
आदमी को आदमी बनना होगा
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जीवन का यदि कोई दर्शन हो, उसके साथ कुछ आस्थाएँ, मान्यताएँ जुड़ी न हो, किन्हीं सिद्धान्तों का समावेश न हो तो आदमी , आदमी न रहकर एक प्राणी मात्र रह जाता है। गुजारे भर का लक्ष्य लेकर चलने वाले अपनी योग्यता और तत्परता के अनुसार सुविधा साधन तो न्यूनाधिक मात्रा में उपार्जित कर लेते हैं किन्तु कोई ऊँचा लक्ष्य सामने ना रहने पर अन्तरात्मा में जीवन्त उत्साह नहीं सँजो पाते। यों सामान्य उत्साह तो भौतिक महत्त्वाकाँक्षाओं की आतुर लालसा से भी उत्पन्न हो सकता है पर उसके नैतिक बने रहने में सन्देह ही बना रहेगा। भौतिक लाभों की अपेक्षा यदि किन्हीं आदर्शों की पूर्ति को लक्ष्य बनाकर चला जाय तो उत्साह भरी सक्रियता के अतिरिक्त उसके साथ उत्कृष्टतावादी तत्व भी जुड़े रहेंगे और उन प्रयासों से आत्मिक उन्नति का लाभ होता रहेगा भले ही भौतिक लाभ उतना न हो। लोकहित की ऐसी महत्त्वाकाँक्षाएँ जिनमें अपने पुरुषार्थ का प्रकटीकरण ही नहीं आदर्शवादी होने का परिचय मिलता हो, निश्चित रूप से उस महत्त्वाकाँक्षी के व्यक्तित्व को सम्मानास्पद बनाती हैं। इस उपलब्धि के सहारे वैसा कुछ प्राप्त किया जा सके जो धन सम्पदा से भी अधिक मूल्यवान है।
मानवी प्रगति की व्यवस्था करते हुए हमें उसके दृष्टिकोण और चरित्र के स्तर का भी मूल्याँकन करना चाहिए। भौतिक दृष्टि से सुखी सम्पन्न बन जाने पर भी यदि मनुष्य उद्देश्य विहीन और आदर्श रहित बना रहे तो वह अपने लिए सन्तोष एवं गौरव प्राप्त न कर सकेगा। समाज में उसे न तो उपयोगी माना जाएगा और न उसे सम्मान दिया जाएगा।
नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रांसीसी वैज्ञानिक अलोक्सिस करेल ने कहा है- हम बहुत कुछ खोज चुके और अगले दिनों इससे भी अधिक रहस्यपूर्ण प्रकृतिगत रहस्यों को खोजने जा रहे हैं, किन्तु अभी भी “मनुष्य” पहले की तरह ही अविज्ञात बना हुआ है। सच तो यह है कि वह इस प्रकार खोता चला जा रहा है कि अगले दिनों उसे खोज निकालना कठिन हो जाएगा। मनुष्य की ज्ञान सम्पदा में अभी भी असीम अज्ञान से जकड़ा हुआ है।
विद्वानों की संख्या बढ़ती देखकर प्रसन्नता होती है पर खेद इस बात का है कि ‘ज्ञानी’ तेजी से समाप्त होते चले जा रहे हैं। विद्वान और ज्ञानी का अन्तर बताते हुए चीनी दार्शनिक लाओत्से कहते थे- जो अपने को जानता है वह ज्ञानी और जो दूसरों को जानता है वह विद्वान है। अपने सम्बन्ध में बढ़ता हुआ अनाड़ीपन ही मनुष्य को कठिन समस्याओं में जकड़ता चला जा रहा है।
“मैन दी अननोन” ग्रन्थ के लेखक विज्ञानी अलेक्सिस ने लिखा है- मानवी काया का रासायनिक विश्लेषण सरल है। अवयवों की हरकतें समझने में सफलता मिली है। सोचने का तन्त्र मस्तिष्क किधर चलता और किस तरह करवटें बदलता है इसका पता भी लगता जा रहा है कि उसकी मूल सत्ता में विद्यमान ‘मानव’ की खोज खबर लेने वाले धनाढ्य दृष्टिगोचर नहीं होते । सभ्यता और सम्पत्ति का विकास हो रहा है, पर मनुष्य का पिछड़ापन बरकरार है। आदमी ने दुनिया को अपने योग्य बनाया है पर वह अपने लिए ‘पराया’ बन गया है। सूनेपन का दबाव बढ़ रहा है और भीड़ से अलग होकर जब वह देखता है तो लगता है न वह किसी का है और न कोई उसका । यह अपने आपे की क्षति इतनी बड़ी है जिसकी पूर्ति कदाचित प्रगति के तथाकथित सभी चरण मिलकर पूरा नहीं कर सकेंगे।
