
लक्ष्यवेध का रहस्य
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राजा द्रुपद की कन्या अपनी सामान्य गति से विकसित होती जा रही थी। बचपन, के शौर्य और वयःसन्धि की आयु को पार कर जब उसने युवावस्था में प्रवेश किया तो द्रुपद को उसके हाथ पीले करने की सूझी।
राजकुमारी द्रौपदी कोमलता, सौन्दर्य, बुद्धि, प्रतिभा और शिक्षा ज्ञान की अद्वितीय स्वामिनी थी। बाल्यकाल से ही उसे अपने माता पिता का स्नेह और दुलार भरा प्यार मिला था, भोगने के लिए अतुल राज-वैभव चारों ओर बिखरा था, शिक्षा के लिए अलग-अलग विषयों की एक से एक योग्य अधिकारी विद्वान रखे गये थे। स्वभावदत्त मेधा, अभ्यास सिद्ध निखार और शिक्षकों के प्रयत्न साध्य विद्यादान ने राजकुमारी को संगीत, कला, साहित्य, वेद, उपनिषद् और शास्त्रों के ज्ञान में निष्णात् कर दिया था।
द्वितीया के चाँद की भाँति जब उसके सभी गुण विशिष्टताओं और योग्यताओं के साथ रूप सौन्दर्य भी निखरने लगा तो राजा ने उसके लिए अगले आश्रम की चिन्ता की और योग्य वर के लिए अपने गणदूत को अन्य राज्यों में भेजा। राज्य सभा में आने वाले अन्य राज्यों के प्रतिनिधियों से भी उन्होंने उपयुक्त वर का ध्यान रखने का आग्रह किया।
पक्षान्तर में थोड़े बहुत अन्तर से भेजे गये सभी गणदूत लौट आये। उन्होंने अपनी अपनी दृष्टि से कई युवराजों के उपयुक्त होने की सूचना दी। राजा ने उनके लक्षणों और प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में पूछा। आगत गणदूतों ने यथासम्भव उनका भी परिचय दिया। सुनकर द्रुपद की मुख मुद्रा पर ऐसे भाव तैर जाते जिन्हें देखकर लगता कि वे इन उत्तरों- लक्षणों से संतुष्ट नहीं हैं।
सभी गणदूतों द्वारा दिये गये विवरणों ने राजा को सत्पात्र जामाता की प्राप्ति का सन्तोष नहीं दिया। उन्होंने और भी कई स्थानों पर अपने दूत भिजवाये।
मासान्तरों से जब वे लौटे तो उनकी खोज से भी द्रुपद को सन्तोष नहीं हुआ। अब की बार राजा के कण्ठ से यह नैराश्य फूट ही पड़ा- ‘क्या मेरी बेटी’ अविवाहित ही रह जायगी?’
अविवाहित भले ही रह जाय, पर द्रुपद अपनी कन्या किसी ऐसे वर के हाथों नहीं सौंपना चाहते थे जो अयोग्य हो। द्रुपद ने अपनी चिन्ता राजगुरु के सम्मुख रखी। राजगुरु ने पूछा- ‘द्रुपद! तुम राजकुमारी के लिए कैसा वर चाहते हो जरा यह भी तो सुनूं।’
राजन् ने कहा- मैं ऐसे योग्य वर की तलाश में हूँ जो जीवन में विजयी बनकर जिये। जिसे परिस्थितियाँ विचलित न कर सकें और जो धैर्यपूर्वक लक्ष्य की ओर बढ़ता रहे।’
‘इन सब योग्यताओं की जननी है राजन्- एकाग्रता’- राजर्षि ने कहा- ‘और’ यदि एकाग्रता की परीक्षा ली जा सके तो सत्पात्र युवक खोजा जा सकता है।’
इस परीक्षा का प्रबन्ध भी राजर्षि को सौंपकर द्रुपद निश्चित हो गये।
कालान्तर में स्वयंवर का प्रबन्ध किया गया। दूर-दराज देशों तक इस स्वयंवर की सूचना और युवराजों को आमंत्रण पहुँचाया गया। निश्चित तिथि को स्वयंवर हुआ। घोषणा करते हुए कहा गया-जो भी युवराज ऊपर घूमती हुई मछली की परछांई देखकर उसकी आँख का निशाना लगाने में सफल होगा युवराज्ञी द्रौपदी, उसे वरमाला पहनायेगी।’
एक मंच पर इस प्रकार की व्यवस्था की गयी थी। एक-एक कर सभी युवराज आने लगे किन्तु कोई भी लक्ष्यवेध में सफल नहीं हुआ। अन्त में पाण्डुपुत्र अर्जुन आये। उन्होंने प्रत्यंचा चढ़ाई और उस पर शरसाधा।
विहित सतर्कताओं का पालन करते हुए अर्जुन ने शर सन्धान कर दिया। तीर निशाने पर बैठा था और उपस्थित सभी सभासद धन्य धन्य कहने लगे। द्रौपदी ने वरमाला उनके गले में डाल दी। उसी समय लक्ष्यवेध का रहस्य खोलते हुए अर्जुन ने कहा- मुझे केवल मछली की आँख ही दिखाई दे रही थी।
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