकते हैं और उसी दिशा में चलते रहने से षट्चक्र-प्रस्फुरण, कुंडलिनी जागरण, त्रिविध ग्रंथीवेधन, जीवनमुक्ति, भावसमाधि आदि अनेकानेक योग सिद्धियों की उपलब्धि का अनुदान मिलना संभव मान सकते हैं।
प्रत्यावर्तन साधना को प्रकारांतर से पंचकोशों के जागरण की उच्चस्तरीय गायत्री साधना कह सकते हैं। इस प्रयोजन के लिए प्रयुक्त होने वाले समस्त साधन-सूत्र इसमें क्रमबद्ध रूप से भली प्रकार जोड़ दिए गए हैं। उच्चस्तरीय शिक्षा के प्रथम अध्याय के रूप में इसे अपेक्षायुक्त सुगम रखा गया है। क्रमिक उन्नति के साथ अगले दिनों और भी अधिक कठिन, साथ ही अधिक समर्थ साधनाओं का मार्गदर्शन भी अधिकारी साधक यथासमय प्राप्त कर सकते हैं।
अन्नमयकोश के परिष्कार के लिए विशेष आहार है, जो इस साधना सत्र में सम्मिलित होने वाले साधकों को मिलता है। अन्न शुद्धियों के लिए जो कुछ संभव है, वह सब कुछ किया जाता है। गंगाजल से ही भोजन बनता है और वही पीया जाता है। बनाने तथा परोसने में जिन व्यक्तियों का संपर्क रहता है, उससे वह सहज ही संस्कारवान हो जाता है। पंचगव्य का सेवन प्रायश्चित की दृष्टि से आवश्यक ही माना गया है। इस स्तर की जो भी व्यवस्थाएँ बन पड़ी हैं, इस प्रकार बनाई गईं हैं, जिनसे मन को सहज ही उच्चस्तर की दिशा में घसीटने वाले हविष्यान्न का लाभ साधकों को उपलब्ध होता रहे और उनके अन्नमयकोश में समाधानकारक परिर्वतन प्रस्तुत हो सके।
प्राणमयकोश की जागृति के लिए प्राणयोग का सरल; किंतु प्रभावी आधार सोऽहम् महामंत्र का अजपा जाप रखा जाता है। प्राण को महाप्राण में संयुक्त करने की यह उपयुक्त प्रक्रिया है। अनंत अंतरिक्ष में जिस श्वास-प्रश्वास क्रिया द्वारा चेतन्य विद्युत महाप्राण को खींचा जाता है, उसके लिए यों दस प्राणायाम अन्य भी हैं, पर उनमें सर्वश्रेष्ठ सोऽहम् के प्राणयोग को ही माना गया है। यह बिना जोखिम और बिना झंझट का भी है। पाँचो प्राण, (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान) इसी प्रक्रिया के अंतर्गत सजग-समर्थ बनाए जा सकते हैं और पाँच उपप्राण— नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय भी इस साधना से परिष्कृत— समुन्नत होते हैं। आज की स्थिति में सर्वसाधारण के शारीरिक-मानसिक स्तर को देखते हुए प्राणयोग का सर्वसुलभ माध्यम सोऽहम् का अजपा जाप ही निर्धारित किया जा सकता है।
मनोमयकोश कि जागृति के लिए मनोनिग्रह के साधनाक्रम अपनाने पड़ते हैं। इसके लिए बिंदुयोग, त्राटक, प्रकाश-ज्योति का आज्ञाचक्र में अवतरण सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। मन का निवास मस्तिष्क में है और मस्तिष्क का नियंत्रण आज्ञाचक्र से होता है। शिव और दुर्गा के चित्रों में जो तीसरा नेत्र चित्रित है, वह इस महाकेंद्र में अवस्थित शक्तिसत्ता का परिचय देता है। भगवन शिव ने उपद्रवकारी मनजिस, मनोज, कामदेव को इसी दिव्य नेत्र का अनावरण करके भस्म किया था। मन कि उछल-कूद, कुमार्गगामिता को निरस्त, नियंत्रित करने के लिए आज्ञाचक्र को ज्योतिर्मय बनाना ऐसा साधनाचक्र है, जिससे मनोनिग्रह कि समस्या इस स्तर के अन्य सभी साधनों कि अपेक्षा अधिक अच्छी तरह हल हो जाती है।
