
इसे खरीदेगा कौन?
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सम्राट सर्वमित्र अपने वैभव के लिए समस्त विश्व में विख्यात थे और बोधिसत्व अपनी तप, साधना, त्याग, उदारता, विनम्रता और क्षमाशीलता के लिए। उनके आत्मिक गुणों के कारण प्रजा जितना सम्मान उनका करती थी उतना अपने शासक सर्वमित्र का भी नहीं। यह बात सर्वमित्र को बहुत खटकती थी। वे अपने आप को कहीं अधिक उपयोगी मानते और बोधिसत्व की निन्दा करते रहते।
यह बात प्रधानमंत्री सुहास को काँटे की तरह चुभती थी। वह कहा करते " सन्त राष्ट्र की आत्मा होते हैं, उसे पथ भ्रष्ट होने से बचाते हैं, जनजीवन को रचनात्मक प्रेरणायें और मार्गदर्शन देकर उसे शान्ति, स्थिरता और कर्मठता प्रदान करते हैं।" जिस समाज में यह गुण नहीं होते. उसका पराक्रम पुरुषार्थ नष्ट हो जाता है। तब पोषण और प्रगति के सभी द्वार बन्द हो जाते हैं अतएव सन्त और ब्राह्मण राष्ट्र के प्रहरी कहलाते हैं, इस दृष्टि से वे सम्मान के पात्र हैं। राजा सर्वमित्र यह उपदेश बिल्कुल पसन्द न करते।
कहावत है– “दंभ' व्यक्ति के पतन का मूल कारण है।" दंभी व्यक्ति अनेक बुराइयों में फँसता चला जाता है। सर्वमित्र के साथ भी यही हुआ। कुछ दिन पीछे वे सुरापान के जाल में फँस गये। यथा राजा तथा प्रजा प्रारम्भ में शासन के प्रमुख अधिकारियों ने साथ दिया पीछे तो वह एक प्रथा –परम्परा बन गई। कोई भी पर्व कोई भी उत्सव वारुणी के अभाव में अपूर्ण माना जाने लगा। शासक - शासित सभी एक ही तन्द्रा में डूब गये। फलस्वरूप उत्पादन, जन स्वास्थ्य, शासकीय और सामाजिक व्यवस्थायें लड़खड़ाने लगीं। अर्थ- तन्त्र इस तरह लड़खड़ाया कि देश के पराधीन होने तक की स्थिति आ गई।
इस तथ्य को हर विचारशील अनुभव करता, पर सर्वमित्र को सुधारने और सावधान करने का साहस किसी में नहीं था। महात्मा बोधिसत्व ने यह सुना और देखा, तो उनका अन्तःकरण उद्दीप्त हो उठा, उन्होंने अपने शिष्यों को जन-चेतना जागृत करने का काम सौंपा और स्वयं एकाकी ही राजधानी की ओर चल पड़े। प्रधान मंत्री ने यह समाचार सुना तो इस आशंका से कि धृष्ट सम्राट कुछ अनुचित न कर बैठे " उन्होंने बोधिसत्व को रोकने का बहुतेरा प्रयत्न किया किन्तु, वे न माने | उन्होंने कहा- राज्यभय से भयभीत होकर समाज को दिशा देने की परम्पराए वहाँ लुप्त होती हैं, जहाँ जागृत आत्माओं का अभाव होता है। देश भी हमारा शरीर है; उसमें हमारे प्राण बसते हैं। हम उसे कलुषित होने दें, तो यह किसी एक व्यक्ति को नहीं हम सब के लिए पाप है।
दूसरे क्षण वे दरबार में उपस्थित थे। द्वारपाल ने उन्हें मंत्रिपीठ सहित आसीन शासनाध्यक्ष के समक्ष प्रस्तुत किया। बोधिसत्व ने कहा–राजन् मैं इस देश का नागरिक हूँ- व्यापारी हूँ- मेरे हाथ में आप यह जो पात्र देख रहे हैं, इसे जहाँ भी गया, किसी ने क्रय नहीं किया | यह जिसके पास जायेगा ,उसका पतन सुनिश्चित है| उसकी और पशु की आत्मा में कोई अन्तर नहीं रह जाता, वह दुष्ट और दुराचारी होकर स्वयं तो भ्रष्ट होता ही है; अपने आश्रितों को भी नष्ट- भ्रष्ट करता है| बोलिये! आप इसे खरीदेंगे ? उस तेजस्वी आकृति को पहचानना सम्राट को कठिन हो रहा था, तो भी उनने दृढ़ता से कहा- महात्मन् ! तुम्हीं बताओ भला ऐसी खराब वस्तु का व्यापार कौन करेगा ,कौन खरीदेगा इसे?
निर्भीक सन्त ने कहा- राजन्! इसे आप खरीदते हैं, प्रतिदिन, औरों को भी बाँटते हैं। यह कहकर उन्होंने सुरा पात्र वहीं लुढ़का दिया। राजदरबार दुर्गन्धि से भर गया किन्तु सर्वमित्र की आंखें खुल गई। वे महात्मा के चरणों में गिर पड़े और फिर कभी सुरापान न करने की सौगन्ध खायी।
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