मनुष्य के खण्ड-खण्ड का चिन्तन विश्लेषण चल रहा है। उसके अस्तित्व के एक एक भाग को समग्र शास्त्र का रूप दिया गया है। शरीर शास्त्र , मन शास्त्र , समाज शास्त्र, अर्थ शास्त्र जैसे खण्डों की जानकारी भी है तो, उपयोगी पर समग्र मानव को समझे बिना उसकी मूल प्रकृति पर ध्यान दिये बिना एकांगी आंशिक समाधानों से कुछ बनेगा नहीं। एक छेद सीते-सीते दूसरे और नये फट पड़े तो उस मरम्मत से कब तक काम चलेगा। विज्ञान की शोधें मनुष्य की कतिपय आवश्यकताओं को पूरा करने और जानकारियों को बढ़ाने के उद्देश्य से पूरी की जाती है किन्तु उस महाविद्या की ओर से क्यों उदासी है जिसे समग्र मानव की विवेचना साइंस आफ मैन कह सकते हैं।
विज्ञान के आविष्कारों में अपने आपको खपाया- श्रमिकों के स्वेद कणों ने विशालकाय निर्माण सम्पन्न किये हैं- इंजीनियरों की तन्मयता से निर्माण की योजनाएँ बनती हैं। कलाकार अपनी चेतना भाव तरंगों में घुलाकर उपस्थित लोगों को मन्त्र मुग्ध करते हैं। आत्मज्ञानी अपने चिन्तन और कर्म का समन्वय करते हुए अपने व्यक्तित्वों को एक सफल प्रयोगशाला के रूप में प्रस्तुत कर सके तो जन साधारण में भी उसके लिए उत्साह उत्पन्न होगा। लक्ष्य ऊँचा हो और संकल्प प्रखर तो फिर मनुष्य के लिए बड़े से बड़ा उत्सर्ग कर सकना भी कुछ कठिन नहीं है। चिन्तन और व्यवहार का समन्वय करती हुई आदर्शवादी आस्थाओं की स्थापना ही अपने युग की महान क्रान्ति हो सकती है। उज्ज्वल भविष्य की आशा उसी से बँधेगी। इसका नेतृत्व करने के लिए ऐसे अग्रगामियों की आवश्यकता है जो लोक शिक्षण के लिए सबसे प्रभाव शाली उपाय आदर्श के अनुरूप आत्म निर्माण अपना सकें और जलते दीपक द्वारा नये दीपकों के जलने की परम्परा स्थापित कर सकें।
व्यक्ति, समाज का एक मूल्यवान घटक है। उसके प्रयासों का परिणाम उस अकेले तक ही सीमित नहीं रहता वरन् अनेकों की इसमें साझेदारी रहती है। समुद्र की लहरें एक दूसरे को प्रभावित करती हैं और मनुष्य एक दूसरे पर अनायास ही अपना प्रभाव छोड़ते हैं। बुरा व्यक्ति अपनी बुराई करके स्वयं दुष्परिणाम भुगत लेता तो कोई चिन्ता की बात नहीं थी, पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि उसकी प्रत्येक गतिविधि की दूसरों पर भली-बुरी प्रतिक्रिया होती है। भला मनुष्य परोक्ष रूप में भली परम्परा पैदा करके असंख्यों को किसी न किसी रूप में सुखी बनाता और ऊँचा उठाता है। इसके विपरीत दुर्बुद्धि ग्रस्त व्यक्ति अपने दुष्ट चिन्तन और चरित्र से कइयों को अनुयायी बनाता है और कितनों को ही कष्ट कारक परिस्थितियों में धकेलता है। अस्तु समग्र प्रगति की सुख-शान्ति दायिनी दिशा अभीष्ट हो तो व्यक्ति के अन्तराल को परिष्कृत बनाने के लिए भी उतने ही प्रयत्न करने पड़ेंगे जितने कि भौतिक सुविधा संवर्द्धन के लिए किये जाते हैं। भीड़ को दिशा निर्देश देने का काम चलता रहे पर व्यक्तित्वों की गहरी परतें कितनी मूल्यवान है इसका महत्व आँखों से ओझल न होने पाये इसका पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए।