
मैं के जानने में ही ज्ञान की पूर्णता है।
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मेरा मकान, मेरा बैल, मेरा खेत, मेरा जूता इस तरह मेरा सब कुछ है। इन जड़ पदार्थों से ऊपर उठ कर फिर आगे बढ़ें तब अपने कुटुंबों के बारे में भी मेरा बेटा, मेरा भाई, मेरा पिता, मेरी बहिन आदि के रूप में ‘मैं’ प्रयुक्त होता है। ये सम्बन्ध साँसारिक हैं। ‘मैं’ को स्वयं अपने आप को भी कहें तो ठीक नहीं है। क्योंकि शरीर का अंग स्वयं ‘मैं’ नहीं है। वह मैं फिर कहता है मेरा हाथ, मेरा पैर, मेरी नाक, मेरी जीभ, मेरा शरीर। तब प्रश्न अब जटिलता की ओर अग्रसर होता है। मैं क्या है? इसकी सूक्ष्मता पर ध्यान करने पर फिर ‘आत्मा’ ‘प्राण’ आते हैं। उनके साथ भी मेरी आत्मा, मेरा प्राण का ही उपयोग होता है। जब यह आत्मा भी स्वयं मैं नहीं है तब ‘मैं’ क्या है? यह मानव, शरीर, संसार आदि ‘मैं’ नहीं हैं। इन सबके अन्दर से बोलने वाली कोई सत्ता है। यही सिद्ध होता है। जो ‘मैं’ है। उस सर्वसत्ता ‘मैं’ के साथ सम्बन्धित तथा अटूट सम्बन्ध इस जगत का है। जो उस ‘मैं’ से अलग नहीं किया जा सकता।
‘मैं’ के साथ मेरा है। जो घमंड के साथ कहता है, कि मैंने ऐसा किया, ऐसा कर दूँगा। इस नश्वर शरीर को शोभा नहीं देता। इस शरीर का वास्तविक मालिक परमात्म सत्ता है। हम दुनिया को जानने की कोशिश करते हैं। उनके साथ सम्बन्ध कायम करने के लिए लालायित हैं। किन्तु स्वयं अपने को जानने में तथा अपने साथ ही सम्बन्ध के लिए कितने आलसी हैं। यही हमारा अज्ञान है।
इस अज्ञानता की कोठरी में पड़े हमें सारा संसार भी नहीं दीख पायेगा। आँखें स्वयं देखती नहीं हैं। वे उतनी सामर्थ्यवान नहीं है कि बिना प्रकाश की सहायता के दुनिया को देखें। प्रकाश का और आँखों का सम्बन्ध अटूट है। यदि प्रकाश न रहे तो सुन्दर आँखें भी बेकार हैं। अतः प्रकाश ही नजर है, दृष्टि है। उसी तरह हमें ज्ञान का प्रकाश चाहिए जो हमारी बुद्धि की नजर उठाये बिना ज्ञान की बुद्धि भी आँख के समान व्यर्थ है।
इस ज्ञान का नाम ही ‘मैं’ है। ‘मैं’ है वह परमात्म सत्ता। इस सत्ता को जानना ही आस्तिकता है। वह सत्ता सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान है। उसके पास अन्याय नहीं है न्याय है। अन्याय के लिए दण्ड देता है न्याय के लिए पुरस्कार। वह जालिम जल्लाद भी है हमें मृत्यु देता है। आत्म हत्यारा भी है। स्वयं अपने आपकी हत्या करता है। भगवान भाव के रूप में इस भौतिक शरीर में आता है। उसका कोई आकार नहीं है। यह सारा ब्रह्माण्ड ही उसका स्वरूप है। यह साकार ईश्वर है।
हम इस साकार ईश्वर के अंग हैं। यह सारा विश्व हमारा शरीर है। किन्तु हमें स्वयं को न जानने के फल-स्वरूप ही हम अपने शरीर से खिलवाड़ करते हैं। बुरा करते, अन्याय करते तथा हम स्वयं का ही नाश करते हैं। जिस तरह हमारे शरीर के प्रत्येक अंग झगड़ा करने लगें कि हम स्वतन्त्र हैं, हम सर्वोपरि हैं तथा एक दूसरे की सहायता करना छोड़ दें, तब इस शरीर की क्या गति होगी? उसी तरह आज हम अज्ञानता के अन्धकार में भटकते हुए अपने शरीर को भी अपना नहीं समझते तब यह संसार रूपी शरीर कब तक समझ पावेंगे?
