
हम अपना उत्तरदायित्व समझें और उन्हें निवाहें
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व्यक्तिगत और पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए प्रयत्नशील रहना हर मनुष्य का कर्तव्य है। इसके लिए यथाशक्य सभी को समुचित प्रयत्न करना चाहिए; पर इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस क्षेत्र की आवश्यकताएं अथवा महत्वाकाँक्षाएं इतनी अधिक न बढ़ जायं कि समाजगत उत्तरदायित्वों को पूरा करने की दिशा में समय, श्रम, मन तथा धन का कुछ भी अंश बच न सके। कई बार तो लोग अपना निजी भार इतना अधिक बढ़ा लेते हैं कि उसे नीतिपूर्वक वहन कर सकना सम्भव ही नहीं रहता। चोरी, चालाकी के द्वारा ही उसकी पूर्ति करनी पड़ती है। जिनकी विलासी आदतें बढ़ गई हैं, जिन्हें फिजूल खर्ची की लत पड़ गई है उनके लिए न्यायोपार्जित आजीविका प्रायः कम ही पड़ती है। उन्हें अवाँछनीय आधार अपनाकर उसकी पूर्ति करनी पड़ती है।
पारिवारिक कर्तव्य बताते हैं कि जो सदस्य अपने हाथ-पैर, नाक, कान की तरह संयुक्त कुटुम्ब के उत्तरदायित्व से बंधे हुए हैं, उन सब की आवश्यकताओं एवं सुविधाओं का उचित ध्यान रखा जाय। अक्सर कमाऊ लोग अपनी सुविधा के लिए मनमाना खर्च करते हैं और जो बचता है उसे घरवालों पर बहुत एहसान जताते हुए देते हैं। यह अनुचित है। कमाने का यह अर्थ नहीं कि उसी को खाने का अधिकार है। उपार्जन एक कर्तव्य है जो हर कमा सकने योग्य व्यक्ति को पूरी तत्परता के साथ करना चाहिए किन्तु उसमें से खर्च उतना ही करना चाहिए जो नितान्त आवश्यक है। सच तो यह है कि अधिक समझदारी और अधिक जिम्मेदारी का तकाजा यह है कि वह पारिवारिक एकता की रीढ़, श्रद्धा, सद्भावना को बनाये रखने के लिए अपने लिए अपेक्षाकृत कम खर्च करे। इससे सुविधा में कमी भले ही पड़े, पर घर भर का सहज सम्मान बरसेगा और उस उपलब्धि से पूरे परिवार पर भावनात्मक शासन कर सकना- अपने प्रभाव से उन्हें सुसंस्कृत बना सकना कहीं अधिक मात्रा में सम्भव हो जायगा।
मनुष्य जाति का सभ्य सदस्य होने के नाते हर व्यक्ति को अपने नागरिक कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिए। अपनी सुविधा और समाज की सुविधा का जहाँ भी तुलनात्मक प्रश्न उपस्थित होता हो, वहाँ समाज को प्रथम और अपने को गौण रखना चाहिए। अपने को थोड़ी असुविधा भले ही हो, पर सामाजिक सुव्यवस्था की परम्पराओं का उल्लंघन न होने पावे, यह तथ्य सदा सामने रहना चाहिए। अक्सर लोग सार्वजनिक स्थानों, वस्तुओं तथा साधनों को लावारिस मानकर उनका मनमाना उपयोग करते हैं और उन्हें दूसरों के लिए कुरुचि पूर्ण, अस्त-व्यस्त तथा अव्यवहारणीय बना देते हैं, यह असामाजिक आदत है। रेलगाड़ी के डिब्बे, प्लेटफार्म, सड़क, धर्मशाला आदि स्थानों का उपयोग करते समय लोग यह भूल जाते हैं कि वे उन्हें गंदा तो नहीं बना रहे हैं। उतनी जगह तो नहीं घेर रहे हैं जिससे दूसरों को असुविधा उत्पन्न हो। रास्ता चलते केले खाना और उनके छिलके सड़क पर डाल देना दूसरों के पैर फिसलने का-टाँग टूटने का- कारण बन सकता है इसे कोई बिरले ही समझते हैं। सड़क के बाँई ओर चलना-जहाँ भीड़ हो वहाँ लाइन बना लेना एक अच्छा नियम है, पर आमतौर से लोग मनमानी बरतते हैं और धक्का-मुक्की करते देखे जाते हैं। घर का कूड़ा सड़क पर पटक देना- बच्चों को गली की नाली पर टट्टी के लिए बिठा देना उन लोगों के लिए सुविधाजनक हो सकता है, पर दूसरों को इससे कितनी असुविधा होती है इसका विचार उन्हें कहाँ आता है?
