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Magazine - Year 1976 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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दिव्य प्रकाश का उन्नयन, साधना का उद्देश्य

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First 15 17 Last
अध्यात्म विज्ञान में स्थान स्थान पर प्रकाश की साधना और प्रकाश की याचना की चर्चा मिलती है। यह प्रकाश बल्ब बत्ती अथवा सूर्य चन्द्र आदि से निकलने वाला उजाला नहीं वरन् वह परम ज्योति है जो इस विश्व में चेतना का आलोक बनकर जगमगा रही है। गायत्री का उपास्य सविता देवता इसी परम ज्योति को कहते हैं। इसका अस्तित्व ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में प्रत्यक्ष और कण कण में संव्याप्त जीवन ज्योति के रूप में प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर भी देख सकता है। इसकी जितनी मात्रा जिसके भीतर विद्यमान हो समझना चाहिए कि उसमें उतना ही अधिक ईश्वरीय अंश आलोकित हो रहा है।

मस्तिष्क के मध्य भाग से प्रकाश कणों का एक फव्वारा सा फूटता रहता है। उसकी उछलती हुई तरंगें एक वृत बनाती हैं और फिर अपने मूल उद्गम में लौट जाती हैं। यह रेडियो प्रसारण और संग्रहण जैसी प्रक्रिया है ब्रह्मरंध्र से छूटने वाली ऊर्जा अपने भीतर छिपी हुई भाव स्थिति को विश्व ब्रह्माण्ड में ईथर कम्पनों द्वारा प्रवाहित करती रहती है इस प्रकार मनुष्य अपनी चेतना का परिचय और प्रभाव समस्त संसार में फेंकता रहता है। फुहारे की लौटती हुई धाराएँ अपने साथ विश्व व्यापी असीम ज्ञान की नवीनतम, घटनात्मक तथा भावात्मक जानकारियाँ लेकर लौटती हैं, यदि उन्हें ठीक तरह समझा जा सके, गृहण किया जा सके तो कोई भी व्यक्ति भूतकालीन और वर्तमान काल की अत्यन्त सुविस्तृत और महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति में प्रवाह ग्रहण करने की और प्रसारित करने की जो क्षमता है, उसका माध्यम यह ब्रह्मरंध्र अवस्थित ध्रुव संस्थान है। पृथ्वी पर अन्य ग्रहों का प्रचुर अनुदान आता है तथा उसकी विशेषताएँ अन्यत्र चली जाती हैं। यह आदान प्रदान का कार्य ध्रुव केंद्रों द्वारा सम्पन्न होता है। शरीर के भी दो ध्रुव है एक मस्तिष्क दूसरा जनन गह्वर। चेतनात्मक विकरण मस्तिष्क से और शक्ति परक ऊर्जा प्रवाह जन गह्वर से सम्बन्धित है। सूक्ष्म आदान प्रदान की अति महत्वपूर्ण प्रक्रिया इन्हीं केन्द्रों के माध्यम से संचालित होती है।

शारीरिक और मानसिक स्थिति के अनुरूप तेजोवलय की स्थिरता बनती है। यदि स्थिति बदलने लगे तो प्रकाश पुँज की स्थिति भी बदल जायगी। इतना ही नहीं समय समय पर मनुष्य के बदलते हुए स्वभाव तथा चिन्तन स्तर के अनुरूप उसमें सामयिक परिवर्तन होते रहते हैं। सूक्ष्मदर्शी उसकी भिन्नताओं को रंग बदलते हुए परिवर्तनों के रूप में देख सकते हैं। शान्ति और सज्जनता की मनःस्थिति हलके नीले रंग में देखी जायगी। विनोदी, कामुक, सत्तावान, वैभवशाली, विशुद्ध व्यवहार कुशल स्तर की मनोभूमि पीले रंग की होती है। क्रोधी, अहंकारी, क्रूर, निष्ठुर, स्वार्थी, हठी, और मूर्ख मनुष्य लाल वर्ण के तेजोवलय से घिरे रहते हैं। हरा रंग सृजनात्मक और कलात्मक प्रवृत्ति का द्योतक है। गहरा बैंगनी चंचलता और अस्थिर मति का प्रतीक है। धार्मिक, ईश्वर भक्त और सदाचारी व्यक्तियों की आभा केसरिया रंग की होती है। इसी प्रकार विभिन्न रंगों का मिश्रण मनुष्य के गुण, कर्म स्वभाव के परिवर्तनों के अनुसार बदलता रहता है। यह तेजोवलय सदा स्थिर नहीं रहता है। बदलती हुई मनोवृत्ति प्रकाश पुंज के रंगों में परिवर्तन कर देती है। यह रंग स्वतन्त्र रूप से कुछ नहीं। मनोभूमि में होने वाले परिवर्तन शरीर से निसृत होते रहने वाले ऊर्जा कम्पनों की घटती बढ़ती संख्या के आधार पर आँखों को अनुभव होते हैं। वैज्ञानिक इन्हें “फ्रीक्वेन्सी आव दी वेव्स” कहते हैं।

