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Magazine - Year 1977 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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सात शक्ति धाराओं का प्रज्ज्वलन-सप्तचक्र साधन

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शतपथ ब्राह्मण 5।5।2।2 की श्रुति है- "का भेद मनुष्यस्य?” अर्थात्-इस मनुष्य को भला कौन जानता है? वस्तुतः मानवी सत्ता इतनी रहस्यमय है कि उनका ठीक तरह समझ सकना अत्यन्त कठिन है। कठिनाई की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि मनुष्य अपनी गरिमा पर स्वयं विश्वास नहीं करता। उसे अपनी बहुमूल्य क्षमताओं और उज्ज्वल सम्भावनाओं पर स्वयं विश्वास नहीं। यह रहा होता तो वह प्रगति और सुविधा के लिए दूसरों के आगे क्यों गिड़गिड़ाता - अपने साधनों के सहारे आप ही उत्कर्ष के उच्च शिखर तक अपने ही पैरों क्यों न चढ़ दौड़ता है। आत्म ज्ञान और आत्म विश्वास के अभाव में वह अपने को दीन दरिद्र और हेय मानता है। तद्नुसार उसकी समूची सत्ता मान्यता के अनुरूप उसी निकृष्टता के ढाँचे से ढल जाती है जिस पर अपनी मान्यता के अनुसार गई गुजरी स्थिति में पहुँचा हो। उसी प्रकार संकल्प और पुरुषार्थ के सहारे ऊँचा भी उठ सकता है पर इसके लिए आवश्यक प्रयास और पराक्रम जुट कहाँ पाता है?

महर्षि व्यास ने महाभारत लिखते लिखते एक अत्यन्त गुह्य रहस्य को प्रकट कर दिया है वे लिखते हैं-

गुह्य व्रत्याँ तदिदं ब्रवीमि। नहि मनुष्यात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्।’

एक गुप्त रहस्य बताता हूँ। मनुष्य से बढ़कर श्रेष्ठतर इस संसार में और कुछ नहीं है।

जिन देवताओं से वह तरह तरह के वरदान पाने की मनुहार करता है वे वस्तुतः उसी की श्रद्धा एवं विश्वास के छैनी हथौड़े से गढ़े हुए मानस पुत्र हैं। ‘भावो हि विद्यते देव’ की उक्ति से यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पत्थर के टुकड़े को देवता के समतुल्य समर्थ बना देने वाला चमत्कार भावना के आरोपण से ही सम्भव होता है। उसे उठा लिया जाय तो देव प्रतिमा में पत्थर के अथवा धातु खण्ड के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। मनुष्य देवताओं को गढ़ता है और स्वयं भी देवता बनता है- भजन्ते विश्वे देवत्वं नामऋर्त सर्पन्तो अमृत मेवैः। -ऋग्वेद

ईश्वर का अविनाशी अंश होने के कारण आत्मा के देव मन्दिर-इसी शरीर में समस्त देवताओं की बीज माताएँ विद्यमान हैं। अंग प्रत्यंगों में उच्चस्तरीय श्रेष्ठता विद्यमान है। उपेक्षा एवं अवज्ञा के कारण वे मूर्छित स्थिति में मृतक तुल्य पड़े हैं। उन्हें जगाने का प्रयास योग और तप द्वारा किया जाता है। अपने भीतर देवसत्ता के विद्यमान होने का प्रसंग इस प्रकार आया है-

ता एता देवताः सृष्टा अस्मिन् महर्त्यणवे प्रापतंस्तमशनायापिपासाभ्यामन्बवार्जत् ता एनमब्रु वन्ना यतनै नः प्रजानीहि यस्मिन् प्रतिष्ठता अन्नमदा मेति॥1॥

ताभ्यो गामानयता अब्रु वत्र वै नोउयमलमिति ताभ्योअश्वमानयत्ता अब्रु वत्र वै नोअयमलमिति॥2॥

ताभ्यः पुरुषमानयता अब्रु वन् सुकृतं बतेति। सुरुषोबाव सकृतम्। ता अब्रवीद्यथायतनं प्रविशतेति॥3॥

अग्निर्वाग्भूत्वाँ मुखं प्राविशद्वायुः प्राणों भूत्वा नासिके प्राविशंदादित्यश्चक्षूर्भू त्वाक्षिणी प्राविशद्दिशः श्रोत्रं भूत्वा कर्णौ प्राविशन्नोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा त्वचं प्राविशंश्चंद्रमा मनो भूत्वा ह्नदयं प्राविशन्मृत्युरपाना भूत्वा नाभि प्राविशदापो रेतो भूत्वा शिश्नं प्राविशन्-एतरेय 2।1 से 4

