Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनो से अपनी बात
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आत्मकल्याण के लिए, आत्मिक प्रगति के लिए, जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिए, ईश्वरदर्शन अथवा परमात्मा की प्राप्ति के लिए यही एकमात्र मार्ग है कि उपासनारूपी चिकित्सा और साधनारूपी परिचर्या को जीवनक्रम का अविछिन्न अंग बनाया जाए। इसके लिए आरंभिक आयु में ब्रह्मचर्य, विद्याध्ययन, यौवन में उपार्जन, गृहस्थपालन करते हुए भी सरलतापूर्वक ऐसी रीति-नीति अपनाई जा सकती है, जिसके आधार पर लोक और परलोक की भौतिक और आत्मिक क्षेत्र की उभयपक्षीय प्रगति का संतुलित आधार बन सके। सामान्य जीवनक्रम में ऐसे संतुलन की स्थापना संभव तो है ही, सहज भी है।
उससे आगे एक जीवन का अत्यंत महत्त्वपूर्ण काल आता है। लगभग पचास वर्ष की ढलती आयु का अवसर, आमतौर से लोग इस समय तो गृहस्थ के उत्तरदायित्वों से निवृत्त होने की परिधि पर होते हैं, अथवा बड़े बच्चे इस योग्य हो जाते हैं कि अपने छोटे भाई-बहनों की सूव्यवस्था में पिता का उत्तरदायित्व निभा सकें। किसी ने यदि अपने बच्चे को सुसंस्कृत बनाया होगा, उन्हें पुरखों द्वारा उपार्जित हराम की कमाई पर गुलछर्रे उड़ाने का सब्जबाग न दिखाया होगा, तो वे अवश्य ही नीति और कर्त्तव्य का ध्यान रखेंगे। बेहिसाब लाड़-दुलार में ही तो बच्चों की आदतें बिगड़ती हैं और वे बड़े होने पर पाप के कोल्हू में पेलने का हर अवसर ढूँढ़ते हैं।
यदि ऐसी ही स्थिति पैदा कर ली हो तो बात दूसरी है, अन्यथा बड़े बच्चे अपने छोटे भाई-बहिनों की सेवा-सहायता करने में माँ-बाप के ऋण से उऋण होने का अवसर चूकते नहीं, वे उसे सुखद-सौभाग्य मानकर पूरी ईमानदारी और भावभरी शालीनता के साथ भली प्रकार निबाहते हैं।
कई बार स्वार्थी नवबधुएँ अपने पतियों पर यह दबाव डालती हैं कि वे अपने माँ-बाप या भाई-बहिनों की सहायता न करके उसी की विलासिता के साधन जुटाएँ। मोहांध युवकों की बात दूसरी है, समझदार लड़के इस प्रकार की संकीर्णता की जड़ आरंभ से ही काटते रहते हैं। दृढ़ शब्दों में वे इससे असहमति प्रकट कर देते हैं और नाराजी तक का खतरा उठाने को तैयार रहते हैं, तो स्वार्थी बहुएँ भी चुप हो जाती हैं। वे सिर पर तो तब चढ़ती हैं जब पति उनके नीचे कान कटाते रहते हैं और हिम्मत करके स्पष्ट बात कह देने में अपने को असमर्थ अनुभव करते हैं; पर आमतौर से ऐसे बेटे-बहू किन्हीं अभागों को ही मिलते हैं। भारत में अभी भी शालीनता मौजूद है और माँ-बाप का ऋण अपने छोटे भाई-बहनों की सेवा-सहायता के रूप में चुकाने की बात अभी भी मौजूद है। जब योरोप की तरह पूरी तरह माँ-बाप को तिलांजलि दी जाने लगेगी, वह दिन तो भारत में भी आ सकता है, पर लगता है, उसका विक्रांत कलियुग आने में अभी तो कुछ देर ही है।
जिन्हें मानव जीवन का महत्त्व विदित है और जिन्हें नर जन्म की सार्थकता संपन्न करने का ध्यान है, उन्हें यदि गृहस्थ बनाना पड़े तो इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं कि संतानोत्पादन तीस वर्ष तक की आयु पहुँचने तक बंद कर दें। बच्चे कम-से-कम उत्पन्न करें, ताकि पचास वर्ष की आयु पहुँचने तक बच्चों की जिम्मेदारियों से पूरी तरह छुटकारा पा लें और ढलती आयु को वानप्रस्थ की अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण साधना के लिए ठीक समय पर अपने को प्रस्तुत कर दें। दूरदर्शी व्यक्ति विवाह होते ही अपनी पलियों को स्वावलंबी बनाने के लिए कई प्रकार के रास्ते खोजते हैं। उन्हें अधिक प्रशिक्षित बनाकर अध्यापन आदि से कुछ आजीविका उपार्जित करने योग्य बना सके यदि गृहस्थ की कुछ जिम्मेदारियाँ बच भी जाए तो स्वावलंबी महिलाएँ उसका निर्वाह कर लेती हैं। जिनके पास खेती-बाड़ी, ब्याज-भाड़ा आदि की इतनी आमदनी है कि घर का खर्च चल सके, छोटे बच्चों का निर्वाह हो सके तो उनके लिए तो ईश्वरप्रदत्त स्वर्ण-सुयोग ही सामने है। परिवार के निर्वाह के योग्य जिनके पास साधन मौजूद हैं, फिर भी जिन्हें उपार्जन की धुन है, अधिक धनी बनने, अधिक संग्रह करने की ललक जिन्हें खाए जा रही है, वे तो ढलती आयु का भी कदाचित ही कुछ महत्त्वपूर्ण उपयोग कर सकें।
घंटे, आध-घंटे की पूजा-पत्री ही उनके मन बहलाने के लिए बहुत हो जाती है और वे इतने भर से ही जीवन के लक्ष्य की पूर्ति हो जाने की बात मान बैठते हैं, इन स्वल्प संतोषी लोगों की कल्पनाएँ जितनी सरल और सुखद होती हैं, उतनी ही निर्मूल और निरर्थक भी। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तो जीवनक्रम का सांगोपांग निर्धारण करना पड़ता है, पर पूरी जिंदगी ही एक क्रम व्यवस्था के अनुरूप जीना पड़ता है। इससे कम में आत्मकल्याण जैसी महान उपलब्धि की कोई सीधी पगडंडी ही नहीं। श्रेय पथ पर जीवन-साधना के राजमार्ग पर ही चलना पड़ता है। किसी पंथ, मंत्र, देवता या गुरु का सहारा लेकर बिना कठोर प्रयास के आत्मोत्कर्ष के लक्ष्य तक पहुँच सकना सर्वथा असंभव ही है। यह तथ्य जिनकी समझ में आ जाता है, वे ही कुछ ठोस प्रयास कर पाते हैं, तदनुसार उन्हीं के हाथ कुछ काम की चीज लग भी पाती हैं। शेष तो ऐसे ही कल्पना-जल्पना की, बेपर की उड़ानें उड़ते रहने में ही समय गँवाते हैं।
कहना न होगा कि आत्मिक साधना के लिए परम पुरुषार्थ की अवधि वही है, जो वानप्रस्थ के लिए निर्धारित है। यही ठीक वह समय है, जिसमें मनुष्य की मनःस्थिति वस्तुतः कुछ ठोस वस्तु प्राप्त कर सकने की होती है। जिन्हें भगवान अपनी ओर खीचते हैं, उनके लिए इस ढलती उम्र का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर सकने की मनःस्थिति और परिस्थिति बना देते हैं।
बचपन हँसी-खुशी की निश्चिंत और निर्द्वंद अवधि है। इसमें विद्या प्राप्तकर मस्तिष्क बल उपलब्ध करने, खेल-कूद, व्यायाम ब्रह्मचर्य से शरीर पुष्ट करने और अनुशासन, सौजन्य आदि सद्गुण सीखने का उपयुक्त अवसर है। युवावस्था, उत्पादन और व्यवस्था का समय है। रक्त का उभार कतिपय उमंगों के रूप में फुटता है, उसे मर्यादाओं में प्रवाहित करने की दृष्टि से यह समय इसी योग्य है कि मनुष्य द्वारा समृद्धि बढ़ाने और परिवार संस्था को समुन्नत बनाने में योगदान दिया जाए। व्यक्ति और समाज की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी 'परिवार' है। परिवार व्यवस्था के लिए जो साधन जुटाने पड़ते हैं, उनके लिए युवावस्था का सही सदुपयोग किया जाता है। इसके बाद वानप्रस्थ की अवधि आती है। इसे अमृत अवधि कहा गया है। महानता की फसल उगाने का, आत्मकल्याण का लक्ष्य पूरा करने का, मानव की सेवा-साधना में संलग्न होने का परमार्थ संपादन कर सकने का ठीक यही समय है। इसे गँवा देने के बाद एक प्रकार से कुछ हाथ रहता ही नहीं।
