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Magazine - Year 1976 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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जीवन संग्राम में जूझें और विजय प्राप्त करें।

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जीवन एक खुला संघर्ष है। जो अपनी विशिष्टता सिद्ध करता है, वह जीवित रहता है और जो पिछड़ता है सो नष्ट हो जाता है। माली अपने बगीचे में दो प्रकार की नीति अपनाता है। उपयोगी पौधों को खाद−पानी देता, निराई गुड़ाई और रखवाली करता है। उन्हीं के समीप उगे हुए अनुपयोगी खर पतवार को वही माली निर्दयता पूर्वक उखाड़ कर फेंक देता है। देखने में सभी पौधे हरे भरे दीखते हैं पर माली की आँखें उपयोगी अनुपयोगी की परख करती हैं और दुरंगी नीति अपनाकर एक को प्रश्रय देती है और दूसरे को निर्दयतापूर्वक उखाड़ देती है। इस संसार की संरचना इसी आधार पर हुई है। उपयोगी वस्तुएं इस संसार की शोभा बढ़ाती रहें और कूड़ा करकट गंदगी न उत्पन्न करने पायें इस दृष्टि से उसका मालिक परमेश्वर भी इस दुहरी नीति पर चलता है। एक ओर वह सुयोग्य व्यक्तित्वों का उदारतापूर्वक पोषण करता है दूसरी ओर सड़े गले जीवित मृतकों को कुरूपता न फैलाने देने का भी ध्यान रखता है और उन्हें हटाने, मिटाने में भी शिथिलता नहीं बरतता।

अपनी उपयोगिता प्रमाणित करने के लिए हर व्यक्ति को अपने पुरुषार्थ का परिचय देना पड़ता है। प्रामाणिकता सिद्ध किये बिना महत्वपूर्ण सफलताओं के क्षेत्र में किसी को भी प्रवेश नहीं मिलता। यहाँ आराम की जिन्दगी जीने की कोई गुंजाइश नहीं है। रुका हुआ पानी सड़ जाता है, पान के पत्तों की हेरा फेरी न हो और चैन से जहाँ से तहाँ बैठे रहें तो उनकी भी दुर्गति होगी। शरीर इसलिए जीवित है कि इसमें रक्त संचार, आकुँचन प्रकुँचन, श्वास प्रश्वास जैसी क्रियाशीलता निरन्तर जारी रहती है। आहार ग्रहण करना और मल विसर्जन यह दोनों क्रियाएं जब तक सन्तुलित हैं तभी तक जीवन बना रहेगा। शक्ति सम्पत्ति के उपयोगी तत्वों का उपार्जन और भीतरी बाहरी अवाँछनीयताओं का विसर्जन यह दोनों बातें परस्पर विरोधी लगती हैं पर हैं अन्योन्याश्रित। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं रहेगा। हमें आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादक पुरुषार्थ करना होता है और चारों ओर से सहज स्वभाव घिरती आने वाली प्रतिकूलताओं को निरस्त करने के लिए उनसे लोहा भी लेना पड़ता है। इन दुहरी गतिविधियों को अपनाये बिना किसी का किसी प्रकार गुजारा नहीं।

चैन की परिभाषा यदि बिना कठिनाई और बिना संघर्ष के अभीष्ट सुविधाओं को प्राप्त करना हो तो वह कल्पना तक ही सीमित रहेगा, व्यावहारिक जीवन में उसकी संभावना नहीं ही है। मौज करना अच्छा तो है पर तब कि उसके साधन इकट्ठे करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ पूरा कर लिया हो। श्रम के बाद ही आराम का आनन्द मिलता है। भूख न लगे तो स्वादिष्ट भोजन का क्या महत्व? रात न होती तो कोई दिन का महत्व ही न समझ पाता। कपड़ा ताने बाने के दो दिशाओं में चलने वाले धागों से बुना जाता है। एक ही दिशा में चलने वाले धागे चलें तो कपड़ा तैयार होने की कोई सम्भावना नहीं। नमक और शक्कर के परस्पर विरोधी स्वाद मिलकर ही भोजन का आनन्द देते हैं। चैन का आनन्द केवल प्रबल पुरुषार्थी ही उठा सकता है अन्यथा मौज करने की आकाँक्षा निष्क्रिय रहने के लिए प्रेरित करेगी और उसे अपनाया तो उपयोगिता खोकर सड़न के गर्त में गिरना पड़ेगा। मौज की छुट्टी पानी हो तो मृत्यु की गोद में शान्तिपूर्वक सोने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं जीवित रहना है तो संघर्ष की नीति अपनानी पड़ेगी। जीवनोपयोगी उपार्जन और सुरक्षा संरक्षण के साधन यह दोनों ही प्रत्येक जीवन्त व्यक्ति के लिए नितान्त आवश्यक हैं। उनकी पूर्ति प्रबल पुरुषार्थ के बिना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। जीवित रहने के लिए संघर्ष आवश्यक है, भले ही यह कष्ट कारक और अरुचिकर हो पर इससे बच निकलने का कोई भी मार्ग नहीं है।