सामाजिक सुविधा एवं व्यवस्था को कायम रखने के लिए अपने उचित अधिकार तक सीमित रहना पड़ता है कि कहीं उच्छृंखल आचरण न बन पड़े इसके लिए कठोर आत्म-नियन्त्रण करना पड़ता है। नागरिक कर्तव्यों का यही तकाजा है, शिष्टाचार की सारी मर्यादाएं ऐसी सीमा में आती हैं, जो उनका पालन करने में जितनी उपेक्षा, आनाकानी करता है वह उतना ही असभ्य माना जाता है।
जल ही मछली का जीवन है। जलाशय की स्थिति के ऊपर ही उसकी सुविधा जुड़ी हुई है। समाज एक तालाब है और व्यक्ति उसी में निर्वाह करने वाली मछली। उसे यह ध्यान रखना ही चाहिए कि कीचड़ में लोट-पोट कर पानी को गन्दा न करे अन्यथा उसका स्वयं का तथा दूसरी मछलियों का निर्वाह कठिन हो जायगा। मनुष्य को अन्य प्राणियों की तुलना में बोलने, सोचने, लिखने, पढ़ने, कृषि उद्योग चिकित्सा, शासन आदि की सुविधाएं प्राप्त हैं वह असंख्य मनुष्यों द्वारा उपार्जित क्रमिक विकास से एक दूसरे के लाभान्वित होते चलने का ही प्रतिफल है। यदि अनुदान की इस शृंखला का लाभ हमें न मिला होता तो निश्चय ही सघन वन प्रदेश में रहने वाले पशु स्तर के मनुष्यों में ही हमारी भी गणना हुई होती। हमें आज जो सुविधाएं उपलब्ध हैं वे सभी असंख्य लोगों के श्रम, सहयोग से ही बनती और मिलती हैं। हमें जो लाभ दूसरों से मिलता है वह दूसरों को हमें भी देना चाहिए और आदान-प्रदान की शृंखला को सजीव बनाये रहना चाहिए। एकाकी सुख सुविधा और प्रगति की बात सोचना एक असम्भव कल्पना है। मनुष्य समाज का विकास सामूहिकता के आधार पर हुआ है, प्रगति के इस मूलभूत आधार को बनाये रहना और बढ़ाते चलना हर मनुष्य का सामाजिक प्राणी होने के नाते-परम पवित्र कर्तव्य है। स्वार्थ की निन्दा और परमार्थ की प्रशंसा इसीलिए की गई है कि स्वार्थी व्यक्ति समाज सेवा के- लोकमंगल के- प्रसंगों में कृपणता बरतता है और व्यक्तिगत सुविधाएं संग्रह करने में मरता, खपता रहता है। परमार्थ को स्वर्ग, यश और सन्तोष देने वाला पुण्य माना गया है; क्योंकि उस नीति को अपनाकर मनुष्य अधिक उदार दूरदर्शी एवं लोकोपयोगी बनता है। यही आत्म-कल्याण का मार्ग है और उसी पर चलते हुए समाज कल्याण का महान प्रयोजन पूरा होता है। जिस प्रकार हमें व्यक्तिगत और पारिवारिक सुविधाओं का ध्यान रहता है, उसी प्रकार सामाजिक प्रगति एवं सुव्यवस्था का ध्यान रखना चाहिए। इसलिए जितनी अधिक मात्रा में लोकोपयोगी कार्य बन पड़ें- उनमें अपनी शक्ति सामर्थ्य का नियोजन हो सके उतना ही अधिक प्रयत्न करना चाहिए।
समाज में अव्यवस्था उत्पन्न करने वाले-भ्रष्ट परम्पराएं प्रचलित करने वाले अनाचार अपराधों से दूर रहना चाहिए और दूसरों को भी वैसा करने से रोकना चाहिए। सामाजिक सुव्यवस्था एक सार्वजनिक सम्पत्ति है उसे सुरक्षित रखने में मनुष्य समाज के हर सदस्य को प्राण-प्रण से प्रयत्न करना चाहिए। अपने को उच्छृंखल आचरण नहीं करने देना चाहिए और न दूसरों को वैसा करने की छूट देनी चाहिए। प्रयास यही होना चाहिए कि उदार सहयोग की परम्पराओं में प्रोत्साहन देने वाले लोकोपयोगी कार्य स्वयं करें और दूसरों को वैसा ही करने के लिए प्रोत्साहित करें। यह हमारे सामाजिक कर्तव्य हैं जिन्हें पालन करने के लिए सजग तत्परता बनाये रहनी चाहिए।
