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Magazine - Year 1976 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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मंत्र विद्या का स्वरूप और उपयोग

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स्वामी रामतीर्थ ने एक बार कहा था- ईश्वर बना जा सकता है उसे देखा या दिखाया नहीं जा सकता। सूक्ष्म तत्व के बारे में भी यही बात है। ईथर तत्व में शब्द प्रवाह के संचार को रेडियो यन्त्र अनुभव करा सकता है। पर “ईथर” को उसके असली रूप में देखा जा सकना सम्भव नहीं। गर्मी, सर्दी, सुख, दुःख की अनुभूति होती है उन्हें पदार्थों की तरह प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता है। मंत्र में उच्चारित शब्दावली मंत्र की मूल शक्ति नहीं वरन् उसको सजग करने का उपकरण है। किसी सोते को हाथ से झकझोर कर जगाया जा सकता है पर यह हाथ “जागृति” नहीं अधिक से अधिक उसे जागृति का निमित्त होने का श्रेय ही मिल सकता है। मंत्रोच्चार भी अंतरंग में और अन्तरिक्ष में भरी पड़ी अगणित चेतन शक्तियों में से कुछ को जागृत करने का एक निमित्त कारण भर है।

किस मंत्र से किस शक्ति को किस आधार पर जगाया जाय इसका संकेत हर मंत्र के साथ जुड़े हुए विनियोग में बताया जाता है। वैदिक और तान्त्रिक सभी मंत्रों का विनियोग होता है। आगम और निगम शास्त्रों में मंत्र विधान के साथ ही उसका उल्लेख रहता है। जप तो मूल मंत्र का ही किया जाता है पर उसे आरम्भ करते समय विनियोग को पढ़ लेना अथवा स्मरण कर लेना आवश्यक होता है। इससे मंत्र के स्वरूप और लक्ष्य के प्रति साधना काल में जागरुकता बनी रहती है और कदम सही दिशा में बढ़ता रहता है।

मंत्र विनियोग के पाँच अंग हैं 1-ऋषि 2-छंद 3-देवता 4-बीज 5- तत्व। इन्हीं से मिलकर मंत्र शक्ति सर्वांगपूर्ण बनती है। “ऋषि” तत्व का संकेत है- मार्गदर्शन गुरु ऐसा व्यक्ति जिसने उस मंत्र में पारंगतता प्राप्त की हो। सर्जरी, संगीत जैसे क्रियाकलाप अनुभवी शिक्षक ही सिखा सकता है। पुस्तकीय ज्ञान से नौकायन नहीं सीखा जा सकता, इसके लिए किसी मल्लाह का प्रत्यक्ष पथ प्रदर्शन चाहिए। चिकित्सा ग्रन्थ और औषधि भण्डार उपलब्ध रहने पर भी चिकित्सक की आवश्यकता रहती है। विभिन्न मनोभूमियों के कारण साधना पथिकों के मार्ग में भी कई प्रकार के उतार चढ़ाव आते हैं उस स्थिति में सही निर्देशन और उलझनों का समाधान केवल वही कर सकता है जो उस विषय में पारंगत हो। गुरु का यह कर्तव्य भी हो सकता है कि शिष्य को न केवल पग प्रदर्शन करे वरन् उसे अपनी शक्ति का अंश अनुदान देकर प्रगति पथ को सरल भी बनाये। अस्तु ऋषि का आश्रय मंत्र साधना की प्रथम सीढ़ी बताई गई है।

छन्द का अर्थ है-लय। काव्य में प्रयुक्त होने वाला पिंगल प्रक्रिया के आधार पर भी छन्दों का वर्गीकरण होता है, यहाँ उसका कोई प्रयोजन नहीं। मंत्र रचना को काव्य प्रक्रिया अनिवार्य नहीं है। हो भी तो उसके जानने न जानने से कुछ बनता बिगड़ता नहीं। यहाँ लय को ही छन्द समझा जाना चाहिए। किस स्वर में किस क्रम से किस उतार चढ़ाव के साथ मंत्रोच्चारण किया जाय यह एक स्वतन्त्र शास्त्र है। सितार में तार तो उतने ही होते हैं उंगलियाँ चलाने का क्रम भी हर वादन में चलता है पर बजाने वाले का कौशल तारों पर आघात करने के क्रम में हेर फेर करके विभिन्न राग रागनियों का ध्वनि प्रवाह उत्पन्न करता है। मानसिक, वाचिक, उपाँशु, उदात्त अनुदात्त, स्वरित ही नहीं मंत्रोच्चार के और भी भेद प्रभेद हैं। जिनके आधार पर उसी मंत्री द्वारा अनेक प्रकार की प्रतिक्रियायें उत्पन्न की जा सकती हैं।