वर्णधर्म के अनुसार एक-एक चौथाई आयु, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के लिए लगाई जानी चाहिए। अब सौ वर्ष कौन जीता है। सत्तर पूरे कर सकना भी कठिन पड़ता है। ऐसी दशा में हर विभाग 17.5 वर्ष का होना चाहिए और ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ में 35 वर्ष ही पूरे करने चाहिए; किंतु वर्त्तमान लोभ-मोहग्रस्त स्थिति में ऐसा कठिन लगता है। सौ वर्ष की आयु में से आधी अर्थात 50 वर्ष तक की ग्रहस्य के लिए रखी जा सकती है। इसके बाद पचास से साठ-पेंसठ वर्ष तक का ही समय ऐसा रह जाता है, जबकि शरीर और मन से कुछ तप-साधना कराई जा सके। पेंसठ वर्ष के बाद तो आमतौर से इंद्रियाँ, हाथ-पैर और मस्तिष्क इतने शिथिल हो जाते हैं कि जरा-जीर्ण स्थिति में किसी प्रकार एक स्थान पर बैठकर, सहायक की सहायता से दिन ही काँटे जा सकते हैं। प्राचीनकाल में यह असमर्थ स्थिति ही सन्यास की होती थी। भागदौड़ की, सेवा-साधना तथा पंचकोशों के अनावरण की कष्टसाध्य तपश्चर्या के अयोग्य वयोवृद्ध शरीर छूट-पुट ध्यान-भजन या उपदेश परामर्श के योग्य ही रह जाता है। संन्यास उसी विश्रामकाल के लिए उपयुक्त माना गया है।
जिस प्रकार भौतिक उपार्जन के लिए, भौतिक प्रगति के लिए यौवनकाल की गृहस्थ अवधि ही सर्वोत्तमकाल है, उसी प्रकार आत्मिक प्रगति के लिए ढलती आयु का वानप्रस्थ समय दैवी उपहार की तरह है। पचास से लेकर साठ-पेंसठ वर्ष की आयु तक में इस दिशा में जो प्रयास किए जा सके, उन्हीं में जीवन को धन्य बनाने वाले तत्त्व रहेंगे। वासनाओं और तृष्णाओं की पूर्ति यौवन के उभार के दिनों पूरी हो चुकती है। यह अनुभव कर लिया जाता है कि इन विडंबनाओं में जो आकर्षण दीखता था, उनमें सार कितना है। इंद्रियाँ शिथिल होने लगती हैं, तृष्णाओं का दावानल बुझने को आता है, अनुभवों में परिपक्वता होती है, बुद्धि परिमार्जित हो चलती है, मृत्यु के दिन समीप दीखते हैं। स्वाध्याय- सत्संग, मनन-चिंतन और भजन में भी कुछ रस आने लगता है। बच्चों की जिम्मेदारियों से प्रायः छुटकारा मिल लेता है। सादगी का रहन-सहन अपनाने में कुछ विशेष कठिनाई नहीं होती। इन सभी अनुकूलताओं की दृष्टि से ढलती आयु ही अध्यात्म साधनाओं के उपयुक्त पड़ती है। यदि यह अवधि ऐसे ही निकल जाए तो पेंसठ-सत्तर की आयु तक पहुँचते-पहुँचते शरीर का कचूमर निकल जाता है, तब जरा-जीर्ण शरीर ही एक भार बन जाता है। उसी लाश का वजन ढोना कठिन पड़ता है, तब आत्मकल्याण का पुरुषार्थ कर सकने योग्य कुछ बचा ही नहीं रहता। इसके बाद तो मौत से ही कुछ आशा की जा सकती है कि वह नया शरीर देकर इस योग्य बनाए कि नई क्षमता के सहारे महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त करने योग्य, पुरुषार्थ कर सकना संभव हो सके।
प्रत्येक आत्मकल्याण प्रेमी श्रेय-साधक को समय रहते यह योजना बनानी चाहिए कि बह ढलती आयु में, कितनी जल्दी पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत होकर श्रेय-साधन में अपनी समस्त क्षमता को झोंक सके। पचपन वर्ष पर सरकारी नौकरी से निवृत्ति मिल जाती है। स्वेच्छया पेंशन तो इससे पहले भी संभव हो जाती है। बच्चों से स्वयं निवृत्ति मिल गई हो अथवा उनके उपयुक्त विकास की व्यवस्था घर पर मौजूद हो तो फिर साहसिक छलाँग यही लगाई जानी चाहिए कि इस अमृत अवधि का श्रेष्ठतम उपयोग जीवन-साधना के लिए समर्पित कर दिया जाए। यदि पूर्ण छुटकारे की स्थिति न हो, तो भी इतना तो करना ही चाहिए कि अपने समय तथा साधनों का एक बड़ा भाग इन प्रयोजनों में नियमित रूप से नियोजित किया जाए, जिनके लिए इस अमृत अवधि को नियत-निर्धारित किया गया है।
वानप्रस्थ का मतलब किसी जमाने में सघन अरण्यकों में रहना होता था। वहाँ उस समय की स्थिति के अनुरूप क्षमताएँ बढ़ाने वाली तपश्चर्या की जाती थी। अब स्थिति दूसरी है, अस्तु सनातन लक्ष्य की रक्षा करते हुए व्यवस्थाक्रम में थोड़ा हेर-फेर करना ही पड़ेगा। इन परिस्थितियों में यह उचित है कि घर-परिवार में पूरी तरह घुले रहने की अपेक्षा उससे कुछ दूरी बनाई जाए, भले ही देखभाल परामर्श का, आने-जाने का क्रम बना रहे; पर मनःस्थिति यह होनी चाहिए कि हम इस छोटे परिवार तक सीमित न रहकर विश्व-वसुधा की संपत्ति बन गए। अब अपने उत्तरदायित्व विश्वमानव की सुख-शांति के लिए अथक प्रयास करने की परिधि तक बढ़ गए हैं। अब अपना प्रधान कार्य आत्मोत्कर्ष है। इसके लिए उपासनात्मक तपश्चर्या और साधनात्मक सेवा-साधना में समय और शक्ति को पूरी तरह नियोजित करना है।
प्राचीनकाल में वानप्रस्थ में ब्रह्मचर्य अनिवार्य था, अब उसे शिथिल करके आवश्यक रखा जाना चाहिए। पचास वर्ष की आयु के बाद संतानोत्पादन तो शास्त्रीय दृष्टि से अवैध ही माना गया है। पूर्वकाल में भिक्षा पर अथवा कंद-मूल-फल आदि पर निर्वाह करते थे, अब वैसी परिस्थितियाँ नहीं रहीं। भिक्षा-अन्न में न तो सात्विकता है और न सम्मान। कंद-फल अब प्राकृतिक रूप से कहीं भी नहीं मिलते। कृषि की जाए तो बात दूसरी है, इसलिए निर्वाहि के लिए या तो अपने पूर्वसंचय में से लेना चाहिए अथवा श्रम उपार्जन करना चाहिए। सार्वजनिक सेवा के बदले निर्वाह लेना औचित्य की सीमा में ही आता है। यदि कमाऊ लड़के पितृ ऋण चुकाने की दृष्टि से कुछ भेजना चाहें तो उसमें भी औचित्य ही है। पेंशन आदि का प्रबंध हो तो और भी उत्तम है, ऐसी कोई व्यवस्था न हो तो उपयुक्त यही है कि समाज से जितने मूल्य का निर्वाह लिया जाए, उतने का श्रम करके ऐसी व्यवस्था की जाए, जिससे समाज का ऋण चुक सके। भार उलटा बढ़ने न लगे।
वेश की दृष्टि से पीला तौलिया या दुपट्टा कंधे पर रहे तो इससे प्राचीन वर्णाश्रम परंपरा का प्रतीक रक्षा के साथ-साथ स्वयं के लिए भी कर्त्तव्यबोध का माध्यम बना रहेगा और जनसाधारण को भी उस वृत्ति का परिचय मिलने के अनुरूप उपयुक्त सेवा ले सकने का अवसर मिलता रहेगा।
अधिक उपयुक्त यही है कि पूरी तरह पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्ति पाकर, पूरे समय के लिए वानप्रस्थ-साधना में लगा जाए, पर यदि परिस्थितियाँ वैसी छूट न दें तो भी इस अमृत अवधि का तकाजा यही स्वीकार करना चाहिए कि घर रहते हुए ही जितना अधिक समय इस साधना के लिए लगाया जा सकना संभव हो, उतना लगाया जाए। मन-मस्तिष्क पर परमार्थ उत्तरदायित्वों की संवेदना समुचित मात्रा में छाई रहनी चाहिए और चेष्टा यही रहनी चाहिए कि पूरा न सही, अधूरा प्रयास तो होता ही रहना चाहिए।
(1) वानप्रस्थ की अमृत अवधि परमार्थ जीवन में प्रखरता उत्पन्न करने का समय है। इसमें उसी स्तर के ज्ञान की बृद्धि करने के लिए शिक्षण एवं स्वाध्याय का माध्यम अपनाना चाहिए। (2) तपश्चर्या एवं योग-साधना द्वारा आत्मशक्ति का विकास करना चाहिए और (3) लोक-मंगल की सेवा-साधना द्वारा समाज का ऋण चुकाने, पुण्य संचय करने एवं ईश्वरीय स्नेह अनुदान पाने में संलग्न होना चाहिए। इन तीनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समय का विभाजन इस प्रकार होना चाहिए कि आधा समय स्वाध्याय, शिक्षण एवं तप-साधना में लगे और आधा समय सेवा-धर्म में लगता रहे। पूरा या अधूरा जितना भी समय वानप्रस्थ-व्यवस्था में लगना हो, उसका विभाजन इसी प्रकार किया जाना चाहिए।