दिव्य दर्शन (क्लेयर वाइन्स) दिव्य अनुभव (साइकोमैन्ट्री) प्रभाव प्रेषण (टेलीपैथी) संकल्प प्रयोग (सजैशन) जैसे प्रयोग थोड़ी आत्म शक्ति विकसित होते ही आसानी से किये जा सकते हैं। इन विद्याओं पर पिछले दिनों से काफी शोध कार्य होता चला आ रहा है और उन प्रयासों के फलस्वरूप उपयोगी निष्कर्ष सामने आये हैं। परामनोविज्ञान, अतीन्द्रिय विज्ञान, मैटाफिजिक्स जैसी चेतनात्मक विद्यायें भी अब रेडियो विज्ञान तथा इलेक्ट्रॉनिक्स की ही तरह विकसित हो रही हैं। अचेतन मन की सामर्थ्य के सम्बन्ध में जैसे जैसे रहस्यमय जानकारियों के पर्त खुलते हैं वैसे वैसे यह स्पष्ट होता जाता है कि नर पशु लगने वाला मनुष्य वस्तुतः असीम और अनन्त क्षमताओं का भण्डार होता है। कठिनाई इतनी भर है कि उसकी अधिकाँश विकृतियाँ प्रसुप्त अविज्ञात स्थिति में पड़ी हैं।

प्रकाश रश्मियों की लम्बाई एक इंच के सोलह से तीस लाखवें हिस्से के बराबर होती है। रेडियो पर सुनी जाने वाली ध्वनि तरंगों की गति एक सैकिण्ड के एक लाख छियासी हजार मील की होती है वे एक सैकिण्ड में सारी धरती की सात परिक्रमा कर लेती हैं। शब्द और प्रकाश की तरंगों का आकार एवं प्रवाह इतना सूक्ष्म एवं गतिशील है कि इन्हें बिना सूक्ष्म यन्त्रों की सहायता से हमारी इन्द्रियाँ अनुभव नहीं कर सकती हैं।

डॉ0 जे0 सी0 ने ‘अणु और आत्मा’ ग्रन्थ में स्वीकार किया है कि मानव अणुओं की प्रकाश वाष्प न केवल मनुष्यों में वरन् अन्य जीवधारियों वृक्ष, वनस्पति औषधि आदि में भी होती है। यह प्रकाश अणु ही जीवधारी के यथार्थ शरीरों का निर्माण करते हैं खनिज पदार्थों से बना मनुष्य या जीवों का शरीर तो तभी तक स्थिर रहता है जब तक प्रकाश अणु शरीर में रहते हैं। इन प्रकाश अणुओं के हटते ही स्थूल शरीर बेकार हो जाता है फिर उसे जलाते या गाढ़ते ही बनता है। खुला छोड़ देने पर तो उसकी सड़ांद से उसके पास एक क्षण भी ठहरना कठिन हो जाता है।

