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Magazine - Year 1976 - Version 2

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तप द्वारा प्राणशक्ति का अभिवर्धन

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First 8 10 Last
मानवी विद्युत को अध्यात्म विज्ञान में ओजस, तेजस एवं ब्रह्मवर्चस कहा गया है। इसे विकसित करने की प्रक्रिया योग साधना एवं तपश्चर्या के नाम से प्रसिद्ध है। ब्रह्मविद्या में इसी “चित्त शक्ति” के विकास पर जोर दिया गया है और कहा गया है कि मनुष्य शरीर में सन्निहित प्रकट और अप्रकट रहस्यमय शक्ति संस्थानों को जागृत करके मनुष्य देव स्तर की विशेषताओं से सम्पन्न हो सकता है। भौतिक जगत के विकास प्रयोजनों में बिजली का जो उपयोग है उससे कहीं अधिक उपयोगिता व्यक्तित्व के समग्र विकास में मानवी विद्युत की है। उसका स्वरूप, आधार और उपयोग जानने के लिए हमें विशेष उत्साहपूर्वक प्रयत्न करने चाहिएं।

इलेक्ट्रोऐन्सी फैलोग्राफ की सहायता से यह जाना जा सकता है कि इस बिजली का उत्पादन और उपभोग कहाँ किस मात्रा में हो रहा है। इसमें घट बढ़ हो जाने से मानसिक सन्तुलन बिगड़ने लगता है अथवा यों भी कहा जा सकता है कि मानसिक संतुलन बिगड़ने से इन विद्युत धाराओं में गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है।

इस मस्तिष्कीय बिजली की विशेषता यह है कि वह चेतन है जब कि भौतिक बिजली मात्र शक्ति प्रवाह बनकर काम करती है। मस्तिष्क के चेतन संस्थान प्रसुप्त स्थिति में निरर्थक जैसे लगते हैं, पर यदि इनकी क्षमता को जागृत कर लिया जाय और महत्वपूर्ण दिशा में नियोजित कर लिया जाय तो फिर निश्चित रूप से उनके द्वारा वे कार्य हो सकते हैं जिन्हें दैवी अनुग्रह या वरदान कहा जा सके।

मनः शास्त्री फ्लैमैरियन का कथन है कि मानवी विद्युत की एक गहरी परत ओजस् है इसकी समुचित मात्रा उपलब्ध हो तो मनुष्य सूक्ष्म अतीन्द्रिय शक्तियों से सम्पन्न हो सकता है। मानवीय विद्युत पर विशेष खोज करने वाले विक्टर ई॰ क्रोमर का कथन है-मनः शक्ति को घनीभूत करने की कला में प्रवीणता प्राप्त करके उसे किसी दिशा विशेष में प्रयुक्त किया जा सकता है। यह इतना बड़ा शक्ति स्रोत है कि मानवी व्यक्तित्व का कोई भी पक्ष उस प्रयोग से अधिक प्रखर और उज्ज्वल बनाया जा सके। यह प्रयोग यदि अपनी सूक्ष्म शक्तियाँ तलाश करने और उभारने पर केन्द्रित किया जा सके तो अतीन्द्रिय चेतना के क्षेत्र में आशाजनक सफलता मिल सकती है।

भौतिक जगत में अग्नि, भाप, गैस, तेल, बिजली, विस्फोट, लेसर आदि का जो महत्व है उससे कहीं अधिक उपयोगिता सजीव प्राणियों के लिए उस बिजली की है जो उनके शरीरों में पाई जाती है। मनुष्य में भी इस विद्युत शरीर का अजस्र भण्डार भरा पड़ा है।

शरीर की संचार प्रणाली का मूल आधार क्या है? इसका सूक्ष्मातिसूक्ष्म कारण ढूंढ़ने पर वे शरीर विज्ञानी इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि पेशियों में काम करने वाली स्थिति तक ऊर्जा “पोटेन्शियल” का तथा उसके साथ जुड़े रहने वाले आवेश-इन्टेन्सिटी-का जीवन संचार में बहुत बड़ा हाथ है। इन विद्युतधाराओं का वर्गीकरण तथा नामकरण-सीफेलीट्राइजेमिल न्यूरैलाजिया की व्याख्या चर्चा के साथ प्रस्तुत किया जाता है। ताप विद्युत संयोजन थर्मेलैश्कि कपलिंगक- के शोधकर्ता अब इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मानव शरीर का सारा क्रियाकलाप इसी विद्युतीय संचार के माध्यम से गतिशील रहता है।