ध्वनि तरंगों के कम्पन इस लय पर निर्भर हैं। साधना विज्ञान में इसे यति कहा जाता है। मंत्रों की एक यति सब के लिए उचित नहीं। व्यक्ति की स्थिति और उसकी आकाँक्षा को ध्यान में रखकर यति का लय का- निर्धारण करना पड़ता है। साधक को उचित है कि मंत्र साधना में प्रवृत्त होने से पूर्व अपने लिए उपयुक्त छन्द की लय का निर्धारण कर ले।

विनियोग का तीसरा चरण है- देवता। देवता का अर्थ है-चेतना सागर में से अपने अभीष्ट शक्तिप्रवाह का चयन। आकाश में एक ही समय में अनेकों रेडियो स्टेशन बोलते रहते हैं हर एक की फ्रीक्वेन्सी अलग होती है। ऐसा न होता तो ब्रॉडकास्ट किये गये सभी शब्द मिलकर एक हो जाते। शब्द धाराओं की पृथकता और उनसे सम्बन्ध स्थापित करने के पृथक माध्यमों का उपयोग करके ही किसी रेडियो सेट के लिए यह सम्भव होता है कि अपनी पसन्द का रेडियो प्रोग्राम सुनें और अन्यत्र में चल रहे प्रोग्रामों को बोलने से रोक दें। निखिल ब्रह्माण्ड में ब्रह्म चेतना की अनेक धारायें समुद्री लहरों की तरह अपना पृथक अस्तित्व भी लेकर आती हैं। भूमि एक ही होने पर भी परतें अलग अलग तरह की निकलती हैं। समुद्रीय अगाध जल में पानी की परतें तथा असीम आकाश में वायु से लेकर किरणों तक की अनेक परतें होती हैं इसी प्रकार ब्रह्मचेतना के अनेक प्रयोजनों के लिए उद्भूत अनेक शक्ति तरंगें निखिल ब्रह्माण्ड में प्रवाहित होती रहती हैं। उनके स्वरूप और प्रयोजनों को ध्यान में रखते हुए उन्हें देवता कहा जाता है।

साकार उपासना पक्ष देवताओं की अलंकारिक प्रतिमा भी बना लेता है और निराकार पक्ष प्रकाश किरणों के रूप में उसको पकड़ता है। सूर्य की सात रंग की किरणों में से हम जिसे चाहें उसे रंगीन शीशे के माध्यम से उपलब्ध कर सकते हैं। एक्सरे मशीन अल्ट्रा वायलेट उपकरण आकाश में से अपनी अभीष्ट किरणों को ही प्रयुक्त करते हैं। हंस दूध पीता है, पानी छोड़ देता है। इसी प्रकार किस मंत्र के लिए ब्रह्म चेतना की किस दिव्य तरंग का प्रयोग किया जाये उसके लिए क्रियायें इसी प्रयोजन के लिए होती हैं। निराकारी साधक ध्यान द्वारा उस शक्ति को अपने अंग प्रत्यंगों में तथा समीपवर्ती वातावरण में ओत प्रोत होने की भावना करते हैं। किसके लिए देव सम्पर्क का क्या तरीका ठीक रहेगा यह निश्चय करके ही मंत्र साधक को प्रगति पथ पर अग्रसर होना होता है। दबी हुई प्रसुप्त क्षमता को प्रखर करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। यन्त्रों को चलाने के लिए ईंधन चाहिए। हाथ या पैर से चलने वाले यन्त्रों के लिए न सही उन्हें चलाने वाले हाथ पैरों को काम करते रहने के लिए ऊर्जा की जरूरत होती है। यह तापमान जुटाने पर ही यन्त्र काम करते हैं। मंत्रों की सफलता भी इसी ऊर्जा उत्पादन पर निर्भर है। साधना विधान का सारा कलेवर इसी आधार पर खड़ा किया गया है। आयुर्वेद में भी नाड़ी शोधन के लिए वमन, विरेचन, स्नेहन, स्वेदन, नस्व यह पंच कर्म शरीर शोधन के लिए हैं। मंत्र साधन में व्यक्तित्व के परिष्कार के अतिरिक्त पाँच आधार ऋषि, छन्द, देवता, बीज और तत्व हैं। जो इन सब साधनों को जुटाकर मंत्र साधन कर सके उसे अभीष्ट प्रयोजन की प्राप्ति होकर ही रहती है।

