
वेदान्त पलायनवादी दर्शन नहीं है।
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योगवशिष्ठ के अनुसार भगवान रामचन्द्र जी को संसार से तीव्र वैराग्य हुआ और वे विरक्त जीवन जीने की तैयारी करने लगे तो महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें समझाया- “राम तुम संसार का त्याग क्यों करते हो? संसार क्या ब्रह्म से भिन्न वस्तु है?”
महाभारत में कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों सेनाओं के बीच अर्जुन को भी वैराग्य भावना का उदय इसी प्रकार हुआ था। जब दोनों ओर अपने मित्र सम्बन्धी और पारिवारिकजनों को देखा तो मोह उत्पन्न हो गया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग की शिक्षा दी थी।
वेदान्त चिन्तन के नाम पर एक निराशा पूर्ण पलायनवादी दृष्टिकोण पल्लवित हो गया है- जगत मिथ्या है, माया का खेल मात्र है। यहाँ की हर वस्तु दुःख और बन्धन का कारण है। इससे छुटकारा पाकर भागो। वनों और पर्वतों में जाकर छिप जाओ। तभी ब्रह्म साक्षात्कार व मुक्ति प्राप्त हो सकेगी।
हमारा अध्यात्म हमारे मन हृदय और चेतना की वस्तु है। हमें अध्यात्म के सही रूप को समझने की आवश्यकता है। इसको प्राप्त करने का अर्थ यह नहीं कि इस संसार को त्याग कर एकान्तवासी हो जाय। जीवन को परिपूर्ण बनाने के लिए वस्तुओं की आवश्यकता होती है। हम उन सभी को उपभोग करेंगे किन्तु उन वस्तुओं की कामना और वासना नहीं रह जाएगी। आसक्ति त्याग ही संन्यास है। यद्यपि जीवन के वैभव हमारे अनुभव के एक अंश बनकर रहेंगे, पर भीतर से हम उनसे इतने मुक्त होंगे कि हमारी समग्र आन्तरिक भावना भगवान में समर्पित होगी।
जो प्रेय (प्रिय) है उसके प्रति अरुचि, घृणा का भाव उत्पन्न करने से ही श्रेय की प्राप्ति हो सकेगी? नहीं, जीवन की सार्थकता प्रेय को श्रेय प्राप्ति का साधन बनाने में है। जीवन के प्रति निषेधात्मक दृष्टिकोण अमानवीय है अव्यावहारिक है। जीवन के प्रति पलायनवादी दृष्टिकोण रखने वाले लोग समाज से अलग पड़ गये और अकर्मण्यता का शिकार बनकर समाज पर भार स्वरूप हो रहे हैं। 56 लाख साधु-संन्यासियों का समुदाय इसी गलत दृष्टिकोण का भयावह परिणाम है।
वेदान्त दर्शन के अनुसार “माया मात्र मिदं सर्वम् (यह सब माया है)- “ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या” (ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है) आदि-आदि उपनिषद् वाक्यों का तात्पर्य संसार और उसकी वस्तुओं की निन्दा करना अथवा उनका निषेध करना नहीं है। वे तो विश्व की आत्म रूपता बताना चाहते हैं। जगत की एकात्मकता का बोध ही वेदान्त का सार है।
‘सर्वभूत हितेरतः’ (सबके हित में रत रहना) वेदान्त का सिद्धान्त है। विश्व के साथ एकात्मकता का बोध एवं तादात्म्य की अनुभूति प्राप्त किये बिना ब्रह्म के साथ तादात्म्यता एकात्मकता की अनुभूति नहीं की जा सकती। इस स्थिति की प्राप्ति के बिना “सर्वभूत हितेरतः” का सिद्धान्त केवल ढोंग ही सिद्ध होगा। वेदान्त दर्शन तो कर्म का दर्शन है- इसमें कुण्ठा और गतिरोध को स्थान नहीं।
देश-काल परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य में ही हमें किसी प्रवृत्ति पर विचार करना चाहिए। प्राचीन ऋषि-मुनियों के जीवन उस समय की परिस्थितियों के अनुसार उपयुक्त थे। वनों में एकान्त साधना ही उनका जीवन था। उस समय वन सम्पदा का बाहुल्य था- वहाँ अपने आश्रम बनाकर अपनी ज्ञान-साधना में लगे रहना उनके लिए सर्वथा उपयुक्त था। उनकी वेश-भूषा भी परिस्थिति-जन्य थी। प्रायः अधिकाँश ऋषियों के पत्नी और बच्चे थे। जगत व्यापार में लोक-व्यवहार करते हुए भी आत्मा की निर्मलता उनका लक्ष्य था। वायु में गंध मिली होती है। फिर भी वायु उससे निर्लिप्त रहती है- यही प्राचीन ऋषियों का जीवन था।
सांसारिक जीवन का उपभोग करते हुए भी मन से निर्लिप्त रहना ही सच्ची निवृत्ति है। संसार से अलग वन में गुफाओं के अन्दर रहते हुए भी मन के भीतर सांसारिक वासनाओं की सृष्टि होती रह सकती है।
