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Magazine - Year 1977 - Version 2

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दवा से रोग दबते भर हैं जाते नहीं

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शरीर की मूल प्रकृति बीमार होने की नहीं है। सृष्टि के असंख्य प्राणियों को अपने अपने ढंग के शरीर मिले हैं वे निर्धारित आयु तक बिना किसी व्यथा बीमारी के जीवित रहते हैं। मृत्यु दुर्घटना आदि तो अपने हाथ की बात नहीं; पर बीमारी का उत्पादन अपना निजी है, उसे अपनी रीति नीति बदलकर आसानी से रोका जा सकता है। स्वास्थ्य सुरक्षा की सर्वविदित नीति यह है कि प्रकृति के अनुरूप अपना आहार विहार, रहन सहन बनाये रखा जाय जैसा कि सृष्टि के सभी प्राणी बनाये रखते और चैन से जीते हैं। इन्द्रियों का संयम बरता जाय, दिनचर्या ठीक रखी जाय, श्रम और आराम का सन्तुलन रहे, मस्तिष्क को उत्तेजनाओं से बचाये रखा जाय, स्वच्छता का ध्यान बना रहे तो इन मोटे नियमों का पालन भर करने से रोगों से बहुत हद तक छुटकारा मिल सकता है। स्व उपार्जित बीमारियों का ही बाहुल्य रहता है- बाहर से तो बहुत कम आती है। मौसम का प्रभाव, वंशगत विकार, छूत, दुर्घटना आदि कारणों से भी अप्रत्याशित रोग हो सकते हैं; पर उनका अनुपात बहुत स्वल्प रहता है। उन्हें अपवाद भर समझा जा सकता है। मूल उत्पत्ति तो अपनी ही उच्छृंखलता से होती है। अव्यवस्थित और विकृत आदतों का शिकार होकर ही मनुष्य बीमार पड़ता है। आमतौर से औषधि उपचार ही रोग निवारण के लिए प्रयुक्त होता है; पर ध्यान रखने योग्य बात यह है कि उसमें लाभ की मात्रा से कम हानि की मात्रा ही है।

मारक औषधियाँ घातक अस्त्र की तरह हैं जिनमें मारकाट मचाने की क्षमता तो है; पर इतनी बुद्धि नहीं है कि कुश्ती लड़ रहे पहलवानों में से एक को बचाने दूसरे को गिराने की भूमिका निभा सकें। उनके लिए मित्र शत्रु का अन्तर करना सम्भव नहीं। आग लगती है तो उपयोगी, अनुपयोगी दोनों को ही जलाती है। शरीर में रोग के कीटाणु किसी एक जगह इकट्ठे बैठे नहीं रहते जहाँ हमला करके उन्हें मार गिराया जा सके, स्वस्थ रक्त कण उन विषाणुओं से गुत्थम गुत्थी करने में जुटे होते हैं। ऐसा कोई उपाय अभी तक नहीं ढूँढ़ा जा सका जो मात्र विषाणुओं को तो मारे पर स्वस्थ संरक्षकों को बचा ले। औषधियाँ पाचन तन्त्र से होकर रक्त में पहुँचती हैं अथवा सुई लगाकर सीधी रक्त में प्रवेश कराई जाती हैं। हर हालत में रक्त में भी ऐसी विषाक्तता का समावेश करना पड़ता है जो रोग कीटाणुओं का संहार कर सके। स्पष्ट है कि इस मरण अनुष्ठान का प्रभाव आक्रमण और संरक्षक दोनों ही पक्षों पर समान रूप से पड़ता है। दोनों की ही हानि समान रूप से होती है। ऐसी दशा में शत्रुनाश के सौभाग्य के साथ साथ मित्रनाश की क्षति भी उठानी पड़ती है। संरक्षण तत्व घट जाने से शरीर की निरोधक सामर्थ्य घट जाती है फिर पुराने शत्रुओं को उभरने और नये को घुस पड़ने के लिए खाली मैदान हाथ लगता है और वे फिर अधिक निश्चिन्तता पूर्वक अपनी विनाश लीला रचते रहते हैं। यहाँ इतना अवश्य होता है कि कम स्वस्थ विजातीय तत्वों को मार भगाने का जो प्रबल प्रयत्न करते थे और जिसकी अनुभूति तीव्र रोगों के रूप में होती थी वह नहीं होती। निरोग से असमर्थ शरीर रोगों के आक्रमण का मन्द प्रतिरोध करता है अस्तु जीर्ण रोगी ऐसे ही कुलमुलाते रहते हैं जोर से रोते चिल्लाते नहीं। किन्तु इससे क्या, जीवनी शक्ति घट जाने से क्रियाशीलता तो नाम मात्र को ही रह जाती है। थका हारा, क्षत विक्षत शरीर किसी प्रकार मरण के दिन पूरे करता है उसमें पुरुषार्थ की क्षमता ही नहीं रहती है। ऐसे लोग पूरी जिन्दगी भी नहीं जी पाते उन्हें अकाल मृत्यु से मरना पड़ता है।

