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Magazine - Year 1978 - Version 2

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सूर्य सेवन हमारे लिये परम उपयोगी

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                                                                   सूर्य  सेवन हमारे लिये परम  उपयोगी

     महर्षि चरक का कथन है-”आरोग्यं भास्करादिच्छेत् ” अर्थात् आरोग्य की कामना सूर्य भगवान की सहायता से पूरी करें। इस उक्ति में कितना अधिक तथ्य है ; अब विज्ञान के शोध - निष्कर्ष दिन-दिन अधिक स्पष्ट और प्रामाणिक सिद्ध करते चले जा रहे हैं।  किसी समय सूर्य को रोशनी और गर्मी देने वाला एक अग्नि - पिण्ड मात्र माना जाता था। अतिप्राचीनकाल में वह कोई चमत्कारी देवता था और पूजा- उपासना करने वालों को प्रसन्न होकर वरदान देने वाला समझा जाता था। अब गहन अन्वेषण ने उसे पृथ्वी की जड़ -चेतना- सत्ता में विविध-विधि -स्पन्दन उत्पन्न करने वाला शक्ति - स्रोत माना जाता है और स्वीकार किया जाता है कि धरती पर जितना कुछ जीवन- तत्व है, जितनी भी हलचलें हैं, उसका उद्गम केन्द्र सूर्य सत्ता में ही सन्निहित है।

   ताप और प्रकाश तो सूर्य के स्थूल अनुदान हैं ; वस्तुतः उसकी ऊर्जा ‘तेजस्’ रूप है ; जिसे विज्ञान की भाषा में ‘सोलर एनर्जी’ कहते हैं। यही प्राणियों की ‘विटल ऐनर्जी’ है। उसका प्रभाव रेडियो एक्टिविटी के रूप में पहचाना जाने लगा है; और समझा जाने लगा है कि विभिन्न शक्तियों की उपलब्धियाँ इसी केन्द्र से होती हैं। प्रगति के लिए जिन शक्ति- अनुदानों की आवश्यकता पड़ेगी, उन्हें सविता देवता के भण्डार से ही उपलब्ध करना पड़ेगा।

    भारतीय तत्वदर्शियों ने सूर्य को सहस्र किरण वाला माना है और उनकी प्रधान एवं सुपरिचित किरणों को ‘सात रश्मि’ कहा है।

रवे रश्मि सहस्रं यत् परांड़.मया समुदाहृतम्।

तेषां श्रेष्ठाः पुनः सप्त रश्मियो गृह योन यः॥

  -वायु पुराण

    अर्थात् सूर्य की सहस्र रश्मियाँ हैं, उनमें से सात प्रधान हैं। ऋग्वेद 10।139।9 कौशीतकी ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में भी सात रश्मियों का वर्णन है। उनके नाम (1) सुषुम्णः (2) हरिकेशः (3) विश्वकर्मा (4) संपहसु (5) अर्वावसु (6) विश्वश्रवः (7) स्वराट् गिनाये गये हैं। उन नामों में उन विशेषताओं एवं शक्तियों का संकेत है , जो भौतिक जगत में प्रगति का और आत्मिक जगत में ब्रह्मतेजस् का पथ प्रशस्त करती है। सात रंगों के रूप में हम उनका प्रत्यक्ष परिचय चर्मचक्षुओं से भी प्राप्त करते हैं।

   इंग्लैण्ड की शरीर विज्ञानी " श्रीमती हैरियट चिक" ने बताया है कि सूर्य धूप का सेवन मनुष्यों के लिए अन्न तथा दूध की तरह ही उपयोगी है। उनने रोगी और दुर्बलों को प्रातःकालीन धूप को नंगे बदन पर पड़ने देने की सलाह दी है ; और जिनने उस प्रयोग को नियमित रूप से चलाया है, उन्हें आशातीत लाभ भी हुआ है।

