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Magazine - Year 1976 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्रज्ञा की देवी गायत्री और उसकी विभूतियाँ

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तैत्तरीय सं0 1।5।6।4-4।1।11।1 मैत्रायणी सं0 -4।10।3-149।14

आरण्यकों में गायत्री का उल्लेख इन स्थानों पर है- तैत्तरीय आरण्यक 1।11।210।27।1 वृहदारण्यक 6।3।11।4।8 उपनिषदों में इस महामंत्र की चर्चा निम्न प्रकरणों में है। नारायण उपनिषद् 15-2 मैत्री उपनिषद् 6।7।34 जैमिनी 4।28।1 श्वेताश्वर उपनिषद् 4।18

इस निखिल ब्रह्माण्ड में ईश्वर की अनन्त शक्तियाँ बिखरी पड़ी हैं और उनमें से जिनकी आवश्यकता होती है उन्हें मनुष्य अपने प्रबल पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त कर लेता है। विज्ञान द्वारा प्रकृति की अनेकों शक्तियों को मनुष्य ने अपने अधिकार में लिया है। विद्युत, ताप, प्रकाश, चुम्बक, शब्द, शक्ति जैसी प्रकृति की कितनी ही अदृश्य और अविज्ञात शक्तियों को उसने ढूंढ़ा और करतलगत किया है पर ब्रह्म की चेतनात्मक शक्तियाँ भी कितनी ही है उन्हें आत्मिक प्रयासों द्वारा करतलगत किया गया सकता है। मनुष्य का अपना चुम्बकत्व असाधारण है। वह उसी क्षमता के सहारे भौतिक जीवन में अनेकों को प्रभावित एवं आकर्षित करता है। उसी आधार पर वह साधन जुटाता, सम्पन्न बनता और सफलताएँ उपलब्ध करता है। इसी चुम्बक शक्ति के सहारे वह व्यापक ब्रह्म चेतना के महा समुद्र में से उपयोगी चेतन तत्वों को आकर्षित एवं करतलगत कर सकता है।

प्रज्ञा की अभीष्ट मात्रा विद्यमान हो तो फिर और कोई ऐसी कठिनाई शेष नहीं रह जाती जो नर को नारायण, पुरुष को पुरुषोत्तम बनाने से वंचित रख सके श्रम और मनोयोग तो आत्मिक प्रगति में भी उतना ही लगाना पर्याप्त होता है जितना कि भौतिक समस्याएँ हल करने में आये दिन लगाना पड़ता है। महामानवों को उससे अधिक कष्ट नहीं सहने पड़ते जितने कि सामान्य जीवन में आये दिन हर किसी को सहने पड़ते हैं। लोभ और मोह की पूर्ति में जितना पुरुषार्थ और साहस करना पड़ता है उससे कम में ही उत्कृष्ट आदर्शवादी जीवन का निर्माण निर्धारण किया जा सकता है। मूल कठिनाई एक ही है। प्रज्ञा प्रखरता की। वह प्राप्त हो सके तो समझना चाहिए कि जीवन को सच्चे अर्थों में सार्थक बनाने वाली ऋषि सिद्धियों की उपलब्धियों से भर देने वाली संभावनाओं के प्राप्त कर सकने में अब कोई कठिनाई शेष नहीं रह गई।

गायत्री महाशक्ति को तत्व ज्ञानियों ने सर्वोपरि दिव्य क्षमता कहा है। उसका अत्यधिक माहात्म्य बताया है। गायत्री प्रज्ञा तत्व का ही दूसरा नाम है। इस दूरदर्शी विवेकशीलता एवं आत्मोत्कर्ष के लिए अभीष्ट बल प्रदान करने वाली साहसिकता भी कह सकते हैं। आत्मिक प्रगति के लिए किये जाने वाले अभीष्ट पुरुषार्थ में गायत्री उपासना को अग्रिणी माना गया है। यह विशुद्ध रूप से प्रज्ञा को प्राप्त करने की वैज्ञानिक पद्धति है।