पूरी या अधूरी तरह संज्ञा शून्य करने वाली दवाओं के नाम रूप बढ़ते जाते हैं। इसके लिए अनेकों रसायन ढूँढ़ लिये गये हैं। अब अकेली अफीम ही इस कार्य को पूरा नहीं करती उसकी अनेकों सहेलियाँ मैदान में आ गई हैं जो उसका हाथ बँटाती और बोझ हलका करती हैं। ‘एस्प्रीन’ प्रसिद्ध दवा है जो सिर दर्द को राहत पहुँचाती है। अफीम के सत्व की सुइयाँ लगाकर अभी भी वेदना की अनुभूति को रोक दिया जाता है। निद्रा लाने वाले रसायन भी लगभग यही करते हैं। इस उपचार से रोगी का चिल्लाना तो दूर हो जाता है; पर रोग की विनाश लीला में कोई अन्तर नहीं पड़ता। पीड़ा में जहाँ कष्ट होता है वहाँ एक लाभ भी है कि उससे निवारक संघर्ष तीव्र होता है और रोग की निवृत्ति में भारी सहायता मिलती है। कष्ट की अनुभूति घट जाने से उस मोर्चे पर युद्ध सैनिक भेजने और विकृति को परास्त करने की चिन्ता से मस्तिष्क को छुट्टी मिल जाती है। फलतः रोगों को अपनी जड़ जमाने का अधिक अच्छा अवसर मिल जाता है। इस प्रकार शामक औषधियों से वेदना निग्रह में जितनी राहत मिलती है उतनी ही यह कठिनाई भी बढ़ती है कि प्रकृति का निरोधक संघर्ष शिथिल पड़ जाने से बीमारियाँ अपना अड्डा जमा कर बैठ जाने में सफल हो जाती हैं।

आपत्तिकालीन सुरक्षा के लिए औषधि ली जा सकती है। उन्हें न छूने जैसा दुराग्रह करने की आवश्यकता नहीं है। ध्यान रखने की बात इतनी ही है, मूल समस्या स्वास्थ्य रक्षा के नियमों-उपनियमों का पालन करने की है। उस ओर ध्यान न दिया गया तो औषधि उपचार का लाभ जादू का तमाशा देखने जैसी खिलवाड़ बनकर ही रह जाएगा । मूल समस्या का चिरस्थायी समाधान उतने भर से हो नहीं सकेगा। प्रकृति का अनुसरण करने और आहार विहार के नियमों का कठोरतापूर्वक पालन करने से ही निरोग जीवन जी सकना सम्भव हो सकता है।

