
स्थूल में ही न उलझे रहें, सूक्ष्म की शक्ति भी समझें।
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स्थूल बुद्धि द्वारा विस्तार का महत्व समझा जाता है “जो जितना बड़ा सो उतना श्रेष्ठ” यही मान्यता जन साधारण की पाई जाती है। स्थूल के बाटों से स्थूल वजन ही तोला जा सकता है और जो भारी है, विस्तृत है बड़ा है उसी को महत्व मिल सकता है। पर सूक्ष्म दृष्टि बारीकी में उतरती है तो प्रतीत होता है कि जो महत्वपूर्ण है जो रहस्यमय है वह सूक्ष्म में सन्निहित है स्थूल तो उसका कलेवर मात्र है।
विस्तार की दृष्टि से पहाड़ ऊँचा है और रेगिस्तान विस्तृत है पर एक मधुर निर्झर की तुलना में उन दोनों का महत्व कम है। भौतिक वैभव को- ठाट बाट को देखकर स्थूल बुद्धि चकित और भ्रमित रह जाती है और बड़प्पन को मान देने लगती है पर जहाँ बारीकी को समझा देखा जाता होगा वहाँ गुणों को महत्व दिया जायगा। कृष्ण ने एक ओर अपनी सेना दूसरी ओर स्वयं को रखा था और दुर्योधन तथा अर्जुन से पूछा था कि उन दोनों में से वे अपनी पसन्दगी का एक पक्ष चुन लें। दुर्योधन ने सेना का विस्तार देखा और उसी को ले लिया। अर्जुन ने गुण का महत्व समझा और एकाकी कृष्ण को अपने पक्ष में लेकर संतोष कर लिया। सर्वविदित है कि सैन्य समूह की तुलना में अकेले कृष्ण का उत्कृष्ट व्यक्तित्व अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ।
स्थूल साधनों के लिए लालायित रहने वाले सभी हैं पर ऐसे विरले हैं जो सूक्ष्म की शक्ति को समझते हैं और गहराई तक प्रवेश करके उसे प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं जिसके फलस्वरूप यह विस्तृत विस्तार गतिशील हो रहा है। भौतिक विज्ञान भी अध्यात्म विज्ञान की तरह ही अब इस निष्कर्ष पर पहुँच रहा है कि शक्ति का स्रोत सूक्ष्मता की परतों के साथ जुड़ा हुआ है। जितनी गहराई में उतरा जायगा, सूक्ष्म सत्ता को जितना खोदा कुरेदा जायगा उतना ही बड़ा शक्ति भण्डार हाथ लगता जायगा। एक बड़ी सी चट्टान का परमाणु की नगण्य सी इकाई के विस्फोट से उत्पन्न शक्ति की तुलना में कुछ भी महत्व नहीं है।
एक पाव दूध में एक ग्रेन का छह लाखवाँ अंश जितना लोहा होता है। पर इतने से ही बच्चे के शरीर की लौह आवश्यकता पूरी हो जाती है। पानी में हजारवें भाग के रूप में घुला दालों का ग्लटिन हाइड्रोक्लोरिक एसिड आसानी से पच जाता है। पर जब वही अधिक मात्रा में होता है तो निरर्थक चला जाता है।