‘प्रज्ञा’ शक्ति मनुष्य को आत्मिक दृष्टि से सुविकसित एवं सुसम्पन्न बनाती है। वह अपने जीवन स्तर को ऊँचा उठाकर महामानवों के उच्च स्तर तक पहुँचाता है और सामान्य जीवात्मा न रहकर महात्मा, देवात्मा एवं परमात्मा स्तर की क्रमिक प्रगति करता चला जाता है। जहाँ आत्मिक सम्पन्नता होगी वहाँ उसकी अनुचरी भौतिक समृद्धि की भी कमी न पड़ेगी। यह बात अलग है कि आत्मिक क्षमताओं का धनी व्यक्ति उन्हें उद्धत प्रदर्शन में खर्च न करके किसी महान प्रयोजन में लगाने के लिए नियोजित करता रहे और साँसारिक दृष्टि से निर्धनों जैसी स्थिति में बना रहे। इसमें दूसरों को दरिद्रता प्रतीत हो सकती है पर आत्मिक पूँजी का धनी अपने आप में सन्तुष्ट रहता है और अनुभव करता है कि वह सच्चे अर्थों में सुसम्पन्न है।

गायत्री उपासना उस ‘प्रज्ञा’ को आकर्षित करने और धारण करने की अनुभूत प्रक्रिया है जो परब्रह्म की विशिष्ट अनुकम्पा, दूरदर्शी-विवेकशीलता और सन्मार्ग अपना सकने की प्रखरता के रूप में साधक को प्राप्त होती है। इस अनुदान को पाकर वह स्वयं धन्य बनता है और समूचे वातावरण में मलय पवन का संचार करता है। उसके व्यक्तित्व से सारा सम्पर्क क्षेत्र प्रभावित होता है और सुखद सम्भावनाओं का प्रवाह चल पड़ता है।

गायत्री महाशक्ति का- उसकी उपासना का- उपलब्धियों का परिचय देते हुए तत्व दर्शियों ने बहुत कुछ कहा है। शास्त्र वचनों में इस तथ्य का उल्लेख स्थान स्थान पर हुआ है। उसमें से कुछ प्रसंग इस प्रकार हैं -

या देवी सर्वभूतेषू बुद्धि रूपेण संस्थिता। नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनमः॥

जो देवी सब प्राणियों में बुद्धि रूप से अवस्थित है उसे बार बार नमस्कार है।

मेधासि देवि विदिता खिल शास्त्र साराः।

जिससे समस्त शास्त्रों के सार तत्व को जाना जाता है वह मेधा शक्ति आप ही हैं।

विद्या त्वमेव ननु बुद्धिमतां नराणां शक्तिस्त्मेव किल शक्तिमतां सदैव।

त्वं कीर्तिकांतिकमलामलतुष्टिरुपा। मुक्त्प्रिदा विरतिरेव मनुष्यलोके।

गायत्र्यसि प्रथमदेवकला त्वमेव। स्वाहा स्वधा भगवती सगुणाऽर्धमात्रा।

आम्नाय एव विहितो निगमो भवत्यै संजीवनाय सततं सुरपूर्वजानाम।

-देवी भागवत्

आप ही बुद्धिमानों में बुद्धि, बलवानों में शक्ति हैं। आप ही कमला, निर्मला, कीर्ति, कान्ति, तुष्टि और मुक्ति प्रदान करने वाली हैं।

वेद की प्रधान शक्ति गायत्री आप ही हैं। स्वाहा स्वधा, सगुण, अर्ध मात्रा आपको ही करते हैं। देवता और प्राणियों का निस्तार आप ही करती हैं। आपने ही वेद और तंत्र आगम और निगम रचे हैं।

सर्वस्य बुद्धि रूपेण जनस्य हृदि संस्थिते। स्वर्गापवर्गं दे देवि नारायणि नमोस्तुते।

बुद्धि रूप में सब प्राणियों के हृदय में विराजमान स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करने वाली हे भगवती आपको नमस्कार है।

स्मृतिस्त्वं घृतिस्त्वं त्वमेवासि बुद्धिः। जरापुष्टितुष्टी घृतिः कांतिशांती। सुविद्या सुलक्ष्मीर्गंति कीर्तिंमेधे। त्वमेवासि विश्वस्य बीजं पुराणम्। उषसीं चैव गायत्रीं सावित्री व सरस्वतीम्। वेदानां मातरम् पृथ्वीमजां चैव तु कौशिकीम्।