स्वास्थ्य संवर्द्धन के लिए टॉनिकों का- पौष्टिक आहारों का- आसरा तकने से काम नहीं चलेगा। यदि उनके सहारे बलिष्ठता सम्भव रही होती तो साधन सम्पन्न लोगों में से एक भी कमजोर दिखाई न पड़ता; वे पैसा खर्च करके प्रचुर परिमाण में पुष्टाई खरीद लिया करते। तब संसार में एक भी धनवान् व्यक्ति दुर्बल दिखाई न पड़ता। इसी प्रकार यदि औषधि उपचार से रोग निवृत्ति सम्भव रही होती तो कम से कम चिकित्सा व्यवसायी और औषधि निर्माता तो बीमार नहीं ही दिखाई पड़ते। वे दूसरों की तो उपेक्षा भी कर सकते थे पर अपनी एवं अपने स्वजनों की रुग्णता क्यों सहन करते। अपने लिए तो अच्छी औषधियाँ बना ही सकते थे और निदान उपचार के सहारे अपने घर से तो बीमारियों को निकाल बाहर कर ही सकते थे पर ऐसा होता कहाँ हैं। सच तो यह है कि चिकित्सकों के घरों में बीमारियाँ सामान्य लोगों की तुलना में कम नहीं कुछ अधिक मात्रा में ही घुसी रहती हैं। दूसरे लोगों को औषधियों पर जितना अविश्वास होता है, डाक्टरों के घरों में उससे कम नहीं अधिक ही अविश्वास पाया जाता है। सामान्य लोग तो औषधियों के स्वाद एवं पैसा खर्च होने के कारण भी उन्हें खाने से आना कानी करते होंगे, पर चिकित्सकों के घर वाले जानते हैं कि मुद्दतों से जेब खाली करते रहने वाले और आये दिन दवाखाने पर खड़े रहने वाले रोगी जब इन औषधियों से कुछ राहत नहीं पा सके तो हमें ही उनसे क्या कुछ मिलने वाला है। इस अविश्वास के कारण ही उन घरों में दवा दारु खाने के सम्बन्ध में उपेक्षा बरती जाती रहती है।

यदि बीमारियाँ सचमुच ही कष्टकारक लगती हों- उनके कारण होने वाली आर्थिक तथा दूसरे प्रकार की हानियाँ अखरती हों और उनसे पीछा छुड़ाना यदि वास्तविक रूप से अभीष्ट हो तो कारण और निवारण पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने की आवश्यकता होगी और यह देखना होगा कि अस्वस्थता के विषवृक्ष की जड़ें कहाँ हैं। पत्ते तोड़ने से नहीं जड़ काटने से ही स्थायी निराकरण सम्भव हो सकेगा।

इलिच का कथन है- तथाकथित गुणकारी औषधियों का एक हानिकारक पक्ष भी है जिसे प्रकट नहीं किया जाता और गुण ही गुण गाये जाते रहते हैं। दोष अपना काम करते हैं। जहाँ गुण पक्ष से यत्किञ्चित् लाभ होता है वहाँ उसके विषाक्त प्रभाव से होने वाली हानि उतनी बड़ी होती है कि तुलना करने पर औषधि सेवन का लाभ कम और घाटा अधिक रहता है। बहुप्रचलित ‘पेन्सलीन’ के साथ एनर्जी उत्पन्न करने वाले तत्वों पर भी ध्यान दिया जा सके तो उसे प्रयोग करने से पूर्व सौ बार विचार करने और हर कदम फूँक फूँक कर धरने की आवश्यकता पड़ेगी, कुछ समय पूर्व वेदना हीन प्रसव के लिए थियेल्डो-पादट नामक औषधि ने विश्व व्यापी ख्याति कुछ ही समय में प्राप्त कर ली थी । किन्तु जब उसके प्रभाव से विकलांग बच्चे उत्पन्न होने की बाढ़ आई तो उसके निमार्ण एवं प्रयोग पर कानूनी प्रतिबन्ध लगाये गये । इसी प्रकार एक अन्य औषधि क्लोरम फेनिकोल को भी निषिद्ध घोषित किया गया था। सौन्दर्य प्रसाधनों में प्रयुक्त होने वाली ‘हैक्सा क्लोरो फैन’ के कारण उत्पन्न होने वाली हानियाँ सामने आई तो सुन्दरता और कोमलता के नाम पर प्रयुक्त होने वाली इस दवा पर रोक लगाई गई।