स्वभाव, संस्कार, इच्छाएँ, क्रिया शक्ति यह सब इन प्रकाश अणुओं का ही खेल है। हम सब जानते हैं कि प्रकाश का एक अणु (फोटान) भी कई रंगों के अणुओं से मिलकर बना होता है। मनुष्य शरीर की प्रकाश आभा भी कई रंगों से बनी होती हैं डॉ0 जेस0 सी0 ट्रस्ट ने अनेक रोगियों अपराधियों तथा सामान्य व श्रेष्ठ व्यक्तियों का सूक्ष्म निरीक्षण करके बताया है कि जो मनुष्य जितना श्रेष्ठ और अच्छे गुणों वाला होता है उसके मानव अणु दिव्य तेज और आभा वाले होते हैं जबकि अपराधी और रोगी व्यक्तियों के प्रकाश अणु क्षीण और अंधकारपूर्ण होते हैं। उन्होंने बहुत से मनुष्यों के काले धब्बों को अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर उनके रोगी या अपराधी होने की बात को बताकर लोगों को स्वीकार करा दिया था कि सचमुच रोग और अपराधी वृत्तियाँ काले रंग के अणुओं की उपस्थिति का प्रतिफल होते हैं, मनुष्य अपने स्वभाव में चाहते हुए भी तब तक परिवर्तन नहीं कर सकता जब तक यह दूषित प्रकाश अणु अपने अंदर विद्यमान बने रहते हैं।

यही नहीं जन्म जन्मान्तरों तक खराब प्रकाश अणुओं की यह उपस्थिति मनुष्य से बलात् दुष्कर्म कराती रहती है इस तरह मनुष्य पतन के खड्डे में बार बार गिरता और अपनी आत्मा को दुःखी बनाता रहता है जब तक यह अणु नहीं बदलते, न निष्क्रिय होते तब तक मनुष्य किसी भी परिस्थिति में अपनी दशा नहीं सुधार पाता।

यह तो है कि अपने प्रकाश अणुओं में यदि तीव्रता है तो उससे दूसरों को आकस्मिक सहायता दी जा सकती है। रोग दूर किये जा सकते हैं। खराब विचार वालों को कुछ देर के लिए अच्छे सन्त स्वभाव में बदला जा सकता है। महर्षि नारद के सम्पर्क में आते ही डाकू बाल्मीकि के प्रकाश अणुओं में तीव्र झटका लगा और वह अपने आपको परिवर्तित कर डालने को विवश हुआ। भगवान बुद्ध के इन प्रकाश अणुओं से निकलने वाली विद्युत विस्तार सीमा में आते ही डाकू अंगुलिमाल की विचारधाराएं पलट गई थीं। ऋषियों के आश्रमों में गाय और शेर एक घाट पानी पी आते थे वह इन प्रकाश अणुओं की ही तीव्रता के कारण होता था। उस वातावरण से निकलते ही व्यक्तिगत प्रकाश अणु फिर बलवान हो उठने से लोग पुनः दुष्कर्म करने लगते हैं इसलिए किसी को आत्म शक्ति या अपना प्राण देने की अपेक्षा भारतीय आचार्यों ने एक पद्धति का प्रसार किया था जिसमें इन प्रकाश अणुओं का विकास कोई भी व्यक्ति इच्छानुसार कर सकता था। देव उपासना उसी का नाम है।

उपासना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसमें हम अपने भीतर के काले मटमैले और पापाचरण को प्रोत्साहन देने वाले प्रकाश अणुओं को दिव्य, तेजस्वी, सदाचरण और शान्ति एवं प्रसन्नता की वृद्धि करने वाले मानव अणुओं में परिवर्तित करते हैं। विकास की इस प्रक्रिया में किसी नैसर्गिक तत्व पिण्ड या ग्रह नक्षत्र की साझेदारी होती है। उदाहरण के लिए जब हम गायत्री की उपासना करते हैं तो हमारे भीतर के दूषित प्रकाश अणुओं को हटाने और उसके स्थान पर दिव्य प्रकाश अणु भर देने का माध्यम ‘गायत्री’ का देवता सविता अर्थात् सूर्य होता है।

वर्ण रचना और प्रकाश की दृष्टि से यह मानव अणु भिन्न भिन्न स्वभाव के होते हैं। मनुष्य का जो कुछ भी स्वभाव आज दिखाई देता है वह इन्हीं अणुओं की उपस्थिति के कारण होता है यदि इस विज्ञान को समझा जा सके तो न केवल अपना जीवन शुद्ध, सात्विक, सफल, रोगमुक्त बनाया जा सकता है वरन् औरों को भी प्रभावित और इन लाभों से लाभान्वित किया जा सकता है। परलोक और सद्गति के आधार भी यह प्रकाश अणु या मानव अणु ही हैं।

