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Magazine - Year 1976 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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महत्वाकाँक्षाओं की उद्विग्नता अवाँछनीय और अहितकर

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महत्वाकाँक्षाओं का भड़काया जाना उचित है या अनुचित, लाभदायक है या हानिकारक, इस प्रश्न के दोनों पहलू हैं। एक में समर्थन और दूसरे में निषेध किया जाता रहा है।

समर्थन इस तर्क के आधार पर किया जाता है कि उससे इच्छा तीव्र होती है, उपलब्धियों के रंगीन सपने दीखते हैं, पाने के लिए उमंग उठती है, बुद्धि तीव्र होती है और प्रयत्नशीलता बढ़ जाती है। इससे मनुष्य का पुरुषार्थ, चिन्तन और अनुभव बढ़ता है। सक्रियता के फलस्वरूप उत्पादन बढ़ता है और उससे व्यक्ति तथा समाज को लाभ होता है।

निषेध इस आधार पर कि महत्वाकाँक्षाएँ व्यक्तिवादी अहंमन्यता को बढ़ाती हैं। मनुष्य प्रतिस्पर्धी बनता है। दूसरों से अधिक ऊँचा उठने और आगे बढ़ने की होड़ लगाता है। असन्तुष्ट रहता है अस्तु मानसिक संतुलन लड़खड़ाता रहता है और उद्विग्न आतुरता छाई रहती है। फलतः मस्तिष्क जीवन की- संसार की महत्वपूर्ण समस्याओं पर चिन्तन कर सकने में असमर्थ रहता है इच्छा शक्ति की तीव्रता का ही दूसरा नाम आतुरता है। वह धैर्य के बाँध तोड़ती है और जिस तरह भी हो सके प्रयोजन पूरे करने के लिए ललकती है। इसी मनः स्थिति में अपराधी प्रवृत्तियाँ पनपतीं हैं। जल्दी ही सफलता न मिलने पर निराशा छा जाती है और असफल रहने पर तो उसकी स्थिति छत से उठाकर खाई में पटक देने जैसी हो जाती है। उसे दुहरी चोट लगती है और इस स्थिति में अत्युत्साही व्यक्ति ही सब से अधिक निराश, खिन्न होते हैं। मनोबल से बुरी तरह वंचित हो जाते हैं।

इस पक्ष के समर्थक महत्वाकाँक्षाओं पर आक्षेप करते हुए कहते हैं कि अपने को अधिक साधन सम्पन्न और अधिक उपभोग करने में समर्थ बनाने की चेष्टा ने जहाँ मनुष्य की बुद्धिमता क्रियाशीलता और साधन सुविधा को बढ़ाया है वहाँ उसे अनैतिक कार्य करने दूसरों की क्षति पहुँचाने और समाज में विक्षोभ उत्पन्न करने वाले बीज भी बोये हैं।

दूसरे पक्ष का लाँछन यह है कि अहंभाव को उत्तेजित करने वाली इच्छाओं का दमन करने से मनुष्य आत्मग्लानि और निराशा में फँसता है। अपनी विशेषता उभारने में निष्क्रिय हो जाता है। निरुत्साही और नीरस मनः स्थिति में उसे निर्जीव जैसी जिन्दगी जीनी पड़ती है। इच्छा और कामना खो देने पर प्रगति के द्वार बन्द हो जाते हैं।

पक्ष, विपक्ष से ऊँचे उठ कर मनः शास्त्र के अनुसार विश्लेषण करने पर महत्वाकांक्षाएं भड़कने से उत्पन्न असन्तोष एक घातक मनोविकार के रूप में सामने आता है। फलतः व्यक्ति हर्षोल्लास की सहज सुलभ अनुभूति से वंचित रह जाता है सामान्य जीवन को यदि सरसता समस्वरता और संवेदनशीलता के सहारे जिया जाय तो उतने में भी प्रसन्नता, और प्रफुल्लता के पर्याप्त साधन रहते हैं किन्तु महत्वाकाँक्षाओं की आँधी उसे बहुत दूर उड़ा ले जाती है, भावी सफलता के रंगीन चित्र तो कभी कभी सामने आते हैं, पर वे जल्दी सफलता की इतनी तीखी आकुलता उत्पन्न कर देते हैं कि वर्तमान में घोर असन्तोष ही छाया रहता है। देरी होने और व्यवधान आने से भारी खीज उत्पन्न होती है और वह जिस-तिस पर उतर कर आवेश आक्रोश का रूप बनती है। इससे विद्वेष और अनाचार दोनों ही बढ़ते हैं।