रोग मारने वाली दवाओं की बाज़ार में भरमार है। इन के गुणगान तो बहुत किये जाते हैं, पर यह नहीं बताया जाता कि इनके कारण शरीर की प्रकृति प्रदत्त रोग निरोधक शक्ति घटती है और विषाणुओं में मारक औषधि पचाने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। डी0 डी0 टी0 का प्रमाण सामने है। आरम्भ में तो उसके प्रयोग से मच्छर मरे थे। किन्तु जो बच रहे उनने ऐसी पीढ़ियाँ उत्पन्न कर लीं जिन पर डी0डी0टी0 का असर नहीं होता और वे उसे खुराक की तरह पचाते हैं। मलेरिया के फिर वापिस लौटने पर सर्वत्र यह चिन्ता संव्याप्त है कि कहीं चेचक भी फिर से वापिस न लौट पड़े। इसी प्रकार अन्य मारक औषधियों के अन्धाधुन्ध प्रचलन की समीक्षा करते हुए ’न्यू साइन्टिस्ट’ पत्रिका के एक लेख में आशंका प्रकट की गई है कि कहीं ऐसा न हो कि बीमारियों से लड़ने वाले उपचारों का तरकस ही खाली हो जाय और आज की उत्साहवर्धक मारक औषधियाँ भविष्य में निरर्थक सिद्ध होने लगें।

रोग का होना यह प्रकट करता है कि शरीर में विजातीय द्रव्य भर गया है और उसके विरुद्ध जीवनी शक्ति ने खुली लड़ाई आरम्भ कर दी है, साथ ही यह भी जानकारी मिलती है कि आहार विहार में घुस पड़ी विकृतियाँ शरीर के ढाँचे की तोड़ फोड़ कर रहीं हैं। इस स्थिति के निराकरण के ऐसे सौम्य उपाय होने चाहिए जिसमें जीवनी शक्ति बढ़े और विषाणुओं को मिलने वाला परिपोषण बन्द हो गया। इसके लिए संचित मल के निष्कासन एवं अवयवों को विश्राम देने वाले उपाय अपनाये जाने चाहिए। उस ओर उपेक्षा रखी जाय और रोग के ऊपरी लक्षण कष्ट को दबाया जाय तो इससे कुछ स्थायी समाधान न निकलेगा। बाढ़ का पानी मेंड़ के एक रास्ते न सही दूसरे रास्ते वह निकलेगा। एक बीमारी अच्छे होते होते दूसरी नई व्याधियाँ उठ खड़ी होती हैं। इससे प्रकट होता है कि मात्र ऊपर से ही लीपा पोती हुई है विभीषिका का अस्तित्व अपने स्थान पर यथावत मौजूद है।