किशोरावस्था में जो विद्याध्यन किया जाता है, वह भौतिक प्रगति एवं अर्थ-उपार्जन की दृष्टि से होता है। उस समय इसी की आवश्यकता रहती है, ताकि युवावस्था में ग्रहस्थ का उत्तरदायित्व निभा सकने की सामर्थ्य संचय हो सके। वानप्रस्थ में परमार्थ जीवन की आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूरा करने के योग्य ज्ञान-संपादन नए सिरे से करना पड़ता है। यह अधिकारी शिक्षकों के सान्निध्य में भी पाया जा सकता है और उपयुक्त स्वाध्याय से भी संभव है। अपना दुर्भाग्य यह है कि आज परमार्थ जीवन की कोई समग्र पाठ्य-विधि उपलब्ध नहीं। आमतौर से लोग ऐसे ही अगड़म-बगड़म बकवास, स्वाध्याय और सत्संग के नाम पर गले उतारते रहते हैं और उससे कुछ पाने के स्थान पर उलटा गँवाते रहते हैं।
यही बात उपासना के संदर्भ में भी लागू होती है। उपासना का उद्देश्य अंतःकरण पर चढ़े हुए कषाय-कल्मषों का निराकरणमात्र है। भगवान या किसी देवता को रिझाना नहीं। गुण, कर्म, स्वभाव में जिन विकृतियों का, दुर्भावनाओं एवं दुष्प्रवृत्तियों का समावेश हो गया है, उन्हीं का निराकरण करना — यही है साधना का उद्देश्य। ऐसी साधना-विधि तो कहीं कदाचित ही दीख पड़ती है। आमतौर से लोग भजन के लिए नामोच्चार की तोतारट लगाए रहते हैं। भावनाविहीन क्रियाकांड में उलझे रहते हैं। फलस्वरूप अंतःचेतना का विकास होने का प्रयोजन तनिक भी नहीं होता। उलटे आलस्य-प्रमाद जैसी नई विकृतियाँ सिर पर चढ़ बैठती हैं। आत्मिक प्रगति का लाभ होना तो दूर और उलटी अवनति दृष्टिगोचर होती है। दुर्बुद्धि से मुक्ति पाने के नाम पर कर्त्तव्यनिष्ठा को ही छोड़ दिया जाता है। अकर्मण्यता और अस्त-व्यस्तता स्पष्टतः निकृष्ट कोटि के पापों में ही गिनी जा सकती है। यदि योगसाधक को इसी दयनीय स्थिति में उलझना पड़े तो समझना चाहिए, लक्ष्य से उलटी दिशा में ही वह चल पड़ा है।
सेवा-साधना तो आज विरक्त वर्ग में कहीं दीख ही नहीं पड़ती, जबकि परमार्थ का आधार ही जनमानस को ऊँचा उठा सकने वाले प्रयत्नों में संलग्न होता है। प्राचीनकाल में भारत की समग्र प्रगति का मेरुदंड वानप्रस्थ आश्रम ही था। नैतिक, पारिवारिक और सामाजिक प्रगति एवं स्थिरता के लिए उसी वर्ग का बहुमूल्य योगदान मिलता था। परिपक्व बुद्धि, परिष्कृत दृष्टिकोण और निस्वार्थ सेवा का त्रिवर्ग जहाँ भी मिलेगा, वहीं वह शक्ति उत्पन्न होगी जो उच्चस्तरीय श्रद्धा को आकर्षित कर सके, अपने प्रभाव से जनमानस को झकझोर सके और लोक-प्रवृत्ति को महत्त्वपूर्ण दिशा दे सके। समाज का समग्र नेतृत्व वानप्रस्थवर्ग ही करता है। प्राचीन भारत की सर्वतोमुखी प्रगति का लेखा-जोखा लिया जाए तो प्रतीत होगा कि उस महान प्रगति की आधारशिला वानप्रस्थ आश्रम पर ही निर्भर रहती है। उज्वल चरित्र और सुविकसित चिंतन के कारण उनका व्यक्तित्व इस योग्य बनता था कि जनता का सफल और समर्थ मार्ग दर्शन किया जा सके। वाचालता के व्यवसायी तथाकथित नेता या धर्मोपदेशक वह प्रयोजन किसी भी प्रकार संपन्न नहीं कर सकते। लोकरंजन की उछल-कूद करने के अतिरिक्त थोथी वाचालता और कुछ कर भी तो नहीं सकती। प्रदर्शन के ओछे स्वाँगों में नहीं, परिष्कृत व्यक्तित्व के भीतर चलने वाली सेवा-साधना ही लोक-मानस का मर्मस्पर्श करने और उसका स्तर ऊँचा उठा सकने में समर्थ हो सकती है। लोकसेवा का, जननेतृत्व का उद्देश्य इससे घटिया स्तर के लोग पूरा कर ही नहीं सकते। इस आवश्यकता की पूर्ति वानप्रस्थ आश्रम ही कर सकता है। आज की गई गुजरी स्थिति में जनजागरण के लिए, लोक-निर्माण के लिए, वानप्रस्थ संस्था को पुनर्जीवित किया ही जाना चाहिए।
इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए समय की महती आवश्यकता सामने यह आती है कि वानप्रस्थ परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए प्रचंड आंदोलन किया जाए और जहाँ इसके लिए उत्साह उत्पन्न हो, वहाँ उसे समुचित-परिष्कृत बनाने के लिए उपयोगी शिक्षण का, मार्गदर्शन का व्यवस्थित क्रियाकलाप का प्रबंध किया जाए। इसके बिना वह उत्पन्न हुआ उत्साह भी छितरा जाएगा अथवा अनुपयुक्त दिशा में भटककर उलटी अव्यवस्था उत्पन्न करेगा। आज यही हो भी रहा है। वानप्रस्थाश्रमों में बूढ़े की लाशें सड़ती दीखती हैं। घर छोड़कर वे नीरस वातावरण में पड़े दिन काटते रहते हैं। थोड़ी बहुत नाम-रट भले ही कर लेते हों, बाकी सारे दिन ऐसे ही आलस में पड़े दिन काटते हैं और अपनी क्षमताओं को विकसित करने के स्थान पर जंग लगे लोहे की तरह गलाते-घटाते रहते हैं।
वैराग्य के नाम पर हरामखोरी का पनपने लगना निश्चित रूप से व्यक्ति और समाज का एक महान दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। अपने देश में 56 लाख धर्मध्वजी हैं। सात लाख गाँवों को यह संभालते तो हर गाँव को आठ प्रशिक्षित लोकसेवी मिल जाते और वे देश को समग्र प्रगति के उच्चस्तर तक कुछ ही दिनों में पहुँचा देते। इतने लोकसेवकों के रहते सरकार का मुँह भी न तकना पड़ता और देश कहाँ से कहाँ जा पहुँचता। विश्वनिर्माण में हम कितनी बड़ी भूमिका संपादित करते; पर उस पलायनवादी प्रवृत्ति को क्या कहा जाए जो धर्म, अध्यात्म एवं वैराग्य के नाम पर जीवित आदमी को मृतक की स्थिति में ले जाकर पटक देती है। युग की पुकार है कि वानप्रस्थ को पुनर्जीवित किया जाए और उसमें प्राचीन जैसी प्रखरता लाई जाए। नर-रत्नों के निर्माण का, देश, धर्म, समाज और संस्कृति के पुनरुत्थान का यही मार्ग है। युग की पुकार है कि जन नेतृत्व कर सकने योग्य उज्वल चरित्र और परिष्कृत ज्ञान वाले सेवापरायण व्यक्तित्व उत्पन्न किए जाएँ। समग्र प्रगति का प्रयोजन उन्हीं से पूरा होगा। इस प्रयास के बिना भारत जैसे छोटी देहात में बिखरे अशिक्षित देश को ऊँचा उठा सकना और किसी प्रकार संभव न होगा। युग की ज्वलंत समरूप और उसके समाधान को दृष्टि में रखते हुए वानप्रस्थ परंपरा को जागृत करने के लिए प्रचंड आंदोलन खड़ा करने का निश्चय किया गया है। जिनकी आयुष्य और स्थिति उसके लिए उपयुक्त है, उन्हें आत्मकल्याण एवं लोक-निर्माण की इस दिशा में साहसिक कदम बढ़ाने के लिए आग्रह किया जाएगा। पूरा या अधूरा जो जितना कर सके, ढलती आयु के लोगों को उसी दिशा में प्रेरित किया जाना चाहिए। लोभ-मोह की कीचड़ में से एक कदम पीछे हटाने के लिए जीवन लक्ष्य की पूर्ति की ओर एक कदम बढ़ाने के लिए वानप्रस्थ से बढ़कर व्यावहारिक और सही कदम दूसरा हो ही नहीं सकता। इस तथ्य से सर्वसाधारण को अवगत कराया ही जाना चाहिए, कराया ही जाएगा।
बहुत सोच-विचार के बाद यह निश्चय किया गया है कि वानप्रस्थ के लिए उपयुक्त शिक्षण एवं साधना का क्रियाकलाप शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में चलाया जाए। अपने परिवार के, अनेक भावनाशील परिजन बहुत दिनों से इसकी आवश्यकता अनुभव कर रहे हैं और उत्सुक हैं; पर कोई व्यवस्थितक्रम सामने न होने से वे घर पर ही जो कुछ उलटा-पुलटा अपनी बुद्धि, मर्जी और स्थिति के अनुरूप हो, करते रहते हैं। उन्हें जब सुव्यवस्थित क्रमबद्धता का अवसर मिलेगा तो उत्साह ही मिलेगा, संतोष ही होगा। आशा की जानी चाहिए, अगले पाँच वर्षों में एक हजार ऐसे वानप्रस्थ प्रशिक्षित किए जा सकेंगे, जो ज्ञान-संपदा तप-साधना से सुसंपन्न होकर आत्मकल्याण के साथ-साथ लोक-मंगल का, विश्व के नवनिर्माण का प्रयोजन भी पूरा कर सकें।