-देवी भागवत्

तुम्हीं स्मृति, धृति, बुद्धि, जरा, पुष्टि, तुष्टि, धृति, कान्ति, शान्ति, विद्या, लक्ष्मी, गति, कीर्ति, मेधा और विश्व बीज तुम्हीं हो। उषसी गायत्री, सावित्री, सरस्वती, पृथ्वी, अजा, कौशिकी उसे वेदमाता कहते हैं।

स्मृतिशक्ति र्ज्ञानशक्तिबुद्धिशक्तिस्वरुपिणी। प्रतिभा कल्पनाशक्तिर्या च तस्यै नमो नमः॥

-ब्रह्म वैवर्त

जो स्मृति शक्ति-ज्ञान शक्ति और बुद्धि शक्ति के स्वरूप वाली है और जो प्रतिभा और कल्पना शक्ति के रूप वाली है उस देवी के लिए मेरा बार बार प्रणाम है।

अह बुद्धिरहं श्रीश्च धृतिः कीर्ति स्मृतिस्तथा। श्रद्धा मेधा दया लज्जा क्षुधा तृष्णा तथा क्षमा॥

-देवी भागवत्

मैं ही (1) बुद्धि (2) सम्पत्ति (3) धृति (4) कीर्ति (5) स्मृति (6) श्रद्धा (7) मेधा (8) दया (9) लज्जा (10) क्षुधा (11) प्यास (12) क्षमा हूँ।

या श्रीः स्वयं सुकतिनां भवनेष्व लक्ष्मीः। पापात्मनाम् कृतधियाम् हृदयेष बुद्धिः॥ श्रद्धां सतां कुलजनं प्रभवस्य लज्जा। तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम्॥

“जो देवी सज्जनों के गृह में स्वयं लक्ष्मी के रूप में रहती है और कुबुद्धि वालों को सद्बुद्धि प्रदान करती है, जो सत्पुरुषों के हृदय में श्रद्धा और कुलीन जनों में लज्जा रूप में रहती है उस विश्व का पालन करने वाली देवी को मैं नमस्कार करता हूँ।

स्वस्ति श्रद्धति मेधा मधुमति मधुरासंशयः प्रज्ञक्रांति। र्विद्या बुद्धिर्बलं श्रीरतुलधनमति सौम्यवाक्यावतीश्च॥

वह स्वस्ति, श्रद्धा, अतिमेधा, मध्मती, मधुरा असंशया, प्रज्ञक्रान्ति, विद्या, बुद्धि, बल, श्री, अतुलधन वाली है और अत्यन्त सौम्य वचनों वाली है।

मेधा प्रज्ञा प्रतिष्ठा मृदुमधुरगिरा पूर्णविद्या प्रपूर्ण। प्राप्ताप्रत्यूषचिन्ता प्रणवपश्वशात् प्राणिनां नित्यकर्म॥

वह मेधा की प्रज्ञा-प्रतिष्ठा-मृदु और मधुर वाणी वाली- पूर्ण विद्या से प्रपूर्णा- प्राप्त प्रत्यूष काल में चिन्ता और प्रणव के परवशा तथा प्राणियों का नित्य कर्म स्वरूपा है।

‘प्रज्ञा’ तत्व का प्रधान कार्य मनुष्य में सत असत निरूपिणी बुद्धि का विकास परिष्कार करती है। इसके मिलने का प्रथम चमत्कार यह होता है कि मनुष्य वासना तृष्णा की पशु प्रवृत्तियों से ऊँचा उठकर मनुष्योचित कर्म धर्म को समझने और तदनुसार उत्कृष्टतावादी रीति नीति अपनाने के लिए अन्तः प्रेरणा प्राप्त करता है और साहसपूर्वक आदर्शवादी जीवन जीने की दिशा में चल ही पड़ता है। ऐसे व्यक्ति स्वभावतः दुष्कर्मों से विरत हो जाते हैं और उनके क्रिया कलाप में से फिर अवाँछनीयताएँ एक प्रकार से चली ही जाती हैं। इस परिवर्तन को धर्म स्थापना और अधर्म निवारण के रूप में देखा जा सकता है।

