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Magazine - Year 1976 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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जीभ को चटोरी बनाकर हम अपनी हानि ही करते हैं।

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भोजन में विकृत स्वाद को जो अनावश्यक महत्व मिल गया है उसका दुष्परिणाम सामने यह आया कि हमारी उपयोगी भोजन चयन की क्षमता ही कुँठित हो गई। इस सृष्टि का प्रत्येक प्राणी अपने शरीर के लिए उपयोगी आहार की परीक्षा जीभ पर बैठे डॉक्टर की सहायता से करता है। मुँह की प्रयोगशाला में प्रवेश करते ही जीभ की नोंक पर बैठा डॉक्टर उसकी उपयोगिता अनुपयोगिता की घोषणा क्षणभर में कर देता है। प्राणी उसी आदेश को मानते हैं और जो हितकर हैं उसी को गृहण करते हैं। इसी प्रक्रिया को अपनाकर वे अपना पेट स्वस्थ रखते हैं और आवश्यक पोषण प्राप्त करते हैं।

मनुष्य ने बुद्धिमता की सनक में आहार परीक्षक को ही पथभ्रष्ट करने के उपाय रच डाले और उसके लिए यह कठिन बना दिया कि वह उपयोगी, अनुपयोगी का विश्लेषण कर सके। नमक, मसाले और चिकनाई और चीनी ऐसी रिश्वतें हैं जिनका अभ्यस्त बनने के बाद जीभ के लिए उचित फैसला कर सकना ही संभव नहीं रहता फलतः नितान्त हानिकारक और अनुपयोगी पदार्थ अनावश्यक मात्रा में पेट में जाने लगते हैं। ऐसी दशा में यदि हमारा स्वास्थ्य दिन दिन गिरता चला जाय तो आश्चर्य ही क्या है।

सृष्टि के सभी प्राणी अपना आहार उसके प्राकृतिक स्वरूप में ही ग्रहण करते हैं। पशुओं को घास, वृक्षा चारियों को फल, माँसाहारियों को माँस, सड़न भोजियों को सड़न अपने प्राकृतिक रूप में ही ग्राह्य होती है। उन्हें उसी में स्वाद आता है और उनका पेट उसी रूप में उसे पचा लेता है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। मनुष्य अपने खाद्य का चयन उसके स्वाभाविक रूप में ग्रहण करने की अपेक्षा उसे अनेकानेक अग्नि संस्कारों से विकृत बनाता है। जिन वस्तुओं का प्राकृतिक स्वाद उनके अनुकूल नहीं पड़ता वे स्पष्टतः उसके लिए हानिकारक होनी चाहिएं। कच्चे माँस का न तो स्वाद उसके अनुकूल पड़ता है और न गंध न स्वरूप। इससे जाहिर है कि वह उसके लिए किसी भी प्रकार ग्रहण करने योग्य नहीं फिर भी प्रकृति के विपरीत जिह्वा की अस्वीकृति को झुठलाने के लिए उसे तरह तरह से पकाने, भूनने की क्रियाएँ करके चिकनाई तथा मसालों की भरमार करके इस योग्य बनाया जाता है कि चटोरी बनाई गई जीभ उसे पेट में घुसने की इजाजत दे दे। मनुष्य बन्दर जाति का फलाहारी प्राणी है। उसके लिए उसी स्तर के पदार्थ उपयोगी हो सकते हैं जो कच्चे खाये जा सकें। कच्चे अन्न, स्वादिष्ट शाक तथा उपयोगी फल उसके लिए स्वाभाविक भोजन हैं। यदि यही आहार अपनाया जाय तो निस्संदेह नीरोग और दीर्घजीवी रहने में कोई कठिनाई उत्पन्न न होगी।

जीभ की आदत बिगाड़ने के लिए उसे नशीली, जहरीली चीजें खिला खिलाकर विकृत स्वभाव का बनाया जाता है। इन नशों में नमक मसाले और शक्कर चिकनाई प्रधान हैं। इनमें से एक भी वस्तु हमारे लिए आवश्यक नहीं है और न इनका स्वाद ही प्राकृतिक रूप से ग्राह्य है। नमक या मसाले आदि एक दो तोले भी हम खाना चाहें तो न खा सकेंगे। नमक जरा सा खाने पर उलटी होने लगेगी। मिर्च प्राकृतिक रूप से खाई जाय तो जीभ जलने लगेगी और नाक आँख आदि से पानी टपकने लगेगा। हींग, लौंग थोड़ी सी भी खाकर देखा जा सकता है कि उनकी कितनी भयंकर विकृति होती है। बालक की जीभ जब तक विकृत नहीं हो जाती तब तक वह उन्हें स्वीकार नहीं करता। घर में खाये जाने वाले मसाले युक्त आहार का तो वह धीरे धीरे बहुत समय में अभ्यस्त होता है तब कहीं उसकी जीभ नशेबाज बनती है। अफीम और शराब जैसी कड़ुई वस्तुओं को भी आदी लोग मजे मजे में पीते हैं पीते ही नहीं उनके न मिलने पर बेचैन भी होते हैं। ठीक वही हाल विकृत बनाई गई स्वादेन्द्रियों का भी होता है। वह नमक मसाले बिना भोजन को स्वादिष्ट ही नहीं मानती और उसके न मिलने पर दुःख अनुभव करती है।

वस्तुतः शरीर को जितना और जिस स्तर का नमक चाहिए वह प्रत्येक खाद्य पदार्थ में समुचित मात्रा में मौजूद है। अनाज, फल, शाक, मेवा आदि में बहुत ही बढ़िया स्तर का नमक मौजूद है और वह आसानी से शरीर में घुल जाता है। जो खनिज नमक हम खाते हैं वह अनावश्यक ही नहीं वरन् हानिकारक भी है। वह खनिज लवण है जिसे हमारा शरीर स्वीकार नहीं करता। पसीना पेशाब कफ आदि में जो अनावश्यक खारापन पाया जाता है वह वस्तुतः प्रकृति द्वारा उस नमक को बाहर धकेले जाने का ही प्रमाण है जिसे हमने विकृत स्वादवश शरीर में ठूँसा था।

हम यदि अपने भोजन में से नमक निकाल दें तो इसमें रत्ती भर भी हानि नहीं होने वाली है वरन् एक विजातीय द्रव्य को जबरदस्ती पेट पर लादने के दुष्परिणाम से बचत ही हो जायगी। इतना ही नहीं उपयोगी अनुपयोगी पदार्थों को उनके प्राकृतिक रूप में जानने ग्रहण करने की उपयोगी आदत का विकास भी हो जाएगा। स्वादवश जो पेट की आवश्यकता से कहीं अधिक भोजन खा जाते हैं उसका परिणाम पाचन यंत्र के रुग्ण एवं नष्ट होने के रूप में सामने आता है। पाचन तंत्र बिगड़ जाने से खाद्य वस्तुएँ ठीक तरह पच कर पोषण प्रदान करने की अपेक्षा पेट में सड़न पैदा करेगी और बीमारियाँ सामने आयेगी। इस प्रकार जिन नमक मसालों को हम से सुखद मानते हैं, पसंद करते हैं वे ही हमारे लिए भयंकर स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करने वाले होते हैं। मिर्चें प्रत्यक्ष अखाद्य हैं। उन्हें शरीर में प्रवेश कराते समय जीभ से लेकर नाक आँख तक विद्रोह खड़ा करती हैं और जल स्राव करके उन्हें बहा देने का प्रयत्न करती हैं।

‘आर्कटिक की खोज में’ पुस्तक के लेखक जार्ज स्टीफेन्शन ने उत्तरी ध्रुव प्रदेश के निवासी एस्किमो लोगों में नमक के प्रति घृणा करने की बात लिखी है। विद्वान बाथौलाम्ये ने चीन के देहाती प्रदेशों के विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि वहाँ पिछले दिनों तक बिना नमक का ही भोजन करने का प्रचलन था।