यों शान्तिकुञ्ज में जगह बहुत कम है। उसमें भी इन दिनों 'प्रत्यावर्तन सत्र' के साधनाक्रम चल रहे हैं, फिर भी जो थोड़ी बहुत जगह किसी प्रकार काट छाँटकर निकाली जा सकी है, उससे कुछ ही दिन में ऐसा प्रबंध हो जाएगा कि एक सौ वानप्रस्थों की ज्ञान-संपदा एवं तप-साधना बढ़ाने के लिए समग्र प्रशिक्षण किया जा सके। यह बहुमूल्य अवसर ही है कि इन दिनों उपयुक्त शिक्षा मिलने की सुविधा भी मौजूद है। 'प्रत्यावर्तन सत्र' संभवतः पाँच वर्ष चलेंगे, तब तक साथ ही वानप्रस्थों की स्थिर शिक्षा-व्यवस्था का क्रम भी चलता रहेगा।
वानप्रस्थ शिक्षण के दो वर्ग हैं। एक उन लोगों का जो भविष्य में रहेंगे तो अपने घर ही, कार्य अपने ही क्षेत्र में करेंगे। दूसरे वे जो पारिवारिक उत्तरदायित्वों से पूर्णतया निवृत्ति पा चुके हैं और जिन्हें सारा देश, सारा विश्व ही अपना घर-परिवार दिखाई देता है, जो किसी परिवार या क्षेत्र तक सीमित न रहकर पूर्णतया प्रभू समर्पित जीवन जीना चाहते हैं। शिक्षण दोनों का एक ही स्तर का होगा। साधनाऐं दोनों को एक ही प्रकार की कराई जाएँगी, अंतर यह रहेगा कि घर रहने वाले लोग छै: महीने प्रशिक्षण प्राप्त करके अपने यहाँ वापिस लौट जाएँगे और जिन्हें समग्र साहस करना है, वे यहाँ के स्थाई निवासी माने जाएँगे।
वानप्रस्थ साधना के लिए अध्यात्म दर्शन का, साधना विज्ञान का अध्ययन करना नितांत आवश्यक है, चूँकि उन्हें शिक्षा-तपश्चर्या के अतिरिक्त बहुत सा समय सेवा-साधना में भी लगाना है, इसलिए व्यक्ति और समाज की आज की परिस्थितियों का जानना और प्रस्तुत समस्याओं को समझाने का मार्ग जानना भी किसी लोकसेवों के लिए नितांत आवश्यक है। नियमित अध्ययन में इन सभी तत्त्वों का गहरा समावेश रखा जाएगा। प्रत्येक शिक्षार्थी को शान्तिकुञ्ज में इस प्रकार के अध्ययन का अवसर मिलेगा।
तपश्चर्या के प्रति गायत्री साधना की उच्चस्तरीय, पंचकोशी साधना ही वानप्रस्थ के लिए सर्वोत्तम है। प्रत्यावर्तन सत्र के साधकों को इसी के सूत्ररूप में सिखाया जा रहा है। उसके अभ्यास की आरंभिक झाँकी ही चार दिनों में संभव हो सकती है। वानप्रस्थ साधकों को यह अनियार्य रूप से छः महीने करनी होगी, यों हर साधक की साधना में उसकी स्थिति के अनुरूप कुछ अंतर करना होता है, पर प्रयत्न यही किया जाएगा कि जिन पाँच योगों को प्रत्यावर्तन सत्र में आधार माना गया है, उनमें से एक या कई का अभ्यास कराया जाए। उचित मार्गदर्शन एवं संरक्षण में वैसा ही लाभ मिलता है, जैसा प्राचीनकाल के गुरुकुलों में छात्रों को मिलता था। वातावरण का प्रभाव होना स्वाभाविक है। हिमालय का द्वार गंगातट, सप्तऋिषियों की, तपस्थली की पुण्य सुविधाएँ यहाँ उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त शान्तिकुञ्ज की स्थिति का अपना अतिरिक्त महत्त्व है। मार्गदर्शन और संरक्षण की सुविधा यहाँ जिस स्तर की है, वैसी कदाचित ही अन्यत्र कहीं पाई जा सके। ऐसी दशा में साधकों का छै महीने यहाँ रहना, उनके ज्ञान और तप का स्तर सचमुच ही बहुत ऊँचा उठा देगा। वे एक सशक्त व्यक्तित्व अपने भीतर उभरा हुआ अनुभव करेंगे।
सेवा-साधना में हर वानप्रस्थ को अपनी उपलब्धियों का आधा भाग नियोजित करना पड़ता है। इसके लिए युगनिर्माण शाखाओं का सुविस्तृत क्षेत्र खाली पड़ा है। सर्वत्र उनकी मांग है। शिक्षा और साधना की पूँजी लेकर वानप्रस्थों को उन्हीं क्षेत्रों में प्रचारात्मक, रचनात्मक एवं संघर्षात्मक शतसूत्री कार्यक्रमों को अग्रगामी बनाने के लिए भेजा जाएगा। वहाँ वे स्थानीय कार्यकर्त्ताओं की सहायता करेंगे और स्वयं उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करेंगे। इस प्रकार जहाँ शिथिलता आने लगी है, वहाँ अभिनव चेतना का विकास-विस्तार तत्काल दीखने लगेगा। मुरझाए हुए शाखा-संगठन युगनिर्माण परिवार देखते-देखते हरे-भरे, फले-फूले दृष्टिगोचर होने लगेंगे। युग परिवर्तन के क्रियाकलाप में आवश्यक स्फूर्ति एवं सक्रियता उत्पन्न करने के लिए प्रशिक्षित, परिष्कृत और तपस्वी वानप्रस्थों का कितना बड़ा योगदान हो सकता है। इसकी कल्पना मात्र से ही भावनाशीलों की आँखें चमकने लगेंगी।
जिन्हें अभी घर से पूर्ण छुटकारा नहीं मिला है, जिनकी स्थिति अपने क्षेत्र से बाहर जाने की नहीं है, वे जितना समय निकाल सकेंगे बताए गए कार्यक्रम के अनुसार अपना ज्ञानवर्द्धन, तप-साधना एवं सेवा प्रयास वे जारी रखेंगे। सुविधानुसार समय-समय पर आवश्यक शक्ति प्राप्त करने के लिए हरिद्वार आते रहेंगे। जिन्हें पूरे समय का प्रभु समर्पित जीवन जीना है, वे अपना स्थाई घर शान्तिकुञ्ज को मानेंगे। निर्धारित समय तक हर वर्ष शिक्षा तथा साधना के लिए आश्रम में रहेंगे और बताए गए क्षेत्र में सेवा का कार्य करने के लिए चले जाया करेंगे। इस प्रकार वानप्रस्थ जीवन की वे त्रिविधि उपलब्धियों को समग्र विधि- व्यवस्था के साथ पूरा करते हुए, जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिए द्रुतगति से अग्रसर हो सकेंगे।
परिजनों में से प्रत्येक को इस महान रचनात्मक कार्य में दिलचस्पी लेनी चाहिए, जिनकी स्वयं की आयू, स्थिति इसके उपयुक्त हो उन्हें स्वयं को आगे बढ़ाने-धकेलने के लिए अंतःसंघर्ष आरंभ कर देना चाहिए। देवत्व को जिताने और असुरत्व को हराने में अर्जुन को नियुक्त किया गया है, अपने आंतरिक महाभारत का सूत्रधार बनने में अर्जुन की भूमिका निभाने में उन्हें आगे आना ही चाहिए, जिनकी स्थिति वानप्रस्थ साधना के उपयुक्त है। अपने परिचय क्षेत्र में जो लोग इस उपक्रम के उपयुक्त हों उनमें अभीष्ट साहस उत्पन्न करने के लिए साधना-संपर्क बनाना चाहिए।
यहाँ एक ही बात ध्यान रखनी है कि सड़े हुए मुर्दों का अजायबघर इस वानप्रस्थाश्रम को नहीं बनाया जाएगा। जरा-जीर्ण, रोगग्रस्त, मंदबुद्धि, दुर्गुणी, व्यसनी और आलसी लोग गृहकलह से बचने के लिए यहाँ जगह घेरने की बात सोचते हों तो उनकी बात नहीं बनेगी। विश्व को अभिनव नेतृत्व दे सकने के लिए, जिनमें आवश्यक उमंगें मौजूद हैं, जिनका शरीर और मन अभी तक अध्ययन, तपश्चर्या और सेवा-साधना के उपयुक्त है, उन्हीं को हरिद्वार आने की बात सोचनी चाहिए। मरे हुए लोग यहाँ जगह घेरकर बैठ जाएँगें तो जिंदा लोगों को लाभ लेने का रास्ता ही बंद हो जाएगा। गंगातट पर शांति के दिन काटने वालों को नहीं, अपनी प्रखर उपलब्धियों को विश्वात्मा के चरणों में समर्पित करने के लिए जिनकी स्फूर्ति, प्रतिभा और समर्थता फूटी पड़ रही है, आह्वान उन्हीं का किया जा रहा है। स्थान थोड़ा-सा ही तो है उसकी पूर्ति उपयुक्त व्यक्तित्वों से ही होनी चाहिए। उन्हीं से की भी जाएगी।