धर्मोन्नति मधर्मस्य नाशनं जनहृद् छ्रुचिम्। मागल्ये जगतो माता गायत्री कुसनात्सदा॥

धर्म की उन्नति, अधर्म का नाश, भक्तों के हृदय की पवित्रता तथा संसार का कल्याण गायत्री माता करें।

य एतां वेद गायत्रीं पुण्यां सर्व गुणान्विताम्। तत्वेन भरत श्रेष्ठस लोके न प्रणश्यति।

-महाभारत भीष्म पर्व 1।4।16

हे राजन्! जो इस सर्वगुण सम्पन्न परम पुनीत गायत्री के तत्व ज्ञान को समझकर उसकी उपासना करता है उसका संसार में कभी पतन नहीं होता।

गीता 7-10 में भगवान् कहते हैं -

बुद्धिर्बुद्धिमाता यास्मि।

अर्थात् बुद्धिमानों में बुद्धि मैं ही हूँ।

चाणक्य ने भगवान से प्रार्थना की है-

मा गातु बुद्धिर्मम।

अर्थात् भले ही मेरा सब कुछ चला जाय पर सद्बुद्धि बनी रहे।

मस्तिष्क को, सिर को गायत्री का केन्द्र संस्थान बताया गया है। इस प्रतिपादन का तात्पर्य गायत्री को दूसरे शब्दों में विवेक उक्ति बुद्धिमता ही ठहराया गया है। सिर उसी का तो स्थान है।

कहा भी है -

अस्याश्च बुद्धिर्महत्वं स्वेतर सकल कार्य व्यापकत्वाद् महैश्वर्याच्च मन्तव्यम्।

साँख्या दर्शन 2।13(विज्ञान भिक्षु भाष्य)

यह बुद्धि ही संसार के समस्त कार्यों में प्रकाशित है ही। इसी की बड़ी सामर्थ्य है।

मस्तिष्क की तीक्ष्णता-चतुरता, सूझ-बूझ स्मरण क्षमता व्युत्पन्न मति को आमतौर से बुद्धिमत्ता समझा जाता है। पर अध्यात्म के चर्चा प्रसंग में दूरदर्शी विवेकशीलता को ‘प्रज्ञा’ कहा जाता है। यही आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता है। गायत्री महाशक्ति का अवतरण इसी प्रज्ञा शक्ति के रूप में होता है और साधक को प्रत्यक्ष उपहार यही मिलता है कि वह अपनी चिन्तन क्षमता को निष्कृष्ट प्रयोजनों से विरत करके उस तरह सोचना आरम्भ करता है, जिससे जीवनचर्या का सारा ढांचा ही बदल जाय और मात्र आदर्शवादी गतिविधियों को कार्यान्वित करने की ही सम्भावना शेष रहे।

सद्बुद्धि से प्रेरित सुव्यवस्थित क्रिया पद्धति और उत्कृष्ट रीति-नीति अपनाने वाला निश्चित रूप से सर्वतोमुखी प्रगति के मार्ग पर बढ़ता चला जाता है। जिन ऐश्वर्यों को प्राप्त करने के लिए लोग लालायित रहते हैं वे प्रबल पुरुषार्थ के आधार पर ही पाये जा सकते हैं। देवता किसी को छप्पर फाड़कर अशर्फियों का घड़ा नहीं दे जाते। वे मात्र ऐसी सत्प्रेरणा उल्लसित करते हैं जिससे चिन्तन और कर्तव्य के दोनों ही क्षेत्र सद्ज्ञान एवं सत्कर्म से ओत प्रोत हो चलें। प्रबल पुरुषार्थ से तात्पर्य इसी क्षेत्र में आगे बढ़ने से है अन्यथा सामान्य पुरुषार्थ तो दुष्ट दुर्गुणी भी करते ही हैं। जहाँ सद्बुद्धि की प्रेरणा से सत्कर्म परायणता का प्रबल पुरुषार्थ जगेगा, वहां किसी को किसी वस्तु का- किसी बात का अभाव नहीं रहेगा।

न देवा दण्डमादाय रक्षन्ति पशुपाल वत् य तु रक्षितुमिच्छन्ति बुद्धया संयोजयन्ति तम्।