शरीर सहयोग का एक पुतला है। यदि इसमें सहयोग न रहें तथा हाथ पैर , कान ,नाक ,पेट आदि अलग-अलग कर दें तब वह शरीर नहीं कहा जा सकता। शरीर को कायम रखने के लिए सहयोग एकता आवश्यक है। मनुष्य स्वयं एक अंग के समान अपूर्ण है। इस सारे विश्व का एक अंग है। अतः अपने आपको जानकर अपना स्वयं का ज्ञान होना आवश्यक है।
इस ‘मैं’ के साथ अन्तःस्थिति महान शक्ति काम करती है। जो अहंकार में आकार इस शक्ति का दुरुपयोग करता हैं। वह शक्ति स्वयं अपने आप का मान मर्दन कर अपनी शक्ति उस कुसंस्कारी से छीन लेती है। उस शक्ति के हटते ही हमारा शरीर जीवित रहते हुए भी निष्प्राण हो जाता है। तब उसका नाश अवश्य हो जाता है। जिस तरह से कौरव, रावण, कंस आदि को अहं आने पर उनकी शक्ति हट गई तथा नाश हो गया।
श्री कृष्ण ने अर्जुन को विराट रूप दर्शन में बताया था-कि यदि तू नहीं भी रहेगा तो भी यह युद्ध होगा। तू कौरवों को नहीं मारेगा तो भी अवश्य मरेंगे। वे तो पहिले ही मारे जा चुके हैं। केवल संसार को दिखाने के लिए तू एक निमित्तमात्र है। उनकी आत्मा की सत्ता मैंने अपने में खींच ली है। वे केवल शरीर से जीवित हैं जिसको शक्ति मार चुकी है फिर उन्हें कौन बचा सकता है। इस विश्व में युग परिवर्तन करता है वह केवल निमित्त होता है। काल शक्ति से प्रेरित होता है जिसमें काली शक्ति प्रवेश करती है वही यह सब कर सकता है। यह बताते हुए अर्जुन को कृष्ण ने अपने दर्शन में पहिले बता दिया कि महाभारत इसके पूर्व ही समाप्त हो चुका है। तब अर्जुन को ज्ञान प्राप्त होता है कि कुटुंबी भाइयों के मारने में मेरा दोष नहीं है। वे तो स्वयं ही मर चुके हैं।
कितने आश्चर्य की बात है कि इस संसार में सभी दूसरों को, संसार को जानते हैं। किन्तु अपने आप को नहीं जानते। व्यवहार रूप में भी देखिये दूसरों के दोष दुर्गुण दुराचार जल्दी देख सकते हैं। किन्तु अपने स्वयं के नहीं। जो दुनिया को जानता है वह विद्वान है। किन्तु जो अपने आप को जानता है वह ज्ञानी है-चेतन ज्ञान रूपी ईश्वर को जानता है वही ज्ञानी है, स्वयं को जानता है। किन्तु ज्ञानी कहीं भी नजर नहीं आता। इस कला विज्ञान सम्पन्न युग में मानव आज भी अपने बारे में असीम अज्ञान के कारण ही इस युग की अनेकानेक समस्याओं का सामना करता है। यदि हम स्वयं को जानने लगें जो सारी समस्यायें स्वयं नष्ट हो जायेंगी। हम अपने आपको, शरीर को, मन को, प्रवृत्ति को, आत्मा को, ईश्वर को नहीं जान पाये। जो स्वयं को जानने की पहली सीढ़ी है उसे छोड़ कर उछाल मारना चाहते हैं। यह प्रकृति के नियम का उल्लंघन है। इसी कारण सजा भुगतनी पड़ रही है। इस सजा के प्रतिफल हमारी सभ्यता, दर्शन, संस्कृति का पतन हो गया, हमारा पतन हो गया।
शरीर के अंग-प्रत्यंगों के समुच्चय से मानव बनता है। मानव जटिल ज्ञान है। उसी तरह प्रत्येक वस्तु से संसार बना है। यह शरीर जिन कोषाणुओं से बना है वह स्वयं एक ब्रह्माण्ड है। इस शरीर में अनेक ब्रह्माण्ड विद्यमान हैं। मानव मस्तिष्क प्रकृति की विलक्षण शक्ति की कृति है। किन्तु यह मस्तिष्क यह शरीर केवल शरीर नहीं है। यह विश्व है। इसका ज्ञान प्राप्त करने में ज्ञान की आवश्यकता है। मानव की मानसिक, बौद्धिक, नैतिक, कलात्मक, आध्यात्मिक क्रियाओं का माप असम्भव है। सृजनात्मक आनन्द के निर्माण, चेतना को शरीर से मुक्त, दूसरों के साथ, विश्व के साथ एकाकार आदि करने का महान अमापनीय कार्य है। यह कला ज्ञान ही हो सकता है। किन्तु इस ज्ञान के अभाव में ही मानव जीवन लुप्त सा हो गया है।
जिस तरह नारद को बानर का रूप देने पर भी वह स्वयं को न जानने पर स्वयं को अच्छा ही समझता था। दूसरों को बुरा। इसी अज्ञानता के कारण हँसने वालों को उनने श्राप दे दिया। किन्तु बाद में अपनी सूरत दर्पण में देखने के बाद आत्मबोध होने पर उन्हें पश्चाताप होता है। यदि इससे पूर्व वह स्वयं को जान लेता तो उसे इस दुःख के संसार में डूबना न पड़ता। अपना अहम् अंकुरित नहीं होने देता तब उसका वह क्षण इस वासना वृत्ति में समाप्त न होकर जीवन के उत्थान में लगा होता।
इस शरीर के निर्माण में इस विश्व का कितना सहयोग है। माँ बाप, अन्न-जल, पृथ्वी अग्नि, वायु आदि के सहयोग का अनुमान लगाना कठिन है इनके सहयोग से जी रहा, मानव परावलम्बी है। फिर भी स्वयं को स्वावलम्बी समझता है। इन अटूट सम्बन्धों से अपने को स्वतन्त्र मानता है। यहाँ स्पष्ट है कि मनुष्य ने स्वयं को नहीं पहिचान पाया है। यदि स्वयं को पहचानता तो वह विश्व के किसी भी कण से अपने को अलग न मानकर अपना अटूट सम्बन्ध कायम रखता। आज की उपस्थित छटपटाहट से बच कर शान्तिपूर्वक जीवन बिताता। यही ‘मैं’ है। ‘मैं’ को जानना आवश्यक है बिना ‘मैं’ को जाने हमारा जीवन सुखी एवं सार्थक नहीं हो सकता। हमारा ज्ञान पूर्ण नहीं हो सकता।
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