परमात्मा ने देवताओं को इस संसार में भेजा। उनमें भूख, प्यास और अनुभूति उत्पन्न की। देवताओं ने परमात्मा से कहा- हमारे लिए शरीर निर्माण करो। जिसमें रहकर हम अपनी आवश्यकताएँ पूर्ण करें। परमात्मा ने उन्हें गौ, अश्व आदि के शरीर दिखाये, जिसे उन्होंने अनुपयुक्त बताया। तब परमात्मा ने उन्हें मनुष्य देह दिखायी। देवताओं ने कहा-हाँ यही बहुत ठीक और सुन्दर है। तब परमात्मा ने कहा-अपने अपने उपयुक्त स्थानों में घुल जाओ । तब अग्नि वाणी बनकर मुख में, वायु प्राण बनकर नासिका में, सूर्य ज्योती बनकर नेत्रों में, दिशाएँ कानों में, वनस्पति औषधि बनकर त्वचा में, चन्द्रमा मन बनकर हृदय में, स्वयं अपान बनकर नाभि में और वरुण रेतस् बनकर जननेन्द्रियों में प्रविष्ट हुआ।

पुरुषों वान गौतमाग्निस्तिस्य वागेव समित्प्राणी धूमो जिहार्चिश्वक्षुरड्ऱाराः श्रोत्रं विस्फुलिंगा। तस्मिन्नेतस्मित्रग्नो देवा अत्रं जुहति तस्या आहुते रेतः सम्भवति।

यह पुरुष की अग्नि है। वाणी समिधा है। प्राण धुँआ है। जिव्हा ज्वाला है। नेत्र अंगार है। कान चिनगारियाँ। इस अग्नि में देवगण हवन करते हैं और उससे पराक्रम उत्पन्न होता है।

देहेडस्मिन् वर्तते मेरुःसप्तदीप सन्वितः। सरितः सागरःशैलाःक्षेत्राणि क्षेत्रपालकः॥ ऋषियोँ मुनयः सर्वे नक्षत्राणि प्रहास्तथा। पण्यतीर्थानि पोठानि वर्तन्ते पीठ देवताः॥

इसी शरीर में सप्त दीपों सहित सुमेरु पर्वत, नदियाँ, समुद्र, पर्वत शिखर, क्षेत्र, क्षेत्रपाल, ऋषि-मुनि समस्त नक्षत्र-ग्रह पुण्य तीर्थ, पीठ और उन पीठों के देवता सभी विद्यमान हैं।

मानवी संकल्प शक्ति की क्षमता असीम है। उसको जागृत करना और सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त कर रखना सम्भव हो सके तो कुछ भी बन सकना और कुछ भी कर सकना सम्भव हो सकता है।

फलं ददाति कालेन तस्य मस्य तथा तथा। तपोवा देवता वापि भूत्वा स्वैव चिदन्यथा। फलं ददात्यथ स्वैरं नभः फल निपातवत् -योगवासिष्ठ

जीव अपनी इच्छा से ही देवता, तपस्वी बनता रहता है। प्रगति और अवनति का आधार मनुष्य का अपना कर्तृत्व ही है।

यह विधि की विडम्बना ही है कि आँख आदि इन्द्रियों के छिद्र बाहर की ओर बनाये। वे बाहर का तो बहुत कुछ देखती है, पर आन्तरिक सम्पदा को समझने उसका सदुपयोग करने से वंचित ही रह जाती है। हमारी बुद्धि जीवन के स्वरूप, लक्ष्य एवं उपयोग को जानने में असमर्थ रहती है।

पराञिच खानि व्यतृणत् स्वयम्भूस्तस्माद् पराड्पश्यति नान्तरात्मन्। कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मान मैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्॥

विधाता ने छेदों को बाहर की ओर छेदा (अर्थात् इन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाया) अतएव मनुष्य बाहर ही देखता है। अन्तर को नहीं देखता। अमृत की आकांक्षा करने वाला दूरदर्शी बिरला मनुष्य ही अन्दर की ओर देखता है।

गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में सप्त चक्रों का जागरण प्रमुख है। यह सप्त चक्र और पंचकोश परस्पर सम्बद्ध हैं। दोनों की साधना एक साथ ही सम्पन्न होती है। इसी में देव-साधना-ऋषि उपासना, समग्र उत्कर्ष जीवन-लक्ष्य सर्वतोमुखी विकास उल्लास के समस्त तत्वों का समावेश है। कहा गया है-

मूलादि ब्रह्म रंध्रान्ता गीयते मननात् यतः। मननात् त्राति षट्चक्र गायत्री तेन कथ्यते-तन्त्र कौमुदी

मूलाधार से लेकर ब्रह्मरन्ध्र तक विस्तृत षट्चक्र को जिसके आह्वान से जागरण होता है उसे गायत्री कहते हैं।

आत्मसत्ता में सन्निहित विश्व की समस्त विभूतियों को यदि खोजा और जगाया जा सके तो जीवात्मा को देवात्मा एवं परमात्मा बनने का अवसर मिल सकता है। इस अन्वेषण प्रयास को ब्रह्म विद्या और जागरण प्रक्रिया को ब्रह्मतेज सम्पादन कहते हैं। इस सन्दर्भ में सप्तऋषियों को जीवन्त करने और उनके ब्रह्म-बल से उच्चकोटि का लाभ उठाने की प्रक्रिया चक्रबेधन’ के रूप में समझी जा सकती है।

सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे, सप्त रक्षन्ति सर्व अप्रमादम्-यजु

शरीर में सप्त ऋषि निवास करते हैं। वे सतर्कतापूर्वक निरन्तर उसकी रक्षा करते हैं।

परमात्मा अध्यात्मवेत्ता चेतना के सात शरीर मानते हैं। एक प्रत्यक्ष छः अप्रत्यक्ष। (1) भौतिक शरीर को वे फिजीकल बॉडी कहते हैं। (3) सूक्ष्म शरीर एस्ट्रल बॉडी (4) मनस् शरीर - मेन्टल बॉडी (5) आत्म शरीर स्प्रिचुअल बॉडी (6) ब्रह्म शरीर- कास्मिक बॉडी (7) निर्वाण शरीर इसे वे शरीर कहते हुए भी आत्मसत्ता कहते हैं और शरीर न कहकर वीइंग एण्ड नान वीइंग की संज्ञा देते हैं। यह अनिवर्चनीय जैसा शब्द है।

(1) मूलाधार (2) स्वाधिष्ठान (3) मणिपुर (4) अनाहत (5) विशुद्ध (6) आज्ञाचक्र यह षट्चक्र वर्ग में आते हैं। सातवाँ सहस्रार इनका अधिपति एक सूत्र संचालक है। मानवी काया में अवस्थित यही परम तेजस्वी सप्त ऋषि है । जिनकी पीठ पर- जिनके समर्थन में-सात ऋषि होंगे उन्हें किसी प्रकार का अभाव अनुभव न होगा। निद्रित स्थिति में तो मनुष्य भी मृत तुल्य पड़ा रहता है। ऋषियों का अस्तित्व आत्मसत्ता के अंतर्गत होते हुए भी यदि वे प्रस्तुत स्थिति में पड़े हैं तो उनका समुचित लाभ मिल सकना सम्भव न होगा।

आत्मसूर्य के सप्त अश्व प्रमुख चेतना केन्द्रों के रूप में वर्णन किये गये है- (1) प्राण (2) ऋषि (3) जिव्हा (4) त्वचा (5) कान (6) मन (7) बुद्धि इन सातों को अश्व संज्ञा दी गई है।

दिव्य जीव सत्ता में इन सातों का वर्णन इस प्रकार मिलता है (1) देव (2) ऋषि (3) गंधर्व (4) पत्रक (5) अप्सरा (6) यक्ष (7) राक्षस। वैदिक देवताओं में इन्हीं का दूसरे रूप में वर्णन है- (1) प्रजापति (2) अर्यमा (3) पूषा (4) त्वष्टा (5) वरुण (6) इन्द्र (7) मित्र। छंद शास्त्र की दृष्टि से इनका उल्लेख जिन सात छन्दों में किया गया है वे (1) गायत्री (2) उष्णिक् (3) अनुष्टुप् (4) वृहती (5) पंक्ति (6) त्रष्टुप (7) जगती है।

गान विद्या के सप्त स्वर प्रसिद्ध है- सा, रे, ग, म, प, ध, नि के नाम से इन्हें संगीत शास्त्र के आरम्भिक छात्र भी जानते हैं। सूर्य की सात किरणें (1) बैगनी (2) जामुनी (3) नीले (4) हरे (5) पीले (6) नारंगी (7) लाल रंग की है। इन्हीं रंग के प्रभाव से पदार्थों और प्राणियों में तरह-तरह के उभार, उतार चढ़ाव आते रहते हैं।

आयुर्वेद के अनुसार अपने प्रत्यक्ष शरीर में सप्त धातुएँ है।- (1) रस (2) रक्त (3) माँस (4) मज्जा (5) अस्थि (6) भेद (7) शुक्र। इन्हीं के सहारे काया का क्रिया-कलाप चलता है। सूक्ष्म शरीर का ढाँचा भी सात आधारों पर ही खड़ा है। (1) पाँच तत्व (2) पाँच प्राण (3) पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (4) पाँच कर्मेन्द्रियाँ (5) पाँच तन्मात्राएँ (6) अन्तः करण चतुष्टय (7) आकांक्षा संस्कार ।

स्थूल शरीर के आधारों को प्रत्यक्ष आँखों से देखा जा सकता है। सूक्ष्म शरीर के आधार भी सूक्ष्म होते हैं। अस्तु वे दृष्टिगोचर तो नहीं होते, पर अस्तित्व उन सब का बना रहता है। भाप बनकर आकाश में उड़ जाने पर भी पदार्थ बना ही रहता है, पर उसका अस्तित्व दृष्टिगोचर नहीं होता। सूक्ष्म शरीर की सत्ता भूत-प्रेतों के रूप मे, स्वप्न में, छाया पुरुष में, स्वर्ग-नरक भाजन में स्थूल शरीरधारियों की तरह ही काम करती है, पर उसका अस्तित्व स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर नहीं होता। दिव्यात्माएँ भी ऐसा ही सुहुम कलेवर धारण करके इतना काम करती है जो स्थूल शरीर की तुलना में अत्यधिक होता है।

षट्चक्रों का नाम भ्रामक है। वस्तुतः उन्हें सप्तचक्र ही कहना चाहिए। सहस्रार को इन चक्र शृंखला से अलग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक चक्र भी सात आधारों से बना है। उनके स्वरूप निर्धारणों की जो व्याख्या विवेचना है उसमें प्रत्येक के सात-सात विवरण दिये गये है- (1) तत्व-बीज (2) वाहन (3) अधिदेवता (4) दल (5) यन्त्र (6) शब्द (7) रंग। इन्हीं विशेषताओं की भिन्नता से उनके अलग-अलग विभेद किये गये है। अन्यथा बाहर से तो उनकी आकृति एक जैसी ही है। उनकी क्षमताओं, विशेषताओं और प्रतिक्रियाओं का विवरण इन्हीं सात संकेतों के रूप में समझा जा सकता है।

शरीर एक समूचा ब्रह्माण्ड है। जो कुछ इस विस्तृत ब्रह्माण्ड में है उसे बीज रूप में मानवी पिण्ड में सँजो दिया गया है। साधना द्वारा इन बीजों को अंकुरित और पल्लवित किया जाता है। ब्रह्माण्ड और पिण्ड की सत्ता एक जैसी बताते हुए कहा गया है।

ब्रह्माण्ड संज्ञके देहे यथा देहं व्यवस्थितः -शिव संहिता

यह शरीर ब्रह्माण्ड संज्ञक है। जो ब्रह्माण्ड में है वही इस शरीर में भी मौजूद है।

नदी, पर्वत, समुद्र, द्वीप आदि भी सात सात ही गिनाये गये है। भूगोल के हिसाब से इनकी संगति नहीं बैठती। संसार में हजारों नदियाँ हैं इसी प्रकार पर्वत भी सैकड़ों हैं। पृथ्वी पर महाद्वीप पाँच हैं। छोटे द्वीपों की संख्या तो लाखों तक पहुँचेगी। समुद्र भी सात कहाँ है। इस प्रकार भौगोलिक गणना के आधार पर यह ब्रह्माण्ड विवरण सही नहीं बैठता। किन्तु पिण्ड ब्रह्माण्ड की प्रमुख शक्तियों को इन रूपकों के माध्यम से समझाने वाले अलंकारित संकेत का रहस्य समझा जा सके तो यह सभी सप्तक सही बैठते हैं।

सात पर्वत यही हैं- (1) बिद्रुम (2) हिमिशैल (3) घुतिमान (4) पुष्पवान (5) कुशेशय (6) हरिशैल (7) मन्दराचल।

सात नदियों के नाम हैं- (1) जलधर (2) टैबत (3) श्यामक (4) उद्रक (5) अम्बिकेय (6) रभ्य (7) केशरी।

सात चक्रों की सप्त अग्नियाँ तथा सात सोम संस्थाओं के रूप में भी वर्णन हुआ है। सोम संस्थाओं के नाम ब्रह्माण्ड ग्रन्थों में इस प्रकार गिनाये गये है- (1) आत्माग्नि स्टोम (2) उष्टवक्य (3) थोडसी (4) वाजपेयक (5) अति रात (6) आप्त (7) याम।

अग्नि पुराण में सात चक्र यज्ञ एवं सात हविश यज्ञों का वर्णन है। चक्र यज्ञ हैं (1) पुरोष्टक (2) पार्यण (3) श्रावणी (4) अग्रहायणी (5) चैत्र (6) अश्व (7) युजी

हविश यज्ञ भी सात है- (1) अग्न्याधेय (2) अग्निहोत्र (3) दर्श (4) पौर्णमास (5) चातुर्मास्य (6) आग्रहायण (7) निरुढ।

सात अग्नियाँ है- (1) ब्रह्माग्नि (2) आतग्नि (3) योगाग्नि (4) कालाग्नि (5) सूर्याग्नि (6) वैश्वानर (7) आतप।

मुण्डक उपनिषद् के अनुसार देव की सात जिह्वाएँ है।- (1) काली (2) कराली (3) मनोजबा (4) लोहिता (5) धूम्रवर्णा (6) स्फुल्लिगिनी (7) विश्वरुचि।

सात समुद्रों और सात द्वीपों के नाम मार्कण्डेय पुराण में इस प्रकार गिनाये गये हैं।

समुद्र- (1) लवण सागर (2) इक्षुसागर (3) सुरा सागर (4) दुग्ध सागर (5) दधि सागर (6) धूत सागर (7) जल सागर ।

द्वीप- (1) जम्बू द्वीप (2) प्लक्ष द्वीप (3) शाल्मलि द्वीप (4) कुश द्वीप (5) क्रौच द्वीप (6) शाक द्वीप (7) पुष्कर द्वीप।

इन सभी प्रतिपादनों में यह संकेत है कि हर स्तर की क्षमता बीज रूप में अपने भीतर विद्यमान है यदि उन्हें जागृत करने का प्रयत्न किया जाय तो व्यक्ति उच्चस्तरीय स्थिति तक निरन्तर बढ़ता चल सकता है और प्रगति के उच्चतम शिखर तक पहुँच सकता है। बीज का अस्तित्व और फल का परिणाम सुनिश्चित है। आवश्यकता उस कृषि कर्म की-बागवानी की रीति नीति जानने अपनाने की है जिसे अध्यात्म की भाषा में साधना कहते हैं।

प्राणायाम मन्त्र में गायत्री के साथ सात व्याहृतियों का प्रयोग होता है। भूः भुवः स्वः महः जनम् तपम् सत्यम्। यह सात व्याहृतियाँ है। इन्हें सात ऋषि एवं सात लोक भी कहा गया है।

अग्नि पुराण में सात ऋषियों के नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं।

वशिष्ठः काश्योडतथात्रिर्जमदग्निः स गौतमः विश्वामित्र भरद्वाजो मुनयः सप्त साम्प्रतम्।

(1) वशिष्ठ (2) काश्यप् (3) अत्री (4) जमदग्नि (5) गौतम (6) विश्वामित्र (7) भारद्वाज

इन सातों की सत्ता सप्त चक्रों में विद्यमान है। इन सातों की शक्ति इन्द्रियों के रूप में भी दृष्टिगोचर होती है।

प्राणः वा ऋषिः । इमौ एव गौतम भरद्वाजौ।

अयमेव गौतमः अयं भारद्वाज । इमौ एव विश्वामित्र जमदग्नि। अयमेव विश्वामित्रः अयं जमदग्निः। इमौ एव वशिष्ठ कश्यप अयमेव वशिष्ठः अयं कश्यपः। वागेवात्रिः-श्रुति

सात प्राण ही सात ऋषि हैं। दो कान गौतम और भारद्वाज हैं दो आँखें विश्वामित्र और जमदग्नि हैं। दो नासिका छिद्र वशिष्ठ और काश्यप् हैं। वाक् अत्रि हैं।

सात लोक आकाश में ढूँढ़ना व्यर्थ है। वे किसी ग्रह नक्षत्र के रूप में नहीं हैं।, वरन् आत्म सत्ता में सप्त चक्रों के रूप में ही उनका अस्तित्व है। कहा गया है।

मूलाधारे तु भूलोके स्वाधिष्ठाने भुव स्ततः स्वर्गलोके नाभि देशे च हृदयं तु महस्तथा। जन लोके कंठ देशे, लोक ललाटके। सत्य लोक महारन्ध्रे इति लोका पृथक् पृथक्। -महायोग विज्ञान

(1) भू लोक मूलाधार में (2) भुवः लोक स्वाधिष्ठान में (3) स्वः लोक नाभि स्थान में (4) महः लोक हृदय में (5) जल लोक कंठ में (6) तप लोक ललाट में (7) सत्य लोक ब्रह्मरंध्र में विद्यमान हैं जहाँ स्थान मात्र गिना दिये गये है वहाँ उन स्थानों में अवस्थित चक्रों का ही संकेत समझा जाना चाहिए।

उपनिषद् कार ने मानवी काया को ‘छः अरे’ एवं ‘सात चक्र’ लगा हुआ विलक्षण रथ कहा है- यह षट् चक्रों को सात चक्रों का ही संकेत है।

“ऊथेमे अन्य उपरे विलक्षणं सप्त चक्रे शब्दर आहुरर्पितम।

अन्य लोक उस विलक्षण को सात चक्र और दो अरों वाला कहते हैं।

पद्य पुराण में भागवत् माहात्म्य वर्णन सन्दर्भ में धुन्धकारी प्रेत की मोक्ष उस कथा श्रवण के फल स्वरूप होने का उल्लेख है। यह प्रेत बाँस की गाठों को फोड़ता हुआ नीचे से ऊपर चला था और गाठें तोड़कर प्रेत योनि से छूटा तथा परम पद का अधिकारी बना था। अध्याय 5 श्लोक 64 में यह बाँसों की गाँठ भेधे जाने का रहस्योद्घाटन करते हुए इसे यौगिक ग्रन्थि भेद बताया है। कहा गया है।

जडस्य शुष्क वंशस्य यत्र ग्रन्थि विभेदनम्। चित्रं किमु तदा चित्त ग्रन्थिभेदः कथा श्रवात्॥

इसमें सूखे और जड़ बाँस की गाठें फटने का तात्पर्य चित की ग्रन्थियाँ खुलना बताया गया है।

भागवत् पुराण के स्कन्ध 2 अध्याय 2 के 19,2,21 श्लोकों में महर्षि शुक्राचार्य ने विहंगम मार्ग से ब्रह्मनिष्ठ योगियों के प्राण त्याग का विधान बताया है। इस में षट्चक्र वेधन विधान की ही प्रक्रिया है। छहों चक्रों का वेधन करते हुए अन्त में सहस्रार चक्र में प्राण को लय करते हुए प्राण त्याग करने की विधि समझाई गई है।

यह सप्त ऋषि जिस पर अनुग्रह करते हैं उन्हें सद्गुणों की सात विभूतियाँ प्रदान करते हैं। स्पष्ट है कि सद्गुण ही वे देव अनुग्रह हैं जिनके मूल्य पर भौतिक और आत्मिक, सम्पदाएँ सफलताएँ खरीदी जाती हैं। यह भ्रान्तियाँ निरस्त की जानी चाहिए कि उपासना के फलस्वरूप सीधी सम्पदाएँ मिलती हैं। सच्ची साधना के फलस्वरूप अन्तरंग में उत्कृष्टता उभरती है और सज्जनोचित सद्भावों का विस्तार होता है। बहिरंग के सत्प्रवृत्तियाँ सक्रिय होती हैं और क्रिया-कलापों में महामानवों जैसी प्रतिभा व्यवस्था एवं शालीनता की मात्रा बढ़ती है। जहाँ आत्मविकास का यह स्वरूप दृष्टिगोचर हो समझना चाहिए कि यहाँ सच्ची साधना की गई और उसके फलस्वरूप व्यक्तित्व निखरने के स्वरूप ही भौतिक और आत्मिक सफलताओं के-ऋद्धि-सिद्धि के रूप में वे प्रतिफल प्राप्त होते हैं जिनका माहात्म्य साधनाओं की सफलता के रूप में वर्णन किया गया है।

न देवा दण्ड मादाय रक्षनित पशुपाल वत्। यस्तु रक्षितुमिच्छन्ति बुद्धया संयोजयन्तितम्-महाभारत

ग्वाला जिस प्रकार लाठी लेकर पशुओं की रक्षा करते हैं उस तरह देवता किसी की रक्षा नहीं करते। वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसकी बुद्धि को सन्मार्ग पर नियोजित कर देते हैं।

सप्त ऋषियों का अनुग्रह सात लोकों, सात द्वीपों, सात समुद्रों, सात पर्वतों, सात नदियों का स्वामित्व उपलब्ध होने के रूप में मिलता है। तात्पर्य यह हुआ कि ब्रह्माण्ड सत्ता को प्रतीक आत्मसत्ता पर अपना अधिकार आधिपत्य मिलता है। अपनी क्षमताओं को समझने, उन्हें उभारने और उपभोग करने का अर्थ कौशल प्राप्त होता है। जिसे यह सफलता मिल सकी समझाना चाहिए उसे ब्रह्माण्ड का आधिपत्य मिल गया।

सात यज्ञ, सात अग्नि, सात सोम आदि की उपासना से जो प्रतिफल मिलने बताये गये हैं उन्हें भी सात ऋषियों के वरदान समझना चाहिए जो अपने आत्मसत्ता के रूप में हिमालय में निरन्तर निवास और तप करते हैं। इन्हीं शक्ति धाराओं को साधना विज्ञान में सात चक्र कहा गया है, प्रत्येक चक्र प्रत्येक ऋषि का एक एक वरदान एक एक सद्गुण के रूप में प्राप्त होता है। वे ही ऋद्धि-सिद्धियों साथ में जीवन को देवमय बनाते हैं और स्वर्गीय उपलब्धियों से सुसम्पन्न करते हैं।

सात चक्रों के सात सद्गुण इस प्रकार है- (1) मूलाधार (2) स्वाधिष्ठान (काश्प्य) (3) मणिपुर (अत्रि) (4) अनाहत (जमदग्नि (5) विशुद्ध (गौतम) (6) आज्ञाचक्र (विश्वामित्र) (7) सहस्रार (भारद्वाज) उल्लास।

यों पौराणिक गाथाओं में ऋषि, व्यक्ति-विशेष थे। महामानवों के रूप में योग और तप में निरत-स्व पर कल्याण में संलग्न जीवनयापन करते हुए उनका वर्णन किया गया है। परमात्म विज्ञान में ऋषि तत्व जागृत एवं प्रखर प्राणसत्ता को कहा गया है। वे सूर्य के समान एक कहे जा सकते हैं। अथवा सप्त किरणों के रूप में उनके सात नाम दिये जा सकते हैं और सुविधा के लिए सात वर्गों में विभाजित करके सात व्याख्याएँ की जा सकती हैं। सृष्टि के आदि में जब जीवसत्ता प्रकट हुई तो उनका स्वरूप ‘ऋषि प्राण्’ के रूप में था। यह जीवात्मा का शुद्ध स्वरूप है। उसी स्थिति में पहुँचने पर आत्मा को देवात्मा एवं परमात्मा के रूप में परिष्कृत बनने का अवसर मिलता है। शत पथ में इस रहस्य का इस प्रकार उल्लेख हुआ है-

असद्वा इदमग्न आसीत् तदाहुः कि तदसदासी दित्यृष्यों, वा व ते ड में उ सदासीतु तदाहुः के ते ऋषय इति, प्राणा बा ऋषय -शतपथ

पहले सृष्टि से पूर्व में यह असत् था। तब कहा- यह असत् क्या था? उत्तर- वे ऋषि ही थे। वे सृष्टि से पूर्व में असत थे। तब कहा- वे ऋषि क्या थे? प्राण ही ऋषि थे।

पद्ब्रहम च तपश्च सप्तऋषय उपजीवन्ति ब्रह्म वर्चस्युपजीवनीयो भवति य एवं वेद-अथर्व

पद्ब्रहम च तपश्च सप्तऋषय उपजीवन्ति ब्रह्म वर्चस्युपजीवनीयो भवति य एवं वेद-अथर्व

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