
मित्रता और उसका निर्वाह
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मित्रता और उसका निर्वाह *********
मित्र को जाने दो। उसकी विदाई पर शोक प्रकट न करो और न हीं उसकी सुखद यात्रा को अपने आँसुओं से दुःखद बनाओ। जिसके कारण तुम उसे प्रेम करते थे , वे कुछ विशेष गुण ही थे। जिनके कारण दूसरों की तुलना में वह अधिक भाया और सुहाया था, उन गुणों को अधिक अच्छी तरह समझने का अवसर तो वियोग के उपरान्त ही लगेगा। पर्वतारोही की अपेक्षा हिमाच्छादित गिरिश्रृखला का दर्शन लाभ वे अधिक अच्छी तरह ले सकते हैं ,जो किसी दूरवर्ती समतल क्षेत्र में खड़े होकर उस सौन्दर्य को निहारते हैं। समीपवर्ती मित्र की अपेक्षा दूरवर्ती अधिक श्रेष्ठ है क्योंकि एक रस और एकांगी प्रेम करना केवल उसी से सम्भव है ; निकटवर्ती तो निरन्तर उतार-चढ़ाव उत्पन्न करता रहता है। मैत्री मधुरता का उल्लास भरती है , रिक्तता की पूर्ति के लिए उसका उपयोग नहीं हो सकता। रिक्तता भरने के लिए जिनकी अपेक्षा की जाती है , वे भोग्य उपकरण हैं। उनकी आवश्यकता हो सकती है, पर मैत्री नहीं निभ सकती। मित्रता का आनन्द लेना हो, तो उपयोगिता की दृष्टि हटानी पड़ेगी और उस विशेषता को निहारना पड़ेगा ,जो सघन मित्रता का आधार बन सकती है | गुणों का स्पर्श आवश्यक नहीं, उनके चिन्तन से भी काम चल सकता है। मित्र की उपस्थिति की अपेक्षा मैत्री की उपस्थिति, कितनी अधिक सरस होती है , इसे कोई प्रेमी ही जानता है। ईश्वर से प्रेम करना इसीलिए सम्भव है कि वह हमसे दूर एवं अप्रत्यक्ष है। यदि वह शरीरधारी की तरह हमारे साथ रहता ,तो उसके साथ मैत्री नहीं हो पाती। उसकी अपेक्षा के अनुरूप हमारे आचरण और हमारी अपेक्षा के अनुरूप उसके आचरण बने रहना कठिन पड़ता। ऐसी दशा में किसी न किसी पक्ष का उभरता असंतोष मैत्री के आनन्द में गाँठ लगाता रहता। यह अच्छा ही है कि ईश्वर हमसे दूर है और उसके गुणों का चिन्तन करते हुए निर्बाध मैत्री सम्बन्ध बनाये रह सकना सम्भव हो सका। मैत्री अदृश्य है और व्यवहार दृश्य। मैत्री गुणों पर निर्भर है और व्यवहार उपयोगिता पर। कौन हमारे लिए कितना उपयोगी हो सकता है--कौन हमारी कितनी आवश्यकताएँ पूर्ण कर सकता है ,इस आधार पर जिससे भी मित्रता होगी वह उतनी ही उथली रहेगी और उतनी ही क्षणिक अस्थिर रहेगी। यदि किसी से आजीवन मैत्री निवाहनी हो तो उसका एक ही उपाय है। मित्र की गुणपरक विशेषताओं को ध्यान में रखे और यह सोचे कि यह सद्गुण परमेश्वर की परमज्योति के वे स्फुल्लिंग हैं, जो कभी भी बुझ नहीं सकते। जिनमें मलीनता नहीं आ सकती। मित्रता विशुद्ध आध्यात्मिक अनुभूति है, जो किसी में उच्च गुणों की स्थापना के आधार पर उदय होती है। जिसे निकृष्ट समझा जायेगा , उसकी कारणवश चापलूसी हो सकती है , पर श्रद्धाजन्य मैत्री का उदय नहीं हो सकता। श्रद्धा और मैत्री उत्कृष्टता के देवता की दो भुजाएँ हैं। यदि हम किसी से मैत्री करने से पूर्व इस तत्व को समझ लें ,कि अमुक सद्गुणों के आधार व्यक्ति विशेष से प्रेम करना है, तो समझना चाहिए कि उसके बदल जाने या दूर चले जाने से भी उस शाश्वत -आदत- प्रवाह में कोई अन्तर नहीं आवेगा जो यथार्थ मित्रता के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहता है। इसलिए तत्वदर्शी कहते हैं कि जाने वालों को जाने दो। उसे रोको मत , क्योंकि इससे मित्रता के निर्वाह में कोई अन्तर आने वाला नहीं है। ----***----
