
विज्ञान और वेदान्त एक ही निष्कर्ष पर पहुँच रहे हैं।
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अनन्त आकाश के गर्भ में यह सारा दृश्य पदार्थ एक छोटे-छोटे घटक के रूप में रह रहा है। उसकी इकाइयाँ दीखती तो अलग-अलग है, पर वे परस्पर इतनी अधिक गुथी हुई हैं कि उन्हें तत्त्वतः पृथक् कर सकना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। मोटे तौर पर किसी भी पदार्थ को तोड़ा और बिखेरा जा सकता है।
चाहे परमाणु की अन्तर्देशीय संरचना पर दृष्टि डालें, चाहे सौर-परिवार की गतिविधियों को देखें अथवा ब्रह्माण्डीय गृह-तारकों निहारिकाओं को देखें, सर्वत्र एक ही नियम काम करता दिखाई देगा। इसी प्रकार स्थूल की परिधि से आगे जितनी गहराई में उतरते चले जाएँगे उतना ही यह स्पष्ट होता जाएगा कि इस विश्व में मात्र एक ही दिव्य-शक्ति संचारित हो रही है। उसी की हलचलें तरह-तरह के पदार्थ एवं दृश्य उपस्थित करती रहती हैं। उसी में सृजन, अभिवर्धन और परिवर्तन का त्रिविध क्रियाकलाप चलता रहता है। इस सब प्रसार, विस्तार पर गहराई में उतरने पर मात्र एक ही तत्त्व शेष रह जाता है, जिसे ब्रह्म प्रकृति अथवा दोनों की संयुक्त सत्ता अर्ध नारी नटेश्वर-पुरुष प्रकृति का गुँथन ही शेष रह जाता है। इसी स्थिति का वर्णन सियाराम मय सब जग जानी, के रूप में किया है और उसे भगवान के रूप में नमन अभिनन्दन किया है।
प्रगतिशील विज्ञान अब वयोवृद्ध वेदान्त के साथ सलाह-मशविरा कर रहा है और लड़ाई समाप्त करके चिरस्थायी समझौते की तैयारी कर रहा है। नवीनतम खोजें पदार्थ की जड़ तक पहुँचते-पहुँचते मात्र एक ही शक्ति का अस्तित्व शेष बचता देखती हैं। यह शक्ति जड़ नहीं वरन् विचार पूर्ण है। व्यवस्था और सन्तुलन उसकी नीति है। ऐसा कर सकना विवेकशील के लिए ही सम्भव हो सकता है। विवेक युक्त सर्वव्यापी शक्ति को ब्रह्म नाम दिया जाय या और कोई, निष्कर्ष वहीं पहुँचता है जहाँ एक ही सर्वव्यापी शक्ति के कीड़ा-कल्लोल के अतिरिक्त यहाँ और कुछ भी शेष नहीं रह जाता।
सामान्यतः भले ही किसी अनजान द्वारा इस तथ्य पर विस्मय व्यक्त किया जाय कि परमाणु का अधिकांश रिक्त ‘स्पेस’ है और शेष अत्यल्प हिस्से में ही इलेक्ट्रान, प्रोट्रान, न्यूट्रान, पाजिट्रान आदि विद्युत-प्रवाह हैं। किन्तु वेदान्त के अनुयायियों के लिए यह कोई नवीन तथ्य नहीं। वेदान्त के अनुसार द्रव्य का उद्गम आकाश से हुआ है, इसलिए द्रव्यमय जगत की प्रत्येक वस्तु तथा प्रत्येक कण में आकाश (स्पेस) की उपस्थिति अनिवार्य है।
परमाणु के शेष हिस्से में विभिन्न विद्युत प्रवाहों की सक्रियता ऊर्जा का ही सूक्ष्म रूप है। वेदान्त की भाषा में यही प्राण है।
रेडिएशन यद्यपि अति सूक्ष्म तथा वेगवान होता है, तो भी है वह द्रव्य के ही स्तर का। वेदान्त की मान्यता है कि प्रकाश दिक् तथा काल में ही विस्तृत व क्रियाशील रहता है। सर्वोच्च सत्ता रेडिएशन के क्षेत्र से परे है। कठोपनिषद् में उसका वर्णन करते हुए कहा गया है कि “वहाँ न तो सूर्य प्रकाशित होता है, न ही चन्द्रमा और न ही नक्षत्र गण। प्रकाश के ये प्रवाह वहाँ नहीं पहुँच सकते। फिर नाशवान् अग्नि की तो बात ही क्या?