राष्ट्रीय कर्तव्यों में लोकतन्त्र की जनता के विशेष कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व हैं। राजतन्त्र एवं अधिनायकवाद में सारी सत्ता शासकों के हाथ में केन्द्रित रहती है इसलिए प्रजा की अपनी मर्जी से नहीं शासन की इच्छानुसार गतिविधियाँ अपनानी पड़ती हैं। उस विवशता में प्रजा को सोचने के लिए कुछ अधिक नहीं बचता और नियत ढर्रे के अतिरिक्त कुछ और करने की भी गुंजाइश नहीं रहती। प्रजातन्त्रीय शासन में प्रजाजनों को बोलने, सोचने, करने की बहुत कुछ सुविधा होती है और संविधान में व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की मान्यता दी हुई होती है। चिन्तन और कर्तृत्व की कोई भी धारा अपनाने की उसे सुविधा रहती है। इतना लाभ लेने वाली प्रजा के ऊपर कुछ विशेष कर्तव्य उत्तरदायित्व भी आते हैं। वे आत्म-नियन्त्रण के हैं। उपलब्ध अधिकारों का समाजद्रोही क्रिया-कलापों में उपयोग किसी भी प्रकार नहीं करना चाहिए। कानूनी प्रतिबन्धों से भी अधिक प्रजातन्त्र के प्रजाजनों को आत्म-नियन्त्रण बरतना चाहिए। हर व्यक्ति को एक पुलिस मैन होकर रहना चाहिए जिसका पवित्र कर्तव्य नैतिक और सामाजिक स्वस्थ परम्पराओं को अक्षुण्ण बनाये रहना है।
प्रजातन्त्र में शासन सत्ता प्रत्येक प्रजाजन के हाथ में सौंपी हुई होती है। वही राष्ट्र का वास्तविक स्वामी होता है। अपने इस अधिकार को वह अपने किसी प्रतिनिधि को हस्तान्तरित करता है और अपने स्थान पर उसे शासन की बागडोर संभालने का भार सौंपता है। यह पुनीत प्रक्रिया सामान्य समय में तो सिद्धान्त मान्यता तक ही सीमित रहती है; पर मतदान के समय वह मूर्त रूप धारण करती है। उस दिन उसका व्यवहार रूप सामने आता है। प्रजातन्त्र का उत्तरदायित्व समझने वाली प्रजा का कर्तव्य है कि अपने वोट को समूचे राष्ट्र की पवित्रतम धरोहर समझे उसके साथ समूचे देश का भविष्य बनता, बिगड़ता देखे और हजार बार सोच-समझने के बाद ही किसी के पक्ष में अपना वोट डाले। जाति-बिरादरी के नाम पर-निजी लोभ लाभ के आधार पर-किसी की खुशामद, चापलूसी प्रोपेगण्डा या बहकावे से पूरी तरह अपना बचाव करते हुए मात्र हर दृष्टि से खरे व्यक्तियों को ही वोट दें। अन्धाधुन्ध खर्च करने वालों से सावधान रहें क्योंकि जो समय देने- सेवा करने का आश्वासन देकर उस आर्थिक लाभ रहित उत्तरदायित्व को संभालने के लिए पैसा भी लुटा रहा है वह अवश्य ही कुछ दुरभिसंधि संजोये हुए होगा। इस अवसर पर रंगे सियारों से विशेष रूप से सावधान रहने की आवश्यकता है अन्यथा वोट का दुरुपयोग राष्ट्रघाती, आत्मघाती दुष्परिणाम उत्पन्न करेगा। प्रजातन्त्र के नागरिकों को जितने मौलिक अधिकार उपलब्ध हैं उससे भी भारी उनके कर्तव्य हैं। हर नागरिक को प्रशासकीय और प्रगतिशील व्यवस्था बनाने के दृष्टि से अपने आपको अघोषित राष्ट्राध्यक्ष मानकर चलना चाहिए। तभी प्रजातन्त्रीय परम्परा का वास्तविक लाभ किसी देश को मिल सकता है। उपलब्ध अधिकारों का दुरुपयोग होने लगे तो प्रजातन्त्र असफल और उलटा हानिकारक सिद्ध होगा।