रोगों की उत्पत्ति कई कारणों की मिली जुली प्रतिक्रिया है। वर्तमान रोगों में से अधिकाँश को साइको सोमेटिक-आधि व्याधि का सम्मिश्रण कह सकते हैं, उनमें शारीरिक और मानसिक दोनों ही विकृतियाँ जुड़ी रहती हैं। उनमें सामाजिक एवं आर्थिक दबाव भी सम्मिलित रहते हैं। परिवार की उलझनों और समस्याओं पर सोचने की शैली भी आन्तरिक सन्तुलन को बिगाड़ती है और उस गड़बड़ी का परिणाम कई प्रकार की चित्र विचित्र बीमारियों में दृष्टिगोचर होता है। प्राचीन काल के रोग निर्धारण, निदान विज्ञान में-बीमारियों के जो लक्षण बताये गये हैं अब उनसे भिन्न प्रकार के रोग दृष्टिगोचर होते हैं। डाक्टर इन्हें कई रोगों का सम्मिश्रण कहकर अपना समाधान कर लेते हैं। किन्तु वास्तविकता यह होती है कि शारीरिक विकृतियों के साथ साथ मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक परिस्थितियों में विषमताएँ घुस पड़ने के कारण उन्हें ‘सर्व विकृति सन्निपात’ नाम दिया जा सकता है। उन विचित्र रोगों का इलाज मात्र औषधियों से नहीं हो सकता वरन् उसके लिए मानसिक सहानुभूति, आशा, उत्साह, विश्वास, साहस आदि उभारने से लेकर अन्यान्य समस्याओं के स्थायी अथवा काम चलाऊ समाधान खोजने होंगे। आज जिस प्रकार मलमूत्र रक्त आदि के परीक्षणों को महत्व दिया जाता है उसी प्रकार रोगी की मनःस्थिति एवं परिस्थिति जानने और उसका बहुमुखी समाधान खोजने की आवश्यकता पड़ेगी। यह समाधान जिस हद तक सम्भव हो सकेंगे, रोगी की व्यथा उसी अनुपात से हल्की होती चली जायगी।

जीने का आनन्द और लाभ तब है जब हम वर्तमान में जियें। अनेकों लोग भूत जीवन जीते हैं और डरावने भूत पर सवारी करके ऐसी दुनिया में रहते हैं जिसका अस्तित्व बहुत पहले समाप्त हो गया और अब भविष्य के पंखों पर सवार होकर परलोक में उड़ते रहते हैं। भूतपूर्व एम॰ पी- भूतपूर्व नगर पालिका अध्यक्ष-भूतपूर्व सेशन जज आदि शब्द, लोग अपने परिचय पत्रों पर छपाते रहते हैं और यशगाथा के रूप में भूतकालीन परिस्थितियों एवं सफलताओं की चर्चा करते रहते हैं। कितनों को अपने भूतकाल के प्रसंगों का वर्णन करने की ललक रह-रह कर उठती रहती है। वे उनके मीठे कड़ुए अनुभवों की स्मृतियाँ उभारते हैं। वे यह नहीं सोचते कि इन स्मृतियों के साथ उलझने में अब कोई उपयोगी व्यवस्थाएँ करने और समस्याओं को सुलझाने का प्रयोजन पूरा हो सकता है।

भविष्य में क्या सफलताएँ पाकर क्या-क्या आनन्द उठाया जायेगा इसके कितने ही सुन्दर सपने कई व्यक्ति इतने गहरे गाँठ लेते हैं कि वे यथार्थ जैसे लगते हैं। शेख चिल्ली की कहानी बहुश्रुत है जिसमें तेल ढोने की मजदूरी मिलने से पहले ही उससे मुर्गी, बकरी, बीबी, बच्चे प्राप्त होने के इतना गहरा सपना गाँठ लिया था जिसमें तन्मय होकर वह सिर पर रखे घड़े को ही गवा बैठा और मालिक द्वारा प्रताड़ना सहता फिरा, भविष्य में क्या बना जा सकता है इसका कोई निश्चय नहीं। प्रयत्न करने पर भी परिस्थितियाँ वैसी ही बने जैसा चाहा गया है इसकी कोई गारन्टी नहीं। डाक्टर बनने का सपना देखते रहने वाले छात्रों में से कितने ही सपना पूरा नहीं कर पाते और साधारण क्लर्क रहकर किसी प्रकार गुजारा करते हैं। चाहना ही सब कुछ नहीं है- हर प्रयत्न मन चाही सफलता देगा ही, इसका कोई निश्चय नहीं। परिस्थिति कहीं से कहीं मोड़ ले सकती है और जो सोचा गया था, उससे सर्वथा पृथक जीवन यापन करना पड़ सकता है। सोचना एक बात है और पाना दूसरी। ऐसी दशा में अवास्तविकताओं के स्वप्नलोकों में उड़ते फिरने से किसी का क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ?