जिन्हें वानप्रस्थ पुनर्जीवन की प्रस्तुत योजना में दिलचस्पी हो, वे अपने सुझाव-परामर्श इस संदर्भ में भेजने के लिए आमंत्रित किए जाते हैं। जिन्हें इस योजना से लाभ उठाना है, सम्मिलित होना है, वे अपनी स्थिति का विवरण लिखते हुए पत्र-व्यवहार कर लें, ताकि उनकी स्थिति पर विचार करके उपयुक्त परामर्श दिया जा सके।
— माता भगवती देवी शर्मा
उससे आगे एक जीवन का अत्यंत महत्त्वपूर्ण काल आता है। लगभग पचास वर्ष की ढलती आयु का अवसर, आमतौर से लोग इस समय तो गृहस्थ के उत्तरदायित्वों से निवृत्त होने की परिधि पर होते हैं, अथवा बड़े बच्चे इस योग्य हो जाते हैं कि अपने छोटे भाई-बहनों की सूव्यवस्था में पिता का उत्तरदायित्व निभा सकें। किसी ने यदि अपने बच्चे को सुसंस्कृत बनाया होगा, उन्हें पुरखों द्वारा उपार्जित हराम की कमाई पर गुलछर्रे उड़ाने का सब्जबाग न दिखाया होगा, तो वे अवश्य ही नीति और कर्त्तव्य का ध्यान रखेंगे। बेहिसाब लाड़-दुलार में ही तो बच्चों की आदतें बिगड़ती हैं और वे बड़े होने पर पाप के कोल्हू में पेलने का हर अवसर ढूँढ़ते हैं।
यदि ऐसी ही स्थिति पैदा कर ली हो तो बात दूसरी है, अन्यथा बड़े बच्चे अपने छोटे भाई-बहिनों की सेवा-सहायता करने में माँ-बाप के ऋण से उऋण होने का अवसर चूकते नहीं, वे उसे सुखद-सौभाग्य मानकर पूरी ईमानदारी और भावभरी शालीनता के साथ भली प्रकार निबाहते हैं।
कई बार स्वार्थी नवबधुएँ अपने पतियों पर यह दबाव डालती हैं कि वे अपने माँ-बाप या भाई-बहिनों की सहायता न करके उसी की विलासिता के साधन जुटाएँ। मोहांध युवकों की बात दूसरी है, समझदार लड़के इस प्रकार की संकीर्णता की जड़ आरंभ से ही काटते रहते हैं। दृढ़ शब्दों में वे इससे असहमति प्रकट कर देते हैं और नाराजी तक का खतरा उठाने को तैयार रहते हैं, तो स्वार्थी बहुएँ भी चुप हो जाती हैं। वे सिर पर तो तब चढ़ती हैं जब पति उनके नीचे कान कटाते रहते हैं और हिम्मत करके स्पष्ट बात कह देने में अपने को असमर्थ अनुभव करते हैं; पर आमतौर से ऐसे बेटे-बहू किन्हीं अभागों को ही मिलते हैं। भारत में अभी भी शालीनता मौजूद है और माँ-बाप का ऋण अपने छोटे भाई-बहनों की सेवा-सहायता के रूप में चुकाने की बात अभी भी मौजूद है। जब योरोप की तरह पूरी तरह माँ-बाप को तिलांजलि दी जाने लगेगी, वह दिन तो भारत में भी आ सकता है, पर लगता है, उसका विक्रांत कलियुग आने में अभी तो कुछ देर ही है।
जिन्हें मानव जीवन का महत्त्व विदित है और जिन्हें नर जन्म की सार्थकता संपन्न करने का ध्यान है, उन्हें यदि गृहस्थ बनाना पड़े तो इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं कि संतानोत्पादन तीस वर्ष तक की आयु पहुँचने तक बंद कर दें। बच्चे कम-से-कम उत्पन्न करें, ताकि पचास वर्ष की आयु पहुँचने तक बच्चों की जिम्मेदारियों से पूरी तरह छुटकारा पा लें और ढलती आयु को वानप्रस्थ की अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण साधना के लिए ठीक समय पर अपने को प्रस्तुत कर दें। दूरदर्शी व्यक्ति विवाह होते ही अपनी पलियों को स्वावलंबी बनाने के लिए कई प्रकार के रास्ते खोजते हैं। उन्हें अधिक प्रशिक्षित बनाकर अध्यापन आदि से कुछ आजीविका उपार्जित करने योग्य बना सके यदि गृहस्थ की कुछ जिम्मेदारियाँ बच भी जाए तो स्वावलंबी महिलाएँ उसका निर्वाह कर लेती हैं। जिनके पास खेती-बाड़ी, ब्याज-भाड़ा आदि की इतनी आमदनी है कि घर का खर्च चल सके, छोटे बच्चों का निर्वाह हो सके तो उनके लिए तो ईश्वरप्रदत्त स्वर्ण-सुयोग ही सामने है। परिवार के निर्वाह के योग्य जिनके पास साधन मौजूद हैं, फिर भी जिन्हें उपार्जन की धुन है, अधिक धनी बनने, अधिक संग्रह करने की ललक जिन्हें खाए जा रही है, वे तो ढलती आयु का भी कदाचित ही कुछ महत्त्वपूर्ण उपयोग कर सकें।
घंटे, आध-घंटे की पूजा-पत्री ही उनके मन बहलाने के लिए बहुत हो जाती है और वे इतने भर से ही जीवन के लक्ष्य की पूर्ति हो जाने की बात मान बैठते हैं, इन स्वल्प संतोषी लोगों की कल्पनाएँ जितनी सरल और सुखद होती हैं, उतनी ही निर्मूल और निरर्थक भी। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तो जीवनक्रम का सांगोपांग निर्धारण करना पड़ता है, पर पूरी जिंदगी ही एक क्रम व्यवस्था के अनुरूप जीना पड़ता है। इससे कम में आत्मकल्याण जैसी महान उपलब्धि की कोई सीधी पगडंडी ही नहीं। श्रेय पथ पर जीवन-साधना के राजमार्ग पर ही चलना पड़ता है। किसी पंथ, मंत्र, देवता या गुरु का सहारा लेकर बिना कठोर प्रयास के आत्मोत्कर्ष के लक्ष्य तक पहुँच सकना सर्वथा असंभव ही है। यह तथ्य जिनकी समझ में आ जाता है, वे ही कुछ ठोस प्रयास कर पाते हैं, तदनुसार उन्हीं के हाथ कुछ काम की चीज लग भी पाती हैं। शेष तो ऐसे ही कल्पना-जल्पना की, बेपर की उड़ानें उड़ते रहने में ही समय गँवाते हैं।
कहना न होगा कि आत्मिक साधना के लिए परम पुरुषार्थ की अवधि वही है, जो वानप्रस्थ के लिए निर्धारित है। यही ठीक वह समय है, जिसमें मनुष्य की मनःस्थिति वस्तुतः कुछ ठोस वस्तु प्राप्त कर सकने की होती है। जिन्हें भगवान अपनी ओर खीचते हैं, उनके लिए इस ढलती उम्र का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर सकने की मनःस्थिति और परिस्थिति बना देते हैं।
बचपन हँसी-खुशी की निश्चिंत और निर्द्वंद अवधि है। इसमें विद्या प्राप्तकर मस्तिष्क बल उपलब्ध करने, खेल-कूद, व्यायाम ब्रह्मचर्य से शरीर पुष्ट करने और अनुशासन, सौजन्य आदि सद्गुण सीखने का उपयुक्त अवसर है। युवावस्था, उत्पादन और व्यवस्था का समय है। रक्त का उभार कतिपय उमंगों के रूप में फुटता है, उसे मर्यादाओं में प्रवाहित करने की दृष्टि से यह समय इसी योग्य है कि मनुष्य द्वारा समृद्धि बढ़ाने और परिवार संस्था को समुन्नत बनाने में योगदान दिया जाए। व्यक्ति और समाज की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी 'परिवार' है। परिवार व्यवस्था के लिए जो साधन जुटाने पड़ते हैं, उनके लिए युवावस्था का सही सदुपयोग किया जाता है। इसके बाद वानप्रस्थ की अवधि आती है। इसे अमृत अवधि कहा गया है। महानता की फसल उगाने का, आत्मकल्याण का लक्ष्य पूरा करने का, मानव की सेवा-साधना में संलग्न होने का परमार्थ संपादन कर सकने का ठीक यही समय है। इसे गँवा देने के बाद एक प्रकार से कुछ हाथ रहता ही नहीं।
वर्णधर्म के अनुसार एक-एक चौथाई आयु, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के लिए लगाई जानी चाहिए। अब सौ वर्ष कौन जीता है। सत्तर पूरे कर सकना भी कठिन पड़ता है। ऐसी दशा में हर विभाग 17.5 वर्ष का होना चाहिए और ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ में 35 वर्ष ही पूरे करने चाहिए; किंतु वर्त्तमान लोभ-मोहग्रस्त स्थिति में ऐसा कठिन लगता है। सौ वर्ष की आयु में से आधी अर्थात 50 वर्ष तक की ग्रहस्य के लिए रखी जा सकती है। इसके बाद पचास से साठ-पेंसठ वर्ष तक का ही समय ऐसा रह जाता है, जबकि शरीर और मन से कुछ तप-साधना कराई जा सके। पेंसठ वर्ष के बाद तो आमतौर से इंद्रियाँ, हाथ-पैर और मस्तिष्क इतने शिथिल हो जाते हैं कि जरा-जीर्ण स्थिति में किसी प्रकार एक स्थान पर बैठकर, सहायक की सहायता से दिन ही काँटे जा सकते हैं। प्राचीनकाल में यह असमर्थ स्थिति ही सन्यास की होती थी। भागदौड़ की, सेवा-साधना तथा पंचकोशों के अनावरण की कष्टसाध्य तपश्चर्या के अयोग्य वयोवृद्ध शरीर छूट-पुट ध्यान-भजन या उपदेश परामर्श के योग्य ही रह जाता है। संन्यास उसी विश्रामकाल के लिए उपयुक्त माना गया है।