मंत्र योग साधना का एक ऐसा शब्द और विज्ञान है कि उसका उच्चारण करते ही किसी चमत्कारिक शक्ति का बोध होता है। ऐसी धारणा है कि प्राचीन काल के योगी, ऋषि और तत्वदर्शी महापुरुषों ने मंत्रबल से पृथ्वी, देवलोक और ब्रह्माण्ड की अनन्त शक्तियों पर विजय पाई थी। मंत्र शक्ति के प्रभाव से वे इतने समर्थ बन गये थे कि इच्छानुसार किसी भी पदार्थ का हस्तांतरण शक्ति को पदार्थ और पदार्थ को शक्ति में बदल देते थे। शाप और वरदान मंत्र का ही प्रभाव माना जाता है। एक क्षण में किसी का रोग अच्छा कर देना एक पल में करोड़ों मील दूर की बात जान लेना एक नक्षत्र से दूसरे नक्षत्र की जानकारी और शरीर की 72 हजार नाड़ियों के एक एक जोड़ की जानकारी तक मंत्र की ही अलौकिक शक्ति थी। इसलिए भारतीय तत्वदर्शन में मंत्र शक्ति पर जितनी शोधें हुई हैं उतनी और किसी पर भी नहीं। मंत्रों के आविष्कार होने के कारण ही ऋषि मंत्र दृष्टा कहलाते थे। वेद और कुछ नहीं एक प्रकार के मंत्र विज्ञान हैं जिनमें विराट ब्रह्माण्ड की उन अलौकिक, सूक्ष्म और चेतन सत्ताओं और शक्तियों तक से संबंध स्थापित करने के गूढ़ रहस्य दिए हुए हैं, जिनके सम्बन्ध में विज्ञान अभी “क,ख,ग” भी नहीं जानता।

मंत्र का सीधा सम्बन्ध उच्चारण या ध्वनि से है। इसलिए इसे “ध्वनि विज्ञान” भी कह सकते हैं। अब तक इस दिशा में जो वैज्ञानिक अनुसंधान हुए और निष्कर्ष निकले हैं वह यह बताते हैं कि सामान्य भारतीय मंत्र शक्ति पर भले ही विश्वास न करें पर वैज्ञानिक अब उसी दिशा में अग्रसर हो रहे हैं। वह समय समीप ही है जब ध्वनि विज्ञान की उन्नति ऋषियों जैसे ही कौतूहल वर्द्धक कार्य करने लगेगी। उदाहरण के लिए “ट्रान्स्डूयसर” यंत्र से सूक्ष्म से सूक्ष्म आपरेशन किया जा सकता है। वह शब्द की कर्णातीत शक्ति का फल है। प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री डॉ0 फ्रिस्टलाव ने ‘अलट्रासोनोरेटर’ नामक एक ऐसा यंत्र तैयार किया है जो दो रासायनिक द्रव्यों को थोड़ी देर में मिला सकता है। इस पद्धति में एक “खे” का उपयोग किया जाता है। कर्णातीत ध्वनि डॉ0 खे को प्रभावित करती है। खा इतनी तीव्रता से कम्पन करता है कि भारी मात्रा में भरा हुआ जल कड़ाही में खौलते पानी की तरह मन्थन करने लगता है।

मंत्रों में चार शक्तियाँ मानी गई है 1-प्रामाण्य शक्ति 2-फल प्रदान शक्ति 3-बहुलीकरण शक्ति 4-आयातयामता शक्ति। इसका विवेचन महर्षि जैमिनी ने पूर्व मीमाँसा में किया है। उनके कथानुसार मंत्रों की प्रामाण्य शक्ति वह है जिसके अनुसार शिक्षा सम्बोधन आदेश का समावेश रहता है। इसे शब्दार्थों से सम्बन्धित कह सकते हैं।