मनोविकारों से शरीर को अगणित प्रकार की हानियाँ पहुँचती हैं यह असंदिग्ध है। नाड़ी संस्थान पर अवाँछनीय दबाव पड़ने से जीवन-यापन की सहज सामान्य प्रक्रिया अस्त व्यस्त होती है और उससे दुर्बलता, रुग्णता एवं अकाल मृत्यु की सम्भावनाएँ मूर्तिमान होकर सामने आती है। क्रोध, चिन्ता, भय, निराशा, शोक आदि की उत्तेजनाएँ सन्तुलित जीवन की जड़ें खोदने में कुल्हाड़ी का काम करती हैं।

असन्तुष्ट व्यक्ति खीजा और झल्लाया रहता है। फलतः उसकी सहज सुलभ समस्वरता न जाने कहाँ चली जाती है। भविष्य के सपने कभी पूरे हों- अभीष्ट सफलताएँ मिलें तो प्रसन्नता मिले इसी आशा में उलझा हुआ व्यक्ति संतोष मिलने की संभावना को कल्पना क्षेत्र तक संजोये रहता है। वह सपने भी स्थिर नहीं रहते व्यवधानों के ग्रहण आये दिन उनकी आभा को धूमिल करते रहते हैं। तृप्ति की स्थिति आने पर और नई विपत्ति भड़कती है कि जो कुछ मिला है वह स्वल्प दीखता है और उस उपलब्धि की अपेक्षा अनेक गुना पाने की उत्कंठा तत्काल उठ खड़ी होती है। फलतः प्राप्त सफलता को अपर्याप्त मान लेने से उस दीर्घकालीन प्रयत्न के फल का आनन्द लेने से भी वंचित रहना पड़ता है।

असंतुष्ट व्यक्तियों के समाज में कभी समता शान्ति और स्थिरता नहीं रह सकती। एक दूसरे की प्रतिस्पर्धा में लगा रहता है। यों स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रचनात्मक दिशा में लगी रहे तो प्रगति की प्रेरणा भी बन सकती है पर वैसा होता नहीं। उसे सस्ता तरीका दूसरों को गिराना प्रतीत होता है। दो समानान्तर रेखाओं में से एक को बड़ा बनाना हो तो दो ही तरीके हैं या तो एक बढ़े अथवा दूसरी घटे। बढ़ना श्रम साध्य, साधन साध्य और समय साध्य हैं। घटाना, काटना, मिटाना सरल है अस्तु आमतौर से प्रतिस्पर्धा इसी दिशा में दौड़ती है। जिनकी तुलना में ऊँचा उठना है उन्हें छोटा, दुर्बल या असफल बनाकर भी अपनी स्थिति ऊँची रखी जा सकती है। अन्धों में काना सरदार होता है। दूसरों को अशक्त सिद्ध करके गौरव स्थापन करने की अहंमन्यता ने ही गुण्डागर्दी, उच्छृंखलता, आतंक, आक्रमण, आततायीपन, क्रूरता आदि दुष्प्रवृत्तियों को जन्म दिया है। दुष्टताएँ अभाव जन्य बहुत कम होती हैं अधिकतर तो उनके मूल में उद्धत अहंकार ही काम करता है।

प्रतिस्पर्धा में सभी सफल नहीं हो सकते। किन्हीं विरलों को ही सफलता मिलती है, शेष के पल्ले निराशा ही पड़ती है। उन सबको अनावश्यक और अवाँछनीय खिन्नता का सामना करना पड़ता है। वे हारे हुए व्यक्ति बेतरह टूटते हैं और आत्म-हीनता की ग्रन्थि में जकड़ कर सामान्य जीवन की सरस अनुभूतियाँ भी खो बैठते हैं। भड़का हुआ असंतोष किन्हीं मनस्वी व्यक्तियों को उन्नतिशील भी बना सकता है, जिनमें वैसी प्रतिभा नहीं है वे इस घुड़दौड़ में शामिल होकर अपनी टाँग ही तोड़ लेते हैं। इस प्रतिस्पर्धा में जुआ व्यवसाय की तरह लाभान्वित कोई-कोई ही होता है- शेष सभी खिलाड़ी घाटा उठाते और सिर धुनते हैं।