बिंदुयोग की साधना इसी प्रयोजन के लिए है और साधक प्रत्यक्ष अनुभव करता है कि उसका मनःक्षेत्र किसी ऐसे दिव्य प्रकाश से भर गया, जिससे मनोगत कुत्साएँ एवं उच्छृंखलताओं को हतप्रभ ही होना पड़ेगा। मनोजय कि दिशा में बिंदुयोग से— त्राटक द्वारा ज्योति अवतरण की ध्यान-धारणा से कितनी सहायता मिलती है, इसे अनुभव के आधार पर सहज ही जाना जा सकता है।
विज्ञानमयकोश की जागृति के लिए मध्यान्होत्तर दो साधनाएँ हैं— (1) आत्मबोध और (2) तत्त्वबोध। जीवन तथ्य की गरिमा, गंभीरता तथा यथार्थता को समझना, अनुभव करना ही विज्ञान है। दर्पण के माध्यम से अपने गर्हित और एक महत्तम स्तर का विचार- विष्लेषण किया जाता है और आत्मसत्ता को उच्चस्तरीय स्थिति तक पहुँचाने के लिए उभारा-उगाया जाता है। आत्मदेव को इष्टदेव में परिणत करने की आत्मबोध-साधना ब्रह्मविद्या के उस महान प्रयोजन को पूरा करती है, जिसमें भूमा, ऋतंभरा एवं आत्मजागृति के आधार पर भवबंधन कटने और जीवनलक्ष्य प्राप्त होने की प्रेरणा दी गई है। तत्त्वज्ञान में शरीर और मन के प्रथक्करण का धारण है। वैराग्य, संन्यास, परमहंसगति, स्थितिप्रज्ञ अवस्था का उदय होता है। आत्मबोध और तत्त्वबोध की उभयपक्षीय चेतना का उद्भव जिस अंत:करण में होगा, उसे विज्ञानमयकोश का सफल साधक ठहराया जा सकेगा ।
प्रत्यावर्तन साधनाक्रम में अभ्यंतरमयकोश की जागृति के लिए दो साधनाऐं— (1) खेचरी मुद्रा— जिह्वा को तालु से सटाकर ब्रह्मरंध्र में टपकने वाले अमृत बिंदुओ का रसास्वादन। (2) नादयोग और नादानुसंधान— इसके माध्यम से मन मयूर को नृत्य करने का, वेणुनाद पर चलने वाले रास-उल्लास का अनुभव कराते हैं और अंतःकरण को आनंद-उल्लास भरी भूमिका का रसास्वादन होता है।
साधना के तीन स्तर हैं— आरंभिक, माध्यमिक, उच्चस्तरीय। इन्हें प्राइमरी स्कूल, हाईस्कूल और कॉलेज कह सकते हैं। प्राइमरी स्कूल की त्रैत साधना है, जिनमें पंचतत्त्वों से बना प्रतिमास्वरूप भगवान, पूजारत पंचतत्त्वों से बना शरीर। पंचतत्त्वों की पूजा-सामाग्री, इस प्रकार यह पार्थिव पूजा प्रारंभिक साधना कही जाती है। देवालयों में, कर्मकांड उपचारों में यही प्रक्रिया काम आती है। कथा, कीर्तन, परिक्रमा, यात्रा, स्नान, तर्पण, प्रभृति विविध-विधि क्रियाकलाप इसी स्तर के हैं। यह बालकक्षा है।