पृथ्वी के इर्द गिर्द एक चुम्बकीय वातावरण फैला हुआ है। अकेला गुरुत्वाकर्षण कार्य ही नहीं उससे भी कितने ही प्रयोजन पूरे होते हैं। यह चुम्बकत्व आखिर आता कहाँ से है-उसका उद्गम स्रोत कहाँ है? यह पता लगाने वाले इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यह कोई बाहरी अनुदान नहीं वरन् पृथ्वी के गहन अन्तराल से निकलने वाला शक्ति प्रवाह है।

जैवसैलों का सूत्र विभाजन कार्य उसके मध्य बिन्दु में चलता है उसमें यही दिशा ज्ञान काम करता है। क्रोमोज़ोम की गति “सैल” के मध्यवर्ती ध्रुव की दिशा की ओर रहती है उसे दिशाज्ञान कैसे रहता है? इस प्रश्न का उत्तर भी यही रहता है कि पृथ्वी के चुम्बकीय प्रवाह को हमारे जीव सैल की आन्तरिक सत्ता अनुभव कर सकती है, उसी आधार पर अपनी गतिविधि का निर्धारण कर सकती है।

चुम्बक और विद्युत यों प्रत्यक्षतः दो पृथक-पृथक सत्ताएँ हैं पर वे परस्पर अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध है और समयानुसार एक धारा का दूसरी में परिवर्तन होता रहता है। यदि किसी “सरकिट” का चुम्बकीय क्षेत्र लगातार बदलते रहा जाय तो बिजली पैदा हो जाएगी। इसी प्रकार लोहे के टुकड़े पर लपेटे हुए तार में से विद्युतधारा प्रवाहित की जाय तो वह चुम्बकीय शक्ति सम्पन्न बन जायगी।

मनुष्य शरीर में बिजली काम करती है यह सर्व विदित है। इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफी तथा इलेक्ट्रो इनसिफैलोग्राफी के द्वारा इस तथ्य को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। हमारी रक्त नलिकाओं में लौह युक्त “हेमोग्लोबिन” भरा पड़ा है। उसी प्रकार हमारी जीव सत्ता सभी जीव कोषों को परस्पर सम्बद्ध किये रहती है और उनकी सम्मिश्रित चेतना से वे समस्त क्रियाकलाप चलते हैं जिन्हें हम जीव संचार व्यवस्था कहते हैं।

मानवी शरीर के शोध इतिहास में ऐसी अनेक घटनाओं का उल्लेख है जिनसे यह सिद्ध होता है कि किन्हीं-किन्हीं शरीरों में इतनी अधिक बिजली होती है कि उसे दूसरे लोग भी आसानी से अनुभव कर सकें। यों हमारा नाड़ी संस्थान पूर्णतया विद्युतधारा से ही संचालित होता है। मस्तिष्क को जादुई बिजलीघर कह सकते हैं। जहाँ से शरीर के समस्त अंग प्रत्यंगों की गतिविधियों का नियन्त्रण एवं संचालन होता है। पर वह बिजली “जीव विद्युत” वर्ग की होती है और इस तरह अनुभव में नहीं आती जैसी कि बत्ती जलाने या मशीनें चलाने वाली बिजली। शरीर में काम करने वाली गर्मी से विभिन्न अवयवों की सक्रियता रहती है और वे अपना-अपना काम करते हैं। यह कायिक ऊष्मा वस्तुतः एक विशेष प्रकार की बिजली ही है। इसे मानवी विद्युत कह सकते हैं। इतने पर भी वह यान्त्रिक बिजली से भिन्न ही मानी जाएगी। वह अपना प्रभाव शरीर संचालन तक ही सीमित रखती है। इससे बाहर उसका प्रभाव अनुभव नहीं किया जाता किन्तु कुछ अपवाद ऐसे भी देखने में मिले हैं जिनमें शरीरगत ऊष्मा ने यान्त्रिक बिजली की भूमिका निभाई है और उस व्यक्ति को एक चलता फिरता बिजली घर सिद्ध किया है।