हमारे शरीर के जीवाणु ही छोटे हैं। उनकी शोषण शक्ति भी उनके कलेवर के अनुरूप ही स्वल्प है। उनमें प्रवेश कर सकने वाले पदार्थ इतने छोटे होने चाहिए जो इन शरीरगत जीवाणुओं, कोशाओं के भवन में आसानी से प्रवेश पा सकें। आहार में प्राकृतिक रूप से हर जीवनोपयोगी पदार्थ बहुत ही छोटे अंशों में विद्यमान रहता है। इसलिए वे पचकर शरीर में घुल मिल जाते हैं। पर यदि उन्हें सघन रूप से लिया जाय तो उसके मोटे कण चूर्ण विचूर्ण होने में बहुत समय और श्रम लेंगे और तब कहीं कठिनाई से थोड़ी मात्रा में हजम होंगे। यही कारण है कि शाक सब्जी अन्न दूध में अत्यन्त स्वल्प मात्रा में मिले हुए क्षार और खनिज हमारे शरीर में घुल जाते हैं किन्तु उन्हीं पदार्थों को यदि गोलियों के रूप में खाया जाय तो उनका बहुत छोटा अंश ही शरीर को मिलेगा बाकी स्थूल होने के कारण बिना पचे ही मल मार्ग से निकल जायेगा।
होम्योपैथी के आविष्कारों को सूक्ष्म शक्ति की जानकारी जब मिली तो उन्होंने मानवी आरोग्य की समस्या का समाधान करने के लिए उसी का उपयोग कर डाला। उन्हें यह प्रेरणा पानी में घुले ताँबे के अत्यन्त स्वल्प अंश का प्रभाव देखकर मिली थी।
कार्लवान नागेली के चार ताँबे के पैसे उनकी बिना जानकारी में पानी के एक बर्तन में गिर पड़े, वह पानी सहज स्वभाव स्पाइरोगिरा के पौधों की जड़ों में डाल दिया गया। पौधे कुछ ही घन्टे के अंदर मर गये। अकस्मात ऐसा क्या हो गया? इस खोज में उनकी जड़ में डाले गये पानी की खोजबीन हुई और उसमें पड़े हुए ताँबे के पैसों की सौगात मिलाई गई। पीछे गहरे अन्वेषण से पता चला कि ताँबे की इतनी स्वल्प मात्रा इतनी सशक्त होती है कि उनके द्वारा पौधों पर ऐसा अद्भुत प्रभाव पड़ सकें।
छोटा बनने से वजन कम नहीं हो जाता। भारतीय दर्शन की मान्यता यह है कि परमाणु आकाश में अपने सदृश परमाणुओं के साथ घनीभूत हो जाता है तो उनकी शक्ति का पारावार नहीं रहता।
एक स्क्वायर इंच टुकड़े लकड़ी का वजन 1 छटांक से भी कम होता है पर उतना ही लोहा एक छटाँक से अधिक होगा। प्लैटिनम लोहे से भी अधिक वजनदार होता है क्योंकि उसके परमाणुओं में सघनता होती है। आकाश के कुछ सितारों के दृश्य 1 क्यूबिक इंच के हों तो भी उनका वजन 27 मन होगा एक तारे के इतने ही द्रव्य का वजन 16740 मन पाया गया। ज्येष्ठा तारे के बारे में कहा जाता है कि उसका नग अंगूठी में लगा दिया जाय तो उस अंगूठी का वजन 8 मन का होगा।
बड़प्पन के अहंकार से छोटा बनने की नम्रता का मूल्य कितना अधिक है इसे आध्यात्मवाद पर विश्वास करने वाले भली प्रकार जानते हैं। स्थूल वैभव विस्तार के लिए लालायित लोगों की तुलना में वे अधिक बुद्धिमान हैं जो अपनी सूक्ष्म शक्ति को समझते हैं और उसे विकसित करने की आत्म साधना में संलग्न रहते हैं।