द्वैत में ध्यान की प्रधानता है। भक्त और भगवान का परस्पर भावनाओं का आदान-प्रदान, सान्निध्य, सामीप्य, सालोक्य, सारूप्य अनुभव इसी भूमिका से किया जाता है। इसे हाईस्कूल स्तर की द्वैत साधना कह सकते हैं।
अंतिम उच्चस्तरीय साधना अद्वेत की है। इसे कॉलेज कक्षा कह सकते हैं। इससे ब्रह्म और जीव का परस्पर समर्पण होता है। जीव अपनी सत्ता ब्रह्म में होमता है और ब्रह्म अपनी विभूतियाँ जीव पर उड़ेलता है। इस आदान-प्रदान में दोनों की ही तृप्ति होती है, इसे आत्मा और परमात्मा का विवाह-बंधन— ब्रह्म-संबंध कह सकते हैं। प्रत्यावर्तन सत्र की प्राय: सभी साधनाऐं इसी समर्पणयोग की पृष्ठभूमि विनिर्मित करती हैं, इसलिए उसे उच्चतम स्तर की वेदांतोक्त अद्वैत साधना कह सकते हैं। जिन्हें इन सत्रों में बुलाया गया है, उनकी पूर्वजन्मों की संचित तप संपदा इसी स्तर की समझी गई है और आशा की गई है कि पूर्वजन्मों की उपलब्धियों से आगे वे सामान्य साधनाक्रम का आश्रय लेकर द्रुतगति से आगे बढ़ सकेंगे और पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर सकेंगे।
गायत्री मंत्र का दूसरा पक्ष शक्ति-साधना है। भौतिक शक्तियाँ विद्युत, भाप, अणुऊर्जा आदि के यंत्र-उपकरणों द्वारा गुप्त की जाती है और उससे विविध-विधि, सुविधा-साधन उपलब्ध किए जाते हैं। आत्मिक शक्तियों के समस्त स्रोत मानवी काय-कलेवर में विद्यमान हैं। चेतन की क्षमता जड़ की तुलना में असंख्यगुनी अधिक है। चेतन्य शक्तियों ने जड़ जगत को बनाया है और वे ही उसका नियंत्रण करती हैं। रेलगाड़ी कितने ही मूल्य की क्यों न हो, वह चेतन ड्राइवर के बिना निरर्थक ही बनी रहेगी। विश्व में संव्याप्त चेतन-सत्ता के औजार-उपकरणों को ही जड़ जगत में काम करने वाले शक्ति-प्रवाहों में गिना जा सकता है। अनंत अंतरिक्ष में बिखरी हुई चेतन ब्रह्मसत्ता से संपर्क कैसे बनाया जाए और उन विभूतियों से व्यक्ति को, विश्व को, कैसे लाभान्वित किया जाए, इसके समस्त रहस्य और उपकरण मनुष्य के काय-कलेवर में भरे पड़े हैं। इन महान संबंध-सूत्रों को उपयोग करने के विधि-विधान को ही साधना-विज्ञान कहते हैं।
चेतनात्मक ब्रह्मसत्ता से संपर्क स्थापित करने और उससे उपयोगी विभूतियाँ उपलब्ध करने की विद्या ही साधनात्मक योग-प्रक्रिया है। इसी को ब्रह्मविद्या कहते हैं। दिव्य चेतना के अभीष्ट अवतरण का विज्ञान ही साधना उपक्रम है। इसके लिए यों अन्य विधि-विधान भी प्रचलित हैं; पर सर्वोत्तम सर्वसुलभ और समुचित फलप्रद साधना गायत्री महामंत्र के शक्ति पक्ष की ही है।
गायत्री उपासना के दो पक्ष हैं— सामान्य और असामान्य। सामान्य उपासनाओं में सर्वसाधारण के लिए सुगम पड़ने वाले दैनिक नित्यकर्म में प्रयुक्त होने वाले तथा नवरात्रि आदि पर्वों पर किए जाने वाले छोटे-बड़े अनुष्ठान आते हैं। उच्चस्तरीय असामान्य साधनाओं में वे उपक्रम आते हैं, जिन्हें गायत्री महाविज्ञान के तृतीय खंड में गायत्री योग-साधना संदर्भ में बताया— समझाया गया है।