निवृत्ति मार्ग को अधिक बल आचार्य शंकर से मिला। इस संदर्भ में हमें शंकर की समकालीन परिस्थितियों की समीक्षा करनी होगी। वेदान्त विद्या के परम आचार्य शंकर के कंधों पर सच्चे वैदिक धर्म के पुनरुद्धार का भार था। उस समय भारत में बौद्ध धर्म का बोल बाला था। शंकर को बौद्ध धर्म से लोहा लेना पड़ा। लोहे से ही लोहा काटा जाता है। भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं को जो प्रव्रज्या दी थी वह शंकर के मन को भी ठीक लगी। अतः उन्होंने ‘सर्व भूत हितेरतः’ सिद्धान्त के लिए समर्पित संन्यासी वर्ग के लिए काषाय और प्रव्रज्या दोनों को बौद्ध धर्म से ले लिया है। परन्तु उन्होंने बौद्धों के निराशापूर्ण क्षणभंगुरवाद का खण्डन किया और आत्मा के शाश्वत अजर-अमर स्वरूप का प्रतिपादन किया।
शंकर के बारे में यह कहना कि वे जगत को मिथ्या कहकर इससे भाग जाने का उपदेश करते थे, ठीक नहीं। शंकर तो जगत का ब्रह्म के साथ एकीभाव दिखाकर उसे सत्य रूप प्रदान करते थे। उनके दर्शन में जगत मिथ्या नहीं। उसे अनन्त आत्मा से अलग समझने की दृष्टि मिथ्या है। जीवन के प्रथम चरण में ही कर्म संघर्ष में उतर जाने वाले शंकर को हम पलायनवादी मार्ग की ओर प्रवृत्ति करने वाला किस प्रकार कह सकते हैं।
“अमृतस्यपुत्रा वयम्” (हम अमृत के पुत्र है) यही वेदान्त की आस्था है। जहाँ हम विश्व की समग्र सत्ता के इस मूल अमृत स्रोत के साथ स्वयं को जोड़ लेते हैं। वहाँ हम पलायनवादी नहीं कर्मवान होने की सतत प्रेरणा प्राप्त करते हैं। अन्तर केवल इतना है कि इस दिशा में किये गये कर्म के पीछे समष्टि के हित का भाव होगा स्वार्थ की भावना नहीं। वेदान्त आदमी को ऊपर उठाकर जीना सिखाता है।
वेदान्त के “माया मात्र मिदं सर्वम्” ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या” सूत्रों के वास्तविक भाव न समझने वाले लोग शब्दाडम्बर के जाल में उलझे हुए हैं। आध्यात्मिक मार्ग पर आरुढ़ हर अभीप्सु को निरन्तर सत्य के किसी मौलिक साक्षात्कार के लिए भी तत्पर रहना चाहिए। शब्दों के भीतर निहित सम्पन्नतर अर्थों का आकलन करना अभीष्ट है। जो शब्दों मात्र पर जीते हैं वे उसी तरह भूखे रह जायेंगे जैसे अपूर्ण पोषण से पीड़ित व्यक्ति भोजन करके भी भूखे रह जाते हैं।
आध्यात्मिक साहित्य में जिन सत्यों को प्रकाशित किया जाता है, वे चेतना में बोये हुए बीज होते हैं। यदि उन बीजों को सक्रिय और उर्वर चेतना में बोया जाता है तो वे फूटकर उग आते हैं और फल प्रदान करते हैं। पर यदि उन्हीं बीजों को सुप्त चेतना में आरोपित किया जाता है- एक ऐसी चेतना में जो अचेतन या मृत है जो बाह्य रूपों और क्रिया काण्डों का विगत काल के विचारों पर जीती है- तो वे बीज फूटेंगे नहीं, अंकुरित और परिपक्व नहीं होंगे।
वेदान्त के सुन्दर विचार बीज अनुर्वर मस्तिष्कों में ज्यों के त्यों निष्क्रिय रूप में पड़े हैं। लाखों लोग उन बीजों को धारण करने का दावा करते हुए भी निष्प्राणवत समाज के भार बने हुए हैं।
आज वेदान्त की नाव पर चढ़े हुए असंख्य लोग ज्ञान सागर में अपनी नाव चला रहे हैं। किन्तु भाँग पिये हुए प्रमादी लोगों की तरह उनकी नाव रस्सी से किनारे के खूँटे पर बँधी हुई निष्क्रिय है। वे समझ रहे हैं कि हम चल रहे हैं बढ़ रहे हैं। किन्तु सत्य है कि वे एक इंच भी टस से मस नहीं हो रहे हैं।
ज्ञान कर्म का सागर सतरण तो उनके लिए असम्भाव्य है ही, साँसारिक भोग वासना से दूर हटने में भी असमर्थ हैं, दिखावा करते हैं कि हम संसार से अलग हैं किन्तु वस्तुतः उनकी नाव साँसारिक वासना के खूँटे से बँधी हुई किनारे के पास ही हिल रही है। सही अर्थों में वे न पलायनवादी हैं न कर्मवादी, बल्कि घोर संसारी लोग हैं। कर्तव्य कर्म के उत्तरदायित्व से बचकर सभी साँसारिक भोगों का उपभोग कर रहे हैं। धर्म को तुच्छ व्यवसाय का रूप देकर भारतीय संस्कृति की उत्कृष्ट विचारधारा को गन्दा कर दिया है। इस जघन्य अपराध के लिए आने वाला युग इन निवृत्त मार्गियों को कभी क्षमा न करेगा।
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