जिन क्षेत्रों अथवा वर्गों में नमक नहीं खाया जाता वहाँ के निवासी उन लोगों की तुलना में अधिक स्वस्थ हैं जो नमक मिला भोजन करने के आदी हैं। मनुष्य शरीर के लिए जिन प्राकृतिक लवणों की आवश्यकता है वे उसे सामान्य खाद्य पदार्थों से ही सरलतापूर्वक एवं समुचित मात्रा में मिल जाते हैं। सोडियम मैग्नीशियम फलोरियम, कॉपर, कैल्शियम आदि लवण साग भाजियों में, फलों में एवं अन्न दूध में मौजूद हैं। फिर अलग से नमक खाने की आवश्यकता स्वाद के अतिरिक्त और किसी प्रयोजन के लिए नहीं रह जाती। यह स्वाद अन्ततः हमें बहुत महंगा पड़ता है। उसके कारण गुर्दे, हृदय, जिगर आमाशय आदि यंत्रों पर अनावश्यक दबाव पड़ता है और चर्म रोग रक्त विकार मस्तिष्कीय विकृतियाँ, स्नायविक तनाव आदि ऐसे कितने ही रोग उत्पन्न होते हैं जिन्हें नमकीन स्वाद पर नियंत्रण करके सहज ही बचा जा सकता था।

योग तत्व उपनिषद् में शाण्डिल्य ऋषि ने योग साधकों को नमक न खाने का उपदेश दिया है।

अमेरिका में नमक का प्रचलन घट रहा है। डॉक्टर ग्राहम सरीखे मनीषी लोगों को बिना नमक का अथवा न्यूनतम नमक का आहार लेने की सलाह देते हैं। उस देश के आदिवासी रैड इंडियन तो औषधि रूप में ही यदा कदा नमक का सेवन करते हैं।

अब तक यह मान्यता चली आती थी कि गर्मी के दिनों में माँस तथा पसीने के मार्ग से शरीर का नमक अधिक मात्रा में बाहर निकल जाता है उस कमी के कारण लू मारने का डर रहता है इसलिए गर्मी के दिनों में अधिक नमक खाना चाहिए। इस किम्वदन्ती को ठीक मानकर भारत की सेनाओं के भोजन में अपेक्षाकृत अधिक नमक प्रयोग कराया जाता था।

प्रति रक्षा अनुसंधान संस्था ने इस संबंध में गंभीर अध्ययन करके यह पाया कि वह किम्वदन्ती सर्वथा भ्रमपूर्ण थी। गर्मी के दिनों में भी मनुष्य को नमक की मात्रा बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं संस्था के प्रधान अधिकारी डॉ0 कोठी के अनुसार अधिक नमक खाने से हाई ब्लड प्रेशर उत्पन्न होने का खतरा बढ़ता है।

फ्राँस के डॉक्टर क्वाइरोल्ड ने अनिद्रा ग्रसित रोगियों को नमक छोड़ने की सलाह देकर इस कष्टकारक व्यथा से छुटकारा दिलाया। उसका प्रतिपादन है कि खनिज लवण जिसे आमतौर से लोग स्वाद के लिए खाते हैं अनावश्यक ही नहीं हानिकारक भी हैं। शरीर में उसकी बढ़ी हुई मात्रा मस्तिष्क तन्तुओं को उत्तेजित करती है और उससे निद्रा में रुकावट उत्पन्न होती है। यदि नमक कम खाया जाय अथवा न खाया जाय तो उससे नींद न आने के कष्ट से बहुत कुछ बचा जा सकता है।

कितने ही पशु पक्षियों को नमक का सेवन बहुत हानिकारक सिद्ध होता है । मैना पक्षी को नमक युक्त भोजन दिया जाय तो वह बीमार पड़ जायगी। यही बात अनेक अन्य पशुओं तथा पक्षियों और चूहों पर लागू होती है।

कोलम्बिया नदी के किनारे पर बसे हुए रेड इण्डियन आदिवासी नमक बिलकुल नहीं खाते। ऐसा ही नमक न छूने का प्रचलन अल्जीरिया के आदिवासियों में है। सहारा रेगिस्तान में रहने वाले बद्दू कबीले के लोग भी नमक नहीं खाते। अफ्रीका प्रशान्त सागर के मध्य द्वीप, साइबेरिया आदि के आदिवासी भी नमक के स्वाद से अपरिचित हैं और तो और अपने पड़ौसी नेपाल का भी एक ऐसा वन्य प्रदेश है जहाँ के लोग नमक नहीं खाते।

सभी जानते हैं कि रक्तचाप के मरीज को यदि नमक का सेवन बन्द करा दिया जाय अथवा घटा दिया जाय तो उसे बहुत राहत मिलती है।

जोन्स होपकिन्स विश्वविद्यालय के तीन वैज्ञानिकों ने नमक पर संयुक्त शोध करके यह निष्कर्ष निकाला है कि नमक सचमुच ही उग्र रक्तचाप का एक बहुत बड़ा कारण है। इन अनुसंधान कर्त्ताओं के नाम हैं- डॉ0 लुई0 सी0 लेसाग्ना, नार्मा फालिस और लीवों ट्रेटियाल्ट। इस मण्डली का यह भी कहना है कि नमक के चटोरों की स्वाद अनुभव करने की शक्ति घटती चली जाती है फलतः अधिक मात्रा में नमक खाने पर ही उन्हें कुछ स्वाद आता है। यह मात्रा वृद्धि उनके रोग को बढ़ाने में और भी अधिक सहायक बनती है। मण्डली का एक निष्कर्ष यह भी है कि महिलाएँ, पुरुषों की तुलना में अधिक निठल्ली रहती हैं और अधिक चटोरी होती हैं। इसलिए रक्तचाप की शिकायत भी पुरुषों की तुलना में उन्हें ही अधिक होती है।

रक्तचाप जैसी बीमारियों में तो आधुनिक चिकित्सक भी नमक त्याग की सलाह देते हैं। हृदय रोगियों को भी उसे कम मात्रा में लेने को कहा जाता है। सूजन बढ़ाने वाली बीमारियों में भी नमक छोड़ने में जल्दी लाभ होता देखा गया है।

अस्वाद व्रत अध्यात्म साधनाओं का प्रथम सोपान माना गया है। व्रत उपवासों में, तप अनुष्ठानों में नमक त्याग एक आवश्यक नियम माना जाता है। योगी, तपस्वी, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए उपयोगी कदम है। जीभ को चटोरी बनाने से कामेन्द्रिय तथा अन्य इन्द्रियाँ उत्तेजित होती हैं और अनेकों शारीरिक मानसिक विकास उत्पन्न करती हैं।

महात्मा गान्धी ने अपनी ‘सप्त महाव्रत’ पुस्तक में सबसे प्रथम व्रत ‘अस्वाद’ को ठहराया है और बताया है कि जीभ पर नियंत्रण करने पर अन्य इन्द्रियाँ भी काबू में आती हैं। ब्रह्मचर्य पालन का उन्होंने अस्वाद व्रत से सम्बन्ध मिलाया है और कहा है यदि इन्द्रिय निग्रह अभीष्ट हो तो प्रथम जिह्वा पर नियंत्रण स्थापित करना चाहिए। कहना न होगा कि स्वादों में नमक ने इन दिनों प्रधानता प्राप्त कर ली है। इस विकृति को निवृत्त करके ही हम स्वाभाविक भोजन की ओर, मिताहार की ओर कदम बढ़ा सकते हैं। यह उचित भी है और आवश्यक भी।

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