मनुष्य शरीर में भी यान्त्रिक बिजली की आश्चर्यजनक मात्रा हो सकती है, इसके कितने ही उदाहरण सर्वविदित हैं। कोलोराडी प्रान्त के लेडीवेली नगर में के0 डब्ल्यू0 पी0 जोन्स नाम का एक ऐसा व्यक्ति हुआ है जो जमीन पर चलकर यह बता देता था कि जिस भूमि पर वह चल रहा है उनके बीच किस धातु की-कितनी बड़ी खदान है उसे जमीन में दबी भिन्न धातुओं का प्रभाव अपने शरीर पर विभिन्न प्रकार के स्पन्दनों से होता था। अनुभव ने उसे यह सिखा दिया था कि किस धातु का स्पन्दन कैसा होता है? अपनी इस विशेषता का उसने भरपूर लाभ उठाया। कइयों को खदानें बताकर उनसे हिस्सा लिया और कुछ खदानें उसने अपने धन से खरीदी और चलाई। अमेरिका का यह बहुत धन सम्पन्न व्यक्ति इसी अपनी विशेषता के कारण बना था।

मनुष्येत्तर अन्य प्राणियों में भी यह विद्युत शक्ति पाई जाती है उनके शरीर में मस्तिष्क में ऐसे विशिष्ट अवयव पाये जाते हैं कि जिनमें शरीरगत विद्युत अपना काम करती है और वे आश्चर्यजनक जीवन पद्धति अपनाये रहते हैं। वैज्ञानिकों ने इसी अद्भुत संरचना को देख परखकर उसकी नकल के सहारे कुछ ऐसे आविष्कार किये हैं जो अपनी उपयोगिता के लिए प्रख्यात हैं।

मधुमक्खियों की नेत्र रचना देखकर विज्ञानवेत्ता पोलारायड ओरिसन्टेशन इण्डिकेटर नामक यन्त्र बनाने में समर्थ हुए है, यह ध्रुव प्रदेश में दिशा ज्ञान का सही माध्यम है। उस क्षेत्र में साधारण कुतुबनुमा अपनी उत्तर, दक्षिण दिशा बताने वाली विशेषता खो बैठते हैं तब इसी यन्त्र के सहारे उस क्षेत्र के यात्री अपना काम करते हैं।

कितने ही पक्षी ऋतु परिवर्तन के लिए झुण्ड बनाकर सहस्रों मील लम्बी उड़ानें भरते हैं। वे धरती के एक सिरे के दूसरे सिरे तक जा पहुँचते हैं। इनकी उड़ान प्रायः रात में होती है। उस समय प्रकाश जैसी कोई इस प्रकार की सुविधा भी नहीं मिलती जिससे वे यात्रा लक्ष्य की दिशा जान सकें। यह कार्य उनकी अन्तःचेतना पृथ्वी के इर्द गिर्द फैले हुए चुम्बकीय घेरे में चल रही हलचलों के आधार पर ही पूरा करती है। इस धारा के सहारे वे इस तरह उड़ते हैं मानो किसी सुनिश्चित सड़क पर चल रहे हों।

राजाओं, सेनापतियों के घोड़े, हाथी उनका इशारा समझते थे और सम्मान करते थे। बिगड़े हुए हाथी को राजा स्वयं जाकर सँभाल लेते थे। राणाप्रताप, नैपोलियन, झाँसी की रानी के घोड़े मालिकों के इशारे ही नहीं उनकी इच्छा को भी समझते थे और उनका पालन करते थे। वह उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का अल्प विकसित बुद्धि वाले घोड़े, हाथी आदि पशुओं पर हुआ प्रत्यक्ष प्रभाव ही था।

मस्तिष्क में से एक प्रकार की गंध सरीखी विशेष चेतन क्षमता निरन्तर उड़ती रहती है। समीप रहने वाले लोग उस विशेषता से प्रभावित होते हैं व्यक्तित्व जितना प्रभावशाली होगा-मस्तिष्क जितना विकसित होगा उसके सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित करने वाला चुम्बक भी उतना ही प्रभावशाली होगा। यदि तीव्र इच्छा और भावना के साथ इस शक्ति को किसी दूसरे की ओर प्रवाहित किया जाय तो उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। मनस्वी लोगों की समीपता से अल्प बुद्धि वालों का मस्तिष्कीय विकास होने लगता है भले ही वह मंदगति से क्यों न हो रहा हो।