मित्र को जाने दो। उसकी विदाई पर शोक प्रकट न करो और न हीं उसकी सुखद यात्रा को अपने आँसुओं से दुःखद बनाओ। जिसके कारण तुम उसे प्रेम करते थे , वे कुछ विशेष गुण ही थे। जिनके कारण दूसरों की तुलना में वह अधिक भाया और सुहाया था, उन गुणों को अधिक अच्छी तरह समझने का अवसर तो वियोग के उपरान्त ही लगेगा। पर्वतारोही की अपेक्षा हिमाच्छादित गिरिश्रृखला का दर्शन लाभ वे अधिक अच्छी तरह ले सकते हैं ,जो किसी दूरवर्ती समतल क्षेत्र में खड़े होकर उस सौन्दर्य को निहारते हैं। समीपवर्ती मित्र की अपेक्षा दूरवर्ती अधिक श्रेष्ठ है क्योंकि एक रस और एकांगी प्रेम करना केवल उसी से सम्भव है ; निकटवर्ती तो निरन्तर उतार-चढ़ाव उत्पन्न करता रहता है। मैत्री मधुरता का उल्लास भरती है , रिक्तता की पूर्ति के लिए उसका उपयोग नहीं हो सकता। रिक्तता भरने के लिए जिनकी अपेक्षा की जाती है , वे भोग्य उपकरण हैं। उनकी आवश्यकता हो सकती है, पर मैत्री नहीं निभ सकती। मित्रता का आनन्द लेना हो, तो उपयोगिता की दृष्टि हटानी पड़ेगी और उस विशेषता को निहारना पड़ेगा ,जो सघन मित्रता का आधार बन सकती है | गुणों का स्पर्श आवश्यक नहीं, उनके चिन्तन से भी काम चल सकता है। मित्र की उपस्थिति की अपेक्षा मैत्री की उपस्थिति, कितनी अधिक सरस होती है , इसे कोई प्रेमी ही जानता है। ईश्वर से प्रेम करना इसीलिए सम्भव है कि वह हमसे दूर एवं अप्रत्यक्ष है। यदि वह शरीरधारी की तरह हमारे साथ रहता ,तो उसके साथ मैत्री नहीं हो पाती। उसकी अपेक्षा के अनुरूप हमारे आचरण और हमारी अपेक्षा के अनुरूप उसके आचरण बने रहना कठिन पड़ता। ऐसी दशा में किसी न किसी पक्ष का उभरता असंतोष मैत्री के आनन्द में गाँठ लगाता रहता। यह अच्छा ही है कि ईश्वर हमसे दूर है और उसके गुणों का चिन्तन करते हुए निर्बाध मैत्री सम्बन्ध बनाये रह सकना सम्भव हो सका। मैत्री अदृश्य है और व्यवहार दृश्य। मैत्री गुणों पर निर्भर है और व्यवहार उपयोगिता पर। कौन हमारे लिए कितना उपयोगी हो सकता है--कौन हमारी कितनी आवश्यकताएँ पूर्ण कर सकता है ,इस आधार पर जिससे भी मित्रता होगी वह उतनी ही उथली रहेगी और उतनी ही क्षणिक अस्थिर रहेगी। यदि किसी से आजीवन मैत्री निवाहनी हो तो उसका एक ही उपाय है। मित्र की गुणपरक विशेषताओं को ध्यान में रखे और यह सोचे कि यह सद्गुण परमेश्वर की परमज्योति के वे स्फुल्लिंग हैं, जो कभी भी बुझ नहीं सकते। जिनमें मलीनता नहीं आ सकती। मित्रता विशुद्ध आध्यात्मिक अनुभूति है, जो किसी में उच्च गुणों की स्थापना के आधार पर उदय होती है। जिसे निकृष्ट समझा जायेगा , उसकी कारणवश चापलूसी हो सकती है , पर श्रद्धाजन्य मैत्री का उदय नहीं हो सकता। श्रद्धा और मैत्री उत्कृष्टता के देवता की दो भुजाएँ हैं। यदि हम किसी से मैत्री करने से पूर्व इस तत्व को समझ लें ,कि अमुक सद्गुणों के आधार व्यक्ति विशेष से प्रेम करना है, तो समझना चाहिए कि उसके बदल जाने या दूर चले जाने से भी उस शाश्वत -आदत- प्रवाह में कोई अन्तर नहीं आवेगा जो यथार्थ मित्रता के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहता है। इसलिए तत्वदर्शी कहते हैं कि जाने वालों को जाने दो। उसे रोको मत , क्योंकि इससे मित्रता के निर्वाह में कोई अन्तर आने वाला नहीं है। ----***----