ग्वाला जिस प्रकार लाठी लेकर पशुओं की रक्षा करते हैं उस तरह देवता किसी की रक्षा नहीं करते वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं उसकी बुद्धि को सन्मार्ग पर नियोजित कर देते हैं।

गायत्री का विकास शिरो भाग में बताया गया है कि देवताओं का निवास ब्रह्मरंध्र में मस्तक में बताया गया है। सैकड़ों दिव्य शक्तियों का केन्द्र होने के कारण उस केन्द्र को शत दल कमल कहते हैं। यह संख्या हजारों असंख्यों है। इसलिए उसे सहस्र दल कमल भी कहते हैं।

गायत्रं हि शिरः शिरो गायत्र्यः। अर्कवतीषु गायत्रीषु शिरो भवति॥

-ताण्डव ब्राह्मण

सूर्य के समान तेजस्वी गायत्री का स्थान शिर है। कलाषडडडडड और कल्मषों का निराकरण होने पर आत्मा के भीतर की दिव्य विशेषतायें सहज ही प्रकट होती और प्रखर होती हैं। अंगारे पर चढ़ी राख की परत को हटा देने पर उसकी धूमिल आभा पुनः प्रकट होती है और उसका वर्चस्व सहज ही दृष्टिगोचर होने लगता है। यह वह स्थिति है जिसमें कई प्रकार की दिव्य विशेषताओं का आभास मिलता है। दिव्य जीवन स्वभावतः रहस्यमय सिद्धियों का भण्डार होता है। वह अन्तःक्षेत्र में स्वर्ग और मुक्ति जैसा आनन्द उठाता है और अपने साथ साथ अनेकों को धन्य बनाता है। शंख स्मृति का वचन है-

अभीष्टं लोकमाप्नोति प्राप्नुयात्कामभीप्सितम। गायत्री वेदजननी गायत्री पापनाशिनी।। गायत्र्या परमं नास्ति दिवि चेह न पावनम। हस्तत्राणप्रदा देवी पततां नरकार्णवे।। तस्मात्तामभ्यसेन्नित्यं ब्राह्मणों नियतः शुचिः। गायत्रीजाप्यनिरतं हव्यकव्येषु भोजयेत्।।

तस्मिन्न तिष्ठते पापमब्बिन्दुरिव पुष्करे। जपे नैव तु संसिध्येद ब्राह्मणो नात्र संशयः।। कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते। उपांशु स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः। नोच्चैर्जंप बुधः कुर्यात्सावित्र्यास्तु विशेषतः। सावित्रीजाप्यनिरतः स्वर्गमाप्नोति मानवः।

गायत्रीजप्यनिरतो मोक्षोपायं च विन्दति।। तस्मातसर्वप्रयत्नेन स्नातः प्रयतमानसः। गायीत्री तु जपेद्भक्त्या सर्वंपापप्रणाशिनीम्।

-शंख स्मृति 12।24 से 31

गायत्री का जप करने वाला अभीष्ट लोकों को प्राप्त होता है और उसकी अभीप्सित कामनायें पूर्ण होती हैं।

गायत्री वेद जननी है, पापों का नाश करने वाली है। इससे बड़ी पवित्र करने वाली शक्ति न इस लोक में है न स्वर्ग लोक में। नरक रूपी समुद्र में गिरे हुए को वह हाथ का सहारा देकर उबारती है। अतएव गायत्री की नित्य उपासना करनी चाहिए और हवन करना चाहिए। गायत्री जप करने वाला कमल पत्रवत् रहता है। इसके ऊपर पाप नहीं चढ़ सकता।

गायत्री जप से निःसंदेह समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। अन्य कोई साधना न भी करे तो भी ब्राह्मण गायत्री का आश्रय लेकर पार हो जाता है। इस उपासना से स्वर्ग भी मिलता है और मोक्ष भी अतएव नित्य नियमित रूप से गायत्री की भक्तिपूर्वक जप साधना करनी चाहिए।