वर्तमान का ही महत्व है। भूत के अनुभवों का इतना ही लाभ है कि जो सीखा है उससे वर्तमान को सुव्यवस्थित बनाने में उपयोग किया जाय। भविष्य चिन्तन की उपयोगिता इतनी ही है कि उसके आधार पर वर्तमान की गतिविधियों को सुनियोजित किया जाय। भूत या भविष्य में उलझे रहने वाले मस्तिष्क को वर्तमान पर समुचित ध्यान देना कठिन हो जाता है। कल्पनाएँ भावुकताएँ इस सीमा तक बढ़ जाती है कि चिन्तन को वर्तमान पर केन्द्रित कर सकना ठीक तरह बन ही नहीं पड़ता।

हमें वर्तमान में जीना चाहिए। उसी को ठीक तरह संजोने और संभालने में दत्त चित्त रहना चाहिए। आगे और पीछे की बातें सोचने में हर्ज नहीं, पर उनकी मर्यादा उतनी ही रहनी चाहिए जो वर्तमान से तालमेल खाती है। आज जो सम्भव है उसी को अधिक अच्छा बनाने का प्रयत्न करें। उसी पर अपनी बुद्धिमत्ता और जागरूकता केन्द्रित करें। तत्परता और तन्मयता जैसे सद्गुणों का अभ्यास करने के लिए यही उचित है कि वर्तमान को त्रुटि विहीन बनायें और उसे इतना अधिक परिष्कृत करें कि उसमें अविवेकपूर्ण ढर्रों का नहीं, जागरूक कलाकारिता का दर्शन होने लगे।

जो भूत के साथ गुँथा हुआ है वह श्मशान का निवासी है। हारे हुए और वृद्ध मनोभूमि के लोग भूत की रंग-बिरंगी तस्वीरें बनाते हुए मन बहलाते हैं। बच्चों के लिए वर्तमान समझने और उसे पकड़ने की क्षमता नहीं होती। इसलिए कल्पनालोक ही उनके लिए आकर्षक होता है। कल्पनाएँ गढ़ने में भावुकता ही पर्याप्त है। मस्तिष्क की उर्वरता तद्नुरूप चित्र गढ़ देती है और अभीष्ट परिस्थितियाँ क्षण भर में चित्रलोक में बन कर खड़ी हो जातीं हैं। बालकों के लिए यह स्वपन् सृजन सरल पड़ता है और वे इतने से ही सन्तुष्ट भी हो जाते हैं, किन्तु वर्तमान को विनिर्मित करने के लिए प्रौढ़ परिपक्वता चाहिए। उसमें तर्कों और तथ्यों का आश्रय लेना पड़ता है और परिस्थितियों, साधनों तथा योग्यताओं को ध्यान में रखते हुए उतना ही अपनाना पड़ता है जिसे आज कर सकना सम्भव है। मात्र निर्णय से भी काम नहीं चलता। निरन्तर सुधार का प्रयास करना होता है। कृतियों में कलात्मकता का समावेश करने की आवश्यकता पड़ती है और उसके लिए संकल्प शक्ति से लेकर नियमितता, श्रमशीलता, तत्परता जैसे सद्गुणों का समावेश करना होता है। बाल चंचलता बार बार नित नये स्वाद चखने के लिए मचलती है और कुछ समय पहले आरम्भ किये गये काम को अधूरा छोड़ कर नया पकड़ने के लिए लपकती है। इन बाल वृत्तियों से निपटना पड़ता है। आलस्य और प्रमाद से पग पग पर जूझना पड़ता है। अधूरे चिन्तन और अधूरे श्रम से हर काम अधूरा और कुरूप रहता है। असफलताएँ प्रायः इस अधूरेपन की ही प्रतिक्रियाएँ होती हैं। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, प्रौढ़ मनःस्थिति का व्यक्ति अपनी समूची जागरूकता और क्रियाशीलता वर्तमान के निरूपण में-नियोजन में केन्द्रित करता है। इससे अंतःक्षेत्र में आत्मशक्ति बढ़ने का और बाह्य क्षेत्र में श्रेय साधन उपलब्ध करने का सुअवसर मिलता है। जे0 कृष्णामूर्ति ठीक ही कहते हैं- जो वर्तमान में जीवित है वही जीवित है अन्य तो अज्ञान में भटकते हैं।”