वस्तुएं हम प्रकाश की सहायता से देख सकते हैं किन्तु साधारण प्रकाश कणों की सहायता से हम शरीर के कोष (सैल) को देखना चाहें तो वह इतने सूक्ष्म हैं कि उन्हें देख नहीं सकते। इलेक्ट्रॉनों को जब 50000 वोल्ट आवेश पर सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) में भेजा जाता है तो उनकी तरंग दैर्ध्य श्वेत प्रकाश कणों की तुलना में 1/100000 भाग सूक्ष्म होती है तब वह हाइड्रोजन के परमाणु का जितना व्यास होता है उसके भी 42.4वें हिस्से छोटे परमाणु में भी प्रवेश करके वहाँ की गतिविधियाँ दिखा सकती हैं। उदाहरण के लिए यदि मनुष्य की आँख एक इंच घेरे को देख सकती है उससे भी 500 अंश कम को प्रकाश सूक्ष्मदर्शी और 10000 अंश छोटे भाग को सूक्ष्मदर्शी। इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि मनुष्य शरीर के कोश का चेतन भाग कितना सूक्ष्म होना चाहिए। इस तरह के सूक्ष्मदर्शी से जब कोश का निरीक्षण किया गया तो उसमें भी एक टिमटिमाता हुआ प्रकाश दिखाई दिया। चेतना का महत्त्व इस प्रकार प्रकाश की ही अति सूक्ष्म स्फुरणा है यह विज्ञान भी मानता है।

भारतीय योगियों ने ब्रह्मरन्ध्र स्थित जिन घटकों की खोज की है सहस्रार कमल उनसे बिल्कुल अलग सर्वप्रभुता सम्पन्न है, यह स्थान कनपटियों से दो दो इंच अंदर भृकुटि से लगभग ढाई या तीन इंच अंदर छोटे से पोले में प्रकाश पुँज के रूप में है। तत्त्वदर्शियों के अनुसार यह स्थान उलटे छाते या कटोरे के समान 17 प्रधान प्रकाश तत्वों से बना होता है। देखने में मर्करी लाइट के समान दिखाई देता है। छान्दोग्य उपनिषद् में सहस्रार प्राप्त कर लेने वाला योगी सम्पूर्ण भौतिक विज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। यही वह शक्ति केन्द्र है जहाँ से मस्तिष्क शरीर का नियंत्रण करता है और विश्व में जो कुछ भी मानवकृत विलक्षण विज्ञान दिखाई देता है उनका सम्पादन करता है।

आत्मा या चेतना जिन अणुओं से अपने को अभिव्यक्त करती है वह यह प्रकाश अणु ही है जबकि आत्मा स्वयं उससे भिन्न है। प्रकाश अणुओं का प्राण विधायक शक्ति अग्नि तेजस कहना चाहिए वह जितने शुद्ध दिव्य और तेजस्वी होंगे व्यक्ति उतना ही महा तेजस्वी, यशस्वी, वीर, साहसी और कलाकार होगा। महापुरुषों के तेजोवलय उसी बात के प्रतीक हैं जबकि निष्कृष्ट कोटि के व्यक्तियों में यह अणु अत्यन्त शिथिल मन्द और काले होते हैं। हमें चाहिए कि हम इन दूषित प्रकाश अणुओं को दिव्य अणुओं में बदलें और अपने को भी महापुरुषों की श्रेणी में ले जाने का यत्न करें।

गायत्री उपासना में सविता देवता का ध्यान करने की प्रक्रिया इसलिए की जाती है कि अंतर के कण-कण में संव्याप्त प्रकाश आभा को अधिक दीप्तिमान बनने का अवसर मिले। अपने ब्रह्मरंध्र में अवस्थित सहस्राँशु आदित्य सहस्रदल कमल को खिलाये और उसकी प्रत्येक पंखुड़ी में सन्निहित दिव्य कलाओं के उदय का लाभ साधक को मिले।

ब्रह्मविद्या का उद्गाता ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की प्रार्थना में इस दिव्य प्रकाश की याचना करता है। इसी की प्रत्येक जागृत आत्मा को आवश्यकता अनुभव होती है अस्तु गायत्री उपासक अपने जप प्रयोजन में इसी ज्योति को अन्तः भूमिका में अवतरण करने के लिए सविता देवता का ध्यान करता है।

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