लघुता की गतिशीलता विराट की गति से की जा सकती है। हीरा आदि ठोस पदार्थ दिखाई देते, स्थूल होते हैं उनके अणुओं (मालीक्यूल्स) की गति प्रति घन्टा 960 मील होती है। तरल पदार्थों के अणुओं का कम्पन ठोस पदार्थों से ड्यौढ़ा और दुगुना हो जाता है। दि मैकेनिज्म आफ नेचर (एण्ड्राड लिखित) में लिखा है-1 ओंस पानी में इतने परमाणु होते हैं कि संसार के सभी स्त्री पुरुष व बच्चे उन्हें गिने और एक सैकिंड में 5 की गति से गिने होते और दिन रात गिने तो गणना 40 वर्ष में पूरी हो जाती है। पर उस तरल को जब और भी सूक्ष्म छोटे छोटे टुकड़ों में गैस रूप में कर दिया जाता तो अणुओं की संख्या और गतिशीलता लक्ष लक्ष गुना अधिक हो जाती है। गैस के अणुओं के बीच की दूरी एक इंच के 30 लाखवें हिस्से से भी कम होती है फिर भी वह एक सैकिण्ड में 6 अरब बार परस्पर टकराते हैं। ठोस देखने में बड़ा लगता है पर उसकी गति स्थूल होती है। गैसें कई तो दिखाई भी नहीं देती पर इतनी क्रियाशील होती हैं कि उनके माध्यम से उनकी गतिशीलता के आधार पर लाखों मील दूर की बात को एक सैकिण्ड में जान लिया जाय। आगे इसी विज्ञान के विकास के द्वारा लाखों वर्ष पूर्व की घटनाओं का चित्रण चलचित्र की भाँति सम्भव हो जाये तो कुछ असम्भव नहीं। इसी को कहते हैं कि लघुता की महत्ता। प्रकाश का अणु आज तक पकड़ में नहीं आया, पर वह सारे संसार को प्रकाश गर्मी देता है। उसकी पहुँच इतनी विकट है कि वह एक सैकिण्ड में ही 186000 मील पहुँच जाता है। मनुष्य का उतावला मन यदि स्थूल से सूक्ष्म तथा उससे छोटा बनाया जा सके, बड़े होने के अहंकार से बचाकर उसे छोटा से छोटा बनाया जा सके तो उसमें एक सैकिंड के भी लाखवें हिस्से में सारे ब्रह्माण्ड का भ्रमण कर आने की क्षमता, सक्रियता विद्यमान प्रत्यक्ष देखी जा सकती है। सूक्ष्म बनाया हुआ मन ही त्रिकालदर्शी होता है। उल्लेखनीय है कि भारतीय दर्शन ने मन, आत्मा और परमात्मा को तत्व ही माना है।
अणु बम तथा हाइड्रोजन बम चार प्रकार की हानियाँ पहुंचाते हैं। (1) धमक (2) ताप (3) आरम्भिक न्यूक्लीय अभिक्रिया (4) रेडियो सक्रिय विकरण। औसत बम की धमक से 6 मील दूर के घेरे की वस्तुओं का पूर्ण विनाश 12 मील तक भयंकर क्षति और 25 मील तक आँशिक हानि होती है। ताप का प्रभाव 10 मील की परिधि में 95 प्रतिशत प्राणियों की तत्काल मृत्यु हो जाती है। 17 मील के घेरे में लोग भयंकर रूप से बीमार अथवा ऐसे अपंग हो जायेंगे जिनका जीना मरने से भी महँगा पड़ेगा। 30 राण्टेजन इकाई का रेडियो विकरण मनुष्य को घुला घुलाकर मारता है और उन्हें जल्दी ही मौत के मुँह में धकेल दिया है। छोटे जीव उस विकरण से और भी जल्दी मरते हैं।
यह ध्वंसात्मक परिचय हुआ। सृजन की सम्भावनाओं में कितनी ही बातें ऐसी स्वीकार कर ली गई हैं जो वैज्ञानिक प्रयासों से अगले ही दिनों साकार हो जायेंगी। सर्दी गर्मी वर्षा ऋतुओं में हेर फेर करना मानवीय इच्छा के अन्तर्गत आ जायगा। समुद्र की अथाह जल राशि से उसके खारापन को विलग करके मीठा पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध किया जा सकेगा। मरुस्थल तथा ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी और अनुत्पादक भूमि को उपजाऊ बनाया जा सकेगा। समुद्र में वनस्पतियाँ उगाकर आहार की समस्या का समाधान सम्भव होगा मानुषी श्रम का बोझ बिजली सँभाल लेगी और लोग केवल मनोरंजन जैसा श्रम करके गुजर कर लिया करेंगे। संसार के एक कोने में रहने वाले मनुष्य का सम्पर्क दूसरे छोर पर रहने वाले के साथ क्षणभर में स्थापित हो सकेगा आदि-आदि।