किसी पर अनीतिपूर्वक आक्रमण नहीं ही किया जाना चाहिए। दूसरे के शोषण उत्पीड़न के लिए उद्दण्ड उच्छृंखलता का अहंकारी प्रदर्शन करने के लिए खड़े किये गये युद्ध संघर्ष, निश्चित रूप से निन्दनीय हैं, उन आसुरी कुकृत्यों की जितनी भर्त्सना की जाय उतनी ही कम है। पर साथ ही यह नहीं भूलना चाहिए कि यहाँ दुष्टता भी कम नहीं है। देवत्व जितनी ही असुरता भी इस संसार में भरी पड़ी है। इसलिए जहाँ सत्प्रवृत्तियों का पोषण करने की आवश्यकता है वहाँ दुष्प्रवृत्तियों से आत्म रक्षा के लिए जूझना भी अनिवार्य है। हम आक्रमण न बनें पर साथ ही आत्मरक्षा के लिए प्रखरता का परिचय देने में भी शिथिलता न बरतें।

अवाँछनीय तत्वों की इस संसार में कमी नहीं। उनसे जूझना इसलिए आवश्यक है कि हमारी प्रतिभा जागरुकता, सतर्कता, साहसिकता जैसी विभूतियों पर धार रखी जाती रहे और वे अपनी प्रखरता को जीवंत बनाये रह सकें। अखाड़े में डंबल, मुद्गर जैसे भारी उपकरण उठाने पटकने के लिए नहीं कुश्ती की उठक-पटक का क्रम न चले, डंड बैठक की कठोर प्रक्रिया न अपनाई जाय तो हमारे सहारे कोई बलिष्ठ पहलवान न बन सकेगा। कुम्हार की चोटें खाकर ही मामूली सी मिट्टी उपयोगी घड़ा बनती है। लुहार और ठठेरे दनादन घन बजाकर ही अनगढ़ धातुओं के बर्तन बनाते हैं। सुनार द्वारा सुन्दर आभूषण बनाने का श्रेय उसकी तपाने पीटने की कुशलता को ही दिया जाता है। छैनी हथौड़ी को चोट खाये बिना पत्थर से देव प्रतिमा कहाँ बनती है। धोबी द्वारा मैले कपड़ों को चमकते दमकते बना देने का चमत्कार पीटने की प्रक्रिया द्वारा ही सम्भव हो पाता है वैद्यों की कुटाई, घिसाई, पिसाई और जलाने तपाने की विधि व्यवस्था ही मामूली सी वनस्पतियों और धातुओं को बहुमूल्य रसायनों के रूप में परिणत करती है। जो इस प्रकृति रहस्य को समझते हैं वे जानते हैं कि प्रबल पुरुषार्थ का कठिनाइयों से जूझने का कितना महत्व है। आरम्भ में वह सब कष्टकर प्रतीत होता है, पर अग्नि परीक्षा में होकर गुजरे बिना प्रामाणिकता सिद्ध भी कहाँ होती है? और उसके बिना उपयुक्त स्थान एवं मान भी किसको मिलता है।