भारत के अध्यात्मवेत्ता किसी समय इस दिशा में बहुत बड़ी खोज करने और सफलता प्राप्त करने में कृत कार्य हो चुके हैं। बुद्ध की प्रचण्ड विचारधारा ने अपनी विलासी एवं भौतिक महत्वाकांक्षी गतिविधियाँ छोड़कर उसको कष्टकर प्रयोजन को अपनाने के लिए खुशी खुशी कदम बढ़ाया जो प्रचण्ड मानसिक विद्युत से सुसम्पन्न बुद्ध को अभीष्ट था। भगवान राम ने रीछ−वानरों को ऐसे कार्य में जुट जाने के लिए भावावेश में संलग्न कर दिया जिससे किसी लाभ की आशा तो थी नहीं उलटे जीवन संकट स्पष्ट था। भगवान कृष्ण ने महाभारत की भूमिका रची और उसके लिए मनोभूमियाँ उत्तेजित कीं। पाण्डव उस तरह की आवश्यकता अनुभव नहीं कर रहे थे और न अर्जुन की उस संग्राम में रुचि थी तो भी अभीष्ट प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए मानसिक क्षमता के धनी कृष्ण ने उस तरह की उत्तेजनात्मक परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दीं। गोपियों के मन में सरस भावाभिव्यंजनाएँ उत्पन्न करने का सूत्र संचालन कृष्ण ही कर रहे थे।

ईसा मसीह, मुहम्मद, जरथुस्त्र आदि धार्मिक क्षेत्र के मनस्वी ही थे जिन्होंने लोगों को अभीष्ट पथ पर चलने के लिए विवश किया। उपदेशक लोग आकर्षक प्रवचन देते रहते हैं पर उनकी कला की प्रशंसा करने वाले भी उस उपदेश पर चलने को तैयार नहीं होते। इसमें उनके प्रतिवाद विषय का दोष नहीं उस मनोबल की कमी ही कारण है जिसके बिना सुनने वालों के मस्तिष्क में हलचल उत्पन्न किया जा सकना सम्भव न हो सका। नारद जी जैसे मनस्वी ही, अपने स्वल्प परामर्श से लोगों की जीवनधारा बदल सकते थे। बाल्मीकि, ध्रुव, प्रहलाद, सुकन्या आदि कितने ही आदर्शवादी उन्हीं की प्रेरणा भरी प्रकाश किरण पाकर आगे बढ़े थे।

समर्थ गुरु रामदास, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द गुरुगोविन्द सिंह, दयानन्द, कबीर आदि मनस्वी महामानवों ने अपने समय के लोगों को उपयोगी प्रेरणाएँ दी हैं और अभीष्ट पथ पर चलने के लिए साहस उत्पन्न किया है। गाँधी जी की प्रेरणा से स्वतन्त्रता संग्राम में अगणित व्यक्ति त्याग बलिदान करने के लिए किस उत्साह के साथ आगे आये यह पिछले ही दिनों की घटना है।

शक्ति इसी स्तर की प्रक्रिया है जिसमें मानुषी विद्युत से उत्पन्न व्यक्ति का तेजस् दूसरे अल्प तेजस् व्यक्तियों में प्रवेश करके उन्हें देखते देखते समर्थ बनाकर रख देती है। दीपक से दीपक जलने का- पारस स्पर्श से लोहा सोना होने का उदाहरण इसी प्रकार के संदर्भ में दिया जाता है।

इस ओजस ब्रह्म वर्चस आत्मबल का ही एक छोटा स्वरूप मानवी विद्युत है। व्यक्तित्व की प्रखरता होने पर यह प्राण शरीर बनकर निखरता, उभरता है। ऐसे व्यक्ति बाहर से प्रभावशाली भले ही दिखाई न पड़ें पर उनका आन्तरिक तेजस असाधारण होता है। इस शक्ति को धन, वैभव, विद्या, शरीर, बल, शस्त्र बल आदि भौतिक साधनों की तुलना में असंख्य गुना महत्वपूर्ण माना जा सकता है।

इसी ओजस् धारा के अनेक शक्ति संस्थान सूक्ष्म शरीर में भरे पड़े हैं। वे यदि जागृत किये जा सकें तो अपने भीतर से ही देवता प्रकट होते देखे जा सकते हैं।

