
श्री को इतना महत्व किसलिए?
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शतपथ ब्राह्मण की एक गाथा में ‘श्री’ की उत्पत्ति का वर्णन है। वह प्रजापति के अन्तस् से आविर्भूत होती है। अपूर्व सौन्दर्य एवं ओजस् से सम्पन्न है। प्रजापति उनका अभिवन्दन करते हैं और बदले में उस आद्य देवी से सृजन क्षमता का वरदान प्राप्त करते हैं।
ऋग्वेद में श्री और लक्ष्मी को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। तैत्तिरीय उपनिषद् में श्री का अन्न, जल, गोरस एवं वस्त्र जैसी समृद्धियाँ प्रदान करने वाली आद्य शक्ति के रूप में उल्लेख है। गृह-सूत्रों से उसे उत्पादन की उर्वरा शक्ति माना गया है। यजुर्वेद में ‘श्री’ और ‘लक्ष्मी’ को विष्णु की दो पत्नियाँ कहा गया है- “श्री श्चते लक्ष्मीश्चते सपत्न्यौ” श्री सूक्त में भी दोनों को भिन्न मानते हुए अभिन्न उद्देश्य पूरा कर सकने वाली बताया गया है-”श्रीश्र लक्ष्मीश्र”। इस निरूपण में श्री को तेजस्विता और लक्ष्मी को सम्पदा के अर्थ में लिया गया है।
शतपथ ब्राह्मण में श्री की फल श्रुति की चर्चा करते हुए कहा गया है वे जिन दिव्यात्माओं में निवास करती हैं वे ‘ज्योतिर्मय’ हो जाते हैं। अथर्ववेद में पृथ्वी के अर्थ में श्री का प्रयोग अधिक हुआ है। धरती माता मातृभूमि के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति करने के लिए श्री का उच्चारण एवं लेखन होने का इन ऋचाओं में संकेत है।
आरण्यकों में ‘श्री’ को सोम की प्रतिक्रिया अर्थात् आनन्दातिरेक कहा गया है। ब्राह्मण ग्रन्थों में उसकी चर्चा, शोभा, सुन्दरता के रूप में हुई है। ‘श्री’ सूक्त में इस महाशक्ति की जितनी विशेषताएँ बताई गई हैं उनमें सुन्दरता सर्वोपरि है। वाजसनेयी आरण्यक में श्री और लक्ष्मी की उत्पत्ति तो अलग-अलग कही गई है, पर पीछे दोनों के मिलकर एकात्म होने का कथानक है।
पौराणिक चित्रों में लक्ष्मी को कमलासन पर विराजमान हाथियों द्वारा स्वर्ण कलशों से अभिषिक्त किये जाने का चित्रण है। कमल अर्थात् सौन्दर्य, गज अर्थात् साहसिक धैर्य, स्वर्ण कलश अर्थात् वैभव, जल अर्थात् सन्तोष सन्तुलन। इन विशेषताओं के समन्वय को लक्ष्मी कह सकते हैं। ‘श्री’ शब्द में इसी स्थिति को अपनाने के लिए प्रोत्साहन है। पुराणों में ‘श्री’ की उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुई बताई गई है। यहाँ प्रबल पुरुषार्थ का संकेत है। अनुर्वर खारे जलागार से भी पुरुषार्थी लोक वैभव वर्चस्व प्राप्त कर सकते हैं। इस तथ्य को लक्ष्मी जन्म के उपाख्यान को महामनीषियों ने निरूपित किया है। कल्प सूत्र की एक कथा में भगवान महावीर के किसी पूर्व जन्म में उनका माता त्रिशला होने का वर्णन है जिसने दिव्य स्वप्न में ‘श्री’ का दर्शन किया था। समयानुसार उस दिव्य दर्शन की प्रतिक्रिया अपनी गोदी में भगवान को खिला सकने के रूप में प्राप्त हुई।
सामगान में श्री के पर्याय दीप्ति, ज्योति, कीर्ति जैसे शब्दों को प्रस्तुत किया गया है।
‘श्री’ को भारतीय धर्म में इतना महत्व क्यों दिया गया है उस पर विचार करने से प्रतीत होता है कि व्यक्तित्व को आन्तरिक सौन्दर्य- व्यावहारिक तेजस्विता और भौतिक समृद्धि के प्रति आस्थावान और प्रयत्नशील रहने के लिए संकेत है। आत्मिक और भौतिक प्रगति के सन्तुलित समन्वय से ही व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी विकास होता है। श्री को प्रत्येक व्यक्ति के नाम से पूर्व लगाने में इसी सद्भावना एवं शुभ-कामना की अभिव्यक्ति है कि श्रीवान् बनें-सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में अग्रसर हों।