गायत्री मंत्र में जिस प्रज्ञा को धियः शब्द से संबोधित किया है और अन्तः चेतना के कण कण में ओत प्रोत करने की घोषणा की है, उसी की शास्त्रकारों ने अन्यत्र ऋतम्भरा ‘प्रज्ञा’ भूमा आदि नामों से चर्चा की है। यह शब्द सामान्य व्यवहार बुद्धि के लिए प्रयुक्त नहीं होता। चतुरता, कुशलता एवं जानकारी की जो शिक्षा स्कूलों, कारखानों एवं बाजार में सीखने को मिलती है प्रज्ञा उससे सर्वथा भिन्न है। जिस विद्या के आधार पर आत्म बोध होता है जीवन का महत्व, स्वरूप, लक्ष्य एवं उपयोग विदित होता है। सत् असत् का- उचित अनुचित का- भेद कर सकने वाली नीर क्षीर विवेचनी वृत्ति विकसित होती है उसी को गायत्री कहा जा सकता है।

गायत्री उपासना के द्वारा प्रज्ञा शक्ति प्राप्त करने के साथ साथ साधक को वे सभी विशिष्ट क्षमताएँ प्राप्त होती हैं जिनका वर्णन विद्याविधा के अवगाहन तथा योग तप आदि के साधना विधान के साथ जुड़ा हुआ है। गायत्री उपासक की आत्मिक पूँजी निरन्तर बढ़ती चली जाती है और यदि धैर्य और साहस के साथ आत्म संशोधन करते हुए अपने मार्ग पर बढ़ता ही चले तो एक दिन नर से नारायण स्तर पर पहुँचा हुआ सिद्ध पुरुष बनकर रहता है। कहा भी है-

योगनिद्रा योगरुपा योगदात्री च योगिनाम्। सिद्धिस्वरुपा सिद्धानां सिद्धिदा सिद्धियोगिनी॥ विद्याविद्यावतांत्वंच बुद्धिर्बुद्धिमतांसताम्। मेधास्मृतिस्वरुपाचप्रतिभाप्रतिभावताम्। वन्द्या पूज्या स्तुतात्वंचब्रह्मदीनांच सर्वदा। ब्राह्मण्यरुपाविप्राणां तपस्याचतस्विनाम्।

-ब्रह्म वैवर्त पुराण

आप योग निद्रा योग रूपा योगदात्री हैं जो कि योगियों को योग प्रदान किया करती हैं। आप सिद्धों को सिद्धियों के देने वाली हैं। आप सिद्धिक्ष और सिद्धियों की योगिनी हैं।

आप विद्वानों की विद्या और बुद्धिमान सत्पुरुषों की बुद्धि हैं। जो प्रतिभा वाले पुरुष हैं उनकी मेधा स्मृति और प्रतिभा के स्वरूप वाली हैं।

आप ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं द्वारा पूजित हैं ब्राह्मणों में ब्राह्मणत्व पर तपस्वियों में तप आप ही हैं। वृहदारण्यक उपनिषद् में गायत्री के ब्रह्म विद्या का- वेद विद्या का- परब्रह्म शक्ति का स्वरूप बताया गया है। कहा गया है कि इस महाशक्ति का आश्रय लेकर साधक ब्रह्म तेज का अधिकारी बनता है और सब कुछ प्राप्त कर लेता है जो इस संसार में पाने योग्य है।

तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतयसि धामनायसि। प्रियं देवा नायना धृष्ट देव यजनयसि। गायत्र्स्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि। नहि पद्यते नमस्ते तुरीयाय दर्शनाय पदाय परोरजसेऽसा वदो मा प्राप्त्।

वृ0 5।14।7

हे गायत्री, तुम तेज रूप हो, निर्मल प्रकाश रूप हो, अमृत एवं मोक्ष रूप हो, चित्तवृत्तियों का निरोध करने वाली हो, देवों की प्रिय आराध्य हो, देव पूजन सर्वोत्तम साधन है।

हे गायत्री! तुम इस विश्व ब्रह्माण्ड की स्वामिनी होने की एक पदी, वेद विद्या की आधारशिला होने द्विपदी, समस्त प्राण शक्ति का संचार करने से त्रिपदी और सूर्य मण्डल के अन्तर्गत परम तेजस्वी पुरुषों की आत्मा होने से चतुष्पदी हो। रज से परे हे भगवती श्रद्धालु साधक सदा तुम्हारी उपासना करते हैं।