ईश्वर प्रदत्त कर्तव्य इतने अधिक हैं कि उन्हीं को निभा लेना कम गौरव की बात नहीं हैं। नये उत्तरदायित्वों का भार अपने ऊपर जितना कम बढ़ाया जाय उतना ही उत्तम है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए, मस्तिष्क को सुविकसित करने के लिए, व्यक्ति को परिष्कृत करने के लिए, माता-पिता, भाई-बहनों की साज-संभाल, समाज और संस्कृति पर छाई हुई विकृतियों का निराकरण करने के लिए प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को अपने ऊपर हजारों मन कर्तव्यों का बोझ लदा दिखाई पड़ेगा। विमूढ़ लोग जिन्हें पेट और प्रजनन के अतिरिक्त और कुछ दीखता-सूझता ही नहीं-अन्धी भेड़ों जैसी भीड़ जिस राह पर चल रही है उस पर लुढ़कते चलने के अतिरिक्त जिनके अन्तरंग में कोई प्रकाश उठता ही नहीं, उन नर-पामरों की चर्चा करना व्यर्थ है वे तो कीट-पतंगों की तरह रोते-कलपते, पिटते, पिसते किसी प्रकार मौत के दिन पूरे ही करेंगे।
तब लज्जा से शिर झुक जाता है जब अपना पेट पाल सकने में-अपने स्वास्थ्य को संभाले रहने में असमर्थ व्यक्ति भी विवाह, शादी करने पर मात्र कामकौतुक की दृष्टि से उतारू हो जाते हैं और बेचारी निरीह पत्नी को आजीवन दयनीय जीवन की विवशता में जकड़ते हैं। यह किसी निरीह आत्मा के साथ क्रूरता भरा व्यवहार है। जो लोग आर्थिक, शारीरिक और बौद्धिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं जिनके लिए अपना भार वहन करना भी कठिन पड़ रहा है, वे आये दिन बच्चे जनते चले जाते हैं तो लगता है कुत्ते और शूकरों से ऊँची इनकी विचारशीलता बढ़ नहीं सकी है। वे घृणित प्राणी अपने काम-कौतुक भर की बात सोचते हैं और यह नहीं देखते कि अविवेकपूर्ण रति-क्रिया जो बच्चे उत्पन्न करेगी उनका भविष्य क्या होगा और साज-संभाल करने में उनकी माता पर क्या बीतेगी? यदि इतना भर वे सोच पाते और दूरगामी दुष्परिणामों पर विचार करके वे सोचते तो आत्म-नियन्त्रण की बात सूझती। कम से कम मनुष्य तो ऐसा कर ही सकता है। विवाह करने और औलाद जनने से पूर्व हर नर-नारी को हजार बार विचार करना चाहिए कि क्या ऐसा करना नितान्त अनिवार्य है? यदि प्रस्तुत उत्तरदायित्वों को पूरा करने के अतिरिक्त फालतू शक्ति बचती हो तो नया बोझ सिर पर लादना और उस नये कोल्हू में जुतना उचित है। अन्यथा मानव जीवन के अलभ्य अवसर का समुचित लाभ उठाने के लिए-महत्वपूर्ण लक्ष्य प्रयोजनों में ही जुट पड़ना चाहिए और अपनी क्षमता को उस केन्द्र पर नियोजित करना चाहिए जिस पर व्यक्ति और समाज की सर्वतोमुखी प्रगति एवं सुख-शान्ति अवलम्बित है।
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