       जो बाबू लोग बन्द दफ्तरों में बैठे रहते हैं,- जो श्रमिक अंधेरे कारखानों में काम करते हैं,- स्त्रियाँ जिन्हें घरों में कैद खाने में ही जिन्दगी गुजारनी पड़ती है ;धूप से वंचित रहने के कारण ही दुर्बल रहते हैं और आये दिन बीमारियों का शिकार बनते रहते हैं। यदि उन्हें खुली धूप में रहने का अवसर मिला होता ,तो निश्चय ही अस्वस्थता की दयनीय दुर्दशा से बच सकते थे। छोटे घरों की बनावट में खुली धूप और खुली हवा जाने की आर-पार जाने वाली खिड़कियाँ ,छोड़ी गई होतीं तो सन्दूकनुमा बने बिजली के पंखों और बत्तियों के सहारे रहने योग्य बने हुए विशाल भवनों की अपेक्षा, वे कहीं अधिक स्वास्थ्यकर होते। जमीन के नीचे या ऊपर तहखानेनुमा घिरे हुए मकान बनाने की पद्धति भी उतनी ही दुर्भाग्यपूर्ण है, जितनी कि आटे और शाकों के छिलके फेंक देने की। सूर्य किरणों को दैनिक जीवन से जितनी दूर रखा जायेगा, अस्वस्थता हमें उतनी ही अधिक घेरेगी। सूर्य की खुली किरणों से जो जितना दूर रहेगा , उसी अनुपात से अविकसित और दुर्बल रहना पड़ेगा। छाया वाली जगहों में वनस्पतियाँ प्रायः उगती और बढ़ती ही नहीं। इसका कारण उनका सूर्य किरणों से वंचित रहना ही है। बड़े पेड़ों के नीचे छोटे पौधे उगते नहीं, उसका कारण केवल यही नहीं है कि पेड़ उन पौधों के खुराक खा जाते हैं ; वास्तविक कारण यह है कि उन्हें छाया ढके रहने के कारण धूप से वंचित रहना पड़ता है। बड़े पेड़ों की जड़ें गहरी होती हैं और वे अपनी खुराक गहराई में जाकर खींचती हैं ;जबकि छोटे पौधे या घास जमीन की ऊपरी उथली सतह पर ही अपनी जड़ें सीमित रखते हैं ;  इससे खुराक खींचने वाली बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी उनके विकसित न होने में सूर्य किरणों के प्राप्त न होने की कठिनाई।

     अनाज के पकने में, फलों के उत्पादन में, सूर्य किरणों का अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान रहता है। बीजों ,फलों और शाकों के ऊपरी छिलके में महत्वपूर्ण खनिज, क्षार विटामिन और प्रोटीन पाये जाते हैं | यह अनुदान उन्हें सीधे सूर्य किरणों के सम्पर्क से मिलता है। फलों की ऊपरी सतह सीधी सूर्य सम्पर्क में रहती है और गूदा भीतरी परतों में छिपा रहता है। इससे छिलके में सार तत्व अधिक और गूदे में न्यून मात्रा में रहना, क्यों होता है इसका रहस्य सहज ही समझा जा सकता है। छिलके में थोड़ा कड़ापन और कसैलापन देखकर लोग उसे फेंक देते हैं। आटे को छानकर भूसी फेंक देते हैं और शाक-भाजियों के दालों के छिलके उतार देते हैं जबकि इसी भाग में उनकी वास्तविक पौष्टिकता छिपी रहती है। पाक विद्या में घुसी हुई यह मूर्खता अत्यन्त ही दुर्भाग्यपूर्ण है।

     शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. सी डब्ल्यू सेलिली अपने अस्पताल में आने वाले रुग्ण बालकों के अभिभावकों को यह सलाह दिया करते थे कि वे बच्चों को आधा घन्टा सूर्य ताप का सेवन तो अवश्य ही कराया करें। यह औषधि उपचार से कम लाभदायक नहीं है।

   डॉक्टर वारिन ने अपने प्रयोगों से बताया कि किस प्रकार सूर्य किरणों का उपयोग करके शरीर में फास्फेट, कैल्शियम, लौह, आयोडीन, फास्फोरस उपयोगी खनिज एवं विटामिनों की पर्याप्त मात्रा बिना उस प्रकार का आहार लिये अथवा औषधि सेवन किये ही प्राप्त हो सकती है।

   मानवी स्वास्थ्य का सूर्य सेवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह तथ्य पूर्ण प्रतिपादन चिरकाल से स्वीकार किया जाता रहा है कि ‘जहाँ सूर्य किरणें पहुँचती हैं, वहाँ चिकित्सक के जाने की जरूरत नहीं पड़ती। “ सूर्य किरणों से इतनी शक्ति उपलब्ध की जा सकती है जो किसी भी पौष्टिक आहार की अपेक्षा अधिक बलपूर्वक सिद्ध हो और किसी भी कीटाणु नाशक औषधि की तुलना में रोगों के निवारण में अधिक उपयोगी सिद्ध हो। भारतीय तत्ववेत्ता इस रहस्यमयी क्षमता को ‘प्राण तत्व’ कहकर पुकारते रहे हैं और उसे शारीरिक ,मानसिक ही नहीं ,आध्यात्मिक प्रगति का भी आधार बताते रहे हैं। प्राण विद्या भारतीय अध्यात्म शास्त्र का एक अति महत्वपूर्ण अंग रहा है।

   अमेरिका के सुप्रसिद्ध डॉक्टर वैविट ने सूर्य किरण चिकित्सा पर दीर्घकालीन शोध तथा प्रयोग करके यह निष्कर्ष निकाला है कि यह चिकित्सा पद्धति संसार की अन्य किसी उपचार प्रक्रिया से कम लाभदायक नहीं है बल्कि वह अपनी सभी सहेलियों की तुलना में अधिक निर्दोष है। उसकी कोई ऐसी प्रतिक्रिया नहीं होती जिससे रोगी को नई व्यथाओं में फंस जाने को शिकायत करनी पड़े।

   डॉ. वेविड ने अपने प्रयोगों का विवरण अपने ‘हैल्थ मेनुअले ग्रन्थ’ में प्रकाशित किया है। उनकी एक पुस्तक- ‘प्रिंसपिल्स आफॅ लाइट एण्ड कलर’ भी बहुत प्रसिद्ध हुई। उनका एक और भी ग्रन्थ है - “ ह्मूमन कलेवर एण्ड क्योर” उसमें उन्होंने बताया है कि मनुष्य को जीवनी शक्ति सूर्य से प्राप्त होती है फिर वह रोग निवारण जैसा छोटा प्रयोजन उससे क्यों पूरा नहीं कर सकता।

     ऊर्जा विज्ञान के अध्येता विक्टर इनियुशिन ने कहा है हम सामान्य सूर्य किरणों के सीमित प्रभाव से ही परिचित है; यदि उनमें से छान कर रंगीन किरणों का भी उपयोग करना जाने , तो उससे कितने ही महत्वपूर्ण अतिरिक्त लाभ उठाये जा सकते हैं।  नोबेल पुरस्कार प्राप्तकर्ता जीव विज्ञानी 'अल्बर्ट जेन्ट जोजी' ने प्राणियों की त्वचा के रंग द्वारा सोखी जाने वाली विभिन्न स्तर की सूर्य किरणों का उल्लेख किया है और बताया है कि उनकी विशेषताएं किस प्रकार इस रंग विज्ञान के आधार पर सूर्य देवता द्वारा अनुदान से मिलती है। इसी स्थापना को उसके अनुवर्ती विक्टर इनियुशिन ने अधिक खोजबीन करके क्यूलर बायोलॉजी के रूप में सुव्यवस्थित किया था।

     सूर्य की सात किरणों के अपने-अपने गुण एवं प्रभाव हैं। लाल, नीला और पीला। इन्हीं के सम्मिश्रण से अन्य रंग बनते हैं। सूर्य किरणों पर भी यह बात लागू होती है। सप्त किरणों का उद्गम इन विविध रंग प्रवाहों को भी ठहराया जा सकता है। सूर्य किरण चिकित्सा में प्रधान तथा इन तीन रंगों से और आवश्यकतानुसार उनके सम्मिश्रण से रुग्ण अवयवों को प्रभावित करने का प्रयत्न किया जाता है। लाल रंग गर्मी एंव उतेजना उत्पन्न करता है |  इसके विपरीत नीला रंग शान्ति एवं शीतलता प्रदान करता है। पीले रंग को पाचक एवं शमन समाधान का एक कह सकते हैं। रोग के चिन्हों को देखकर यह समझा जा सकता है | कि सर्दी की अधिकता या गर्मी की अधिकता या गर्मी की अधिकता से रुग्ण अवयव को कष्ट सहना पड़ रहा है। अथवा अवरोध से विकृति से पीड़ा उत्पन्न हुई है। इसी निदान के आधार पर उपरोक्त तीनों रंगों में से किसी विशेष का प्रयोग करने का निश्चय करना पड़ता है। यदि इनमें से किन्हीं के सम्मिश्रण जैसे लक्षण मालूम पड़ते हैं, तो फिर उपचार के लिए मिश्रित रंगों का प्रयोग किया जाता है। सभी जानते हैं कि पीला-नीला मिलने से हरा, नीला-लाल बनने से नारंगी, नीला-लाल बनने से बैंगनी रंग बनता है। काला और सफेद रंग सूर्य किरण चिकित्सा में काम नहीं आता; अस्तु उपचारकर्ता उपरोक्त तीन प्रधान और तीन मिश्रित कुल छह रंगों का प्रयोग करते हैं। मिश्रण की मात्रा में न्यूनाधिकता लाने से तो फिर सैकड़ों हजारों रंग बन सकते हैं। किस रोग से भूल में किस-किस प्रकार की विकृतियों का समावेश है और उनके उपचार में किस रंग का कितना न्यूनाधिक मिश्रण किया जाय यह पूर्णतया चिकित्सक की सूझ-बूझ और दूरदर्शिता पर निर्भर रहता है। सही निर्णय पर पहुँचने के लिए कई परिवर्तन करने पड़ते हैं। निदान और उपचार यदि सही मिल जायें ,तो यह निर्णय सही हो कि किस रंग का प्रयोग किया जाना उपयुक्त है ,तो फिर रोग निवारण में सफलता मिलना बहुत ही सरल हो जाता है।

सविता देवता की भौतिक उपासना सूर्य सेवन से ,आध्यात्मिक उपासना 'तेजस्' का ध्यान करते हुए की जा सकती है। उसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर आशाजनक प्रभाव पड़ता है।

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