असन्तोषजन्य प्रतिस्पर्धा की तृप्ति व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं के बड़े सपने गढ़ने और उनकी पूर्ति में जुट पड़ने में सामाजिक दृष्टि से एक बड़ी हानि है- वैयक्तिक सुख साधन बढ़ाने की। उस ज्वर से पीड़ित व्यक्ति दूसरों को सुखी बनाने के लिए अपने साधनों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हो सकता। उसे तो दूसरों से आगे बढ़ना है- ऊँचा उठना है- सफल साधन सम्पन्न होना है। इसके लिए सारी शक्ति झोंक देना भी कम पड़ता है। उतना कुछ बचता ही नहीं जो दूसरों के काम आ सके। अस्तु ऐसे व्यक्ति समाज सेवा के लिए कुछ कर नहीं सकते।

सस्ती वाहवाही लूटकर जन-सम्मान और जन-सहयोग आकर्षित करने और उससे लाभान्वित होकर महत्वाकांक्षाएं पूरी करने की दुरभि संधि ही उनकी लोक सेवा होती है। ख्याति पाने से कम में वे किसी की- किसी प्रकार की सेवा, सहायता नहीं कर सकते। उदारता और महत्वाकांक्षा में सहज वैर है।

यह स्थिति मानवी गरिमा को गिराती है- सामाजिक प्रगति की दृष्टि से यह एक बहुत बड़ी बाधा है। महत्वाकाँक्षी व्यक्ति अपने समाज को गिराते ही हैं उठाते नहीं। असन्तोष रचनात्मक हो तो सकता है, पर वैसा बन पड़ना न तो व्यावहारिक होता है न सम्भव। प्रतिस्पर्धा की दौड़ में अवाँछनीय आचरण ही बन पड़ते आमतौर से देखे जाते हैं।

विद्वान गोर्की ने अपनी आत्मालोचना करते हुए लिखा है- यदि 15 वर्ष की आयु से मुझे नया जीवन जीने का अवसर मिल जाय तो फिर उसे नये सिद्धान्तों- नये आदर्शों और नये उपक्रमों के साथ आरम्भ करूंगा। निश्चय ही उसकी धुरी असन्तोष पर आधारित न होगी और न उसमें वैसी महत्वाकाँक्षी का समावेश होगा जैसी कि आज आप लोगों में पाई जाती हैं।

यह असन्तोष व्यक्तिगत परिधि से बढ़कर एक छोटे समूह तक ही कठिनाई से ही विकसित हो पाता है। विश्व चेतना तक विकसित होने से पूर्व ही उसका अन्त हो जाता है। महत्वाकांक्षायें विकसित होकर किसी कुटुम्ब, वंश, जाति, सम्प्रदाय और अधिक से अधिक देश तक सीमित हो सकती है। तब भी उसकी प्रतिक्रिया व्यक्तिगत असन्तोष जैसी ही होती है। सिर्फ दायरा बढ़ता है। साम्प्रदायिक वैमनस्य, धर्मोन्माद, उद्धत राष्ट्रवाद, वंश प्रतिष्ठा के नाम पर थोड़े से लोगों ने किस प्रकार असंख्य जनता का शोषण उत्पीड़न किया है, इस अनाचार से इतिहास के रक्त रंजित पन्ने भरे पड़े हैं। हिटलरों, चंगेजखाओं, नादिरशाहों, सिकन्दरों, नैपोलियनों की महत्वाकांक्षाएं भले ही अपने देश जाति के पक्ष में विकसित हुई हों पर उनने दूसरों का रक्त पिया और अपनों को आसुरी अट्टहास करने का अवसर दिया। अन्ततः इसकी प्रतिक्रिया उभय- पक्षीय पतन और विनाश के रूप में ही सही सामने आई।