एकाँकी सज्जनता अधूरी है उसके साथ तेजस्विता भी जुड़ी रहनी चाहिए। भारत में बौद्ध धर्म तत्कालीन दुष्प्रवृत्तियों से जूझने के लिए प्रादुर्भूत हुआ था। पीछे लोगों ने उसे योग अहिंसा जैसी विधायक प्रवृत्तियों तक सीमित कर लिया। फलतः प्रखरता घटती गई। वस्तुस्थिति का पता पड़ौसी आततायियों को लगा तो वे चढ़ दौड़े और देखते देखते थोड़े से आक्रमणकारियों ने इतना बड़ा देश रौंद डाला। अपनी दुर्बलता ही थी जिसके कारण हमें नृशंस उत्पीड़न भरी गुलामी एक हजार वर्ष तक सहनी पड़ी। समय रहते सर्वांगपूर्ण नीति को अपनाये रखा गया होता तो इतिहास के पृष्ठों पर कलह कालिमा क्यों अंकित होती। एक हाथ में माला एक हाथ में भाला वाला गुरु गोविन्द सिंह का मंत्र मानवी तत्वज्ञान से परिपूर्ण है। समर्थ गुरु रामदास से लेकर चाणक्य वशिष्ठ आदि महामनीषियों की धर्मशिक्षा में सज्जनता और संघर्ष शीलता के लिए समान स्थान मिलता रहा है। द्रोणाचार्य परशुराम जैसी ब्रह्मज्ञानी शस्त्र और शास्त्र को समान रूप से महत्व देते रहे हैं। उस प्राचीन धर्म प्रक्रिया को सिक्ख धर्म के रूप में नया संस्करण बनाकर प्रस्तुत किया गया है। ब्राह्मण और क्षत्रिय धर्म का समन्वय ही तेजस्वी अध्यात्म का रूप प्रस्तुत करता है। महात्मा गाँधी हमें अभी कल परसों तेजस्वी अहिंसा का व्यावहारिक रूप सत्याग्रह तत्व ज्ञान के रूप में सिखाकर गये हैं, उन्होंने धर्मनिष्ठा और कायरता को एक जैसी लगने पर भी उन्हें परस्पर विरोधी बताया था और ब्रह्मज्ञान के साथ तेजस्विता अपनाने का भी पाठ पढ़ाया था।

संसार में फैली हुई अवाँछनीयताएँ हमारे शौर्य, साहस, पुरुषार्थ एवं कौशल को चुनौती देने के लिए हैं। रोग न रहे तो डॉक्टर की क्या उपयोगिता? पाप न हो तो धर्म प्रचारकों की क्या जरूरत? दरिद्र न होता हों तो दानी बनने का श्रेय किसे मिलेगा? संसार में फैली हुई बुराइयों को देखकर जिस तिस पर दोषारोपण करने मात्र से काम न चलेगा। उन्हें हटाने मिटाने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करते हुए हमें अनुकरणीय परम्पराओं की स्थापना करनी चाहिए। अनीति के अनौचित्य के निराकरण में प्रचण्ड प्रयत्न करने पड़ते हैं, कष्ट और आघात सहने पड़ते हैं, शौर्य साहस का परिचय देना पड़ता है। इस दृष्टि से उदात्त आत्माओं के लिए वे अवाँछनीयताएँ भी भावनात्मक प्रगति का आधार बनती हैं। फैली हुई कुरूपता और अवाँछनीयता से यदि हम डरने घबराने न लगें और उन्हें निरस्त करने के लिए अपनी प्रखरता की कसौटी पर चढ़ा दें तो उसका भी लाभ उठाया जा सकता है। विष से भी अमृत बना लेना रासायनिक कुशलता है। संसार में फैली हुई अवाँछनीयताओं को अपने लिए चुनौती माना जाय और लड़कर उन्हें परास्त करने का पुरुषार्थ जुटाया जाय तो उससे भी देव परम्पराओं को यशस्वी होने का अवसर मिल सकता है और साधारण में सृजनात्मक साहस बढ़ जाता है।

अनीति में- आतंकवादियों में प्रकृतितः कोई दम नहीं होता। चोर के पैर नहीं होते, मालिक के करवट बदलने और खाँस देने भर से वह भाग खड़ा होता है। गुण्डा तत्व तो इसलिए पनपते हैं कि सज्जनों में तेजस्विता और संगठित प्रतिरोध शक्ति का अभाव होता है। जटायु जैसी अनीति से संघर्ष करने की नीति यदि सज्जनता के साथ जुड़ जाय तो फिर देखते देखते उन आतंकवादियों का उन्मूलन हो जायगा जो मुट्ठी भर होते हुए भी सारे समाज को डराते और मनमानी करते रहते हैं। असल में गुण्डा तत्वों द्वारा समाज में फैले हुए अनाचार का असली दोषी इन तथाकथित सज्जनों को भी ठहराया जाना चाहिए क्योंकि उन्हीं की कायरता एवं उपेक्षा का खाद पानी पाकर यह अपराधी तत्व अल्प संख्यक होते हुए भी बहुसंख्यक शान्त जनता पर छाये रहते हैं। अपने ऊपर बीतने पर जिस प्रकार आक्रमणकारियों से निपटने की बात सूझती है वैसी ही जागरुकता यदि दूसरों पर बीतने पर रखी जाय तो इतने भर से अवाँछनीय आतंकवादिता को जड़ मूल से उखाड़ा जा सकता है।