कुछ समय पूर्व बम्बई के एक विद्वान बी0 जे0 रेले ने एक पुस्तक लिखी थी- दी वैदिक गार्डस एस॰ फिगर्स ऑफ बायोलॉजी उसमें सिद्ध किया था कि वेदों में वर्णित आदित्य, वरुण, अग्नि, मरुत, मित्र, अश्नि, रुद्र आदि मस्तिष्क के स्थान विशेष में सन्निहित दिव्यशक्तियाँ हैं जिन्हें जागृत करके विशिष्ट क्षमता सम्पन्न बनाया जा सकता है।

ग्रान्ट मेडिकल कालेज के अतारभी प्राध्यापक बाई जी नाडगिर और एडगर जे टामस ने संयुक्त रूप में पुस्तक की भूमिका लिखते हुए कहा है कि वैदिक ऋषियों के शरीर शास्त्र सम्बन्धी गहन ज्ञान पर अचम्भा होता है कि उस साधनहीन समय में किस प्रकार उन्होंने इतनी गहरी जानकारियाँ प्राप्त की होंगी और आँख की सीप में ऊपर के मस्तिष्क का भाग बृहत् मस्तिष्क कहलाता है यही सेरिवेलम ब्रह्म चेतना शक्ति का केन्द्र है। इन्द्र और सविता यहीं निवास करते हैं। नाक की सीध में सिर के पीछे वाला भाग सेरिवेलन अनुमस्तिष्क रुद्र देवता का कार्य क्षेत्र है। मस्तिष्क का ऊपरी भाग रोटसी मध्य भाग अन्तरिक्ष और निम्न भाग पृथ्वी बतलाया गया है। रोटसी से दिव्य चेतना का प्रवाह-अन्तरिक्ष में ग्रह नक्षत्रों वाला ब्रह्माण्ड और पृथ्वी में अपने लोक में काम कर रही भौतिक शक्तियों का सूत्र सम्बन्ध जुड़ा रहता है। सप्तधार सोम, अग्नि, स्वर्ग, द्वार, द्रौण, कलश एवं अश्विनी शक्तियाँ का सम्बन्ध रोटसी क्षेत्र है।

अग्नि से नीचे वाले भाग को स्वर्ग द्वारा और उससे नीचे वाले भाग को द्रोण कलश कहा गया है। जहाँ से सप्त सरिताएं सात नदियाँ बहती हैं। द्रौण कलश में सोम रस भरा रहता है। जिसके आधार पर स्नायु केन्द्रों को शक्ति प्राप्त होती है। मेरुरज्जुओं के साथ बँधे हुए दो ग्रन्थि गुच्छक अश्विनीकुमार बताये गये हैं। मस्तिष्क की परिधि को घेरे हुए एक विशेष द्रव सम्पूर्ण मस्तिष्क को चेतना प्रदान करता है इसी को वरुण कहते हैं। इसी केन्द्र में अग्नि देवता का ज्ञानकोष है। मस्तिष्क के पिछले भाग में अवस्थित “टेपोलर लीव” प्राचीनकाल का शंख पालि है। इसके नीचे की पीयूष ग्रन्थियाँ जिन्हें मेदुला भी कहते हैं। अश्वमेध यज्ञ की वेदी है। अश्वमेध अर्थात् इन्द्रिय परिष्कार इसके लिए पीयूष ग्रन्थि वाला क्षेत्र ही उत्तरदायी है।

सुषुप्ति की जागृति में परिणित करने के लिए ही अपने आप को तपाना पड़ता है। तपश्चर्या के फलस्वरूप सिद्धियाँ मिलने के जो प्रमाण उदाहरण मिलते हैं। उनके पीछे आन्तरिक परिष्कार का लक्ष्य ही सन्निहित रहता है बाहर से कोई देवता हमारी सहायता करने के लिए दौड़ा नहीं आता वरन् तप साधना से उत्पन्न आन्तरिक प्रखरता ही देव शक्ति बनकर हमें आत्म सम्पदा से ओत प्रोत करती है। यह सम्पत्ति जिसके पास है उसे सुखी और समुन्नत रहने तथा दूसरों को महत्वपूर्ण अनुदान देते रहने का श्रेय मिलता है। कहा भी है :-

यदं दुष्करं यद दुरापं यद दुर्गं यच्च दुष्तरम्। सर्वं तत् तपसा साघ्यं, ततो हि दुरतिक्रमम्॥

तप से कोई सुख, कोई सिद्धि, कोई पद, भव वैभव दुर्लभ नहीं। ऋषि मुनियों ने जो अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त की थीं, उनके पीछे उनकी तपश्चर्या थी।

----***----

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