भौतिक विज्ञान भी आज चेतना-तरंगों के अनन्त विस्तार के द्वार पर आ पहुँचा है। डाल्टेन ने जब परमाणु की धारणा विज्ञान-जगत को दी उस समय से परमाणु को पदार्थ का मूल कारण माना जाता रहा है, पर अब यह धारणा संपूर्णतः ध्वस्त हो चुकी है।
एक सामान्य व्यक्ति की अनुभूति यही होती है कि यह वस्तु जगत रूप, रंग और ठोसपन से बना है। लेकिन जैसा कि 'द नेचर आफ द फिजीकल वर्ल्ड’ में एडिंगटन ने लिखा है जैसे-जैसे हम पदार्थ का विश्लेषण करते जाते हैं, वह अदृश्य होता जाता है।”
पहले जो परमाणु अविभाज्य माना जाता था, आज उसका विभाजन और विस्फोट अनन्त शक्ति और ज्ञान का स्त्रोत बन गया है। यह पाया गया कि परमाणु में दो विद्युत धाराएँ हैं। केन्द्रीय नाभिक तथा परमाणु के मुख्य भाग में पॉजिटिव (धनात्मक) विद्युत होती है और केन्द्रीय भाग के बाहरी हिस्से के चारों ओर ऋणात्मक विद्युतधारा से भरे इलेक्ट्रान होते हैं। केन्द्रीय नाभिक में भी दो भिन्न-भिन्न कण होते हैं, जिन्हें न्यूट्रान और प्रोट्रान कहते हैं। अपने स्वाभाविक रूप में परमाणु विद्युतावेशी नहीं होता, क्योंकि उसके भीतर की धनात्मक तथा ऋणात्मक विद्युत धाराएँ सदा समान होती हैं। ऋणावेशी इलेक्ट्रान और धनावेशी प्रोट्रान परस्पर सन्तुलन कायम रखते हैं। इस प्रकार परमाणु सौर-व्यवस्था का एक लघु प्रतीक होता है।
लेकिन परमाणु-सिद्धान्त के क्षेत्र में सर्वाधिक रोमांचक खोज तब हुई जब कि वैज्ञानिकों ने गैस की तरह से अवयवों को गुजारा। अवयव आर-पार हो गये। तब परमाणु के ठोस होने की धारणा खण्डित हो गई, क्योंकि ये अवयव कहीं भी न तो टकराये, न ही कोई अन्य प्रतिक्रिया की। परीक्षणों से ही यह भी ज्ञात हुआ कि परमाणु का नाभिक सूर्य की तरह और उसके चतुर्दिक् परिक्रमारत इलेक्ट्रान ग्रह-नक्षत्रों की तरह से हैं। इस प्रकार परमाणु सौर-मण्डल का ही एक छोटा नमूना सिद्ध हुआ। यह भी ज्ञात हुआ कि एक इलेक्ट्रान का व्यास सम्पूर्ण परमाणु के व्यास का 50 हजारवाँ हिस्सा है और नाभिक का व्यास भी लगभग उतना ही है। इस प्रकार पूरे परमाणु का लगभग शत-प्रतिशत हिस्सा रिक्त ‘स्पेस’ है। यदि मनुष्य शरीर के भीतर के समस्त परमाणुओं को इस प्रकार दबाया जाय कि उनमें से प्रत्येक का यह रिक्त ‘स्पेस’ (स्थान) भर जाए तथा वे परस्पर अधिकतम सघन हो जाएँ तो फिर मनुष्य का शरीर एक ऐसे छोटे-से धब्बे या बिन्दु की तरह हो जाएगा कि वह किसी श्रेष्ठ माइक्रोस्कोप से ही देखा जा सके।
प्रयोगों द्वारा यह ज्ञात हुआ कि पदार्थ का सारभूत अंश कण के रूप में नहीं तरंगों के ही रूप में है। “द लिमिटेशन आफ साइन्स” में श्री सलीवन लिखते हैं- इस प्रकार यह पहला संकेत था, जो कि आधुनिक विज्ञान की ओर से आया कि “पदार्थमय जगत का मूलभूत स्वरूप वस्तुतः पदार्थ कण (यानि द्रव्य के अवयव) के रूप में नहीं अपितु तरंगों के रूप में है। पदार्थ क्रमशः क्षीण होने लगा और उसकी सत्ता अज्ञात तरंगों में समाहित होती दिखने लगी।” “द् फिलॉसफी आव फिजीकल साइन्स” में एडिंगटन लिखते हैं- अन्ततः हम जहाँ पहुँचे हैं, वह है तरंगों का अनन्त विस्तार, तरंगें मात्र तरंगें।” “द मिस्टीरियस यूनीवर्स" के लेखक श्री जीन्स भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं।” हम तरंगों के संसार में रहते हैं, जहाँ तरंगों के अतिरिक्त और कुछ नहीं।”
प्रयत्न और परिश्रम से किये गये प्रयोगों तथा एकत्रित और विश्लेषित आँकड़ों एवं नित नवीन अनुसन्धानों द्वारा भौतिक विज्ञानी जिस तथ्य के निकट पहुँचे हैं वह यही कि विश्व-ब्रह्माण्ड की संरचना में समरसता और आन्तरिक संगति है और वह अत्यन्त सूक्ष्म, अति निपुण गणितीय मस्तिष्क का ही सुन्दर सुविस्तृत प्रकाशन है। प्रकृति राज्य की नियामक शक्तियों के रूप में वे कारण और क्रम-व्यवस्था ही पाते हैं। विज्ञान के विभिन्न सिद्धान्तों, नियमों का समन्वय अद्वैत वेदान्त की दिशा में ही होता दीख रहा है। वैज्ञानिक, दार्शनिक पाल आर हेल का कथन है- सम्पूर्ण सृष्टि-व्यापार की एक अन्तिम सुनिश्चित व्याख्या की खोज करता हुआ वैज्ञानिक चिन्तन अद्वैतवादी है।”
मैटर के कण ‘इलेक्ट्रान’ द्रव्य कण भी हैं तथा तरंग भी। उसी प्रकार ‘रेडिएशन’ के कण ‘फोटोन’ तरंग भी हैं तथा द्रव्य भी। इस प्रकार ‘मैटर’ और ‘रेडिएशन’ की पृथक् सत्ताएँ खतरे में पड़ गई हैं और वे दोनों एक ही मूल सत्ता, एक ही यथार्थ के अंग मात्र प्रतीत होते हैं। इसीलिए जीन्स महाशय कहते हैं- मैटर और ‘रेडिएशन’ दो पृथक् तथा अपरिवर्तनीय सत्ताएँ नहीं बने रह सकते हैं। वे परस्पर परिवर्तनीय हो सकते हैं। एकमात्र मूलसत्ता के ही वे अंग प्रतीत होते हैं, जो ‘मैटर’ और ‘रेडिएशन’ आदि के रूप में विभिन्न रूप आकार ग्रहण कर सकती है, पर इन सभी परिवर्तनों के बीच वही एक मूलसत्ता विद्यमान रहती है। उसका सम्पूर्ण योग सदा एक सा बना रहता है। स्पष्टतः यह वेदान्त की प्रसिद्ध मान्यता “पूर्णमदः पूर्णमिदं” के ही अनुरूप है, जिसमें कहा गया है- पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।”
चेतना और पदार्थ का द्वैतभाव अब मिट चला है। विश्व के निर्माण और नियन्त्रण करने वाली शक्ति का अनुभव आधुनिक वैज्ञानिकों को होने लगा है तथा इस शक्ति से मानवीय चेतना की समानता की भी अनुभूति की जा रही है। विज्ञान 'एकोऽहम् द्वितीयो नास्ति’ की पुष्टि और समर्थन के द्वार पर आ पहुँचा है, विज्ञान और अध्यात्म की मिलन वेला आ उपस्थित हुई है।