जिस प्रकार भौतिक उपार्जन के लिए, भौतिक प्रगति के लिए यौवनकाल की गृहस्थ अवधि ही सर्वोत्तमकाल है, उसी प्रकार आत्मिक प्रगति के लिए ढलती आयु का वानप्रस्थ समय दैवी उपहार की तरह है। पचास से लेकर साठ-पेंसठ वर्ष की आयु तक में इस दिशा में जो प्रयास किए जा सके, उन्हीं में जीवन को धन्य बनाने वाले तत्त्व रहेंगे। वासनाओं और तृष्णाओं की पूर्ति यौवन के उभार के दिनों पूरी हो चुकती है। यह अनुभव कर लिया जाता है कि इन विडंबनाओं में जो आकर्षण दीखता था, उनमें सार कितना है। इंद्रियाँ शिथिल होने लगती हैं, तृष्णाओं का दावानल बुझने को आता है, अनुभवों में परिपक्वता होती है, बुद्धि परिमार्जित हो चलती है, मृत्यु के दिन समीप दीखते हैं। स्वाध्याय- सत्संग, मनन-चिंतन और भजन में भी कुछ रस आने लगता है। बच्चों की जिम्मेदारियों से प्रायः छुटकारा मिल लेता है। सादगी का रहन-सहन अपनाने में कुछ विशेष कठिनाई नहीं होती। इन सभी अनुकूलताओं की दृष्टि से ढलती आयु ही अध्यात्म साधनाओं के उपयुक्त पड़ती है। यदि यह अवधि ऐसे ही निकल जाए तो पेंसठ-सत्तर की आयु तक पहुँचते-पहुँचते शरीर का कचूमर निकल जाता है, तब जरा-जीर्ण शरीर ही एक भार बन जाता है। उसी लाश का वजन ढोना कठिन पड़ता है, तब आत्मकल्याण का पुरुषार्थ कर सकने योग्य कुछ बचा ही नहीं रहता। इसके बाद तो मौत से ही कुछ आशा की जा सकती है कि वह नया शरीर देकर इस योग्य बनाए कि नई क्षमता के सहारे महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त करने योग्य, पुरुषार्थ कर सकना संभव हो सके।
प्रत्येक आत्मकल्याण प्रेमी श्रेय-साधक को समय रहते यह योजना बनानी चाहिए कि बह ढलती आयु में, कितनी जल्दी पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत होकर श्रेय-साधन में अपनी समस्त क्षमता को झोंक सके। पचपन वर्ष पर सरकारी नौकरी से निवृत्ति मिल जाती है। स्वेच्छया पेंशन तो इससे पहले भी संभव हो जाती है। बच्चों से स्वयं निवृत्ति मिल गई हो अथवा उनके उपयुक्त विकास की व्यवस्था घर पर मौजूद हो तो फिर साहसिक छलाँग यही लगाई जानी चाहिए कि इस अमृत अवधि का श्रेष्ठतम उपयोग जीवन-साधना के लिए समर्पित कर दिया जाए। यदि पूर्ण छुटकारे की स्थिति न हो, तो भी इतना तो करना ही चाहिए कि अपने समय तथा साधनों का एक बड़ा भाग इन प्रयोजनों में नियमित रूप से नियोजित किया जाए, जिनके लिए इस अमृत अवधि को नियत-निर्धारित किया गया है।
वानप्रस्थ का मतलब किसी जमाने में सघन अरण्यकों में रहना होता था। वहाँ उस समय की स्थिति के अनुरूप क्षमताएँ बढ़ाने वाली तपश्चर्या की जाती थी। अब स्थिति दूसरी है, अस्तु सनातन लक्ष्य की रक्षा करते हुए व्यवस्थाक्रम में थोड़ा हेर-फेर करना ही पड़ेगा। इन परिस्थितियों में यह उचित है कि घर-परिवार में पूरी तरह घुले रहने की अपेक्षा उससे कुछ दूरी बनाई जाए, भले ही देखभाल परामर्श का, आने-जाने का क्रम बना रहे; पर मनःस्थिति यह होनी चाहिए कि हम इस छोटे परिवार तक सीमित न रहकर विश्व-वसुधा की संपत्ति बन गए। अब अपने उत्तरदायित्व विश्वमानव की सुख-शांति के लिए अथक प्रयास करने की परिधि तक बढ़ गए हैं। अब अपना प्रधान कार्य आत्मोत्कर्ष है। इसके लिए उपासनात्मक तपश्चर्या और साधनात्मक सेवा-साधना में समय और शक्ति को पूरी तरह नियोजित करना है।
प्राचीनकाल में वानप्रस्थ में ब्रह्मचर्य अनिवार्य था, अब उसे शिथिल करके आवश्यक रखा जाना चाहिए। पचास वर्ष की आयु के बाद संतानोत्पादन तो शास्त्रीय दृष्टि से अवैध ही माना गया है। पूर्वकाल में भिक्षा पर अथवा कंद-मूल-फल आदि पर निर्वाह करते थे, अब वैसी परिस्थितियाँ नहीं रहीं। भिक्षा-अन्न में न तो सात्विकता है और न सम्मान। कंद-फल अब प्राकृतिक रूप से कहीं भी नहीं मिलते। कृषि की जाए तो बात दूसरी है, इसलिए निर्वाहि के लिए या तो अपने पूर्वसंचय में से लेना चाहिए अथवा श्रम उपार्जन करना चाहिए। सार्वजनिक सेवा के बदले निर्वाह लेना औचित्य की सीमा में ही आता है। यदि कमाऊ लड़के पितृ ऋण चुकाने की दृष्टि से कुछ भेजना चाहें तो उसमें भी औचित्य ही है। पेंशन आदि का प्रबंध हो तो और भी उत्तम है, ऐसी कोई व्यवस्था न हो तो उपयुक्त यही है कि समाज से जितने मूल्य का निर्वाह लिया जाए, उतने का श्रम करके ऐसी व्यवस्था की जाए, जिससे समाज का ऋण चुक सके। भार उलटा बढ़ने न लगे।
वेश की दृष्टि से पीला तौलिया या दुपट्टा कंधे पर रहे तो इससे प्राचीन वर्णाश्रम परंपरा का प्रतीक रक्षा के साथ-साथ स्वयं के लिए भी कर्त्तव्यबोध का माध्यम बना रहेगा और जनसाधारण को भी उस वृत्ति का परिचय मिलने के अनुरूप उपयुक्त सेवा ले सकने का अवसर मिलता रहेगा।
अधिक उपयुक्त यही है कि पूरी तरह पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्ति पाकर, पूरे समय के लिए वानप्रस्थ-साधना में लगा जाए, पर यदि परिस्थितियाँ वैसी छूट न दें तो भी इस अमृत अवधि का तकाजा यही स्वीकार करना चाहिए कि घर रहते हुए ही जितना अधिक समय इस साधना के लिए लगाया जा सकना संभव हो, उतना लगाया जाए। मन-मस्तिष्क पर परमार्थ उत्तरदायित्वों की संवेदना समुचित मात्रा में छाई रहनी चाहिए और चेष्टा यही रहनी चाहिए कि पूरा न सही, अधूरा प्रयास तो होता ही रहना चाहिए।
(1) वानप्रस्थ की अमृत अवधि परमार्थ जीवन में प्रखरता उत्पन्न करने का समय है। इसमें उसी स्तर के ज्ञान की बृद्धि करने के लिए शिक्षण एवं स्वाध्याय का माध्यम अपनाना चाहिए। (2) तपश्चर्या एवं योग-साधना द्वारा आत्मशक्ति का विकास करना चाहिए और (3) लोक-मंगल की सेवा-साधना द्वारा समाज का ऋण चुकाने, पुण्य संचय करने एवं ईश्वरीय स्नेह अनुदान पाने में संलग्न होना चाहिए। इन तीनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समय का विभाजन इस प्रकार होना चाहिए कि आधा समय स्वाध्याय, शिक्षण एवं तप-साधना में लगे और आधा समय सेवा-धर्म में लगता रहे। पूरा या अधूरा जितना भी समय वानप्रस्थ-व्यवस्था में लगना हो, उसका विभाजन इसी प्रकार किया जाना चाहिए।
किशोरावस्था में जो विद्याध्यन किया जाता है, वह भौतिक प्रगति एवं अर्थ-उपार्जन की दृष्टि से होता है। उस समय इसी की आवश्यकता रहती है, ताकि युवावस्था में ग्रहस्थ का उत्तरदायित्व निभा सकने की सामर्थ्य संचय हो सके। वानप्रस्थ में परमार्थ जीवन की आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूरा करने के योग्य ज्ञान-संपादन नए सिरे से करना पड़ता है। यह अधिकारी शिक्षकों के सान्निध्य में भी पाया जा सकता है और उपयुक्त स्वाध्याय से भी संभव है। अपना दुर्भाग्य यह है कि आज परमार्थ जीवन की कोई समग्र पाठ्य-विधि उपलब्ध नहीं। आमतौर से लोग ऐसे ही अगड़म-बगड़म बकवास, स्वाध्याय और सत्संग के नाम पर गले उतारते रहते हैं और उससे कुछ पाने के स्थान पर उलटा गँवाते रहते हैं।
यही बात उपासना के संदर्भ में भी लागू होती है। उपासना का उद्देश्य अंतःकरण पर चढ़े हुए कषाय-कल्मषों का निराकरणमात्र है। भगवान या किसी देवता को रिझाना नहीं। गुण, कर्म, स्वभाव में जिन विकृतियों का, दुर्भावनाओं एवं दुष्प्रवृत्तियों का समावेश हो गया है, उन्हीं का निराकरण करना — यही है साधना का उद्देश्य। ऐसी साधना-विधि तो कहीं कदाचित ही दीख पड़ती है। आमतौर से लोग भजन के लिए नामोच्चार की तोतारट लगाए रहते हैं। भावनाविहीन क्रियाकांड में उलझे रहते हैं। फलस्वरूप अंतःचेतना का विकास होने का प्रयोजन तनिक भी नहीं होता। उलटे आलस्य-प्रमाद जैसी नई विकृतियाँ सिर पर चढ़ बैठती हैं। आत्मिक प्रगति का लाभ होना तो दूर और उलटी अवनति दृष्टिगोचर होती है। दुर्बुद्धि से मुक्ति पाने के नाम पर कर्त्तव्यनिष्ठा को ही छोड़ दिया जाता है। अकर्मण्यता और अस्त-व्यस्तता स्पष्टतः निकृष्ट कोटि के पापों में ही गिनी जा सकती है। यदि योगसाधक को इसी दयनीय स्थिति में उलझना पड़े तो समझना चाहिए, लक्ष्य से उलटी दिशा में ही वह चल पड़ा है।
सेवा-साधना तो आज विरक्त वर्ग में कहीं दीख ही नहीं पड़ती, जबकि परमार्थ का आधार ही जनमानस को ऊँचा उठा सकने वाले प्रयत्नों में संलग्न होता है। प्राचीनकाल में भारत की समग्र प्रगति का मेरुदंड वानप्रस्थ आश्रम ही था। नैतिक, पारिवारिक और सामाजिक प्रगति एवं स्थिरता के लिए उसी वर्ग का बहुमूल्य योगदान मिलता था। परिपक्व बुद्धि, परिष्कृत दृष्टिकोण और निस्वार्थ सेवा का त्रिवर्ग जहाँ भी मिलेगा, वहीं वह शक्ति उत्पन्न होगी जो उच्चस्तरीय श्रद्धा को आकर्षित कर सके, अपने प्रभाव से जनमानस को झकझोर सके और लोक-प्रवृत्ति को महत्त्वपूर्ण दिशा दे सके। समाज का समग्र नेतृत्व वानप्रस्थवर्ग ही करता है। प्राचीन भारत की सर्वतोमुखी प्रगति का लेखा-जोखा लिया जाए तो प्रतीत होगा कि उस महान प्रगति की आधारशिला वानप्रस्थ आश्रम पर ही निर्भर रहती है। उज्वल चरित्र और सुविकसित चिंतन के कारण उनका व्यक्तित्व इस योग्य बनता था कि जनता का सफल और समर्थ मार्ग दर्शन किया जा सके। वाचालता के व्यवसायी तथाकथित नेता या धर्मोपदेशक वह प्रयोजन किसी भी प्रकार संपन्न नहीं कर सकते। लोकरंजन की उछल-कूद करने के अतिरिक्त थोथी वाचालता और कुछ कर भी तो नहीं सकती। प्रदर्शन के ओछे स्वाँगों में नहीं, परिष्कृत व्यक्तित्व के भीतर चलने वाली सेवा-साधना ही लोक-मानस का मर्मस्पर्श करने और उसका स्तर ऊँचा उठा सकने में समर्थ हो सकती है। लोकसेवा का, जननेतृत्व का उद्देश्य इससे घटिया स्तर के लोग पूरा कर ही नहीं सकते। इस आवश्यकता की पूर्ति वानप्रस्थ आश्रम ही कर सकता है। आज की गई गुजरी स्थिति में जनजागरण के लिए, लोक-निर्माण के लिए, वानप्रस्थ संस्था को पुनर्जीवित किया ही जाना चाहिए।
इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए समय की महती आवश्यकता सामने यह आती है कि वानप्रस्थ परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए प्रचंड आंदोलन किया जाए और जहाँ इसके लिए उत्साह उत्पन्न हो, वहाँ उसे समुचित-परिष्कृत बनाने के लिए उपयोगी शिक्षण का, मार्गदर्शन का व्यवस्थित क्रियाकलाप का प्रबंध किया जाए। इसके बिना वह उत्पन्न हुआ उत्साह भी छितरा जाएगा अथवा अनुपयुक्त दिशा में भटककर उलटी अव्यवस्था उत्पन्न करेगा। आज यही हो भी रहा है। वानप्रस्थाश्रमों में बूढ़े की लाशें सड़ती दीखती हैं। घर छोड़कर वे नीरस वातावरण में पड़े दिन काटते रहते हैं। थोड़ी बहुत नाम-रट भले ही कर लेते हों, बाकी सारे दिन ऐसे ही आलस में पड़े दिन काटते हैं और अपनी क्षमताओं को विकसित करने के स्थान पर जंग लगे लोहे की तरह गलाते-घटाते रहते हैं।
वैराग्य के नाम पर हरामखोरी का पनपने लगना निश्चित रूप से व्यक्ति और समाज का एक महान दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। अपने देश में 56 लाख धर्मध्वजी हैं। सात लाख गाँवों को यह संभालते तो हर गाँव को आठ प्रशिक्षित लोकसेवी मिल जाते और वे देश को समग्र प्रगति के उच्चस्तर तक कुछ ही दिनों में पहुँचा देते। इतने लोकसेवकों के रहते सरकार का मुँह भी न तकना पड़ता और देश कहाँ से कहाँ जा पहुँचता। विश्वनिर्माण में हम कितनी बड़ी भूमिका संपादित करते; पर उस पलायनवादी प्रवृत्ति को क्या कहा जाए जो धर्म, अध्यात्म एवं वैराग्य के नाम पर जीवित आदमी को मृतक की स्थिति में ले जाकर पटक देती है। युग की पुकार है कि वानप्रस्थ को पुनर्जीवित किया जाए और उसमें प्राचीन जैसी प्रखरता लाई जाए। नर-रत्नों के निर्माण का, देश, धर्म, समाज और संस्कृति के पुनरुत्थान का यही मार्ग है। युग की पुकार है कि जन नेतृत्व कर सकने योग्य उज्वल चरित्र और परिष्कृत ज्ञान वाले सेवापरायण व्यक्तित्व उत्पन्न किए जाएँ। समग्र प्रगति का प्रयोजन उन्हीं से पूरा होगा। इस प्रयास के बिना भारत जैसे छोटी देहात में बिखरे अशिक्षित देश को ऊँचा उठा सकना और किसी प्रकार संभव न होगा। युग की ज्वलंत समरूप और उसके समाधान को दृष्टि में रखते हुए वानप्रस्थ परंपरा को जागृत करने के लिए प्रचंड आंदोलन खड़ा करने का निश्चय किया गया है। जिनकी आयुष्य और स्थिति उसके लिए उपयुक्त है, उन्हें आत्मकल्याण एवं लोक-निर्माण की इस दिशा में साहसिक कदम बढ़ाने के लिए आग्रह किया जाएगा। पूरा या अधूरा जो जितना कर सके, ढलती आयु के लोगों को उसी दिशा में प्रेरित किया जाना चाहिए। लोभ-मोह की कीचड़ में से एक कदम पीछे हटाने के लिए जीवन लक्ष्य की पूर्ति की ओर एक कदम बढ़ाने के लिए वानप्रस्थ से बढ़कर व्यावहारिक और सही कदम दूसरा हो ही नहीं सकता। इस तथ्य से सर्वसाधारण को अवगत कराया ही जाना चाहिए, कराया ही जाएगा।
बहुत सोच-विचार के बाद यह निश्चय किया गया है कि वानप्रस्थ के लिए उपयुक्त शिक्षण एवं साधना का क्रियाकलाप शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में चलाया जाए। अपने परिवार के, अनेक भावनाशील परिजन बहुत दिनों से इसकी आवश्यकता अनुभव कर रहे हैं और उत्सुक हैं; पर कोई व्यवस्थितक्रम सामने न होने से वे घर पर ही जो कुछ उलटा-पुलटा अपनी बुद्धि, मर्जी और स्थिति के अनुरूप हो, करते रहते हैं। उन्हें जब सुव्यवस्थित क्रमबद्धता का अवसर मिलेगा तो उत्साह ही मिलेगा, संतोष ही होगा। आशा की जानी चाहिए, अगले पाँच वर्षों में एक हजार ऐसे वानप्रस्थ प्रशिक्षित किए जा सकेंगे, जो ज्ञान-संपदा तप-साधना से सुसंपन्न होकर आत्मकल्याण के साथ-साथ लोक-मंगल का, विश्व के नवनिर्माण का प्रयोजन भी पूरा कर सकें।
यों शान्तिकुञ्ज में जगह बहुत कम है। उसमें भी इन दिनों 'प्रत्यावर्तन सत्र' के साधनाक्रम चल रहे हैं, फिर भी जो थोड़ी बहुत जगह किसी प्रकार काट छाँटकर निकाली जा सकी है, उससे कुछ ही दिन में ऐसा प्रबंध हो जाएगा कि एक सौ वानप्रस्थों की ज्ञान-संपदा एवं तप-साधना बढ़ाने के लिए समग्र प्रशिक्षण किया जा सके। यह बहुमूल्य अवसर ही है कि इन दिनों उपयुक्त शिक्षा मिलने की सुविधा भी मौजूद है। 'प्रत्यावर्तन सत्र' संभवतः पाँच वर्ष चलेंगे, तब तक साथ ही वानप्रस्थों की स्थिर शिक्षा-व्यवस्था का क्रम भी चलता रहेगा।
वानप्रस्थ शिक्षण के दो वर्ग हैं। एक उन लोगों का जो भविष्य में रहेंगे तो अपने घर ही, कार्य अपने ही क्षेत्र में करेंगे। दूसरे वे जो पारिवारिक उत्तरदायित्वों से पूर्णतया निवृत्ति पा चुके हैं और जिन्हें सारा देश, सारा विश्व ही अपना घर-परिवार दिखाई देता है, जो किसी परिवार या क्षेत्र तक सीमित न रहकर पूर्णतया प्रभू समर्पित जीवन जीना चाहते हैं। शिक्षण दोनों का एक ही स्तर का होगा। साधनाऐं दोनों को एक ही प्रकार की कराई जाएँगी, अंतर यह रहेगा कि घर रहने वाले लोग छै: महीने प्रशिक्षण प्राप्त करके अपने यहाँ वापिस लौट जाएँगे और जिन्हें समग्र साहस करना है, वे यहाँ के स्थाई निवासी माने जाएँगे।
वानप्रस्थ साधना के लिए अध्यात्म दर्शन का, साधना विज्ञान का अध्ययन करना नितांत आवश्यक है, चूँकि उन्हें शिक्षा-तपश्चर्या के अतिरिक्त बहुत सा समय सेवा-साधना में भी लगाना है, इसलिए व्यक्ति और समाज की आज की परिस्थितियों का जानना और प्रस्तुत समस्याओं को समझाने का मार्ग जानना भी किसी लोकसेवों के लिए नितांत आवश्यक है। नियमित अध्ययन में इन सभी तत्त्वों का गहरा समावेश रखा जाएगा। प्रत्येक शिक्षार्थी को शान्तिकुञ्ज में इस प्रकार के अध्ययन का अवसर मिलेगा।
तपश्चर्या के प्रति गायत्री साधना की उच्चस्तरीय, पंचकोशी साधना ही वानप्रस्थ के लिए सर्वोत्तम है। प्रत्यावर्तन सत्र के साधकों को इसी के सूत्ररूप में सिखाया जा रहा है। उसके अभ्यास की आरंभिक झाँकी ही चार दिनों में संभव हो सकती है। वानप्रस्थ साधकों को यह अनियार्य रूप से छः महीने करनी होगी, यों हर साधक की साधना में उसकी स्थिति के अनुरूप कुछ अंतर करना होता है, पर प्रयत्न यही किया जाएगा कि जिन पाँच योगों को प्रत्यावर्तन सत्र में आधार माना गया है, उनमें से एक या कई का अभ्यास कराया जाए। उचित मार्गदर्शन एवं संरक्षण में वैसा ही लाभ मिलता है, जैसा प्राचीनकाल के गुरुकुलों में छात्रों को मिलता था। वातावरण का प्रभाव होना स्वाभाविक है। हिमालय का द्वार गंगातट, सप्तऋिषियों की, तपस्थली की पुण्य सुविधाएँ यहाँ उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त शान्तिकुञ्ज की स्थिति का अपना अतिरिक्त महत्त्व है। मार्गदर्शन और संरक्षण की सुविधा यहाँ जिस स्तर की है, वैसी कदाचित ही अन्यत्र कहीं पाई जा सके। ऐसी दशा में साधकों का छै महीने यहाँ रहना, उनके ज्ञान और तप का स्तर सचमुच ही बहुत ऊँचा उठा देगा। वे एक सशक्त व्यक्तित्व अपने भीतर उभरा हुआ अनुभव करेंगे।
सेवा-साधना में हर वानप्रस्थ को अपनी उपलब्धियों का आधा भाग नियोजित करना पड़ता है। इसके लिए युगनिर्माण शाखाओं का सुविस्तृत क्षेत्र खाली पड़ा है। सर्वत्र उनकी मांग है। शिक्षा और साधना की पूँजी लेकर वानप्रस्थों को उन्हीं क्षेत्रों में प्रचारात्मक, रचनात्मक एवं संघर्षात्मक शतसूत्री कार्यक्रमों को अग्रगामी बनाने के लिए भेजा जाएगा। वहाँ वे स्थानीय कार्यकर्त्ताओं की सहायता करेंगे और स्वयं उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करेंगे। इस प्रकार जहाँ शिथिलता आने लगी है, वहाँ अभिनव चेतना का विकास-विस्तार तत्काल दीखने लगेगा। मुरझाए हुए शाखा-संगठन युगनिर्माण परिवार देखते-देखते हरे-भरे, फले-फूले दृष्टिगोचर होने लगेंगे। युग परिवर्तन के क्रियाकलाप में आवश्यक स्फूर्ति एवं सक्रियता उत्पन्न करने के लिए प्रशिक्षित, परिष्कृत और तपस्वी वानप्रस्थों का कितना बड़ा योगदान हो सकता है। इसकी कल्पना मात्र से ही भावनाशीलों की आँखें चमकने लगेंगी।
जिन्हें अभी घर से पूर्ण छुटकारा नहीं मिला है, जिनकी स्थिति अपने क्षेत्र से बाहर जाने की नहीं है, वे जितना समय निकाल सकेंगे बताए गए कार्यक्रम के अनुसार अपना ज्ञानवर्द्धन, तप-साधना एवं सेवा प्रयास वे जारी रखेंगे। सुविधानुसार समय-समय पर आवश्यक शक्ति प्राप्त करने के लिए हरिद्वार आते रहेंगे। जिन्हें पूरे समय का प्रभु समर्पित जीवन जीना है, वे अपना स्थाई घर शान्तिकुञ्ज को मानेंगे। निर्धारित समय तक हर वर्ष शिक्षा तथा साधना के लिए आश्रम में रहेंगे और बताए गए क्षेत्र में सेवा का कार्य करने के लिए चले जाया करेंगे। इस प्रकार वानप्रस्थ जीवन की वे त्रिविधि उपलब्धियों को समग्र विधि- व्यवस्था के साथ पूरा करते हुए, जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिए द्रुतगति से अग्रसर हो सकेंगे।
परिजनों में से प्रत्येक को इस महान रचनात्मक कार्य में दिलचस्पी लेनी चाहिए, जिनकी स्वयं की आयू, स्थिति इसके उपयुक्त हो उन्हें स्वयं को आगे बढ़ाने-धकेलने के लिए अंतःसंघर्ष आरंभ कर देना चाहिए। देवत्व को जिताने और असुरत्व को हराने में अर्जुन को नियुक्त किया गया है, अपने आंतरिक महाभारत का सूत्रधार बनने में अर्जुन की भूमिका निभाने में उन्हें आगे आना ही चाहिए, जिनकी स्थिति वानप्रस्थ साधना के उपयुक्त है। अपने परिचय क्षेत्र में जो लोग इस उपक्रम के उपयुक्त हों उनमें अभीष्ट साहस उत्पन्न करने के लिए साधना-संपर्क बनाना चाहिए।
यहाँ एक ही बात ध्यान रखनी है कि सड़े हुए मुर्दों का अजायबघर इस वानप्रस्थाश्रम को नहीं बनाया जाएगा। जरा-जीर्ण, रोगग्रस्त, मंदबुद्धि, दुर्गुणी, व्यसनी और आलसी लोग गृहकलह से बचने के लिए यहाँ जगह घेरने की बात सोचते हों तो उनकी बात नहीं बनेगी। विश्व को अभिनव नेतृत्व दे सकने के लिए, जिनमें आवश्यक उमंगें मौजूद हैं, जिनका शरीर और मन अभी तक अध्ययन, तपश्चर्या और सेवा-साधना के उपयुक्त है, उन्हीं को हरिद्वार आने की बात सोचनी चाहिए। मरे हुए लोग यहाँ जगह घेरकर बैठ जाएँगें तो जिंदा लोगों को लाभ लेने का रास्ता ही बंद हो जाएगा। गंगातट पर शांति के दिन काटने वालों को नहीं, अपनी प्रखर उपलब्धियों को विश्वात्मा के चरणों में समर्पित करने के लिए जिनकी स्फूर्ति, प्रतिभा और समर्थता फूटी पड़ रही है, आह्वान उन्हीं का किया जा रहा है। स्थान थोड़ा-सा ही तो है उसकी पूर्ति उपयुक्त व्यक्तित्वों से ही होनी चाहिए। उन्हीं से की भी जाएगी।
जिन्हें वानप्रस्थ पुनर्जीवन की प्रस्तुत योजना में दिलचस्पी हो, वे अपने सुझाव-परामर्श इस संदर्भ में भेजने के लिए आमंत्रित किए जाते हैं। जिन्हें इस योजना से लाभ उठाना है, सम्मिलित होना है, वे अपनी स्थिति का विवरण लिखते हुए पत्र-व्यवहार कर लें, ताकि उनकी स्थिति पर विचार करके उपयुक्त परामर्श दिया जा सके।
— माता भगवती देवी शर्मा