उच्चस्तरीय गायत्री साधना को पंचकोशी साधना कहते हैं। गायत्री माता की कुछ मूर्तियाँ तथा तस्वीरें ऐसी भी मिलती हैं, जिनमें उनके पाँच मुख दिखाए गए हैं। अलंकारिक रूप में उन्हें पंचकोश कह सकते हैं। मानवी सत्ता का एक ही काय-कलेवर इंद्रियगम्य है। इसे अन्नमयकोश कहते हैं। इसके भीतर क्रमशः अधिक सूक्ष्म होते चले गए कलेवरों की परतें भी हैं। केले के तने में, प्याज की गाँठ में एक के भीतर एक परत होते हैं। मानवी सत्ता में भी ऐसी ही परतें हैं, इनमें एक अन्नमयकोश देखा जा सकता है। शेष चार प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश, आनंदमयकोश सूक्ष्म— अद्रश्य हैं। शरीर के अंतर्गत बाहुबल और मनोबल आते हैं। श्रम, पुरुषार्थ एवं बुद्धिबल से हम कितना कुछ उपार्जन-उपयोग करते हैं, यह स्पष्ट है। संसार की साधना-संपदाएँ इसी एक कोश की उपलब्धियाँ हैं। शेष चार सूक्ष्मकोश, द्रश्यमान स्थूलकोश की तुलना में असंख्य गुने अधिक बलिष्ठ हैं। उनमें जो अदृश्य क्षमताएँ भरी पड़ी हैं, उनका लेखा-जोखा ले सकना सामान्य बुद्धि के लिए प्राय: असंभव ही है। योगियों, सिद्धपुरुषों, ब्रह्मज्ञानियों, तत्त्ववेत्ताओं, महामानवों की अलौकिक क्षमताओं का यदा-कदा विवरण सुना-देखा जाता है, जो नहीं सुना-देखा गया, वह और भी अधिक विस्तृत एवं रहस्यपूर्ण है। इस समस्त अलौकिकता को अदृश्य कोशों का जागरण- प्रतिफल ही कह सकते हैं। इन दिव्य आवरणों में ज्ञान और विज्ञान के अनिर्वचनीय शक्तिस्त्रोत दबे पड़े हैं, उनका प्रयोग-उपयोग जाना जा सके तो मनुष्य निश्चित रूप से सामान्य भूमिका का अतिक्रमण करके असामान्य बन सकता है।
पंचकोशों का अनावरण— जागरण, गायत्री महामंत्र की उच्चस्तरीय पंचकोश साधना से संबधित है। इसके लिए सरल विधि-विधान प्राण-प्रत्यावर्तन सत्र की साधना-पद्धति में समन्वित किया गया है। चार दिन के सत्र में इसकी भूमिका इस प्रकार अभ्यस्त करा दी जाती है कि उसे भविष्य में नियमित साधना का अंग बना लिया जाए तो क्रमशः आत्मोत्कर्ष की आत्मबलवर्द्धन की दिशा में क्रमिक, किंतु तीव्र प्रगति की जा सकती है। विशिष्ट प्रगति करने वाले इसी मार्ग पर चलते हुए कुंडलिनी जागरण जैसी महान उपलब्धियाँ भी प्राप्त कर सकते हैं।
मानवी काय-कलेवर में षट्चक्रों का अस्तित्व है। इन्हें सिद्धियों और विभूतियों के रक्तभंडार कहा जाता है। देव सत्ताओं के द्वारा महत्त्वपूर्ण आदान-प्रदान इन्हीं केंद्रों द्वारा होता है। कुंडलिनी जागरण-प्रक्रिया— षट्चक्रबेधन के साथ जुड़ी हुई है। इस चक्रबेधन प्रक्रिया को पंचकोश अनावरण का ही दूसरा विधान कह सकते हैं। षट्चक्रों के नाम— (1) आज्ञाचक्र (2) विशुद्धाख्यचक्र (3) अनाहतचक्र (4) मणिपुरचक्र (5) स्वाधिष्ठानचक्र (6) मूलाधारचक्र हैं। इनके अतिरिक्त एक मूर्धन्यचक्र है, ब्रह्मरंध्र स्थित सहस्त्रारचक्र। इसे जोड़ें तो वे 6 न रहकर 7 हो जाते हैं। वस्तुतः कुंडलिनी का अग्निकुंड मूलाधारचक्र भी सहस्त्रारकमल के स्तर का ही है। इन दोनों को काया का उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव भी कह सकते हैं। सर्वविदित है कि पृथ्वी पर जो अंतग्रही ब्रह्मांडीय आदान-प्रदान होता है, उसके यह दोनों ध्रुव ही आधार हैं। बिजली के प्लग में दो पिनें होती हैं, इन्हें स्विच के छिद्रों में ठूस देने पर करेंट चालू हो जाता है। ठीक इसी प्रकार पृथ्वी और ब्रह्मांड के बीच भौतिक शक्तियों का महत्त्वपूर्ण आदान-प्रदान इन ध्रुवकेंद्रों द्रारा ही होता है। सूक्ष्मशरीर में अवस्थित यह मूलाधारचक्र दक्षिण ध्रुव की और सहस्त्रारचक्र उत्तरी ध्रुव की भूमिका संपन्न करता है। महासर्पिणी और महासर्प का निवास इन्ही दोनों में हैं। उनका मिलन-संयोग मनुष्य को अतिमानव बना देता है।
यहाँ कुंडलिनी जागरण तथा षट्चक्रबेधन प्रक्रिया का वर्णन अप्रासंगिक होगा। कहा इतना भर जा रहा है कि यदि मूलाधार के तथा सहस्त्रार के दो ध्रुवों को अतिरिक्त स्थिति में मान लिया जाए तो शेष पाँच ही रह जाते हैं। इन पाँचों चक्रों को, पाँच कोशों का प्रतीक कह सकते है। दोनों को परस्पर अविच्छिन्न रूप से संबद्ध कहा जा सकता है। (1) अन्नमयकोश— आज्ञाचक्र (2) प्राणमयकोश— विशुद्धाख्यचक्र (3) मनोमयकोश— अनाहतचक्र (4) विज्ञानमयकोश— मणिपुरचक्र (5) आनंदमयकोश— स्वाधिष्ठानचक्र। इस प्रकार कोश और चक्र परस्पर संबद्ध ही समझे जा सकते हैं।
प्रत्यावर्तन सत्र में जो साधनाक्रम निर्धारित है, उसे पंचकोश जागरण भूमिका कह सकते हैं और उसी दिशा में चलते रहने से षट्चक्र-प्रस्फुरण, कुंडलिनी जागरण, त्रिविध ग्रंथीवेधन, जीवनमुक्ति, भावसमाधि आदि अनेकानेक योग सिद्धियों की उपलब्धि का अनुदान मिलना संभव मान सकते हैं।
प्रत्यावर्तन साधना को प्रकारांतर से पंचकोशों के जागरण की उच्चस्तरीय गायत्री साधना कह सकते हैं। इस प्रयोजन के लिए प्रयुक्त होने वाले समस्त साधन-सूत्र इसमें क्रमबद्ध रूप से भली प्रकार जोड़ दिए गए हैं। उच्चस्तरीय शिक्षा के प्रथम अध्याय के रूप में इसे अपेक्षायुक्त सुगम रखा गया है। क्रमिक उन्नति के साथ अगले दिनों और भी अधिक कठिन, साथ ही अधिक समर्थ साधनाओं का मार्गदर्शन भी अधिकारी साधक यथासमय प्राप्त कर सकते हैं।