मौसम को मनुष्य की आवश्यकता के अनुरूप बनाया जा सके, इसका आधार तो विदित हो गया है और इस सम्भावना को स्वीकार कर लिया गया है। प्रश्न खर्चे का है यदि उतने साधन उपकरण जुटाये जा सकें तो निस्सन्देह मौसम को इच्छानुकूल बना लेना मनुष्य के हाथ में होगा। दुनिया में सारी हवा को इच्छानुसार बहाया जा सकता है पर उसके लिए हर दिन इतनी शक्ति का प्रयोग करना होगा जितना दस लाख परमाणु बमों के विस्फोट से उत्पन्न होती है। वायुमण्डल में एक सेन्टीग्रेड तापमान बढ़ाना हो तो दो हजार परमाणु बम विस्फोट जितनी शक्ति चाहिए। मध्यम श्रेणी के तूफान को रोकने में मेगाटन अणु शक्ति खर्च करनी पड़ेगी।
सूर्य द्वारा प्रतिक्षण, ताप एवं प्रकाश के रूप में प्रचण्ड ऊर्जा प्रवाहित होती है। उसका बहुत बड़ा विकरण अंश पृथ्वी के ऊपर की विरल परतों द्वारा सोख लिया जाता है और उस संग्रहीत विकरण भण्डार में से छन छनकर जो ऊर्जा सघन वायुमण्डल में आती है उसी के आधार पर मौसम बदलता है। वायुमण्डल की सघन परत ऊपर की विरल परत से जब जितनी जिस प्रकार प्रभावित होगी ऋतु परिवर्तन का उतना ही स्वरूप सामने आवेगा। कहना न होगा कि सूर्य विकरण से संचित ऊर्जा विरल परत पर इतनी अधिक है कि यदि किसी प्रकार वह सघन परत को चीरकर ज्यों की त्यों नीचे उतर आये तो इस धरती को क्षण भर में भूनभान कर रख दे।
इस सूक्ष्मता की चरम सीमा तक पहुँचते हैं तो उपनिषद्कार की भाषा में हम विद्युत ब्रह्म की सीमाएँ छूने लगते हैं। परमाणु सत्ता के अन्तर्गत काम करने वाले विद्युत बिन्दुओं की ओर ही यह संकेत है। वृहदारण्यक उपनिषद् का ऋषि 4।7।1 में कहता है-
“विद्युद्धयेव” यह विद्युत ब्रह्म है।
अब इलेक्ट्रान के भीतर इलेक्ट्रान और नाभिक (न्यूकिलस) के भीतर अनेक नाभिकों (न्यूक्लिआई) की संख्या भी निकलती चली आ रही है। हमारे ऋषि ग्रन्थों में इन्हें “सर्गाणु” तथा “कर्षाणु” शब्दों से सम्बोधित किया गया है। विभिन्न तत्वों के परमाणुओं की इस सूक्ष्म शक्ति को देवियों की शक्ति कहा गया है।
वैभव विस्तार के लिए, यश परिचय बढ़ाने के लिए, कुटुम्ब परिवार के लिए- जितना सोचा और किया जाता है उतना ही यदि अपनी सूक्ष्म चेतना का मूल्याँकन करने और उसमें सन्निहित ब्राह्मी चेतना को उभारने का प्रयत्न किया जाय तो हम असीम सामर्थ्य के अधिपति हो सकते हैं और इतना पा सकते हैं जिसकी तुलना में चक्रवर्ती सम्राट बनने का सुख भी तुच्छ प्रतीत होने लगे।
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