कुण्ड समिध, पात्र पीठ, आज्य चरु, हवि, पीठ आदि को अभिमन्त्रित करके उनके सूक्ष्म प्राणों को प्रखर करने का विधान मंत्रोच्चार कर्मकाण्ड न्यास ऋत्विजों का मनोयोग, ब्रह्मचर्य तप, आहार आदि विधि विधान से मंत्र की फल दायिनी शक्ति सजग होती है। सकाम कर्मों में मंत्र की यही शक्ति विभिन्न क्रिया कृत्यों के सहारे सजग होती है और अभीष्ट प्रयोजन दूर करती है।

तीसरी शक्ति है ‘बहुलीकरण’ अर्थात् थोड़े को बहुत बनाना। यज्ञ में होमा हुआ जरा सा पदार्थ वायुभूत होकर समस्त विश्व में फैल जाता है। पानी के ऊपर जरा सा तेल डाल देने से पानी की सारी सतह पर फैल जाता है। तनिक सा विष सारे शरीर में फैल जाता है। उसी प्रकार साधन का शरीर मंत्रोच्चार एवं साधन में काम आने वाले अंग जरा से होते हैं। पर उनके घर्षण से उत्पन्न शक्ति दियासलाई से निकलने वाली चिनगारी की तरह नगण्य होते हुए भी दावानल बन जाने की सामर्थ्य से ओत प्रोत रहती है। एक व्यक्ति की मंत्र साधना अनेक व्यक्तियों को तथा पदार्थों को परमाणु जीवाणुओं को प्रभावित करती है तो यह बहुलीकरण शक्ति ही काम कर रही होती है।

चौथी “आयातयामता” शक्ति किसी विशेष क्षमता सम्पन्न व्युतुत्पन्नमति, मेधावी सक्षम व्यक्ति द्वारा विशेष स्थान पर विशेष व्यक्ति की सहायता से विशेष उपकरणों के सहारे विशेष विधि विधान के साथ मंत्रोपासना करने पर विशेष शक्ति उत्पन्न होती है। विश्वामित्र और परशुराम ने गायत्री मंत्र की साधना विशेष प्रयोजन के लिए विशेष विधि विधानों के साथ की थी और उससे उन्होंने अभीष्ट परिणाम भी प्राप्त किये। दशरथ जी का पुत्रेष्टि यज्ञ वशिष्ठ जी पूरा न करा सके तब शृंगी ऋषि ने उसे सम्पन्न कराया यह शृंगी ऋषि की आयातयामता शक्ति ही थी।

कौत्स मुनि ने मंत्रों को अनर्थक माना है। अनर्थक का अर्थ यह है कि उसके अर्थ को नहीं ध्वनि प्रवाह को शब्द गुँथन को महत्व दिया जाना चाहिए। ह्रीं, श्रीं, क्लीं, ऐं आदि बीज मंत्रों के अर्थ से नहीं ध्वनि से ही प्रयोजन सिद्ध होता है। नैषध चरित्र के 13वें सर्ग में उसके लेखक ने इस रहस्य का और भी स्पष्ट उद्घाटन किया गया है। संगीत का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य व जो असाधारण प्रभाव पड़ता है उससे समस्त विज्ञान जगत परिचित है। एक नियत गति से शीशे के गिलास के पास ध्वनि की तो वह टूट जायेगा। पुलों चलते हुए सैनिकों को कदम मिलाकर चलने की ध्वनि नहीं करने दी जाती। उस तालबद्ध ध्वनि से पुल गिर सकता है। इन्डेन में “स्टोन हैब्ज” के पुराने अवशेष मध्यम स्वर बजने पर काँपने लगते हैं। इसलिए वहाँ न केवल बजाना वरन् गाना भी निषिद्ध है क्योंकि तालबद्धता उन अवरोधों को गिरा सकती है। इसी ध्वनि विज्ञान के आधार पर मंत्रों की रचना हुई है। उनके अर्थों का उतना महत्व नहीं, इसी से कौत्स मुनि ने उन्हें “अनर्थक” बताया है।