अन्नमयकोश के परिष्कार के लिए विशेष आहार है, जो इस साधना सत्र में सम्मिलित होने वाले साधकों को मिलता है। अन्न शुद्धियों के लिए जो कुछ संभव है, वह सब कुछ किया जाता है। गंगाजल से ही भोजन बनता है और वही पीया जाता है। बनाने तथा परोसने में जिन व्यक्तियों का संपर्क रहता है, उससे वह सहज ही संस्कारवान हो जाता है। पंचगव्य का सेवन प्रायश्चित की दृष्टि से आवश्यक ही माना गया है। इस स्तर की जो भी व्यवस्थाएँ बन पड़ी हैं, इस प्रकार बनाई गईं हैं, जिनसे मन को सहज ही उच्चस्तर की दिशा में घसीटने वाले हविष्यान्न का लाभ साधकों को उपलब्ध होता रहे और उनके अन्नमयकोश में समाधानकारक परिर्वतन प्रस्तुत हो सके।
प्राणमयकोश की जागृति के लिए प्राणयोग का सरल; किंतु प्रभावी आधार सोऽहम् महामंत्र का अजपा जाप रखा जाता है। प्राण को महाप्राण में संयुक्त करने की यह उपयुक्त प्रक्रिया है। अनंत अंतरिक्ष में जिस श्वास-प्रश्वास क्रिया द्वारा चेतन्य विद्युत महाप्राण को खींचा जाता है, उसके लिए यों दस प्राणायाम अन्य भी हैं, पर उनमें सर्वश्रेष्ठ सोऽहम् के प्राणयोग को ही माना गया है। यह बिना जोखिम और बिना झंझट का भी है। पाँचो प्राण, (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान) इसी प्रक्रिया के अंतर्गत सजग-समर्थ बनाए जा सकते हैं और पाँच उपप्राण— नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय भी इस साधना से परिष्कृत— समुन्नत होते हैं। आज की स्थिति में सर्वसाधारण के शारीरिक-मानसिक स्तर को देखते हुए प्राणयोग का सर्वसुलभ माध्यम सोऽहम् का अजपा जाप ही निर्धारित किया जा सकता है।
मनोमयकोश कि जागृति के लिए मनोनिग्रह के साधनाक्रम अपनाने पड़ते हैं। इसके लिए बिंदुयोग, त्राटक, प्रकाश-ज्योति का आज्ञाचक्र में अवतरण सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। मन का निवास मस्तिष्क में है और मस्तिष्क का नियंत्रण आज्ञाचक्र से होता है। शिव और दुर्गा के चित्रों में जो तीसरा नेत्र चित्रित है, वह इस महाकेंद्र में अवस्थित शक्तिसत्ता का परिचय देता है। भगवन शिव ने उपद्रवकारी मनजिस, मनोज, कामदेव को इसी दिव्य नेत्र का अनावरण करके भस्म किया था। मन कि उछल-कूद, कुमार्गगामिता को निरस्त, नियंत्रित करने के लिए आज्ञाचक्र को ज्योतिर्मय बनाना ऐसा साधनाचक्र है, जिससे मनोनिग्रह कि समस्या इस स्तर के अन्य सभी साधनों कि अपेक्षा अधिक अच्छी तरह हल हो जाती है।
बिंदुयोग की साधना इसी प्रयोजन के लिए है और साधक प्रत्यक्ष अनुभव करता है कि उसका मनःक्षेत्र किसी ऐसे दिव्य प्रकाश से भर गया, जिससे मनोगत कुत्साएँ एवं उच्छृंखलताओं को हतप्रभ ही होना पड़ेगा। मनोजय कि दिशा में बिंदुयोग से— त्राटक द्वारा ज्योति अवतरण की ध्यान-धारणा से कितनी सहायता मिलती है, इसे अनुभव के आधार पर सहज ही जाना जा सकता है।