वर्तमान को तुच्छ न समझा जाय। तो उपलब्ध है उसे अधिक उत्कृष्ट बनाने पर ध्यान केन्द्रित किया जाय। भविष्य को अधिक अच्छा बनाने के लिए इससे अच्छा और कोई उपाय हो ही नहीं सकता।

कहानी है कि एक मजदूर पहाड़ पर बैठा पत्थर काट रहा था। उसने अधिक अच्छी स्थिति में पहुँचने, अधिक समर्थ बनने की सोची। उस पर्वत पर एक देवी रहती है जो माँगता उसकी इच्छा पूरी करती है। सो मजदूर ने सोचा उसी से वरदान मांगूंगा और अधिक समर्थ बनूँगा। अब प्रश्न था कि क्या वरदान माँगा जाय और क्या बना जाय?

मजदूर के मन में आया राजा बना जाय, इतने में दूसरी कल्पना उठी, राजा का राज्य छोटा होता है। सूर्य का यश सर्वत्र है तो सूर्य बनना ठीक रहेगा। इतने में नया विचार यह आया सूर्य को तो बादल ही अपने अंचल में छिपा लेते हैं इस तरह बादल बड़े हुए। जब बड़ा बनना है तो सबसे बड़ा क्यों न बना जाय। सूर्य से तो बादल बनना ही अधिक उत्तम है। पूरी तरह निश्चय हो भी नहीं पाया था कि एक नई सूझ उपजी कि पवन अधिक बलिष्ठ है वह बादलों को बात की बात में उड़ा ले जाता है। इसलिए पवन बनना चाहिए। किन्तु पवन से भी अधिक बलवान पर्वत होते हैं। वे अपनी दृढ़ता और ऊँचाई के कारण हवा को भी रोक देते हैं इसलिए पर्वत बनना अधिक बड़प्पन का चिन्ह माना जाएगा । इतना सोच चुकने के बाद उसके मन में आया कि पर्वत को तो एक मजदूर ही काटकर धराशायी बना देता है फिर मजदूर रहना ही क्या कम बड़प्पन का काम है जो उसे छोड़ कर और कुछ बनने की बात सोचूँ।

देवी से बड़प्पन की स्थिति का वरदान माँगने के लिए जाते समय मजदूर के मन में यह विचार उठते रहे कि अधिक से अधिक ऊँची स्थिति पर पहुँचने की याचना करनी चाहिए। अधिक ऊँची स्थिति क्या हो सकती है उसी की कल्पना में जो विचार उठते गये उनमें से अन्तिम विचार यही अधिक उपयुक्त जँचा कि अपनी जो आज की स्थिति है उसे कम महत्व न दिया जाय उसी को अधिक परिष्कृत एवं कलात्मक बनाने का प्रयास किया जाय। इस निर्णय के उपरांत वह देवी के मठ से इच्छा त्याग कर वापिस लौट पड़ा और मनोयोग पूर्वक अपना पत्थर काटने का काम फिर नये उत्साह और नई सूझ बूझ के साथ करने में जुट गया।

यही है वर्तमान का महत्व समझना और सामने प्रस्तुत कार्य को परिपूर्ण सम्मान देना। जो हाथ में है उसी को समग्र तन्मयता से करने का प्रयत्न किया जाय और उसे अधिक उत्कृष्ट बनाने के लिए प्रयत्नशील रहा जाय तो उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ स्वयमेव साकार होती चली जायगी ।

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