वर्ग विद्वेष उत्पन्न करने वाले अनैतिक तत्वों के मूल में चन्द व्यक्तियों की महत्वाकांक्षाएं ही उद्धत होती रही हैं। सवर्णों ने असवर्णों का, नर ने नारियों का, धनियों ने निर्धनों का, बुद्धिमानों ने अनजानों का किस तरह शोषण किया है और उसके फलस्वरूप दोनों ही पक्षों की अपार क्षति हुई है। शोषकों ने अपनी आत्मा गंवाई और शोषितों ने अपनी सुविधा। लाभ किसी को नहीं हुआ घाटा दोनों ने उठाया। जिनने महत्वाकांक्षाएं पूरी की उसने आत्म प्रताड़ना और विश्व चेतना की भर्त्सना भी कम नहीं सही है, सम्पन्नता का सुख वस्तुतः उन्हें बहुत महंगा पड़ा है। जो पाया उससे खोया अधिक है। दावानल भड़का कर उसी क्षेत्र में रहने वाला शान्तिपूर्वक रह नहीं सकता।

होना यह चाहिए कि महत्वाकांक्षाएं अहंमन्यता की संकीर्णता में सीमाबद्ध न रहें। मैं विकसित होकर हम बनें और उस हम को सर्वजनीन सुख शाँति की प्रगति और समृद्धि की लगन लगे। इस लक्ष्य को लेकर जो असन्तोष भड़केगा जो पुरुषार्थ पनपेगा उससे समाज में सत्प्रवृत्तियाँ पनपेंगी और व्यक्ति की सद्भावनाएं विकसित होंगी। परमार्थ परायण व्यक्ति का स्वार्थ भी सधता है। अपनी सेवा साधना के बदले जो लोक श्रद्धा संचय करता है उसकी प्रतिक्रिया सामान्य नहीं असामान्य होती है। समृद्धि भले ही कम पड़े, पर शान्ति प्रसन्नता और तुष्टि की सम्पदा इतनी अधिक बढ़ जाती है कि व्यक्ति हर घड़ी अपने को सुखी, समुन्नत और गौरवशाली अनुभव कर सके।

व्यक्तिगत- भौतिक महत्वाकाँक्षाओं से सन्तोष भड़कता है- सन्तुलन नष्ट होता है और प्रस्तुत उपलब्धियों से सरसता अनुभव करने का अवसर चला जाता है, आतुरता, अनीति अपनाने के लिए धकेलती है और अभीष्ट सफलता मिलने पर वह अपर्याप्त लगती है और असन्तोष के उस उद्वेग से पीछा नहीं छूटता जो व्यक्तित्व के प्रत्येक पक्ष को दीन दुर्बल बनाता चला जाता है। इस कुचक्र में जीवन सम्पदा नष्ट ही होती जाती है और क्षुब्ध उद्विग्न स्थिति में जलते-भुनते मृत्यु का वरण करना पड़ता है। भौतिक एवं व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं समाज को क्षति पहुँचा कर ही पूरी की जा सकती हैं और अपने आपको भी उद्विग्न रखकर ही उनके रंगीन सपने देखे जा सकते हैं। इस राह पर चलकर जो प्राप्त किया जाता है उससे कहीं अधिक हानि उठानी पड़ती है।

लोक मंगल की दिशा में जन-कल्याण के लिए यदि उन्हें मोड़ दिया जाय, सद्भावनाओं और सद्भावनाओं की सम्पदा मानव मात्र के लिए जुटाने में लग पड़ा जाय उसी स्तर की महत्वाकांक्षाएँ संजोली जाएं तो आत्म संतोष और लोक श्रद्धा का अजस्र अनुदान तत्काल मिलना प्रारम्भ हो जाएगा और प्रतीत होगा कि जीवन को सार्थक बनाने वाली सफलता हर घड़ी हाथ बाँधकर खड़ी है। व्यक्तिगत जीवन की सन्तुष्टि के लिए यही पर्याप्त है कि जो उपलब्ध है उन साधनों और व्यक्तियों के सरस सदुपयोग करें। शान्त चित से भौतिक प्रगति के लिए एक क्रीड़ा-विनोद की तरह लगे रहने में हर्ज नहीं। लक्ष्य आदर्शवादिता के साथ जुड़ा रहे प्रयत्न वैज्ञानिक और सामाजिक प्रगति के लिए होते रहें तो उस रचनात्मक उत्साह, नियोजन एवं पुरुषार्थ का सत्परिणाम मिल सकता है। यही है सन्तुष्ट और हर्षोल्लास भरा जीवन जी सकने का राजमार्ग।

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