विज्ञानमयकोश की जागृति के लिए मध्यान्होत्तर दो साधनाएँ हैं— (1) आत्मबोध और (2) तत्त्वबोध। जीवन तथ्य की गरिमा, गंभीरता तथा यथार्थता को समझना, अनुभव करना ही विज्ञान है। दर्पण के माध्यम से अपने गर्हित और एक महत्तम स्तर का विचार- विष्लेषण किया जाता है और आत्मसत्ता को उच्चस्तरीय स्थिति तक पहुँचाने के लिए उभारा-उगाया जाता है। आत्मदेव को इष्टदेव में परिणत करने की आत्मबोध-साधना ब्रह्मविद्या के उस महान प्रयोजन को पूरा करती है, जिसमें भूमा, ऋतंभरा एवं आत्मजागृति के आधार पर भवबंधन कटने और जीवनलक्ष्य प्राप्त होने की प्रेरणा दी गई है। तत्त्वज्ञान में शरीर और मन के प्रथक्करण का धारण है। वैराग्य, संन्यास, परमहंसगति, स्थितिप्रज्ञ अवस्था का उदय होता है। आत्मबोध और तत्त्वबोध की उभयपक्षीय चेतना का उद्भव जिस अंत:करण में होगा, उसे विज्ञानमयकोश का सफल साधक ठहराया जा सकेगा ।
प्रत्यावर्तन साधनाक्रम में अभ्यंतरमयकोश की जागृति के लिए दो साधनाऐं— (1) खेचरी मुद्रा— जिह्वा को तालु से सटाकर ब्रह्मरंध्र में टपकने वाले अमृत बिंदुओ का रसास्वादन। (2) नादयोग और नादानुसंधान— इसके माध्यम से मन मयूर को नृत्य करने का, वेणुनाद पर चलने वाले रास-उल्लास का अनुभव कराते हैं और अंतःकरण को आनंद-उल्लास भरी भूमिका का रसास्वादन होता है।
साधना के तीन स्तर हैं— आरंभिक, माध्यमिक, उच्चस्तरीय। इन्हें प्राइमरी स्कूल, हाईस्कूल और कॉलेज कह सकते हैं। प्राइमरी स्कूल की त्रैत साधना है, जिनमें पंचतत्त्वों से बना प्रतिमास्वरूप भगवान, पूजारत पंचतत्त्वों से बना शरीर। पंचतत्त्वों की पूजा-सामाग्री, इस प्रकार यह पार्थिव पूजा प्रारंभिक साधना कही जाती है। देवालयों में, कर्मकांड उपचारों में यही प्रक्रिया काम आती है। कथा, कीर्तन, परिक्रमा, यात्रा, स्नान, तर्पण, प्रभृति विविध-विधि क्रियाकलाप इसी स्तर के हैं। यह बालकक्षा है।
द्वैत में ध्यान की प्रधानता है। भक्त और भगवान का परस्पर भावनाओं का आदान-प्रदान, सान्निध्य, सामीप्य, सालोक्य, सारूप्य अनुभव इसी भूमिका से किया जाता है। इसे हाईस्कूल स्तर की द्वैत साधना कह सकते हैं।
अंतिम उच्चस्तरीय साधना अद्वेत की है। इसे कॉलेज कक्षा कह सकते हैं। इससे ब्रह्म और जीव का परस्पर समर्पण होता है। जीव अपनी सत्ता ब्रह्म में होमता है और ब्रह्म अपनी विभूतियाँ जीव पर उड़ेलता है। इस आदान-प्रदान में दोनों की ही तृप्ति होती है, इसे आत्मा और परमात्मा का विवाह-बंधन— ब्रह्म-संबंध कह सकते हैं। प्रत्यावर्तन सत्र की प्राय: सभी साधनाऐं इसी समर्पणयोग की पृष्ठभूमि विनिर्मित करती हैं, इसलिए उसे उच्चतम स्तर की वेदांतोक्त अद्वैत साधना कह सकते हैं। जिन्हें इन सत्रों में बुलाया गया है, उनकी पूर्वजन्मों की संचित तप संपदा इसी स्तर की समझी गई है और आशा की गई है कि पूर्वजन्मों की उपलब्धियों से आगे वे सामान्य साधनाक्रम का आश्रय लेकर द्रुतगति से आगे बढ़ सकेंगे और पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर सकेंगे।