प्रगति के लिए रचनात्मक, उत्पादक पुरुषार्थ की आवश्यकता है और आसुरी आक्रान्ताओं से निपटने के लिए प्रबल पराक्रम की । दोनों को मिलाकर जो तेजस्विता उभरती है उसी को शौर्य साहस कहते हैं। इसी विशेषता से सम्पन्न लोगों को मनस्वी, ओजस्वी, तेजस्वी प्रतिभावान कहते हैं। यह आन्तरिक विशेषता जिस भी दिशा में चल पड़े उसी में चमत्कार उत्पन्न करती है। यदि वह अनाचारी असुरता पर उतर जावे तो मनुष्य को दुर्दान्त दस्यु और नृशंस आतंकवादी बना देती है। यदि यह विशेषता संपत्तिवान बनने के लिए चल पड़े तो धनी, विद्वान, कलाकार, नेता, विजेता आदि बनाये बिना नहीं रहती। छोटी स्थिति में उत्पन्न हुए लोग कई बार आश्चर्यजनक भौतिक प्रगति करते और सुसम्पन्न बने देखे गये हैं यह इसी साहसिक प्रतिभा का चमत्कार है। यही प्रखरता यदि सन्मार्गगामी बन जाय तो एक से एक बढ़कर त्याग बलिदानों का- आदर्शवादी क्रियाकलाप का आधार विनिर्मित करती चली जाती है महामानवों की अन्तःस्फूर्ति सन्मार्ग का अवलम्बन करती है वे अविस्मरणीय, अभिनन्दनीय युग पुरुषों की पंक्ति में जा बैठते हैं। योगी, तपस्वी, सिद्ध पुरुष, तत्वज्ञानी इसी प्रकार के दुस्साहसी होते हैं।

संसार की रीति-नीति बड़ी विचित्र है। यहाँ अंध मान्यताओं, भ्रष्ट परम्पराओं और अवाँछनीय गतिविधियों का बोलबाला है। अधिकाँश मनुष्यों का चिन्तन एवं कर्तृत्व औचित्य और विवेक की कसौटी पर कसने से खोटा सिद्ध होता है। दुर्बल मनःस्थिति के लोग उसी लकीर के फकीर बनते हैं जिस पर अंधी भेड़ों का बहुमत भटकता-भटकाता है। ओछे लोगों की सलाह ओछी ही हो सकती है। उनकी अभिरुचि एवं मान्यताओं में पिछड़ापन ही अधिक मात्रा में भरा रहता है। साहसी लोगों में अपनी मौलिकता होती है वे केवल आत्मा का, परमात्मा का, नीति का, विवेक का अनुशासन मानते हैं और यह नहीं देखते कि लोग क्या कहते और क्या करते हैं? वे अपनी राह आप बनाते हैं और वह औचित्य एवं आदर्शवाद पर आधारित होती है। उनमें अपना निज का साहस इतना होता है कि प्रतिगामी मान्यताएँ चाहे वे स्वजन सम्बन्धियों की- तथाकथित बड़े आदमियों की ही क्यों न हों, झुठला सकें। ऐसे लोग प्रायः व्यंग उपहास के निशाना बनते हैं पर उसमें उन्हें बालकों के साथ हँसने हँसाने जैसा विनोद ही प्राप्त होता है। उनकी मौलिकता कालान्तर में दूसरों को प्रभावित करती है और विरोधियों को अनुगामी बनाती है। औचित्य एवं साहस की सम्मिश्रित शक्ति अपार है। उसे अपनाकर मनुष्य भौतिक और आत्मिक प्रगति के अभीष्ट लक्ष्य पर अधिकाधिक दूरी तक बढ़ता चला जाता है।

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