शब्द शक्ति का स्फोट मंत्र शक्ति की रहस्यमय प्रक्रिया है। अणु विस्फोट से उत्पन्न होने वाली भयावह शक्ति की जानकारी हम सभी को है। शब्द की एक शक्ति सत्ता है। उसके कम्पन भी चिरन्तन घटकों के सम्मिश्रण से बनते हैं। इस शब्द कंपन घटकों का विस्फोट भी अणु विखण्डन की तरह ही हो सकता है। मंत्र योग साधना के उपचारों के पीछे लगभग वैसी ही विधि व्यवस्था रहती है। मंत्रों की शब्द रचना का गठन तत्वदर्शी मनीषी तथा दिव्यदृष्टा मनीषियों ने इस प्रकार किया है कि उसका उपात्मक, होमात्मक तथा दूसरे तप साधनों तथा कर्मकाण्डों के सहारे अभीष्ट स्फोट किया जा सके। वर्तमान बोलचाल में विस्फोट शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त होता है लगभग उसी में संस्कृत में स्फोट का भी प्रयोग किया जाता है। मंत्राराधन वस्तुतः शब्द शक्ति का विस्फोट ही है।

शब्द स्फोट से ऐसी ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं जिन्हें कानों की श्रवण शक्ति से बाहर की कहा जा सकता है। शब्द आकाश का विषय है। इसलिए मान्त्रिक का कार्यक्षेत्र आकाश तत्व रहता है। योगी वायु उपासक है। उसे प्राण शक्ति का संचय वायु के माध्यम से करना पड़ता है। इस दृष्टि से मान्त्रिक को योगी से भी वरिष्ठ कहा जा सकता है। सच्चा मांत्रिक योगी से कम नहीं वरन् कुछ अधिक ही शक्तिशाली हो सकता है।

मन्त्राराधना में शब्द शक्ति का विस्फोट होता है विस्फोट में गुणन शक्ति है। मंत्र में सर्वप्रथम देवस्थापन की सघन निष्ठा उत्पन्न की जाती है। यह भाव चुम्बकत्व है। श्रद्धा शक्ति के उद्भव का प्रथम चरण है। इस आरम्भिक उपार्जन का शक्ति गुणन करती चली जाती है और छोटा सा बीज विशाल वृक्ष बन जाता है। विचार का चुम्बकत्व सर्वविदित है। इष्टदेव की- मंत्र अधिपति की शक्ति एवं विशेषताओं का स्तवन, पूजन के साथ स्मरण किया जाता है और अपने विश्वास में उसमें सर्वशक्ति सत्ता एवं अनुग्रह पर विश्वास जमाया जाता है। निर्धारित कर्मकाण्ड विधिविधान के द्वारा तथा तप साधना कष्टसाध्य तितीक्षा के द्वारा मंत्र की गुह्य शक्ति के करत लगत हो जाने का भरोसा दीर्घकालीन साधना द्वारा साधक के मन क्षेत्र में परिपक्व बनता है। यह सब निष्ठायें मिलकर मंत्र की भाव प्रक्रिया को परिपूर्ण कुम्बकत्व से परिपूर्ण कर देती है।

मंत्र से दो वृत्त बनते हैं एक को भाववृत्त और दूसरे को ध्वनि वृत्त कह सकते हैं। लगातार की गति अन्ततः एक गोलाई में घूमने लगती है। ग्रह नक्षत्रों का अपने अपने अयन वृत्त पर घूमने लगना इसी तथ्य से सम्भव हो सका है कि गति क्रमशः गोलाई में मुड़ती चली जाती है।

तंत्र तप में नियत शब्दों का निर्धारित क्रम से देर तक निरन्तर उच्चारण करना पड़ता है। जप यही तो है। इस गति प्रवाह के दो आधार हैं। एक भाव और दूसरा शब्द। मंत्र के अंतराल में सन्निहित भावना का नियत निर्धारित प्रवाह एक भाववृत्त बना लेता है। वह इतना प्रचण्ड होता है कि साधक के व्यक्तित्व को ही पकड़ और जकड़कर उसे अपनी ढलान में ढाल ले। उच्चारण से उत्पन्न ध्वनिवृत्त भी ऐसा ही प्रचण्ड होता है कि उसका स्फोट एक घेरा डालकर उच्चारणकर्ता को अपने घेरे में कस ले। भाववृत्त अंतरंग वृत्तियों को शब्दवृत्त बहिरंग प्रवृत्तियों पर इस प्रकार आच्छादित हो जाता है कि मनुष्य के अभीष्ट स्तर को मोड़ा मरोड़ा या ढाला जा सके।

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