भूलोकस्यास्य गायत्री कामधेनुर्मता बुधैः। लोक आश्रयणो नामुं सर्वं मेवाधि गच्छति।

(गायत्री मंजरी)

“विद्वानों ने गायत्री को भूलोक की कामधेनु माना है। उसका आश्रय लेकर हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं।

स्तुतामया वरदा वेदमाता। प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम। आणुः- प्राणं प्रजां पशुंकीर्ति- द्रविणं ब्रह्मवर्चस मह्यं दत्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।

‘‘द्विजों को प्रेरणा देने वाली पवित्र वेदमाता गायत्री की मैं स्तुति करता हूँ। अब मुझे आयु, बल, संतति, पशु, कीर्ति, धन, ब्रह्मवर्चस, अर्थात् वेद ज्ञान देकर ब्रह्मलोक पहुँचावें।’’

गायत्र्या सर्व संसिद्धिर्द्विजानां श्रुति संमता।

वेद वर्णित सारी सिद्धियाँ गायत्री उपासना से मिल सकती हैं।

यद्मत्स्पृशति हस्तेन यच्च पश्यति चक्षुषा। पूतं भवति तत् सर्वं गायत्र्या न परं विदुः॥

-गरुड़ पुराण

जिस-जिसका हाथ स्पर्श करता है और जो-जो नेत्र से देखता वह सभी पूत हो जाता है। गायत्री से परे अन्य कुछ भी नहीं है। यह गायत्री सर्वोपरि शिरोमणि मंत्र है।

“यतः साक्षात् सर्वदेवतात्मनः सर्वात्मद्योतकः सर्वात्म प्रतिपादकोऽयं गायत्री मंत्रः।’’

“इस प्रकार यह गायत्री मंत्र साक्षात् सर्व देवता स्वरूप सर्व शक्तिमान, सबको प्रकाश देने वाला और परमात्मा के सर्वात्म स्वरूप का ज्ञान करने वाला है।’’

ओजश्शक्ति बल प्रभाव सुषमा तेजस्सु वीर्यप्रभा। ज्ञानैश्वर्य महस्सहो जययशस्स्थैर्य प्रतिष्ठाश्रियः। विज्ञान प्रतिभा मतिस्मृतिधृति प्रज्ञाप्रथस्सु ज्वलाः। वर्णौस्त्वन्मानुगै स्त्रिरषभि रहो बर्ध्यन्त एवात्रमे।

“ओज, शक्ति, बल, महिमा, कान्ति, तेज, पराक्रम, प्रकाश, ज्ञान, ऐश्वर्य, विकास, सहनशक्ति, जय, कीर्ति, स्थिरता, प्रतिष्ठा, लक्ष्मी, विज्ञान, प्रतिभा, मति, स्मृति, धृति, प्रज्ञा, ख्याति, यह चौबीस गुण हे माता! तुम्हारे मंत्र में रहने वाले चौबीस वर्णों द्वारा मुझमें अभिवृद्धि पा रहे हैं।

देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरुपा पशवो वदन्ति। सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुपसुष्टुतैतु॥

-देव्युपनिषद् 10

देवताओं द्वारा उत्पन्न की हुई जिस वाणी को सब बोलते हैं। जो कामधेनु के समान सुखदायक है। बल और धन देने वाली है। उसका हम स्तवन आराधन करते हैं।

यतः साक्षात् सर्व देवतात्मकः सर्वात्मद्योतकः सर्वात्मप्रतिपादकोऽयं गायत्री मंत्रः।

-संध्या भाष्य।

यह गायत्री मंत्र साक्षात् सर्व देवता स्वरूप, सर्व शक्तिमान, सर्वत्र प्रकाश करने वाला तथा सर्वत्र आत्मा को प्रखर बनाने वाला है।

गायन्ति त्वा गायत्रिणोऽर्चन्त्यर्कमर्किणः। ब्रह्मणास्त्वा शतक्रिता उदवंशमिव येमिरे॥

मन्त्रवेत्ता मनीषी गायत्री का ही गान करते हैं। कर्मयोगी, याज्ञिक सविता की इस परम शक्ति गायत्री की ही उपासना करते हैं वेदवेत्ता विद्वान तेरी ही यश पताका उड़ाते फिरते हैं।

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